सत्याग्रह का अधिकार किसको है?
राजकिशोर
किसी भी अच्छे शब्द को नष्ट करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसे किसी खास रूढ़ि के साथ जोड़ दिया जाए। अच्छाई सर्वकालिक और सार्वभौमिक होती है -- अगर वह वास्तव में अच्छाई है। रूढ़ि देश-काल से बंधी होती है। रुढ़ि के साथ बंधते ही यद्यपि अच्छाई को तुरंत पहचान लेना और याद रखना आसान हो जाता है, पर उसकी अनंत महिमा भी धूमिल पड़ने लगती है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं, सत्याग्रह जिनमें से सिर्फ एक है। नि:शस्त्रीकरण एक दूसरा उदाहरण है। हथियारविहीन विश्व की कामना करते हुए विद्वान लोग सिर्फ ‘ नाभिकीय नि:शस्त्रीकरण ’ की चर्चा करने लग गए, मानो नाभिकीय हथियार खत्म हो जाएं, तो हथियार की समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। हथियार का तात्पर्य क्या है, हथियारों का विकास क्यों होता है, सबसे अच्छा हथियार किसे माना जाए - इन बुनियादी प्रश्नों को वे आसानी से भुला देते हैं। हथियार का स्वभाव ही है ज्यादा से ज्यादा घातक और खूंखार होते जाना। इसलिए जिस सभ्यता में युध्द को थोड़ी भी मान्यता है और युध्द करने वालों के खिलाफ कोई सामूहिक कार्रवाई नहीं की जाती, उस सभ्यता में चरम हथियार की खोज जारी रहेगी, क्योंकि जब लड़ना ही है यानी अपनी पाशविक शक्ति का परिचय देना ही है, तो कौन-सा पशु है जो अपनी पशुता की सीमारेखा खींचना चाहेगा? इसी तरह सत्याग्रह अपने आपमें एक पूरा जीवन दर्शन है। अगर इसे नमक सत्याग्रह या असहयोग आंदोलन के साथ नत्थी कर दिया जाता है और लोगों को यह नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित किया जाता है कि सत्य की खोज किसी भी बिंदु पर रोकी नहीं जा सकती और सत्य से लगाव है तो उसके लिए आग्रह भी बना रहेगा, तो सत्याग्रह शब्द उन लोगों के लिए काफी निरापद हो जाता है जो शोषण और अन्याय की व्यवस्था को चला रहे हैं या किसी भी रूप में उसके लाभार्थी हैं।
सत्याग्रह में सत्य पहले आता है, आग्रह बाद में। गांधी जी के जीवन दर्शन के केंद्र में मूल विचार दो ही हैं -- सत्य और अहिंसा। इनमें भी सत्य उन्हें ज्यादा प्रिय था। उनका कहना था कि अहिंसा के बजाय सत्य मेरे स्वभाव के ज्यादा अनुकूल है। वे मानते थे कि सत्य की खोज करने से अहिंसा अपने आप सध जाती है, क्योंकि हिंसा की उपासना करने से सत्य किसी के हाथ लग ही नहीं सकता। गांधी जी के शब्द हैं, ‘ जो मानते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर में स्वर मिला कर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है। लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना संभव हो तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि जहां तक मेरा संबंध है, ईश्वर सत्य है। ’ मनुष्यता के लिए प्रेम से बड़ा कोई सिध्दांत अभी तक खोजा नहीं जा सका है। न्याय शायद इसना ही महत्वपूर्ण या इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सिध्दांत है, पर जब तक प्रेम नहीं होगा, न्याय भी अन्याय में बदल सकता है। इतिहास में इसके अनंत उदाहरण है कि प्रेम से विरहित हो कर न्याय कितना कठोर और अत्याचारी हो सकता है। फिर, न्याय को समझना और समझाना पड़ता है, प्रेम