Tuesday, November 10, 2009

क्रांति अब भी संभावना है

रूसी क्रांति को क्यों याद करें
राजकिशोर


रूस की साम्यवादी क्रांति मानवता की एक महान विरासत है। इस विरासत की उपेक्षा इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि यह क्रांति टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलती हुई विफल हुई और रूस को पूंजीवादी नीतियों के साथ समझौता करना पड़ा। अगर विफलताएं ही सफलता का मार्ग प्रशस्त करती हैं, तो रूसी क्रांति से भी सीखने के लिए बहुत कुछ होना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि वाश टब से नहाने के पानी के साथ-साथ बच्चे को भी फेंक दिया गया है। यह वास्तव में अपने साथ भी अन्याय है, क्योंकि वर्तमान समस्याओं से निजात पाने के लिए हम इतिहास के जिन प्रयोगों की तरफ आशावादी निगाहों से देख सकते हैं, उनमें रूसी क्रांति का अहम स्थान है।

दुनिया में जब से विषमता का सूत्रपात हुआ, तभी से समानता की भूख मनुष्य के मन में कुलबुलाती रही है। इसकी एक अभिव्यक्ति धर्म के रूप में हुई जो मानता है कि हम सब एक ही ईश्वर की संतानें हैं और इसलिए हम सभी का दर्जा बराबर है। लेकिन इस शिक्षा का पालन धार्मिक प्रतिष्ठान भी नहीं कर सके जिन पर धर्म का प्रसार करने की जिम्मेदारी रही है। ईश्वर के दरबार में राजा-रंक सभी की हैसियत बराबर होगी, पर धरती पर ईश्वर का राज्य तरह-तरह की विषमताओं से भरपूर है। यहां तक कि विचार करने की आजादी भी, जो मनुष्य को ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है, सभी को नहीं है। जो धार्मिक क्षेत्र स्वयं प्रदूषित रहा है, वह समाज और राजनीति में गैरबराबरी का समर्थन और पोषण क्यों न करता?

इसलिए धर्म के बाहर समानता की खोज अनिवार्य हो उठी। समाजवाद का विचार इसी लंबी खोज का परिपाक है। भारत में समता का विचार आध्यात्मिक स्तर पर ज्यादा फैला। यूरोप ने इसे भौतिक स्तर पर लागू करने के ठोस तरीके खोजे। इसका एक नतीजा लोकतंत्र के रूप में आया, जिसमें, कम से कम सिद्धांत के स्तर पर, हर आदमी की राजनीतिक हैसियत बराबर होती है। लेकिन हम जानते हैं कि ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के आधार पर बने लोकतांत्रिक ढांचे में कितनी तरह की विषमताएं होती हैं। इनमें से अधिकांश का संबंध पूंजीवाद से है, जिसका प्रेरणा-स्रोत ही विषमता के अधिक से अधिक स्तर पैदा करना है। वस्तुओं के उत्पादन और वितरण का एक निश्चित तरीका किस तरह समाज के सभी संबंधों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है, पूंजीवाद इसका सबसे प्रबल उदाहरण है। इसलिए समाजवाद की पहली शर्त यह बनी कि उत्पादन के संबंधों में परिवर्तन हो। पूंजी की मुक्ति में सभी चीजों की मुक्ति निहित है।

पूंजी की मुक्ति का पहला बड़ा प्रयोग रूस की जमीन पर हुआ। इससे दुनिया भर में यह संदेश फैला कि जो एक देश में संभव है, वह दूसरे देशों में भी संभव है। आशा की यह लहर कितनी जबरदस्त थी और कितनी व्यापक, आज हम इसकी सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। लेकिन रूसी क्रांति के अलमबरदारों ने जिस तरह की नीतियों का अनुसरण किया, उससे साम्यवाद की चादर पर खून के बड़े-बड़े धब्बे दिखाई देने लगे। स्टालिन और उसके अनुयायी भूल गए कि उनका काम पूंजीवादी लोकतंत्र को शुद्ध करना तथा जनवादी बनाना है, न कि लोकतंत्र को ही खत्म कर देना। असहमति के दमन पर टिकी कोई भी व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। रूस का समाजवादी प्रयोग पचास-साठ साल में ही अपने अंतर्विरोधों से भरभरा कर गिर गया, यह मानव इतिहास के करुण अध्यायों में एक है। आज का रूस अपने इस लाल-काले अध्याय के एक-एक अवशेष को मिटाने के लिए उतावला है, तो कल्पना की जा सकती है कि किस तरह की स्मृतियां रूस के लोगों को पीड़ित कर रही होंगी।

इसके बावजूद साम्यवादी रूस में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो दुनिया में कहीं और नहीं हो सका है। वहां जमींदार नहीं थे, न पूंजीपति थे। न भिखारी थे, न वेश्याएं। विषमता थी, पर उसके बहुत ज्यादा स्तर नहीं थे। बच्चों के विकास पर पूरा ध्यान दिया जाता था। बूढ़ों को समय पर पेंशन मिलती थी। काम-काज में सामूहिकता को प्रोत्साहित किया जाता था। मेहनत करनेवाले पुरस्कृत किए जाते थे। बेशक इनके साथ-साथ यह भी हुआ कि मानव अधिकारों की कोई प्रतिष्ठा नहीं थी, स्वतंत्र रूप से सोचनेवाले प्रताड़ित किए जाते थे, अखबार झूठ के पुलिंदे बन गए, ईमानदार लेखकों और कवियों के लिए जेल के दरवाजे हमेशा खुले रहते थे और हर तरफ षड्यंत्र का वातावरण बन गया। उपर्युक्त उपलब्धियों और इन दुरवस्थाओं के बीच तालमेल बैठा पाना मुश्किल है।

आज रूसी क्रांति को गर्व के बजाय डर की निगाह से देखा जाता है, तो इसका कारण मार्क्सवाद के साथ विश्वासघात ही है। दुख की बात यह है कि इसकी तरफ मार्क्सवादियों का ही ध्यान सबसे अधिक जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। मार्क्सवादियों का एक बड़ा वर्ग, भारत में भी, रूसी क्रांति के विपथगामी होने का जिक्र करता है, लेकिन यह नहीं बताता कि उसका यह हाल क्यों हुआ और आज के मार्क्सवादियों ने रूसी क्रांति की दुर्गति से क्या-क्या सीखा है। इसीलिए लाल झंडे के प्रति आम जनता में प्रेम तो देखा जाता है, पर कोई देश नहीं चाहता कि वह लाल रूस की तरह बने। समकालीन नेपाल में इस तरह की एक तरंग आई थी, क्योंकि वहां के मार्क्सवादियों ने सामंतशाही के खिलाफ कठोर संघर्ष किया था। लेकिन अब वहां भी मोहभंग का वातावरण है।

