Tuesday, February 12, 2008

राज ठाकरे से आगे भी सोचिए

मुंबई, दिल्ली और उससे आगे
राजकिशोर

ऐसा लगता है कि मुंबई और दिल्ली दोनों एक ही समस्या से परेशान हैं। जो बात मुंबई में खुल कर कह दी जाती है, दिल्ली उसकी आंच को लगातार महसूस करती रहती है। मुंबई में बहिरागतों को शहर में न रहने देने के मुद्दे पर समय-समय पर लड़ाई-झगड़ा होता रहता है, दिल्ली में इस मुद्दे को ड्राइंगरूम और दफ्तर में गॉसिप करते समय उठाया जाता है। मुंबई में सिर्फ मराठी ही रह सकते हैं, इस मांग को ले कर बाल ठाकरे ने कभी एक ऐसा अभियान चलाया था जिसने उन्हें ताकत, दौलत और शोहरत दी, पर मुंबई को गैर-मराठी लोगों के लिए सर्वथा असुरक्षित बना दिया। दिल्ली में ऐसा कोई अभियान नहीं खड़ा हुआ है, पर यहां की मुख्य मंत्री और उपराज्यपाल तक बिहार और उत्तर प्रदेश से आनेवालों की गंदी आदतों की शिकायत सार्वजनिक रूप से कर चुके हैं। बहिरागतों के सवाल पर मुंबई में अभियान छेड़ा जा सका और अब फिर छेड़ने की कोशिश हो रही है, इसके क्या कारण हैं और दिल्ली में ऐसे अभियान की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसके क्या कारण हैं, यह एक अलग सवाल है। मुद्दे की बात यह है कि ऐसी समस्याएं पैदा ही क्यों होती हैं। इस समस्या से आज दिल्ली और मुंबई तनावग्रस्त हैं, तो कल बेंगलूर, हैदराबाद और चेन्नई में भी ऐसी ही स्थिति पैदा हो सकती है।
इसमें क्या संदेह है कि बाहर से आ कर बस जानेवालों के प्रति इस नापसंदगी या घृणा का बड़ा कारण जनसंख्या की अबाध वृद्धि है, जिससे शहर का जीवन तनावग्रस्त हो जाता है। जनसंख्या बढ़ती है, तो संसाधनों पर दबाव बढ़ता ही है, जिससे कम आयवाले वर्ग का जीवन मुश्किलों से घिर जाता है। कोई भी नगर नागरिकों की एक खास संख्या को नागरिक सुविधाएं देने की प्रतिज्ञा पर बनाया जाता है। लेकिन जो शहर तीस लाख की आबादी के लिए बनाया हो, वहां एक करोड़ तीस लाख लोग आ बसें, तो शहर का आधारभूत ढांचा चरमराने को बाध्य है। इनमें से अधिक लोग बाहर से आ कर बस गए हों या बस रहे हों, तो उनके प्रति गुस्सा तो पैदा होगा ही। जब बाहर से आनेवाले स्थानीय लोगों से ज्यादा समृद्ध हो रहे हों, तब तो सामान्य मानव ईर्ष्या का एक सामुदायिक स्वरूप बन ही जाएगा। यह कहना ठीक नहीं है कि शहर किसी का नहीं होता। तब तो राज्य भी किसी के नहीं हो सकते। फिर भाषावार राज्यों के गठन का मतलब क्या हुआ? और फिर, राष्ट्र ही किसी का क्यों हो? हर मनुष्य में एक राष्ट्रीय चेतना होती है, लेकिन उसमें उपराष्ट्रीय तथा स्थानीय चेतना भी होती है। कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगे, तो इससे समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है। उचित यह है कि पहचान की सभी चेतनाएं अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और एक-दूसरे की सीमा में दखल न दें। इसके लिए किसी भी नगर या कस्बे जनसांख्यिकीय चरित्र को इतना नहीं बदल देना चाहिए कि तमाम तरह की विकृतियां पैदा होने लगें। किसी भी स्थिति में किसी भी प्रकार की असहिष्णुता का समर्थन कभी नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन यह पता लगाना हमेशा उपयोगी रहता है कि असहिष्णुता के कारण क्या हैं। यदि असहिष्णुता किसी मानसिक बीमारी से आ रही है, तो उस बीमारी का इलाज करना होगा। यदि असहिष्णुता के स्रोत भौतिक परिस्थितियों में छिपे हुए हैं, तो इन परिस्थितियों को बदलना होगा।