अपने आप दिखाई पड़ जाता है। ’ गांधी सत्य को प्रेम से भी बड़ा दरजा देने को तैयार हैं, तो इसीलिए कि सत्य की खोज हमें कोमल, विनयी और अहिंसक बनाती है। मजे की बात है कि सत्य के प्रति प्रतिबध्दता न हो तो प्रेम भी खूंखार हो जा सकता है। स्त्रियों से अधिक इसे और कौन जानता है? यही कारण है कि गांधी जी इसी वक्तव्य में आगे कहते हैं, ‘ लेकिन दो वर्ष पहले मैंने एक कदम और आगे बढ़ा कर कहा कि सत्य ईश्वर है। इन दो कथनों -- ईश्वर सत्य है और सत्य ईश्वर है – के सूक्ष्म भेद को आप समझें। मैं इस निष्कर्ष पर लगभग पचास वर्ष तक सत्य की निरंतर खोज करते रहने के बाद पहुंचा हूं। ’ और यह भी कि ‘ मेरा अनुराग केवल सत्य के प्रति है, और मैं सत्य के अलावा किसी और का अनुशासन नहीं मानता। ’
परम आश्चर्य की बात है कि ऐसे गांधी को उनकी मृत्यु के बाद सिर्फ अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह बात, लगभग षडयंत्रपूर्वक, भुला दी गई कि सत्य के प्रति उनका आग्रह ज्यादा प्रबल था। वे हिंसा को एक बार सह सकते थे, पर असत्य को तो बिलकुल ही नहीं। अन्याय का विरोध करना उनके लिए सत्य को अपनाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा था। अन्याय इसलिए गलत है क्योंकि वह असत्य पर टिका हुआ है। विषमता इसलिए बुरी है क्योंकि वह असत्य पर टिकी हुई है। इसीलिए गांधी जी ने शुरू से आखिर तक इस बात पर बराबर जोर दिया कि अगर तुम अन्याय का विरोध अहिंसक तरीके से नहीं करते या नहीं कर सकते, तो तुम्हें हिंसा करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि तुम हिंसक और अहिंसक, दोनों में से किसी भी तरीके से अन्याय का विरोध नहीं करते और उसे सहते रहते हो, तो तुम नामर्द हो और तुम्हारे जीवन में असत्य भरा हुआ है। आज गांधी जी होते, तो चुप रह कर अन्याय सहन करने वालों और नक्सलवादी तरीकों से अन्याय का विरोध करने वालों के बीच वे नक्सलवादी को ही ज्यादा मनुष्य मानते।
आज जब गांधी जी की चर्चा में काफी तेजी आ गई है और सत्याग्रह की सौवीं जयन्ती मनाने का सिलसिला जारी है, जिसके लिए कुछ तैयारियां तो इतनी भव्य हैं कि गांधी जी इन्हें फिजूलखर्ची की कोटि में रखते, यह पूछना जरूरी लग रहा है कि सत्याग्रह के सबसे जरूरी हिस्से सत्य का क्या हुआ? आग्रह तो आखिर सत्य के लिए ही किया जाएगा। इसलिए जो यह नहीं बताता कि उसका सत्य क्या है या सत्य के किन रूपों में उसकी आस्था है, तब तक उसके द्वारा सत्याग्रह की बड़ाई करना या तो महज रस्मी है या फिर उसमें गहरा छल है। महात्मा जी के लिए सत्य कोई ऐसी रहस्यमय चीज नहीं था, जिसे पाने के लिए हिमालय की गुफाओं में साधना करनी पड़े या जिसे समाज से कट कर प्रयोगशाला में खोजा जा सकता हो। वे इतने अहंकारी नहीं थे कि यह दावा करते कि मैंने सत्य को जान लिया है। वे मानते थे कि वे सत्य की खोज में हैं और सत्य का स्वरूप इतना गहन है कि इंद्रियों की सीमा में रहते हुए उसे पूरी तरह से जाना नहीं जा सकता। लेकिन सत्य कोई ऐसी अबूझ चीज नहीं है कि उसके पीछे न पड़ा जाए। छोटा से छोटा बच्चा भी सत्य को जानने की कोशिश करता है, क्योंकि यह खोज हमारे अस्तित्व के साथ गुंथी हुई है और जीवन को चलाने की शक्ति इसी में है। आखिर यह सत्य ही है जो भले-बुरे