आज हमारे यहां मार्क्सवाद पंगु है। वह सामंती तौर-तरीकों से अपने को जीवित रखने की कोशिश कर रहा है। मार्क्सवाद की जगह माओवाद है। माओवाद ने कुछ खास तरह के इलाकों में सफलता प्राप्त की है, पर अपनी पोशीदा और डर पर आधारित कार्य प्रणाली के कारण वह वन आंदोलन बन कर रह गया है, जन आंदोलन नहीं बन पाया है। जन आंदोलन वह होता है जिसका राज्य की बुनियादी नीतियों पर दबाव पड़े और जिससे सत्ता के नए दावेदार पैदा हो सकें। आश्चर्य की बात यह है कि आज देश में सबसे ज्यादा बुद्धिजीवी मार्क्सवादी ही हैं, किन्तु वे जन संघर्ष का कोई ऐसा मॉडल खोजने में असमर्थ हैं जिसके प्रति जनता में बड़े पैमाने पर आकर्षण पैदा हो सके। संकट की इस घड़ी में रूसी क्रांति के सही सबक बहुत काम के हो सकते हैं, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है।

Friday, November 6, 2009

प्रभाष जोशी

समय का सबसे समर्थ हस्ताक्षर
राजकिशोर

किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह होती है कि वह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन जाए। जैसे निराला जी या रामविलास शर्मा हिन्दी जगत के लीजेंड थे और आज भी उनकी यह हैसियत बनी हुई है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी का स्थान ऐसा ही है। वे बालमुकुंद गुप्त, विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की महान परंपरा की अंतिम कड़ी थे। भारत में पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, आनेवाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि कभी प्रभाष जोशी जैसा पत्रकार भी हुआ करता था।

पत्रकारिता की ऊंचाई इस बात में है कि वह रचना बन जाए। प्रभाष जी पत्रकारों के बीच रचनाकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा जल्दी में ही लिखा, जो पत्रकारिता की जरूरत और गुण दोनों है, पर उनकी लिखी एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसमें विचार या भाषा का शैथिल्य हो। वे जितने ठोस आदमी थे, उनका रचना कर्म भी उतना ही ठोस था। सर्जनात्मकता का उत्कृष्टतम क्षण वह होता है जब रचना और रचनाकार आपस में मिल कर एक हो जाएं। प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व और लेखन, दोनों में ऐसा ही गहरा तादात्म्य था। वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। इसीलिए उनकी पत्रकारिता में वह खरापन आ सका जो बड़े-बड़े पत्रकारों को नसीब नहीं होता।

पत्रकार अपने समय की आंख होता है। बदलते हुए परिदृश्य पर सबकी नजर जाती है, लेकिन पत्रकार अपने हस्ताक्षर वहां करता है जहां उसके समय का मर्म होता है। इस मायने में प्रभाष जोशी ने अपने पढ़नेवालों या सुननेवालों को कभी निराश नहीं किया। उन्होंने हमेशा अपने वक्त के सबसे मार्मिक बिन्दुओं को चुना और उन पर अपनी निर्भीक और विवेकपूर्ण कलम चलाई। अपने अंतिम बीस वर्षों में उनके दो केंद्रीय सरोकार थे – सांप्रदायिकता और बाजारवादी अर्थव्यवस्था। इन दोनों ही धाराओं में वे महाविनाश की छाया देख रहे थे। सांप्रदायिकता से उन्होंने अकेले जितने उत्साह और निरंतरता के साथ बहुमुखी संघर्ष किया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। यह उनकी सनक नहीं थी, भारतीय समाज के साथ उनके प्रेम का विस्फोट था। गहरी सामाजिक संलग्नता की अनुपस्थिति में वह प्रखरता नहीं आ सकती थी जो प्रभाष जी के सांप्रदायिकता-विरोधी लेखन में दिखाई पड़ती है। उनके लिए यह मानो धर्मयुद्ध था, जिसमें उन्हें जीतना ही था।

नई अर्थनीति के खतरों को उन्होंने तभी देख लिया था जब आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी और मनुष्य को मानव संसाधन माननेवाली विचारधारा अपने पैर जमा रही थी। आर्थिक सुधारों के नाम पर किए जानेवाले सभी फैसलों को उन्होंने शक की निगाह से देखा और आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर उनकी समीक्षा की। स्वच्छंद पूंजी की धमक से वे बहुत बेचैन रहते थे और उसके सर्वनाशी नतीजों से बराबर आगाह करते रहे। उनके इस आग्रह में गांधीवाद को ढूंढ़ना बेकार है। यह उनके प्रखर राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति थी। यह वही राष्ट्र प्रेम था जो उनके अन्य सामाजिक सरोकारों में प्रगट होता था। उनके कर्मकांडी हिन्दू होने के बावजूद उनका विवेक कभी मलिन नहीं होता था। उनके कुछ विचार अंत तक विवादास्पद बने रहे, लेकिन अपनी प्रामाणिकता में उनका गहरा विश्वास था। यह वैसा ही विश्वास है जो किसी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी में दिखाई पड़ता है। ऐसे मामलों में हमें ‘संदेह का लाभ’ देने में संकोच नहीं करना चाहिए।

मीडियम इज द मेसेज – यह पंक्ति लाखों बार दुहराई जाने के बावजूद अर्थहीन नहीं हुई है। यह कुछ वैसा ही वाक्य है, जैसे गांधी जी की यह धारणा कि साध्य और साधन में पूर्ण एकता होनी चाहिए। पत्रकारिता का मुख्य औजार है भाषा। इसलिए यह संभव नहीं था कि जो व्यक्ति समाचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में क्रांति कर रहा हो, वह भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत के प्रति उदासीन रहे। अगर भारतेंदु के समय में हिन्दी नई चाल में ढली, तो प्रभाष जोशी ने उसे एक बार फिर नई चाल में ढाला। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनका यह योगदान असाधारण है और इसके लिए उन्हें युग-युगों तक याद किया जाएगा।

पत्रिकाओं के क्षेत्र में जो काम ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ ने किया, अखबारों की दुनिया में प्रभाष जोशी द्वारा स्थापित ‘जनसत्ता’ ने उससे कहीं बड़ा और टिकाऊ काम किया। पत्रकारिता की समूची भाषा को आमूलचूल बदल देना मामूली बात नहीं है। यह काम कोई ऐसा महाप्राण ही कर सकता है जिसमें संस्था बनने की क्षमता हो। ‘जनसत्ता’ एक ऐसी ही संस्था बन गई। यह कहना अर्धसत्य होगा कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की तत्कालीन निर्जीव और क्लर्क टाइप भाषा को आम जनता की भाषा से जोड़ा। यह तो उन्होंने किया ही, उनका इतने ही निर्णायक महत्व का योगदान यह है कि उन्होंने जन भाषा को सर्जनात्मकता के संस्कार दिए। हिन्दी की शक्ति उसके तद्भव व्यक्तित्व में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप में प्रगट होती है। प्रभाष जी का व्यक्तित्व खुद भी तद्भव-जन्य था। वे खांटी देशी आदमी थे। उनकी अपनी भाषा भी ऐसी ही थी। आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता से अपने पूरे अखबार को ऐसा ही बना दिया। इस क्रांतिकारी रूपांतरण में उनके संपादकीय सहकर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए।