मानव शरीर के बारे में हम जानते हैं कि उसे मोटा नहीं होना चाहिए। मोटेपन की शुरुआत कहां से होती है, यह भी हमें पता है। स्वास्थ्य की हर किताब मेंं यह सब दिया रहता है। लेकिन लाखों मानव आकृतियां जिस क्षेत्र में रहती हैं, उसके मोटेपन पर विचार नहीं किया जाता। यह आश्चर्य की ही बात है कि आधुनिक वास्तुकला और नगर नियोजन में इस बात पर जोर नहीं दिया गया है कि किसी शहर में कितनी जनसंख्या अभीष्ट है। प्लोटो और चाणक्य से ले कर आधुनिक विचारकों तक ने, जिन्होंने आदर्श जीवन के पैमाने निश्चित करने की कोशिश की है, नगरों के आकार पर गौर किया है और बताया है कि उसकी आदर्श जनसंख्या क्या होनी चाहिए। लेकिन यह सब बातें किताबें बनी हुई हैं। शहर अपनी रफ्तार से भयानक होते जा रहे हैं। दरअसल, पूंजीवादी सरकारें इस तरह का कानून बना ही नहीं सकतीं कि किसी शहर की आबादी का पैमाना इस बिंदु तक भर जाए, तो भराव को वहीं रोक देना चाहिए। आज समस्या सिर्फ मुंबई, दिल्ली या कोलकाता में नागरिक सुविधाओं के चरमराने और विभिन्न सामुदायिक समूहों के बीच वैमनस्य पैदा होने की नहीं, जिसका लाभ टुच्चे राजनेता उठाने की कोशिश करते हैं, दुनिया के सभी बड़े शहरों में आबादी की रफ्तार असंभव गति से बढ़ने की है। बढ़ती हुई आबादी को समेटने के लिए उपनगर बसाए जाते हैं। इससे यातायात की समस्याएं पैदा होती हैं। अगर हिसाब लगाया जाए, तो बड़े शहरों में रहनेवाले बारोजगार लोगों को चौबीस घंटे के दिन में दो घंटे से ले कर छह घंटे तक दफ्तर या कार्यस्थल तक जाने-आने में लग जाते हैं। यह समय बेकार नष्ट होता है। क्या कोई भी बसावट ऐसी नहीं होनी चाहिए कि आने-जाने में आदमी का कम से कम खर्च हो?
पूंजीवाद की केंद्रीय मान्यता प्रतिबंधहीनता है। वह किसी भी बंध या प्रतिबंध को स्वीकार करना नहीं चाहता। चूंकि वह नया व्यापार या रोजगार शुरू करने, उसे बंद करने या स्थानांतरित करने के मामले में पूरी आजादी चाहता है, इसलिए वह श्रमिकों के निर्बंध आवागमन को रोकने के बारे में सोच ही नहीं सकता। इसी से प्रेरित हो कर हमारे संविधान में भी नागरिकों को 'भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार' दिया गया है और इसे मूल अधिकारों में रखा गया है। यह अधिकार मूल्यवान है। मैं तो समझता हूं कि प्रत्येक मनुष्य को दुनिया के किसी भी हिस्से में आने-जाने और बस जाने की आजादी होनी चाहिए। लेकिन ऐसी आजादी का समर्थन करते समय हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि इससे ग्राम अथवा नगर नियोजन को कोई खतरा न पैदा हो जाए। जैसे धरती एक सीमित संख्या में ही जीवधारियों को सहन कर सकती है, वैसे ही कोई गांव या शहर एक सीमित संख्या में ही अतिथियों का स्वागत कर सकता है। यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाने से उसकी नसें फटने लगेंगी।