और गलत-सही के बीच तमीज करने में मदद करता है। हथियारों का बल नहीं, सत्य के प्रति यह लगाव ही मनुष्य को अजेय बनाता है। गांधी जी के शब्दों में, ‘ मैं कितना ही तुच्छ होऊं, पर जब मेरे माध्यम से सत्य बोलता है, तो मैं अजेय हो जाता हूं। ’ वे इस सत्य के लिए ही जिए और इसी सत्य की वेदी पर उन्होंने जान दी। गांधी जी की शहादत जिस सत्य की रक्षा के लिए हुई, वह यही था कि हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है और भारत तथा पाकिस्तान को ऐसा बनना चाहिए कि जिसमें दोनों तथा अन्य समुदाय प्रेम और भाईचारे के साथ रह सकें।
लेकिन यही उनका एकमात्र सत्य नहीं था, जिसके लिए उन्हें याद किया जाए। सर्वधर्म बंधुत्व या धर्मनिरपेक्षता का विचार तो और भी अनेक विचारधाराओं में प्राप्त होता है। गांधी जी का विचार यह भी था कि हम सब एक ही ईश्वर की संतानें हैं, इसलिए हमारे बीच किसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक विषमता नहीं होनी चाहिए। इसी तर्क से स्त्री और पुरुष, दोनों का दरजा एक बराबर है। अगर हम अपनी जरूरत से ज्यादा का संग्रह करते हैं, तो हम चोर हैं, क्योंकि ऐसा करके हम दूसरों के हक में सेंध लगा रहे हैं। जहां भी सत्ता का केंद्रीकरण है, उपभोग का केंद्रीकरण है, एक की कीमत पर दूसरा मजबूत हो रहा है, वहां इस सहज और प्रत्यक्ष सत्य का हनन हो रहा है कि यह पृथ्वी सबकी है, सबके रहने के लिए है और अगर कोई अपने लिए विशेषाधिकार की मांग करता है, तो वह दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करता है। सत्य की अवधारणा जब इतनी बड़ी, उदात्त और सर्वव्यापी हो, तभी उस पर आग्रह किया जा सकता है और तभी वह सत्याग्रह कहलाएगा। -- ‘ सत्य के प्रति आग्रह से जो शक्ति मुझे प्राप्त होती है, उसके अतिरिक्त मेरे पास कोई शक्ति नहीं है। इसी आग्रह से अहिंसा का प्रस्फुटन होता है। ’
आज जब भी सत्याग्रह की बात की जाती है, तो सबसे पहले जिस चीज को बहस से बाहर कर दिया जाता है, वह सत्य ही है। कोई नहीं बताता कि गांधी जी जिसे सत्य मानते थे या जिसमें सत्य होने की संभावना देखते थे, क्या वह उससे सहमत है? उदाहरण के लिए गांधी जी का एक सत्य यह था कि मानव जीवन का उद्देश्य दूसरों की सेवा करना है। मैं स्वयं इससे बहुत ज्यादा सहमत नहीं हूं, लेकिन गांधी का गुणगान करने वालों को बताना चाहिए कि क्या वे इसे मानने को तैयार हैं? गांधी जी का एक और सत्य यह था कि सेवक को उनसे अधिक सुविधाओं का उपयोग करने का कोई अधिकार नहीं है जिनकी वह सेवा कर रहा है। यह बात सौ टके सच है, लेकिन इस कसौटी को मानने के लिए कितने लोग तैयार हैं ? गांधी जी के लिए साध्य और साधन में कोई अंतर नहीं था। जो ऐसा मानेगा, वह किसी भी कार्य को सिध्द करने के लिए कभी भी झूठ, बेईमानी और धोखाधड़ी का सहारा नहीं लेगा। उसका जीवन पारदर्शी होगा। गांधी जी के बारे में हम जितना जितना जानते हैं, उनके अनुयायियों के जीवन के बारे में भी हम क्या उतना जानने का दावा कर सकते हैं? गांधी जी ने अपनी आत्मकथा को ‘ सत्य के प्रयोग ’ का नाम दिया। सत्याग्रह की जयंती मनानेवालों में से कितनों के बारे में हम कह सकते हैं कि उनके जीवन में थोड़ी-बहुत ही सही, पर सच्चाई से निकलने वाली पारदर्शिता है?