मीडियम के इस परिवर्तन में मेसेज का परिवर्तन अनिवार्य रूप से समाहित था। सो ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता एक नई संवेदना ले कर भी आई। यह संवेदना शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में और सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध थी। भारत की जनता के दुख और पीड़ा के जितने भी पहलू हो सकते थे, इस नए ढंग के अखबार ने सभी को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। दुख की बात यह है कि बाद की पीढ़ी ने इस भाषा को तो अपनाया, पर उसकी पत्रकारिता में वह संवेदना नहीं दिखाई देती जिसे प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के माध्यम से विस्तार दिया।

प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व बहुमुखी और समग्रता लिए हुए था। उसमें साहित्य, संगीत, कला – सबके लिए जगह थी। इस गुण ने उनकी पत्रकारिता में चार चांद लगा दिए। ‘जनसत्ता’ ने हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का पुनर्वास किया। ऐसे समय में, जब पत्रकारिता साहित्य से कटने में गर्व का अनुभव कर रही थी, यह एक साहसिक घटना थी। इसी तरह, संस्कृति के अन्य रचनात्मक पक्षों को भी प्रभाष जोशी ने पूरा महत्व दिया। खेल में तो जैसे उनकी आत्मा ही बसती थी। कुल मिला कर, हिन्दी प्रदेश में प्रभाष जोशी एक समग्र बौद्धिक केंद्र थे और ऐसा ही वातावरण बनाने के लिए अंतिम समय तक सक्रिय रहे। प्रभाष जी को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति का एक कतरा भी नहीं है। 000

Tuesday, September 1, 2009

अपने को परिभाषित करने का समय

भाजपा को जरूरत है आत्मविसर्जन की
राजकिशोर


भारतीय जनता पार्टी अब उस बिन्दु पर आ गई है जहां उसे अपने को परिभाषित करना ही होगा। पार्टी की सारी समस्याएँ उसकी अस्पष्ट दिशा और नीति की वजह से हैं। अगर कोई यह समझता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक के हस्तक्षेप से भाजपा की समस्याएं सुलझ गई हैं, तो यह उसका भ्रम है। हुआ यह है कि अंदरूनी लड़ाई सिर्फ भीतर चली गई है। विचारधारा के स्तर पर कुछ भी सुलझा नहीं है। इसलिए भाजपा आगे भी बहुत दिनों तक ब्रेकहीन कार की तरह भटकती रहे तो हैरानी की कोई बात नहीं होगी।


इसलिए मुझे लगता है कि भाजपा के उद्धार के लिए अरुण शौरी ने जो रास्ता सुझाया है, वही ठीक है। भाजपा को या तो अपने आपको विघटित कर देना चाहिए या बचे रहने की तबीयत है तो अपने आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हवाले कर देना चाहिए। इस बारे में वह जितना पसोपेश दिखाएगी, अपना उतना ही ज्यादा नुकसान करेगी। सच पूछिए तो भाजपा आज जिस संकट की गिरफ्त में है, वह पैदा ही इसलिए हुआ है कि पार्टी ने उन लक्ष्यों को बिलकुल ताक पर रख दिया है जिनके लिए उसका गठन किया गया था। वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपनी विचारधारा बताती है, लेकिन उसके चरित्र में न संस्कृति के दर्शन होते हैं, न राष्ट्रवाद के। अरुण शौरी ठीक कहते हैं, भाजपा की हालत कटी पतंग जैसी हो चुकी है।

भाजपा कांग्रेस या सपा-बसपा की तरह कोई सामान्य पार्टी नहीं है। इसके साथ न तो जन आंदोलन का कोई इतिहास है न यह किसी नेता की महत्वाकांक्षा की उपज है। यह कहना भी सत्य नहीं है कि भाजपा भारत के सवर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती है। उसके गठन के पीछे एक खास उद्देश्य था। उसका काम यह था कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक स्तर पर सक्रिय रहे। शुरू में उसने अपना यह कर्तव्य मोटे तौर पर निभाया भी। इससे उसका जनाधार बना। पर धीरे-धीरे लोभ डसने लगा। राजनीतिक सफलता राजनीतिक लक्ष्यों पर हावी हो गई। इसी प्रक्रिया में पार्टी बरबाद होती गई। अब वह ‘xÉ खुदा ही मिला न विसाले ºÉxɨɒ की हालत में है। रोगी की समझ में नहीं आ रहा है कि वह कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो कर अपना इलाज कराए या बदपरहेजी करते हुए अपनी सेहत और खराब कर ले। दूसरी ओर झुकाव अधिक प्रबल जान पड़ता है।

कहना न होगा कि भाजपा के पतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कम जिम्मेदार नहीं है। संघ ने जब तय किया कि उसे राजनीति में भी घुसना है, तो उसे सोचना चाहिए था कि वह अपने मानस पुत्र का सार-संभाल कैसे करेगी। बगैर देखभाल के लड़के अकसर आवारा हो जाते हैं। भाजपा में जब आवारगी के लक्षण दिखाई देने लगे, तभी संघ को सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए थे। ऐसा लगता है कि संघ को भाजपा की जितनी चिंता करनी चाहिए थी, उसने नहीं की। इससे हालत धीरे-धीरे बिगड़ती गई। इतने बिगाड़ के बाद जो भी हस्तक्षेप होगा, वह कारगर होगा या नहीं, इसमें शक है।

उदाहरण के लिए दो मुद्दे लिए जा सकते हैं - गोवध और अंग्रेजी। साठ के दशक में भाजपा का पूर्वावतार जनसंघ हमेशा गोवध पर पाबंदी लगाने के पक्ष में रहता था। इसके लिए उसने आंदोलन भी किया। लेकिन अब उसे गोवध रोकने को सार्वजनिक मुद्दा बनाने से शरम आती है। गोविंदाचार्य का यह सवाल अनुत्तरित है कि भाजपा के शासन में गोमांस के निर्यात में वृद्धि क्यों हुई। चरित्रगत दृढ़ता की मांग यह थी कि भाजपा के नेता साफ-साफ कहते कि गोवध और गोमांस भोजन के बारे में हमारी राय बदल चुकी है। पर वे ऐसा कह नहीं सकते। दरअसल, उनकी राय बदली नहीं है। पर सत्ता की मजबूरियों के कारण उन्होंने इसकी परवाह करना छोड़ दिया था कि गायों का क्या होता है। कायदे से भाजपा के नेतृत्व की संवेदना का विकास होना चाहिए था और उन्हें गाय के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं के जीवित रहने के अधिकार का कायल हो जाना चाहिए था। भाजपा के गोमांस की बिक्री में वृद्धि के लिए नहीं, बल्कि शाकाहार आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए जाना जाना चाहिए था। मेरा अनुमान है, संघ के लोग शाकाहारी ही होंगे।