पूंजीवाद में सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर नियोजन की कोई सुविधा नहीं है (हर आदमी और कंपनी को अपने भावी आय-व्यय का नियोजन करने का अधिकार जरूर है), इसलिए नगरों की आबादी के नियोजन के बारे में भी वह सोचने से इनकार करता है। इस समस्या का एक समाधान कम्युनिस्ट देशों में निकाला गया था। वहां हर किसी को हर कहीं आने-जाने की आजादी तो थी, किन्तु परमिट ले कर। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को मॉस्को में तीन दिन ठहरने का ही परमिट मिला हुआ है, तो वह वहां तीन दिन से ज्यादा नहीं ठहर सकता था। मॉस्कों में स्थायी रूप से रहने यानी बस जाने के लिए सरकार की अनुमति प्राप्त करनी होगी। यह एक अच्छी व्यवस्था है, लेकिन कम्युनिस्ट शासन में इसके साथ इतने उपबंध-प्रतिबंध जुड़े हुए थे और क्षेत्रीय विषमताएं इतनी ज्यादा थीं कि लोगों को आतंक में रख कर ही इस व्यवस्था को चलाया जा सकता था। दिल्ली और मुंबई में भी इस प्रकार की परमिट व्यवस्था शुरू करने की मांग की जाती रहती है -- यह भुला कर कि इससे इन दोनों शहरों की स्थिति सुधरे या नहीं सुधरे, पर देश के बाकी हिस्सों में आशांति मच जाएगी। दिल्ली, मुंबई, बेगलूर आदि अवसरों के शहर हैं। इन अवसरों का लाभ सिर्फ इन शहरों के लोगों को ही क्यों मिलना चाहिए -- देश के बाकी हिस्से के लोगों को किस आधार पर इनसे वंचित किया जा सकता है? कम्युनिस्ट व्यवस्था में रोक की यह प्रणाली विकसित की गई, तो इसका आधार यह था कि हम देश भर के लोगों को एक जैसी खुशहाल जिंदगी देना चाहते हैं, इसलिए कोई अपना गांव या शहर छोड़ कर कहीं और जाना क्यों चाहेंगा? यह और बात है कि इस वादे पर अमल नहीं हुआ। लेकिन पूंजीवाद तो ऐसी किसी समानता का स्वप्न भी नहीं देख सकता, इसलिए वह इस तरह के आग्रह भी नहीं पाल सकता।
खुशी की बात यह है कि लोकतंत्र के लिए पूंजीवाद अनिवार्य नहीं है। लोकतंत्र जीने का एक तरीका है -- इतना व्यापक तरीका कि जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी मांग बढ़ती जा रही है। इसके विपरीत पूंजीवाद उत्पादन और वितरण का एक तरीका है। ऐसे तरीके कई और हैं। यह किसी समाज का लोकतांत्रिक अधिकार है कि वह उत्पादन और वितरण का कौन-सा तरीका अपनाता है। यानी लोकतंत्र पूंजीवाद को संयमित कर सकता है, उस पर तरह-तरह की शर्तें लागू कर सकता है और इनसे भी काम न चले, तो पूंजीवाद को बर्खास्त भी कर सकता है। इसलिए किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह सहज ही संभव होना चाहिए कि वह आबादियों के रहने की व्यवस्था का विवेकीकरण कर सके। ऐसी व्यवस्था में मोटे तौर पर यह पूर्व-निश्चित रहेगा कि गांवों और नगरों की आबादी का ढांचा क्या होगा। ऐसा कोई भी विवेकसंगत और लोकतांत्रिक ढांचा तभी बनाया जा सकता है जब गांव शहर जैसे हो जाएं और शहर तथा शहर के बीच विषमता न हो। यानी किसी देश की पूरी आबादी का रहन-सहन अगर कमोबेश एक ही स्तर पर आ जाए तो किसी का बालम कलकत्ता क्यों जाएगा, किसी का भाई रोजगार की तलाश में मुंबई क्यों भागेगा और किसी की बहन पत्रकारिता या टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए पटना या जबलपुर से दिल्ली क्यों आएगी? पानी तभी एक स्थान से दूसरे स्थान तक तभी सरकता है जब जमीन समतल न हो। जब यह फर्क पहाड़ और खाई जितना हो जाए, तो पानी तूफान की तरह भागेगा। इस सहज प्रक्रिया के कारण ही दुनिया के अधिकांश नगर नर्क होते जा रहे हैं और हमारे शहर तो हो ही चुके हैं।000

तसलीमा क्यों माफी मांगें

माफी तो दासमुंशी को मांगनी चाहिए
राजकिशोर