बेशक, गांधी की प्रशंसा करने के लिए उनके जैसा बन कर दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे गांधी जी अपना सत्य खोज रहे थे और जो उन्हें सत्य जान पड़ता था, उस पर चलते हुए वे अपनी जान की बाजी भी लगा देते थे, वैसे ही हमें भी अपने सत्य का ईमानदारी से साक्षात्कार करना चाहिए और उस पर अटल रहना चाहिए। अगर हम रुपए में चार आना भी गांधी जैसी ईमानदारी दिखाने के लिए तैयार नहीं हैं, तब भी उनकी प्रशंसा करने का हक हमें हैं, लेकिन इस हसरत या आत्मस्वीकृति के बाद कि काश, हम गांधी के रास्ते पर कुछ दूर तक तो चल पाते या हम स्वीकार करते हैं कि इतनी ईमानदारी बरतने का साहस हममें नहीं हैं। लेकिन यह आत्मस्वीकृति किसी साधारण आदमी को ही शोभा देगी। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग, देश की नियति तय कर रहे लोग, समाज की ओर से बड़े-बड़े फैसले लेने वाले लोग अगर सार्वजनिक रूप से गांधी जी की समारोहपूर्वक उपासना करते नजर आते हैं और अपने निजी या प्रोफेशनल जीवन में दिन-रात गांधी जी की धज्जी उड़ाते हैं, तो यह गांधी को बरबाद करने की कोशिश है, क्योंकि कोई भी देवता अपने पुजारियों के माध्यम से ही जाना जाता है। लेकिन सत्य यह भी है कि पुजारी आते-जाते रहते हैं, देवता अमर होते हैं। गांधी जी अगर अमर हैं, तो इसी अर्थ में।
राजकिशोर
किसी भी अच्छे शब्द को नष्ट करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसे किसी खास रूढ़ि के साथ जोड़ दिया जाए। अच्छाई सर्वकालिक और सार्वभौमिक होती है -- अगर वह वास्तव में अच्छाई है। रूढ़ि देश-काल से बंधी होती है। रुढ़ि के साथ बंधते ही यद्यपि अच्छाई को तुरंत पहचान लेना और याद रखना आसान हो जाता है, पर उसकी अनंत महिमा भी धूमिल पड़ने लगती है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं, सत्याग्रह जिनमें से सिर्फ एक है। नि:शस्त्रीकरण एक दूसरा उदाहरण है। हथियारविहीन विश्व की कामना करते हुए विद्वान लोग सिर्फ ‘ नाभिकीय नि:शस्त्रीकरण ’ की चर्चा करने लग गए, मानो नाभिकीय हथियार खत्म हो जाएं, तो हथियार की समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। हथियार का तात्पर्य क्या है, हथियारों का विकास क्यों होता है, सबसे अच्छा हथियार किसे माना जाए - इन बुनियादी प्रश्नों को वे आसानी से भुला देते हैं। हथियार का स्वभाव ही है ज्यादा से ज्यादा घातक और खूंखार होते जाना। इसलिए जिस सभ्यता में युध्द को थोड़ी भी मान्यता है और युध्द करने वालों के खिलाफ कोई सामूहिक कार्रवाई नहीं की जाती, उस सभ्यता में चरम हथियार की खोज जारी रहेगी, क्योंकि जब लड़ना ही है यानी अपनी पाशविक शक्ति का परिचय देना ही है, तो कौन-सा पशु है जो अपनी पशुता की सीमारेखा खींचना चाहेगा? इसी तरह सत्याग्रह अपने आपमें एक पूरा जीवन दर्शन है। अगर इसे नमक सत्याग्रह या असहयोग आंदोलन के साथ नत्थी कर दिया जाता है और लोगों को यह नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित किया जाता है कि सत्य की खोज किसी भी बिंदु पर रोकी नहीं जा सकती और सत्य से लगाव है तो उसके लिए आग्रह भी बना रहेगा, तो सत्याग्रह शब्द उन लोगों के लिए काफी निरापद हो जाता है जो शोषण और अन्याय की व्यवस्था को चला रहे हैं या किसी भी रूप में उसके लाभार्थी हैं।