जहां तक अंग्रेजी विरोध का प्रश्न है, भाजपा ने इसे छोड़ कर अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी है। एक जमाने में जनसंघ का मतलब था, ‘ʽþxnùÒ, हिन्दू, ʽþxnÖùºiÉÉxÉ’* आज भाजपा का कोई भी नेता हिन्दी का नाम तक नहीं लेता। उसके तथाकथित नायक अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखते हैं। भाजपा ने हिन्दी का साथ इसलिए छोड़ा क्योंकि उसे हिन्दी प्रदेश के बाहर अपने पांव फैलाने थे। हिन्दी प्रदेश के बाहर फैलने की तमन्ना में कुछ भी गलत नहीं था, पर भाजपा को वहां अपने विचारों के साथ जाना चाहिए था -- अपने विचारों को छोड़ कर नहीं। वह दक्षिण भारत में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाने का उद्यम करती, तो उसे वोट पाने में समय लगता, पर लोग पार्टी को उसके वैचारिक आग्रहों के लिए जानते। फिलहाल तो उसे अवसरवाद के लिए जाना जाता है, जिसने केंद्र में सत्ता पाने के लिए कश्मीर, समान सिविल कानून आदि पर अपने मूल विश्वासों के साथ भी समझौता कर लिया। स्पष्ट है कि भाजपा जनादेश का तो क्या सम्मान करेगी, वह संघादेश को भी भूल-बिसरा चुकी है।

बहुत-से विचारक भाजपा को यह सलाह देते रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नकेल से अपने को छुड़ा ले और अपने द्वारा चुने हुए स्वतंत्र रास्ते पर चले। यही एक तरीका है जिससे देश की नंबर दो (श्लेष के लिए क्षमा करें) पार्टी सेकुलर बन सकती है। मेरी समझ में नहीं आता कि भाजपा के पुनर्निर्माण में सिर्फ एक ही अपेक्षा क्यों। सेकुलर होना तो एक न्यूनतम बात है। पर असली मामला चरित्र का है। चरित्ररहित हो जाने के बाद क्या तो सेकुलर और क्या तो नॉन-सेकुलर। वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुक्त हो कर दिखाना भाजपा के लिए असंभव है। उसका सारा मजमा तो इसीलिए जुटा है कि वह सेकुलर नहीं है। सेकुलर होने का फैसला करनेवाली भाजपा में कितने नेता, कितने कार्यकर्ता रह जाएंगे? जब भैंस ही पानी में डूब जाएगी, तब उसकी दुम बचा कर क्या होगा?

यथार्थ और आदर्श, दोनों की मांग यह है कि भाजपा जैसी तंगदिल, तंगदिमाग पार्टियों का अस्तित्व होना ही नहीं चाहिए। इसलिए भाजपा को जो सर्वोत्तम सलाह दी जा सकती है, वह यह है कि वह अपने को सुपुर्दे-खाक कर दे। अगर उसमें यह हिम्मत नहीं है, तो उसके लिए दूसरा सर्वोत्तम विकल्प यह है कि वह अपने जन्मदाताओं की इच्छाओं का ध्यान करे और उनके अनुसार चलने की कोशिश करे। लेकिन क्या यह कोशिश सफल होगी? सफल इसलिए नहीं होगी कि संघ के जो आदर्श हैं, उनके आधार पर कोई जनतांत्रिक दल चलाना संभव नहीं है। 000

चिरंतन प्रश्न

बलात्कार का हरजाना
राजकिशोर

बलात्कार के हरजाने पर श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी और सुश्री मायावती के बीच जो कर्कश विवाद हुआ, वह चाहे कितना ही दुर्भाग्यपूर्ण हो, पर एक वास्तविक मुद्दे को सामने लाता है। कैसे? यह स्पष्ट करने के लिए मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाना चाहता हूं। संभव है, यह एक लतीफा ही हो, पर है बहुत मानीखेज। एक अमीर आदमी ने किसी व्यक्ति पर जूता चला दिया था। उस पर अदालत में मुकदमा चला। जज ने जूता फेंकने वाले पर सौ रुपए का जुर्माना किया। इस पर उस अमीर आदमी ने अदालत में दो सौ रुपए जमा कर दिए और शिकायतकर्ता को वहीं खड़े-खड़े एक जूता और रसीद किया। फर्ज कीजिए कि जज ने अगर उसे हफ्ते भर जेल की सजा सुनाई होती, तब भी क्या उस धनी व्यक्ति ने शिकायतकर्ता को एक और जूता लगाया होता और अदालत से प्रार्थना की होती कि अब आप मुझे दो हफ्ते की जेल दे दीजिए?

हमारे देश में बलात्कार, सामूहिक हत्या, दुर्घटना आदि के बाद सरकार द्वारा रुपया बांटने की जो नई परंपरा शुरू हुई है, वह गरीब या दुर्घटनाग्रस्त लोगों में पैसे बांट कर अपना अपराधबोध कम करने और पीड़ितों के कष्ट को कम करने का तावीज बन कर रह गया है। दिल्ली में सिखों की सामूहिक हत्या के बाद भी पीड़ित परिवारवालों के लिए कुछ सुविधाओं की घोषणा की गई थी। लेकिन इससे उनके मन की आग शांत नहीं हुई है। हर साल उनकी ओर से जुलूस-धरने का आयोजन होता है कि हमें न्याय दो। पैसा देना न्याय नहीं है। यह आंसू पोंछना भी नहीं है। यह किसी की जुबान को खामोश करने के लिए उसे चांदी के जूते से मारना है।

पैसा लेना भी न्याय नहीं है। इंडियन पीनल कोड की बहुत-सी धाराओं में लिखा हुआ है कि इस अपराध के लिए कारावास या जुर्माना या दोमों से दंडित किया जाएगा। यहां तक कि बलात्कार, हत्या करने की चेष्टा, राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन, पूजा स्थल पर किए गए अपराध, मानहानि, अश्लील कार्य और गाने तथा ऐसे दर्जनों अपराधों के लिए भी कैद के अलावा या उसके साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। यह कानून सन 1860 में बनाया गया था। इस पर सामंती न्याय प्रणाली की मनहूस छाया है। सामंती दौर में राजा जिससे कुपित हो जाता था, उसकी सारी संपत्ति जब्त कर लेता था, ताकि वह दर-दर का भिखारी हो जाए। ब्रिटिश भारत में और स्वतंत्र भारत में दंडित व्यक्ति से धन छीनने पर यह सामंती आग्रह बना रहा। अरे भाई, किसी ने अपराध किया है तो उसे सजा दो, उसके पैसे क्यों छीन रहे हो? राजाओं और सामंतों का पैसे के लिए लालच समझ में आता है। लूटपाट करने के लिए वे कहां से कहां पहुंच जाते थे। उपनिवेशवादियों ने भी ऐसा ही किया। पर स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत अपराधी से पैसे क्यों वसूल करता है?