अगर प्रियरंजन दासमुंशी हिन्दी जानते होते, तो मैं उनकी सेवा में 'सरिता' के सौ-दो सौ अंक भिजवा देता। इस मासिक पत्रिका के हर अंक में दो-चार ऐसे लेख छपते हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद कोई सनातनी हिंदू कह सकता है कि मेरी भावनाओं को गहरी ठेस पहुंची है। लेकिन यह एक रजिस्टर्ड पत्रिका है और कई दशकों से यही काम करती रही है। कभी राम और कृष्ण का उपहास, कभी ऋषियों के चरित्र की चर्चा और कभी देवताओं की लोलुपता के किस्से। 'हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास' तो कई अंकों में धारावाहिक छपा था। 'सरिता' में छपे सभी लेखों को मैं सुरुचिपूर्ण नहीं मानता -- कुछ तो कुरुचिपूर्ण भी होते हैं, इसके बावजूद अगर कोई 'सरिता' पर प्रतिबंध लगाने की मांग करेगा और यह कहेगा कि उसके संपादक को हाथ जोड़ कर हिन्दू समाज से माफी मांगना चाहिए, तो मैं उसका अपनी पूरी ताकत के साथ विरोध करूंगा। मेरी तरह बहुत-से लोगों का मानना है कि ऐसा करके 'सरिता' ने हिन्दू समाज की बहुत बड़ी सेवा की है। उसने लाखों पाठकों की मुंदी हुई आंखों को खोला है और बताया है कि सत्य के साथ सैकड़ों मिथक जाले की तरह चिपके होते हैं और इन जालों को साफ किए बगैर सत्य के निकट नहीं जाया जा सकता। दासमुंशी कहते हैं कि वे साहित्य-प्रेमी हैं। परंतु मुझे पूरा विश्वास है कि अगर वे हिन्दी जानते होते, तब भी मेरे द्वारा भेजी गई सामग्री नहीं पढ़ते। अगर वे सच्चे पाठक होते, तो अपने पढ़ने के अधिकार की रक्षा करना करना चाहते होते। पाठक के लिए जो महत्व पढ़ने के अधिकार का है, लेखक के लिए लिखने के अधिकार की अहमियत उससे कहीं ज्यादा है।

कोई कह सकता है कि भारत में हिन्दू बहुमत में हैं, इसलिए वे आलोचना-प्रत्यालोचना सह सकते हैं, लेकिन मुसलमान यहां अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनकी भावनाओं का विशेष खयाल रखा जाना चाहिए। यह तर्क कुछ हद तक सही है, लेकिन कुछ ही हद तक। साहित्य में इस तरह के तर्कों का महत्व पाव भर आलू से भी कम है। पहली बात यह है कि खेलन में को काको गुसैयां। साहित्य, विज्ञान, कला आदि ऐसे खेल हैं, जिनमें किसी की दादागीरी नहीं चलती। यहां शाह वह होता है, जिसकी मुट्ठी में सत्य होता है। सत्य की विशेषता ही यही है कि उसे कोई भी पूरी तरह नहीं जान सकता। एक बार महात्मा गांधी ने कहा था कि भगवान उतने हो सकते हैं जितने धरती पर आदमी हैं। हर आदमी भगवान को अपने ढंग से परिभाषित करता है। इसी तरह, साहित्य, कला, विज्ञान आदि में कोई एक सत्य नहीं होता, हजारों सत्य होते हैं। यह तय करना मुश्किल, बल्कि असंभव, है कि किसका सत्य सोना है और किसका सत्य पीतल। इसलिए किसी भी सत्य को यह कह कर दबाया नहीं जा सकता कि उसमें झूठ मिला हुआ है। यहां रामचरितमानस लिखा जा सकता है, तो रावण के गुन गानेवाली कविताएं भी लिखी जा सकती हैं -- बल्कि लिखी भी गई हैं। जिस हिन्दू धर्म पर इतना गर्व किया जाता है, उसकी दर्जनों पहेलियां डॉ. आंबेडकर ने गिनवाई हैं। इस अंतर्विरोध के कारण कोई साहित्य ऊंचा या नीचा नहीं हो जाता। साहित्य और कला की परख उसकी उत्कृष्टता से होगी, नकि इस बात से कि उससे कितनी भावनाएं तृप्त हुईं और कितनी भावनाओं को चोट पहुंची। जिसे अपनी भावनाओं को चोट लगने की बहुत ज्यादा फिक्र है, उसे समाज में नहीं, जंगल में रहना चाहिए। समाज में रहेंगे, तो बहस-मुबाहसा होगा ही। इस संदर्भ में माओं की यह उक्ति हमेशा याद रखनी चाहिए : हजारों फूलों को खिलने दो।