सत्याग्रह में सत्य पहले आता है, आग्रह बाद में। गांधी जी के जीवन दर्शन के केंद्र में मूल विचार दो ही हैं -- सत्य और अहिंसा। इनमें भी सत्य उन्हें ज्यादा प्रिय था। उनका कहना था कि अहिंसा के बजाय सत्य मेरे स्वभाव के ज्यादा अनुकूल है। वे मानते थे कि सत्य की खोज करने से अहिंसा अपने आप सध जाती है, क्योंकि हिंसा की उपासना करने से सत्य किसी के हाथ लग ही नहीं सकता। गांधी जी के शब्द हैं, ‘ जो मानते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर में स्वर मिला कर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है। लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना संभव हो तो मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि जहां तक मेरा संबंध है, ईश्वर सत्य है। ’ मनुष्यता के लिए प्रेम से बड़ा कोई सिध्दांत अभी तक खोजा नहीं जा सका है। न्याय शायद इसना ही महत्वपूर्ण या इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सिध्दांत है, पर जब तक प्रेम नहीं होगा, न्याय भी अन्याय में बदल सकता है। इतिहास में इसके अनंत उदाहरण है कि प्रेम से विरहित हो कर न्याय कितना कठोर और अत्याचारी हो सकता है। फिर, न्याय को समझना और समझाना पड़ता है, प्रेम अपने आप दिखाई पड़ जाता है। ’ गांधी सत्य को प्रेम से भी बड़ा दरजा देने को तैयार हैं, तो इसीलिए कि सत्य की खोज हमें कोमल, विनयी और अहिंसक बनाती है। मजे की बात है कि सत्य के प्रति प्रतिबध्दता न हो तो प्रेम भी खूंखार हो जा सकता है। स्त्रियों से अधिक इसे और कौन जानता है? यही कारण है कि गांधी जी इसी वक्तव्य में आगे कहते हैं, ‘ लेकिन दो वर्ष पहले मैंने एक कदम और आगे बढ़ा कर कहा कि सत्य ईश्वर है। इन दो कथनों -- ईश्वर सत्य है और सत्य ईश्वर है – के सूक्ष्म भेद को आप समझें। मैं इस निष्कर्ष पर लगभग पचास वर्ष तक सत्य की निरंतर खोज करते रहने के बाद पहुंचा हूं। ’ और यह भी कि ‘ मेरा अनुराग केवल सत्य के प्रति है, और मैं सत्य के अलावा किसी और का अनुशासन नहीं मानता। ’
परम आश्चर्य की बात है कि ऐसे गांधी को उनकी मृत्यु के बाद सिर्फ अहिंसा के पुजारी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह बात, लगभग षडयंत्रपूर्वक, भुला दी गई कि सत्य के प्रति उनका आग्रह ज्यादा प्रबल था। वे हिंसा को एक बार सह सकते थे, पर असत्य को तो बिलकुल ही नहीं। अन्याय का विरोध करना उनके लिए सत्य को अपनाने की प्रक्रिया का एक हिस्सा था। अन्याय इसलिए गलत है क्योंकि वह असत्य पर टिका हुआ है। विषमता इसलिए बुरी है क्योंकि वह असत्य पर टिकी हुई है। इसीलिए गांधी जी ने शुरू से आखिर तक इस बात पर बराबर जोर दिया कि अगर तुम अन्याय का विरोध अहिंसक तरीके से नहीं करते या नहीं कर सकते, तो तुम्हें हिंसा करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यदि तुम हिंसक और अहिंसक, दोनों में से किसी भी तरीके से अन्याय का विरोध नहीं करते और उसे सहते रहते हो, तो तुम नामर्द हो और तुम्हारे जीवन में असत्य भरा हुआ है। आज गांधी जी होते, तो चुप रह कर अन्याय सहन करने वालों और नक्सलवादी तरीकों से अन्याय का विरोध करने वालों के बीच वे नक्सलवादी को ही ज्यादा मनुष्य मानते।
आज जब गांधी जी की चर्चा में काफी तेजी आ गई है और सत्याग्रह की सौवीं जयन्ती मनाने का सिलसिला जारी है, जिसके लिए कुछ तैयारियां तो इतनी भव्य हैं कि गांधी जी इन्हें फिजूलखर्ची की कोटि में रखते, यह पूछना जरूरी लग रहा है कि सत्याग्रह के सबसे जरूरी हिस्से सत्य का क्या हुआ? आग्रह तो आखिर सत्य के लिए ही किया जाएगा। इसलिए जो यह नहीं बताता कि उसका सत्य क्या है या सत्य के किन रूपों में उसकी आस्था है, तब तक उसके द्वारा सत्याग्रह की बड़ाई करना या तो महज रस्मी है या फिर उसमें गहरा छल है। महात्मा जी के लिए सत्य कोई ऐसी रहस्यमय चीज नहीं था, जिसे पाने के लिए हिमालय की गुफाओं में साधना करनी पड़े या जिसे समाज से कट कर प्रयोगशाला में खोजा जा सकता हो। वे इतने अहंकारी नहीं थे कि यह दावा करते कि मैंने सत्य