जुर्माना लेने के पीछे जो भावना है, वही भावना आर्थिक हरजाना देने के पीछे है। किसी कारवाले ने धक्का दे कर मुझे गिरा दिया और फिर मेरी मुट्ठी में पांच सौ रुपए रख कर चल दिया। क्या इसे ही इनसाफ कहते हैं? ज्यादा संभावना यह है कि अदालत भी कारवाले को यही सजा देगी। यह कुछ ऐसी ही बात है कि एक भाई किसी लड़की के साथ बलात्कार करे और दूसरा भाई उसकी मुट्टी में कुछ नोट रखने के लिए वहां पहुंच जाए। यह शर्म की बात है कि अनुसूचित जातियों से संबंधित एक कानून में अनेक अपराधों के लिए सरकार द्वारा पैसा देने का प्रावधान है। यह गरीबी का अपमान है। कोई भी स्वाभिमानी आदमी ऐसे रुपए को छूना भी पसंद नहीं करेगा। जो रुपया दुनिया में अधिकांश अपराधों का जन्मदाता है, उसे ही अपराध-मुक्ति का औजार कैसे बनाया जा सकता है? हरजाना देने का मुद्दा तब बनता है जब अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष की कमाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने के बाद उसकी पत्नी, बच्चों तथा अन्य प्रभावित परिवारियों को आर्थिक सुरक्षा देना न्याय व्यवस्था तथा राज्य व्यवस्था दोनों का कर्तव्य है। दूसरी ओर, बलात्कार की वेदना और उससे जुड़े कलंक का कोई हरजाना नहीं हो सकता।

पुस्तकालय में किताब देर से लौटाना, देर से दफ्तर आना, गलत जगह गाड़ी पार्क कर देना – ऐसी छोटी-मोटी गड़बड़ियों के लिए जुर्माना ठीक है। इसका लक्ष्य होता है ऐसी चीजों को निरुत्साहित करना। लेकिन जिस हरकत से किसी को या सभी को नुकसान पहुंचता है या नुकसान पहुंच सकता है, उसके लिए तो कारावास ही उचित दंड है। दिल्ली में कानून द्वारा निर्धारित स्पीड से ज्यादा तेज गाड़ी चलाने की सजा पांच सौ रुपए या ऐसा ही कुछ है। यह न्याय व्यवस्था सड़क पर चलनेवालों का अपमान है। जिस कृत्य से एक की या कइयों की जान जा सकती है, उसके लिए तो कुछ दिनों के लिए जेल की मेहमानी ही उचित पुरस्कार है। जब बलात्कार या ऐसे किसी अपराध अथवा दुर्घटना के लिए सरकार पीड़ितों में पैसा बांटती है, तो वह दरअसल अपने पर ही जुर्माना ठोंकती है। कायदे से सराकार को अपने को दंड़ित करना चाहिए यानी जिस सरकारी कर्मचारी की गफलत से ऐसा हुआ है, उसके खिलाफ मुकदमा चलाना चाहिए। यह एक मुश्किल काम है, क्योंकि हर सरकार अपने कर्मचारियों का बचाव करने की कोशिश करती है। इससे आसान है जनता के खजाने से थोड़ी रकम निकाल कर पीड़ित को दे देना। यह रकम अगर मंत्रियों और अफसरों की जेब से वसूल की जाती, तब भी कोई बात थी। 000

Sunday, August 30, 2009

चलो नास्तिक बनें


नास्तिकों की बस
राजकिशोर


दोस्तोएवॉस्की ने कहा था कि अगर ईश्वर नहीं है, तो हमें उसका आविष्कार करना होगा, नहीं तो हर कोई हर कुछ करने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा। इस महान रूसी लेखक की मृत्यु के 130 साल बाद भी नास्तिक इससे सहमत नहीं हो पाए हैं। बल्कि पिछले कुछ वर्षों से उनकी गतिविधियां कुछ तेज हुई हैं। इसके पीछे रिचर्ड डॉकिन्स की पुस्तक ‘द गॉड डेल्यूजन’ नाम की अत्यंत पठनीय किताब की भी कुछ भूमिका हो सकती है। यह किताब पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी और तब से लगातार इंटरनेशनल बेस्टसेलर बनी हुई है। यह ईश्वर के अस्तित्व को आदमी की खामखयाली साबित करनेवाली दर्जनों पुस्तकों की सिरमौर है। मेरे पास पैसा होता, तो मैं इस पुस्तक का अनुवाद संसार की हर भाषा में करवाता और आधी कीमत पर लोगों को उपलब्ध करवाता। दिलचस्प यह है कि इस पुस्तक की एक प्रति मुझे इंग्लैंड के एक पादरी ने उपहारस्वरूप भिजवाई थी। उन्हें पता है कि मैं नास्तिक हूं। फिर भी उन्होंने मेरे लिए यही किताब चुनी तो इसे उनकी विनोद वृत्ति का ही उदाहरण मानना चाहिए। इससे उनकी यह आश्वस्ति भी झलकती है कि ऐसी किताबें ईश्वर का क्या बिगाड़ लेंगी!

नास्तिक भी इस बात को जानते हैं। इसलिए वे नास्तिकता का प्रचार-प्रसार करने के लिए दूसरे रास्ते खोजने लगे हैं। ब्रिटेन में नास्तिकों की एक संस्था ने शहर भर की बसों में यह नारा पेंट करवा दिया है -- ईश्वर शायद नहीं है। इसलिए चिंता करना छोड़ें और अपने जीवन का आनंद लें। (यहां शायद अंग्रेजी के परैप्स का नहीं, प्रोबेबली का अनुवाद है।) इस अभियान के लिए जितने चंदे की उम्मीद की गई थी, उससे ज्यादा पैसा आया। लंदन में यह अभियान इतना जबरदस्त साबित हुआ कि यूरोप के दूसरे देशों जर्मनी, इटली, फिनलैंड, स्पेन आदि तथा में भी नास्तिक बसें दिखाई देने लगीं। संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ शहरों में भी ये बसें चलीं, पर कनाडा की सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। अब नास्तिकों की यह संस्था इस अभियान के लिए चंदा नहीं ले रही है। उसने एक व्यापक मानववादी अभियान की योजना बनाई है, जिसके लिए 50,000 पाउंड चंदा जमा करने का लक्ष्य तय किया गया है। अभी तक करीब 10,000 पाउंड प्राप्त हो चुका है।