दूसरी बात यह है कि तसलीमा नसरीन स्वयं मुसलमान हैं। बांग्लादेश उनकी जन्मभूमि है। यहीं वे बड़ी हुईं, यहीं शिक्षा पाई और यहीं पढ़ना-लिखना शुरू किया। अगर बांग्लादेश के आडंबरवादियों ने उनके लेखन से कुपित हो कर उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया होता या इस मृत्युदंड की घोषणा के बाद बांग्लादेश की सरकार ने इन सभी असहिष्णु लोगों पर मुकदमा चलाया होता और तसलीमा के मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास किया होता, तो शायद वे अभी अपने मुल्क में ही रह होतीं। दक्षिण एशिया की अधिकांश सरकारें डरपोक हैं। वे खुले तर्क--वितर्क से डरती हैं। इसलिए बांगलादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक रात चुपके से इस लोकप्रिय लेखिका को अपने खतरनाक देश से निर्वासित कर दिया -- जाओ बिटिया, जहां भी तुम अपने को सुरक्षित समझो, वहां चली जाओ। हम इन चील-गिद्धों से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते। यह हश्र होता है एक मुसलमान लेखिका का अपने उस देश में, जहां मुसलमान बहुमत में हैं। बांग्ला भारत में भी बोली जाता है और बांग्लादेश में भी। तसलीमा मूलत: पश्चिम बंगाल के पाठकों के लिए नहीं, अपने वतन के पाठकों के लिए लिखती रही है, लिखती हैं। मुसलमान भारत में भले ही अल्पसंख्य हों, पर बांग्लादेश में वे बहुसंख्यक हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने अल्पसंख्यकों का जी दुखी करने के लिए कुछ लिखा होगा। 'सरिता' ने जो काम भारत के हिंदीभाषी हिन्दू समाज के लिए किया है, तसलीमा ने, एक तरह से, वही काम अपने देश के मुसलमान समाज के लिए किया है। उनके इस साहस के लिए सर्वत्र उनकी तारीफ होनी चाहिए। लेकिन भारत के कुछ पिद्दी इस देश को बांग्लादेश जैसा प्रतिबंधक समाज बनाना चाहते हैं। उन्हें अपनी परंपरा का भी ज्ञान नहीं है, तो दूसरी परंपराओं का ज्ञान क्या होगा। कौन-सा देवता है, जिस पर संस्कृत साहित्य में नहीं हंसा गया है। इसी तरह पश्चिमी देशों में ईसा मसीह के अस्तित्व पर ही शक करने और ईसाई धर्म की मान्यताओं की कठोर आलोचना करने की सुदीर्घ परंपरा रही है। इस आत्मनिरीक्षण से इस्लाम भी मुक्त नहीं रहा है। यहां भी सूफी तथा अन्य लोग रहे हैं जिन्होंने इस्लाम के विश्वासों के विपरीत काम किया है और वे जनता के द्वारा पूजे भी गए हैं। मंसूर इसलिए फांसी पर चढ़ गए क्योंकि वे अपने अनहुल हक की घोषणा को वापस लेने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए तसलीमा ने कोई नया और अनोखा काम नहीं किया है। उन्होंने वही किया है जो एक सत्यान्वेषी को करना चाहिए। और, यह कोई नया और अनोखा काम है, तब तो हमें हाथ जोड़ कर उनका अभिनंदन करना चाहिए। दासमुंशी को गर्व है कि उनकी सरकार ने एक समय में सलमान रुश्दी की पुस्तक 'सैटनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध लगा दिया था। बुद्धिमान अपनी अच्छाइयों को भी छिपाता है और अज्ञानी अपने कुकर्मों का भी विज्ञापन करता है। जिस लेखक की एक किताब को हमने अपने देश में घुसने तक नहीं दिया -- बावजूद इसके कि उसका जन्म भारत में ही हुआ था और उसे दुनिया भर में भारतवंशी लेखक माना जाता है, उस लेखक को भी इस्लामी खुराफातियों ने मृत्युदंड दे दिया था, लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने अपने देश के उस लेखक की सुरक्षा के लिए क्या नहीं किया ! आज भी न