को जान लिया है। वे मानते थे कि वे सत्य की खोज में हैं और सत्य का स्वरूप इतना गहन है कि इंद्रियों की सीमा में रहते हुए उसे पूरी तरह से जाना नहीं जा सकता। लेकिन सत्य कोई ऐसी अबूझ चीज नहीं है कि उसके पीछे न पड़ा जाए। छोटा से छोटा बच्चा भी सत्य को जानने की कोशिश करता है, क्योंकि यह खोज हमारे अस्तित्व के साथ गुंथी हुई है और जीवन को चलाने की शक्ति इसी में है। आखिर यह सत्य ही है जो भले-बुरे और गलत-सही के बीच तमीज करने में मदद करता है। हथियारों का बल नहीं, सत्य के प्रति यह लगाव ही मनुष्य को अजेय बनाता है। गांधी जी के शब्दों में, ‘ मैं कितना ही तुच्छ होऊं, पर जब मेरे माध्यम से सत्य बोलता है, तो मैं अजेय हो जाता हूं। ’ वे इस सत्य के लिए ही जिए और इसी सत्य की वेदी पर उन्होंने जान दी। गांधी जी की शहादत जिस सत्य की रक्षा के लिए हुई, वह यही था कि हिंदू और मुसलमान में कोई फर्क नहीं है और भारत तथा पाकिस्तान को ऐसा बनना चाहिए कि जिसमें दोनों तथा अन्य समुदाय प्रेम और भाईचारे के साथ रह सकें।
लेकिन यही उनका एकमात्र सत्य नहीं था, जिसके लिए उन्हें याद किया जाए। सर्वधर्म बंधुत्व या धर्मनिरपेक्षता का विचार तो और भी अनेक विचारधाराओं में प्राप्त होता है। गांधी जी का विचार यह भी था कि हम सब एक ही ईश्वर की संतानें हैं, इसलिए हमारे बीच किसी प्रकार की आर्थिक, सामाजिक या राजनीतिक विषमता नहीं होनी चाहिए। इसी तर्क से स्त्री और पुरुष, दोनों का दरजा एक बराबर है। अगर हम अपनी जरूरत से ज्यादा का संग्रह करते हैं, तो हम चोर हैं, क्योंकि ऐसा करके हम दूसरों के हक में सेंध लगा रहे हैं। जहां भी सत्ता का केंद्रीकरण है, उपभोग का केंद्रीकरण है, एक की कीमत पर दूसरा मजबूत हो रहा है, वहां इस सहज और प्रत्यक्ष सत्य का हनन हो रहा है कि यह पृथ्वी सबकी है, सबके रहने के लिए है और अगर कोई अपने लिए विशेषाधिकार की मांग करता है, तो वह दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करता है। सत्य की अवधारणा जब इतनी बड़ी, उदात्त और सर्वव्यापी हो, तभी उस पर आग्रह किया जा सकता है और तभी वह सत्याग्रह कहलाएगा। -- ‘ सत्य के प्रति आग्रह से जो शक्ति मुझे प्राप्त होती है, उसके अतिरिक्त मेरे पास कोई शक्ति नहीं है। इसी आग्रह से अहिंसा का प्रस्फुटन होता है। ’
आज जब भी सत्याग्रह की बात की जाती है, तो सबसे पहले जिस चीज को बहस से बाहर कर दिया जाता है, वह सत्य ही है। कोई नहीं बताता कि गांधी जी जिसे सत्य मानते थे या जिसमें सत्य होने की संभावना देखते थे, क्या वह उससे सहमत है? उदाहरण के लिए गांधी जी का एक सत्य यह था कि मानव जीवन का उद्देश्य दूसरों की सेवा करना है। मैं स्वयं इससे बहुत ज्यादा सहमत नहीं हूं, लेकिन गांधी का गुणगान करने वालों को बताना चाहिए कि क्या वे इसे मानने को तैयार हैं? गांधी जी का एक और सत्य यह था कि सेवक को उनसे अधिक सुविधाओं का उपयोग करने का कोई अधिकार नहीं है जिनकी वह सेवा कर रहा है। यह बात सौ टके सच है, लेकिन इस कसौटी को मानने के लिए कितने लोग तैयार हैं ? गांधी जी के लिए साध्य और साधन में कोई अंतर नहीं था। जो ऐसा मानेगा, वह किसी भी कार्य को सिध्द करने के लिए कभी भी झूठ, बेईमानी और धोखाधड़ी का सहारा नहीं लेगा। उसका जीवन पारदर्शी होगा। गांधी जी के बारे में हम जितना जितना जानते हैं, उनके अनुयायियों के जीवन के बारे में भी हम क्या उतना जानने का दावा कर सकते हैं? गांधी जी ने अपनी आत्मकथा को ‘ सत्य के प्रयोग ’ का नाम दिया। सत्याग्रह की जयंती मनानेवालों में से कितनों के बारे में हम कह सकते हैं कि उनके जीवन में थोड़ी-बहुत ही सही, पर सच्चाई से निकलने वाली पारदर्शिता है?