हो सकता है, भारत के कुछ उदार लोग भी इन चंदादाताओं में हों। ऐसे लोगों से और उनसे जिनके पास सार्वजनिक कामों पर खर्च करने के लिए पैसा है, मैं निवेदन करूंगा कि वे भारत में भी ऐसे विज्ञापन प्रकाशित करने की ओर ध्यान दें। भारत में नास्तिकता की बहस एक जमाने में बहुत गंभीरता से शुरू हुई थी। तब के कम्युनिस्ट सचमुच नास्तिक होते थे और यह साबित करने के लिए वे बहुत कुछ करते थे तथा कुछ और भी करने के लिए तैयार रहते थे। पर अब वे अपने वोटरों को नाराज नहीं करना चाहते और मूर्ति पूजा के धार्मिक आयोजनों में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते हैं। ध्यान देने की बात है कि मूर्ति पूजा का विरोध ऐसे लोग भी करते आए हैं जो परम आस्तिक थे। जैसे स्वामी दयानंद। स्वयं महात्मा गांधी ने न कभी मूर्ति पूजा में दिलचस्पी दिखाई और न इसे प्रोत्साहित किया। यह हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू घोषित रूप से नास्तिक थे। लेकिन स्वयं उनके परिवार में भी यह परंपरा नहीं बन पाई। भगत सिंह एकमात्र क्रांतिकारी थे, जिन्होंने हिम्मत के साथ ‘¨मैं नास्तिक क्यों हूं’ जैसी ताकतवर पुस्तिका लिखी। यह पुस्तिका पिछले तीस सालों से बार-बार छापी जाती रही है। दुख इस बात का है कि भगत सिंह के इस घोषणापत्र का जैसा असर होना चाहिए था, वह दिखाई नहीं पड़ रहा है। भारत जैसे-जैसे परिपक्व हो रहा है, उसके प्रबुद्ध नागरिक धार्मिक कर्मकांडों में उतना ही ज्यादा शामिल हो रहे है। इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रक्रिया को चुनौती देने के लिए नास्तिकता के पक्ष में कैंपेन चलना आवश्यक लगता है।

जब यूरोपीय समाज जैसे तर्कशील और जाग्रत समुदाय में ईश्वर का बोलबाला बना हुआ है और वहां के लोगों को नास्तिकता की बस जैसे अभियान चलाने की जरूरत महसूस हो रही है, तो भारत की तो बात ही क्या है! यहां तो लोग आज भी अपने ‘ दैहिक, दैविक, भौतिक’ ताप शांत करने के लिए धर्मगुरुओं के सुझाव पर बंदरों को केला और गायों को गुड़ खिलाते हैं, शनि महाराज की पूजा करते हैं और दरगाहों पर चादर चढ़ाते हैं। मजे की बात है कि इस वर्ग में शिक्षित, बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक भी शामिल हैं। मकान की नींव रखते समय तो शिला पूजन और कोई बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग करने के पहले नारियल फोड़ना वगैरह तो सरकार के तत्वावधान में भी होता है। इस समय भारतीयों के जीवन में पंचांग और ज्योतिष का दखल जितना बढ़ गया है, उतना शायद पहले कभी नहीं रहा होगा। ऐसी स्थिति में वास्तविक रूप से शिक्षित तथा चिंतनशील वर्ग का कर्तव्य क्या है, क्या यह दुहराने की जरूरत है?

मेरा अपना मानना यह है कि ईश्वर है या नहीं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर वह है भी, तो उससे हमें कोई सहायता नहीं मिलती, क्योंकि दी हुई परिस्थिति का सामना तो हमें अपनी बुद्धि और संसाधनों से ही करना होता है। ईश्वर नहीं हो, तो अपने पुरुषार्थ पर हमारा भरोसा अपने आप बढ़ जाता है। जहां तक ईश्वर को प्रसन्न करके कुछ प्राप्त करने या अपने कर्मों के परिणामों से बचने की जुगत का सवाल है, तो इस मामले में हमारे समय के सबसे महान आस्तिक महात्मा गांधी की राय मुझे बहुत भाती है। उनका कहना था कि मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मुझसे खुश हो कर ईश्वर मुझे मेरे कर्मों की सजा न दे। जो भक्ति से प्रसन्न हो कर अपने नियम तोड़ने के लिए जाना जाता हो, ऐसे ईश्वर से यह उम्मीद कौन कर सकता है कि वह सृष्टि का संचालन न्यायपूर्वक कर रहा होगा? 000




प्रेम की विडंबनाएँ

एकनिष्ठता का सवाल
राजकिशोर


जैसे उत्तर भारत के समाज को समझने के लिए प्रेमचंद को बार-बार पढ़ने की जरूरत है, वैसे ही स्त्री-पुरुष संबंध के यथार्थ पर विचार करने के लिए शरत चंद्र को बार-बार पढ़ना चाहिए। हाल ही में शरत बाबू का अंतिम उपन्यास शेष प्रश्न पढ़ने का अवसर मिला, तो मेरे दिमाग में तूफान-सा आ गया। स्त्री-पुरुष संबंध का शायद ही कोई आयाम हो जिस पर इस विचार-प्रधान, पर अत्यंत पठनीय उपन्यास में कुछ न कुछ नहीं कहा गया हो। और, जो भी कहा गया है, वह इतना ठोस है कि आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है जितना 1931 में, जब यह पहली बार प्रकाशित हुआ था। हैरत होती है कि हिन्दी की स्त्रीवादी लेखिकाएँ शरत चंद्र को उद्धृत क्यों नहीं करतीं। क्या इसलिए कि वे स्त्री नहीं, पुरुष थे ?

जिस एक बिन्दु पर शरत चंद्र की स्थापना सबसे ज्यादा उत्तेजक है, वह है एकनिष्ठता का मुद्दा। लगभग सारी संस्कृतियाँ स्त्री-पुरुष संबंधों में एकनिष्ठता की कायल रही हैं। ईसाई समाजों ने तो इसे कानून की शक्ल भी दे दी, जिसका अनुकरण दूसरे समाज कर रहे हैं। बहरहाल, एकविवाह प्रणाली और एकनिष्ठता में फर्क है। एकविवाह प्रणाली एक समय में एक ही संबंध की पक्षधर है। लेकिन इसमें एक संबंध के टूट जाने पर नया संबंध करने पर रोक नहीं है। इस तरह, कोई स्त्री या पुरुष, हर विवाह में वफादारी निभाते हुए भी, एक के बाद एक असंख्य विवाह कर सकता है। इसीलिए इसे क्रमिक बहुविवाह कहा जाता है। एकनिष्ठता कुछ अलग ही चीज है। इसका सहोदर शब्द है, अनन्यता। कोई स्त्री या पुरुष जब अपने प्रेम पात्र के साथ इतनी शिद्दत से बँध जाए कि न केवल उसके जीवन काल में, बल्कि उसके गुजर जाने के बाद भी कोई अन्य पुरुष या स्त्री उसे आकर्षित न कर सके, तो इस भाव स्थिति को अनन्यता कहा जाएगा। यही एकनिष्ठता है। आज भी इसे एक महान गुण माना जाता है और ऐसे व्यक्तियों की पूजा होती है।