सलमान रुश्दी झुके हैं और न ब्रिटेन की लोकतंत्री सरकार झुकी है। तसलीमा का विरोध दो देशों के खुराफाती कर रहे हैं। इनमें भी बांग्लादेश के खुराफातियों की तनिक भी परवाह हमारे सूचना-प्रसारण मंत्री को नहीं है। उनकी चिंता राजनीतिक है और यहीं तक सीमित है कि उनका मुसलमान वोटर उनसे नाराज नहीं हो जाए। सलमान रुश्दी को जो चुनौती मिली थी, वह शुुरू तो हुई थी ईरान से, पर उसका समर्थन कई देशों के धार्मिक खुराफाती कर रहे थे। ब्रिटेन में भी विभिन्न देशों से आए और स्वदेशी मुसलमानों की काफी बड़ी संख्या है। लेकिन अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य की रक्षा करने में वहां की सरकार ने न तो धर्म के आधार पर वोटरों की गिनती की, न यह देखा कि रुश्दी की जान बचाने में कितना खर्च आएगा। हम तो कहेंगे कि मूल मानव स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए अगर फना होना पड़े, तब भी किसी देश को और उसके नागरिकों को तैयार रहना चाहिए। मानव अधिकारों के साथ समझौता करके जीना भी कोई जीना है ! जीवन में कुछ तो ऐसे मूल्य होने चाहिए जिनकी रक्षा करने के लिए जान भी दी जा सकती है। वे मूल्य तभी मूल्यवान हैं। लेकिन प्रियरंजन को इस बात का गुरूर है कि उनकी सरकार ने रुश्दी की एक किताब पर रोक लगा दी थी। क्या उन्हें यह भी याद है कि उनकी सरकारों ने और क्या-क्या किया है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लात मारने का जो काम इमरजेंसी के दौरान थोक भाव से किया गया था, वही काम अब वे फुटकर स्तर पर करना चाहते हैं। लेकिन यह बातें मैं किससे कह रहा हूं? एक ऐसे राजनीतिक व्यक्ति से, जो अपनी पार्टी की मुखिया के सामने वह बोल ही नहीं सकता जो उसके मन में है! जिन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का आनंद अपने पूरे राजनीतिक जीवन में एक बार भी नहीं लिया है, वह इस अधिकार के मर्म को कैसे समझ सकता है ! अगर दासमुंशी में थोड़ी भी समझदारी होती, तो अपने वक्तव्य की इतनी कड़ी आलोचना होते देख वे अभी तक देश की जनता से माफी मांग चुके होते। सच तो यह है कि ऐसा कोई भी व्यक्ति सूचना और प्रसारण मंत्री बनने के योग्य नहीं है जिसके मन में लेखक या पत्रकार की गर्दन पर पट्टी बांधने की इच्छा बनी रहती हो। मैं तो यहां तक कहूंगा कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सूचना और प्रसारण मंत्रालय होना ही नहीं चाहिए। किसी आधुनिक समाज में मिनिस्ट्री ऑफ भूत-प्रेत का क्या काम?लेकिन तसलीमा नसरीन न तो धर्मशास्त्र का विवेचन करती हैं और न धर्म-पुरुषों की जीवनी लिखने का काम करती है। यह उनका क्षेत्र नहीं है और उन्हें इसका शौक भी नहीं है। उनका मिशन नारीवादी मिशन है। वे स्त्री को आजाद देखना चाहती हैं। वे पुरुष की तानाशाही को ध्वस्त करना चाहती हैं। इसी क्रम में वे कभी अंधविश्वासों की पोल खोलती हैं, कभी लंपटों के किस्से सुनाती हैं, तो कभी अपनी स्थापनाओं की पुष्टि के लिए इतिहास और मिथकों की दुनिया में सैर करती हैं। अपने पूरे लेखन में और अपनी लंबी आत्मकथा के प्रत्येक खंड में उन्होंने यही किया है। सच तो यह है कि स्त्रियां पुरुषों को चौराहे पर सौ जूतें मारें तब भी पुरुषों का वह पाप नहीं धुल सकता जो कई हजार वर्षों से उन्होंने स्त्रियों के साथ किया है। इसलिए तसलीमा जो कुछ लिखती हैं, उसमें अगर थोड़ी-बहुत तथ्यात्मक चूक हो, तब भी हमें उनसे नाराज नहीं होना चाहिए। तसलीमा का गुस्सा पवित्र गुस्सा है। इस गुस्से की आग में अगर बहुत-से विश्वास और अंधविश्वास स्वाहा हो जाएं, तो इतिहास इस आग का ही साथ देगा -- उस कूड़े का नहीं जिसे जलने से बचाया नहीं जा सका। लेकिन हमारी सरकार क्या कर रही है? वह एक लेखिका को पता नहीं कहां कैद किए हुए है। क्या आज भी मर्दानगी को इसी तरह परिभाषित किया जाएगा? 000