बेशक, गांधी की प्रशंसा करने के लिए उनके जैसा बन कर दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे गांधी जी अपना सत्य खोज रहे थे और जो उन्हें सत्य जान पड़ता था, उस पर चलते हुए वे अपनी जान की बाजी भी लगा देते थे, वैसे ही हमें भी अपने सत्य का ईमानदारी से साक्षात्कार करना चाहिए और उस पर अटल रहना चाहिए। अगर हम रुपए में चार आना भी गांधी जैसी ईमानदारी दिखाने के लिए तैयार नहीं हैं, तब भी उनकी प्रशंसा करने का हक हमें हैं, लेकिन इस हसरत या आत्मस्वीकृति के बाद कि काश, हम गांधी के रास्ते पर कुछ दूर तक तो चल पाते या हम स्वीकार करते हैं कि इतनी ईमानदारी बरतने का साहस हममें नहीं हैं। लेकिन यह आत्मस्वीकृति किसी साधारण आदमी को ही शोभा देगी। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग, देश की नियति तय कर रहे लोग, समाज की ओर से बड़े-बड़े फैसले लेने वाले लोग अगर सार्वजनिक रूप से गांधी जी की समारोहपूर्वक उपासना करते नजर आते हैं और अपने निजी या प्रोफेशनल जीवन में दिन-रात गांधी जी की धज्जी उड़ाते हैं, तो यह गांधी को बरबाद करने की कोशिश है, क्योंकि कोई भी देवता अपने पुजारियों के माध्यम से ही जाना जाता है। लेकिन सत्य यह भी है कि पुजारी आते-जाते रहते हैं, देवता अमर होते हैं। गांधी जी अगर अमर हैं, तो इसी अर्थ में।
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सत्ता के लिए हमेशा सत्य असुविधाजनक और खतरनाक रहा है। इसलिए वह हमेशा से सत्य के लिए मुश्किलें खड़ी करता रहा है। न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार को उजागर करने पर अदालत की अवमानना के आरोप में पत्रकारों को जेल की सजा सुना दी जाती है। खुफिया एजेंसी में भ्रष्टाचार को उजागर करने पर शासकीय गोपनीयता भंग करने के आरोप में सीबीआई के छापे पड़ते हैं।
अंग्रेजों के जमाने में भी अहिंसक सत्याग्रह करना उतना मुश्किल नहीं था जितना आज के भारत में हो गया है। सत्याग्रह की आवाज को आज प्रेस भी दबा देती है। दिल्ली में जंतर-मंतर पर सांकेतिक प्रदर्शन करने से अधिक आज देश में कोई सत्याग्रह नहीं कर पाना मुमकिन नहीं। जिन तक आप सत्य की आवाज पहुंचाना चाहते हैं, उनतक सत्य की पुकार पहुंचने के सभी रास्ते बंद हैं।
आज प्रेस ही सत्य का गला घोंट रहा है और अदालतें ही न्याय का गला घोंट रही हैं। और रही बात प्रेम की, तो सबको केवल अपने स्वार्थ, महत्वाकांक्षा और लिप्सा से ही प्रेम रह गया है।
प्रेम तो दूरी को कम करता है, बड़े-छोटे का अंतर मिटाता है। लेकिन हमारी पूरी सोच, हमारी पूरी मानसिकता पदानुक्रम पर आधारित है, जिसमें हर कोई खुद को दूसरे से बड़ा मानने, बड़ा बनाने में लगा हुआ है। चाहे वह पत्रकार-बुद्धिजीवी हो, साधु-संत हो, नेता-नौकरशाह हो, पूंजीपति-प्रोफेशनल्स हों, या फिर गुंडे-बदमाश हों।
आपकी बातों से सहमत हूं। धन्यवाद।
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