हैरत की बात यह है कि शेष प्रश्न की नायिका कमल, जो लेखक की बौद्धिक प्रतिनिधि है, एकनिष्ठता के मूल्य को चुनौती देती है। उसकी नजर में, यह एक तथ्यहीन, विचारहीन, मूर्खतापूर्ण, जड़ परंपरा का अवशेष है जिसे प्लेग के चूहे की तरह तुरंत घर से बाहर फेंक देना चाहिए। यह प्रसंग उठता है शेष प्रश्न के एक प्रमुख पात्र आशुतोष गुप्त की अपनी मृत पत्नी के प्रति एकनिष्ठता की तीव्र भावना से। जब कमल यह घोषित करती है कि नर-नारी के प्रेम व्यापार में अनन्यता को मैं न आदर्श मानती हूं और न ही इसे अतिरिक्त महत्व देती हूँ, तो वयोवृद्ध आशु बाबू विचलित हो जाते हैं। वे कमल से कहते हैं, ‘कमल, तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो। मैं पाप-पुण्य की बात नहीं करता, फिर भी सत्य यह है कि मेरे लिए मणि की माँ के स्थान पर किसी दूसरी स्त्री को अपनाने की सोचना तक संभव नहीं।’ कमल का उत्तर चौंकानेवाला है। वह कहती है, इसका कारण यह है कि आप बूढ़े हो गए हैं।

आशु बाबू बूढ़े हो चुके हैं ? हाँ, वे आज बूढ़े जरूर हैं, पर उस समय तो वे बूढ़े नहीं थे, जब उनकी हृदयेश्वरी चल बसी थी। कमल का कहना है कि दरअसल, वे उस समय भी तन से भले ही बूढ़े न रहे हों, मन से पक्के बूढ़े थे। कमल की नजर में बुढ़ापे की परिभाषा यह है : ‘मेरी दृष्टि में ‘सामने की ओर न देख पाना ही मन का बुढ़ापा है। हारे-थके मन द्वारा भविष्य के सुखों, आशाओं, और आकांक्षाओं की उपेक्षा करके अतीत में रमने को, कुछ पाने की इच्छा न रखने को, वर्तमान को एकदम नकारने को और भविष्य को निरर्थक समझने को मैं मन का बुढ़ापा मानती हूँ। अतीत को सब कुछ समझना, भोगे हुए सुख-दुखों की स्मृति को ही अमूल्य पूँजी मान कर उसके सहारे शेष जीवन जीना ही मन का बुढ़ापा है। ’ उपन्यास के आखिरी पन्ने तक आशु बाबू अपने बारे में इस विश्लेषण से सहमत नहीं हो पाते। कमल से उनके अंतिम शब्द ये हैं : ‘कमल, तुम मणि की माँ के प्रति मेरे आज तक चल रहे अविच्छिन्न बंधन को मोह का नाम दोगी, इसे मेरी दुर्बलता का नाम दे कर मेरा उपहास करोगी, किन्तु जिस दिन यह मोह जाता रहेगा, उस दिन मनुष्य का और भी बहुत कुछ नष्ट हो जाएगा। इस मोह को भी तपस्या का फल समझना, बेटी। ’

ऐसा लगता है कि खुद शरत चंद्र एकनिष्ठता की पहली को सुलझा नहीं सके थे। यह आदर्श उन्हें उलझन में डालता था तो कहीं से मोहित भी करता था। शेष प्रश्न में दो अनन्य प्रेमी युगल अपना पार्टनर बदल लेते हैं। लेकिन आशु बाबू के अदम्य प्रेम का दीपक पूरी पुस्तक में जलता रहता है। कमल के लिए यह कितना ही अस्वाभाविक हो, आशु बाबू के लिए यही स्वाभाविक है। जब उसका पुराना साथी शिवनाथ उसे छोड़ देता है और दूसरी स्त्री को अपना लेता है, तो वह दुखी होती है, पर सती होना उसे कबूल नहीं है। वह अपने हृदय की खाली जगह एक अन्य पुरुष से भर लेती है।

इस मंथन से निष्कर्ष यह निकलता दिखाई देता है कि किसी से एकनिष्ठता की माँग करना नैतिक नहीं है। प्रेम पैदा होता है, तो मर भी सकता है। लेकिन अगर किसी ने एकनिष्ठता का जीवन चुना है, तो उसे बौड़म या ठहरा हुआ क्यों मान लिया जाए? सबको अपना जीवन अपने तरीके से जीने का अधिकार है। एक तरीका किसी को ठीक लगता है, तो इससे दूसरा तरीका अपने आप बुरा नहीं हो जाता। 000

Wednesday, June 24, 2009

माओवादियों पर पाबंदी

लालगढ़ के बाद क्या


लालगढ़ को सशस्त्र बल द्वारा मुक्त कराना मेरी एक पुरानी धारणा की पुष्टि करता है। बहुत दिनों से मुझे यह लग रहा है कि अगर देश के भीतर कोई क्षेत्र मुक्तांचल बन जाता है, जहां पुलिस की चलती है प्रशासन की, तो इसका मुख्य कारण यह है कि राज्य और केंद्र सरकारें उस क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहतीं। यह मुक्तांचल चाहें नक्सलवादियों द्वारा स्थापित किया गया हो, चाहे गुंडा तंत्र द्वारा अथवा किसी डकैत गिरोह द्वारा। राज्य चाहे तो ऐसे किसी भी क्षेत्र को दो-चार दिनों से ले कर महीने-दो महीने तक की गंभीर कार्रवाई में भारतीय संविधान के दायरे में ला सकता है। इस धारणा के समर्थन में सबसे पहले वीरप्पन का नाम लिया जाना चाहिए, जो लंबे समय तक कर्नाटक और तमिलनाडु के जंगलों में बिना किसी चुनौती के अपना राज चलाता रहा। जब उसकी उपस्थिति राज्य के लिए सचमुच असह्य हो गई, तो उसे मारने में महीना भर भी नहीं लगा। हाल में हुई इस तरह की घटना चित्रकूट में बहुत समय से मनमानी कर रहे डाकू घनश्याम केवट को घेर कर उसका एनकउंटर है। केवट वीरप्पन जैसा महाबली नहीं था। फिर भी उसे तब तक बरदाश्त किया जाता रहै जब तक राज्य सरकार के लिए वह असह्य नहीं हो गया। चाहे जिस कारण से भी हो, लालगढ़ की स्वायत्तता के तब तक सहन किया गया जब तक यह राजनीतिक नजरिए से ठीक था। जब मामला जीरो टॉलरेंस के दायरे में गया, तब राज्य सरकार ने केंद्रीय बलों की सहायता से कई दिनों में ही वारा-न्यारा कर दिया।