वेलेंटाइन दिवस पर

संत ने यह तो नहीं कहा था
राजकिशोर

भारत के महानगरों में वेलेंटाइन दिवस मनाना इतना लोकप्रिय हो गया है कि संत वेलेंटाइन अपने ही देश के लगने लगे हैं। वैसे, संत स्वभावत: सार्वदेशिक होते हैं। वे किसी विशेष क्षेत्र के भले की नहीं, विश्व भर के हित में सोचते हैं। इसी तरह, सभी समाजों के संतों में कुछ बातें सामान्य होती हैं। फिर भी धार्मिक और सांस्कृतिक परिवेश के कारण संतों के नाम, वेशभूषा, भाषा आदि अलग-अलग हो जाते हैं। यह एक तरह से अच्छा ही है, क्योंकि इससे यह बात साबित होती है कि कोई भी समाज ऐसा नहीं है जिसने संत न पैदा किए हों। यह मानव समाज की विविधता में एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसलिए संत वेलेंटाइन अगर भारत के मध्य वर्ग की युवा पीढ़ी के आकर्षण का केंद्र बन चुके हैं, तो यह कोई हैरत की बात नहीं है।

हैरत की बात यह है कि संत वेलेंटाइन एकमात्र ईसाई समाज में ही पैदा हुए। दूसरी परंपराओं में ऐसा कोई संत दिखाई नहीं देता जो प्रेम और विवाह जैसी चीजों में सिर खपाता हो। माना जाता है कि संत का संबंध इहलोक से नहीं, परलोक से होता है। लेकिन यह बात पूरी तरह से सही नहीं है। यदि धर्म मूलत: धरती के जीवन की समस्याओं का समाधान करने के लिए अस्तित्व में आया था, तो संत भी सामाजिकता से परे नहीं हा सकते। उन्होंने भले ही स्वयं लौकिकता का त्याग कर दिया हो, पर उनकी शिक्षाएं उनके भी काम की हैं जो लौकिकता में डूबे हुए हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो कोई भी समाज संतों की पूजा नहीं करता।
संत वेलेंटाइन किस बात के प्रतीक हैं? उन्हें इसलिए याद किया जाने लगा है कि जब राजा ने शादी करने पर रोक लगा दी, क्योंकि उसे युद्ध के लिए सैनिक चाहिए थे, तो उन्होंने इस तानाशाही के खिलाफ विद्रोह कर दिया और नौजवान जोड़ों की शादी कराने लगे। ऐसा नहीं है कि संत वेलेंटाइन को ब्रह्मचर्य की मान्यता का पता नहीं होगा। ज्यादा संभावना है कि वे स्वयं ब्रह्मचारी ही रहे होंगे। लेकिन मैं अपने लिए ब्रह्मचर्य को उचित मानता हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए उत्सुक नहीं हैं, उनके अधिकारों के अतिक्रमण में सहयोग करने लगूं। जो तर्क सामान्य गृहस्थ के लिए आदरणीय है, वह संतों पर तो और गंभीरता से लागू होता है। इस नाते संत वेलेंटाइन ने अगर विवाहों को प्रोत्साहित करना शुरू किया, तो वे अपने समय के युवकों के एक मूल मानव अधिकार की ही रक्षा कर रहे थे। इसके लिए जिस नैतिक साहस की जरूरत थी, वह किसी संत में ही पाई जा सकती है। गृहस्थ डर का शिकार हो सकता है, वह राज्य की अवमानना करने की हिम्मत नहीं कर सकता, क्योंकि वह तमाम प्रकार के लोभों-प्रलोभों से घिरा होता है। इसके विपरीत, संत ने चूंकि सब कुछ त्याग दिया है, इसलिए उसमें उच्चतम कोटि का साहस आ जाता है। संत वेलेंटाइन, इस तरह, एक आवश्यक साहस के भी प्रतीक हैं।