सवाल लाजिम है कि सरकारों में हिंसा और आतंकवाद द्वारा स्थापित मुक्तांचलों के प्रति यह उदासीनता क्यों देखी जाती है। जब कुछ सौ प्रदर्शनकारी अपनी लोकतांत्रिक मांगों के समर्थन में छोटा-मोटा जुलूस निकालते हैं, तो यह राज्य को अपने लिए एक बड़ी चुनौती प्रतीत होती है और क्रूर दमन का फैसला करते हुए उसे कुछ मिनट भी नहीं लगते। वरुण गांधी जैसा छोटा-मोटा और नया-नया खिलाड़ी जब कुछ उत्तेजक भाषण देता है, तो राज्य सरकार को वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक लगने लगता है। बताते हैं कि देश का एक उल्लेखनीय हिस्सा नक्सलवादी प्रभाव में है। पर इस प्रभाव को खत्म करने के लिए तो राज्य सरकारें परेशान हैं और केंद्र सरकार। माजरा क्या है?

माजरा यह है कि ये सभी इलाकें भारतीय राज्य के लिए फालतू इलाके हैं जहां से तो कुछ राजस्व मिलता है और इससे कुछ फर्क पड़ता है कि इन इलाकों पर किसका कब्जा है। ये इलाके दरअसल राज्य के लिए एक बोझ हैं, क्योंकि वहां की जावन स्थितियों को बेहतर करने के लिए राज्य को सिर्फ खर्च ही खर्च करना है। जो गाय दूध नहीं देती, उसे फालतू में एक्स्ट्रा चारा खिलाते रहने में कौन-सी बुद्धिमानी है? इसलिए राज्य का नजरिया यह रहा है कि यहां चाहे जिसका राज हो, हमें क्या मतलब? राज्य तब थोड़ी-बहुत कार्रवाई करने के लिए विवश हो जाता है जब हिंसा की चिनगारियां उसके खास लोगों तक पहुंचने लगती हैं। लालगढ़ भी ऐसा ही इलाका है, जहां भूख और वस्त्रहीनता का स्थायी वातावरण रहा है। जब लालगढ़ की चिनगारियां दूर तक पहुंचीं और प. बंगाल के मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री को बारूदी सुरंगों के ऊपर से गुजरना पड़ा, तब कुछ करना जरूरी हो गया। लालगढ़ की एक खूबी यह भी थी कि वहां मार्क्सवाद की ही एक और धारा प्रभावशाली होने लगी थी और सवाल यह पैदा हो गया था कि आज लालगढ़ तो कल बंगालगढ़। यह ओम (ऑफिशियल मार्क्सवाद) को कैसे बर्दाश्त हो सकता था?

लालगढ़ के बाद उचित कदम यह था कि देश के अन्य नक्सल-प्रभावित इलाकों को भी आजाद कराने का उपक्रम शुरू कर दिया जाता। छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और बिहार की सरकारें, अपनी-अपनी बुद्धि और आवश्यकता के अनुसार इस दिशा में कोशिश करती रही हैं। इस कोशिश के चलते आंध्र प्रदेश सरकार को थोड़ी शाबाशी मिली है, छत्तीसगढ़ सरकार को काफी बदनामी झेलनी पड़ी है और बिहार सरकार के बारे में कोई धारणा नहीं बनाई जा सकी है, क्योंकि वहां नक्सलवाद का दमन अभी शैशवावस्था में है। उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड, मध्य प्रदेश आदि की सरकारें अभी भी उदासीनता के उसकी स्टेज में हैं जिसका जिक्र उपर किया गया है। यह केंद्र सरकार का राजनैतिक और नैतिक, दोनों प्रकार का कर्तव्य था कि वह देश भर में राजनीतिक चेतना जाग्रत कर और प्रभावित राज्यों की सरकारों से संवाद कर एक बृहत कार्रवाई प्रारंभ कर देती। राष्ट्रपति जी ने मनमोहन सिंह की इस सरकार की प्राथमिकताओं की घोषणा करते हुए पहले सौ दिनों का जो कार्यक्रम बताया था, उसमें नक्सलवाद की चुनौती का सामना करना भी था।

लालगढ़ में केंद्र सरकार की सशस्त्र कार्रवाई की सफाई देते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बताया कि प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को केंद्रीय बलों की मांग के लिए पत्र लिखे जाने पर अर्धसैनिक बलों को रवाना किया गया। तो क्या जब तक कोई राज्य सरकार नक्सलवाद का सफाया करने के लिए केंद्र से अर्धसैनिक सहयोग नहीं मांगेगी, तब तक केंद्र इस समस्या से मुंह मोड़े रहेगा? क्या नक्सल-प्रभावित इलाके सिर्फ राज्य सरकार की जिम्मेदारी हैं ? वहां केंद्र की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है? क्या केंद्र इन राज्य सरकारों से यह नहीं कह सकता कि अगर आप इन इलाकों में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते, तो मजबूर हो कर हमें यह काम करना पड़ेगा?

नहीं, केंद्र ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि उसे इस तरह की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है। उसके लिए इतना ही काफी है कि नक्सल-प्रभावित इलाके उसके लिए कोई चुनौती बनें। लेकिन केंद्र को यह दिखाना पड़ता है कि हम किसी राज्य विशेष के साथ पक्षपात नहीं करते। हमारे लिए तो सभी राज्य सरकारें बराबर हैं। यह साबित करने के लिए ही माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित किया गया है। माओवादियों को या उनसे राजनीतिक सहानुभूति रखनेवालों को इससे बहुत चिंतित होने की जरूरत नहीं है। यह तो सिर्फ एक कानून है। अगर कानून बनाने से ही सब कुछ हो जाता, तो देश भर में दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, वेश्यागमन, दहेज हत्याएं, बलात्कार, तस्करी, भिक्षावृत्ति, गुंडागर्दी, रंगदारी, टैक्स चोरी आदि कभी के रुक जाते। इस नए प्रतिबंध से होगा यह कि राज्य सरकारों को कुछ और अधिकार मिल जाएंगे, जिनका इस्तेमाल बिनायक सेन जैसे भले आदमियों को परेशान करने में हो सकता है। राज्य सरकारें चाहतीं, मेरा मतलब है सचमुच चाहतीं, तो इस प्रतिबंधक कानून के बगैर भी माओवादियों को संविधान के दायरे में ला सकती थीं। इसलिए अगर कोई पूछता है कि लालगंज के बाद क्या, तो जवाब हाजिर है, ठेंगा!