संत वेलेंटाइन पश्चिम के वर्जनाहीन समाजों की तुलना में उन समाजों के लिए ज्यादा प्रासंगिक हैं, जो अभी भी परंपरागत मानसिकता के शिकार हैं। ये वे समाज हैं जहां स्त्री-पुरुष का जीवन प्रतिबंधों की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। प्रेम करने की आजादी प्रत्येक स्त्री-पुरुष का नैसर्गिक अधिकार है। लेकिन परंपरागत और वर्जनाग्रस्त समाजों में, जिनमें हम भी एक हैं, इस अधिकार को शक की निगाह से देखा जाता है। बुजुर्ग चाहते हैं कि युवा पीढ़ी के अंतरंगतम निर्णय भी उनके आदेश से लिए जाएं। देश के कुछ हिस्सों में प्रेमी युगलों के साथ जो नृशंस व्यवहार किया जाता है, दहेज की मार ने जिस तरह लाखों युवतियों का जीना हराम किया हुआ है, उसे देखते हुए वेलेंटाइन की प्रगतिशील पहल का सम्मान करना चाहिए। वे हमारे भी संत हो सकते हैं, क्योंकि वे परिस्थितियां हमारे यहां काफी मौजूद हैं जिनमें राजा की तो नहीं, पर परिवार और समाज की तानाशाही से युवा हृदयों की तमन्नाओं का गला घोंट दिया जाता है।
इस संदर्भ में जिस बात की ओर हमारा ध्यान जरूर जाना चाहिए कि ईसाई संत ने, दरअसल, प्रेम को सामाजिक बनाने का प्रयास किया था। राजा के आदेश से शादी करना भले ही रुक गया हो, पर प्रेम करने पर कौन रोक लगा सकता है? जब प्रेम को अपनी स्वाभाविक परिणति तक पहुंचने से रोक दिया जाता है, तो समाज में तरह-तरह की विकृतियां फैलने लगती हैं। संत ने जरूर इसे लक्षित किया होगा। तभी उन्होंने प्रेमियों का आह्वान किया होगा कि डरने की जरूरत नहीं, तुम मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विवाह के बंधन में बांधने के लिए तैयार हूं। इस तरह, संत सिर्फ प्रेम करने की स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे, वे चाहते थे कि इसका एक जिम्मेदार स्वरूप भी हो, क्योंकि इसी तरह वह टिकाऊ हो सकता है। प्रेम के आनंद के साथ प्रेम की नैतिकता भी जुड़नी चाहिए। प्रेम का अराजकतावादी दृष्टिकोण व्यक्ति और समाज, दोनों को जहन्नुम की ओर ले जा सकता है।

लेकिन हमारे यहां संत से सीखा नहीं जा रहा है, संत का इस्तेमाल किया जा रहा है। वेलेंटाइन दिवस पर प्रेम प्रदर्शन की इस कदर बाढ़ आ जाती है कि उसके वास्तविक होने पर संदेह होने लगता है। यह सोच कर आश्चर्य होता है कि ये लोग साल भर अपना प्रेम कहां छिपाए हुए थे। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस वर्ग में संत को कुछ ज्यादा ही श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है, उस वर्ग में विवाह को उतनी गंभीरता से नहीं देखा जाता। उनके लिए विवाह खुले रूप से साथ रहने की एक युक्ति भर है। निश्चय ही, संत यह नहीं चाहते होंगे कि नौजवान आज विवाह करें और कल तलाक की दरख्वास्त ले कर काजी के सामने पहुंच जाएं। प्रेम संबंध शरीर मीमांसा का एक अध्याय भर नहीं है। प्रेम करने का साहस विवाह करने की जिम्मेदारी में बदले और विवाह की नैतिकता प्रेम करने की शक्ति को बढ़ाए, संत यह भी चाहते होंगे। परंपरागत विवाह में अगर तानाशाही का तत्व था, तो आधुनिक विवाह किसी गहरी प्रतिबद्धता पर टिका हुआ प्रतीत नहीं होता। इसलिए वेलेंटाइन दिवस के समारोही वातावरण को कोसने की जरूरत नहीं है, नौजवानों को यह याद दिलाने की जरूरत है कि रासरंग के साथ-साथ प्रेम के और भी आयाम होते हैं।