जरूरत है एक समाजवादी पार्टी की
राजकिशोर
चंद्रशेखर की कोई विरासत है तो यही कि उनके दल के नाम के साथ 'समाजवादी' शब्द जुड़ा हुआ था। नवपूंजीवादी नीतियों का विरोध करने के कारण उन्हें समाजवादी मानने वालों से निवेदन है कि इन नीतियों का विरोध ऐसे व्यक्ति या संगठन भी कर रहे हैं जो समाजवादी नहीं हैं। दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी नामक एक राजनीतिक दल भी है जिसके सर्वोच्च नेता को एक अरसे से समाजवादी नेता माना जाता है। मैं उन्हें, एक दूसरे नेता जॉर्ज फर्नांजीस की तरह ही, पूर््व समाजवादी नेता कहना पसंद करूंगा। जनेश्वर मिश्र भी इसी कोटि में आते हैं। ऐसे अनेक नेता आज भी हमारे बीच हैं जिनका अतीत समाजवादी रहा है। लेकिन राममनोहर लोहिया के निधन के बाद इनमें से किसी ने भी समाजवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने का प्रयत्न नहीं किया। ये जिन दलों में रहे या हैं या हैं, वहां भी उन्होंने समाजवादी नीतियों को अपनाए जाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। यहां तक कि मधु लिमए भी अपने जीवन के अंतिम दशकों में समाजवादी नहीं रह गए थे -- वे नेहरू और नेहरूवाद के प्रशंसक हो चले थे। हाल ही में किसी ने बताया कि जब मधु जी ने इंदिरा गांधी की मृत्यु का समाचार सुना, तो वे फूट-फूट कर रोने लगे थे कि अब इस देश का क्या होगा। इन तमाम कारणों से आज की पीढ़ी यह तो जानती है कि देश में कई समाजवादी नेता हैं, कुछ समाजवादी दल भी हैं, लेकिन वह यह नहीं जानती कि समाजवाद कहते किसे हैं। जैसे आत्मा शरीर में रह कर ही कोई गतिविधि कर सकती है, वैसे ही समाजवाद भी नेताओं और कार्यकर्ताओं के माध्यम से ही परिस्थिति को प्रभावित कर सकता है।
अनेक वर्षों से यह मांग की जाती रही है कि सभी दलों में छितराए हुए समाजवादी नेता एक मंच पर आएं और एक नया दल बनाएं जो समाजवादी रीति-नीति के प्रति प्रतिबद्ध हो। इस दिशा में बीच-बीच में कोशिश भी होती रहती है। लेकिन इतने वर्षों में इन प्रयत्नों का नतीजा सिफर से ज्यादा नहीं रहा है, तो इसके ठोस कारण हैं। मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि अहं या महत्वाकांक्षा समाजवादी एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा है। बेशक, समाजवादी शुरू से ही परस्पर लड़ते-झगड़ते रहे हैं, फिर भी तब तक उनका सामाजिक सम्मान बचा रहा जब तक वे समाजवादी थे। आज समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता नहीं है, पर लड़ना-झगड़ना जारी है। इसलिए यदि फूट या झगड़े खत्म हो जाएं, तब भी वर्तमान नेताओं को मिला कर कोई समाजवादी एकता संभव नहीं है। एकता हो सकती है, पूर्व समाजवादियों की एकता भी हो सकती है, पर वह समाजवादी एकता नहीं होगी।
ऐसी स्थिति में दो ही सूरतें दिखाई देती है। पहली सूरत यह है कि विभिन्न दलों के वे कार्यतर्ता, जिनमें समाजवाद के प्रति झुकाव है, एक-दूसरे से जुड़ें और एक नया संगठन बनाएं। मेरा विश्वास है कि ऐसे कार्यकर्ताओं की संख्या अभी भी कुछ नहीं तो हजारों में हैं। इन्हें किसी नए केंद्रीय नेता के उभरने का इंतजार न कर अपने ही बीच से नेता उभारने होंगे। कोई पुराना समाजवादी नेता इस संगठन में आना चाहे तो आ सकता है, पर बागडोर नए लोगों के हाथ में होनी चाहिए। यथासमय इससे एक अच्छा समाजवादी आंदोलन पैदा हो सकता है। दूसरा रास्ता यह है कि समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध देश भर के सभी विचारक, लेखक, पत्रकार और एक्टिविस्ट एक मंच बनाएं और समाजवादी विचार को फैलाने, समाज में उसके लिए जगह बनाने आदि का काम योजनाबद्ध तरीके से करने का संकल्प लें। मार्क्सवाद अभी भी लोकप्रिय है क्योंकि उसका एक विचारक ब्रिगेड हमेशा जोर-शोर से मौजूद होता है। लेकिन व्यावहारिक राजनीति के स्तर पर उसका भविष्य संदिग्ध प्रतीत होता है, क्योंकि मार्क्सवादी राजनीति अभी भी लोकतंत्र और मानव अधिकारों से सामंजस्य नहीं बैठा पाई है। उसके अब तक के अतीत को देखते हुए ऐसा लगता है कि वह कभी उदार और ग्रहणशील नहीं हो सकेगी। इसलिए उसके लोकतांत्रिक और बुद्धिवादी संस्करण की उपयोगिता हमेशा बनी रहेगी। दरअसल, समाजवाद ही पूंजीवाद या नवपूंजीवाद का विकल्प बन सकता है। इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि समाजवाद के बौद्धिक पैरवीकार अपना काम निष्ठा और श्रम से करते रहें, तो समाजवादी नेतृत्व और कार्यकर्ताओं का प्रादुर्भाव आज नहीं तो कल जरूर होगा। लोग अधीर हो कर मौजूदा व्यवस्था का स्वस्थ विकल्प खोज रहे हैं। उनके मन में सवाल उठता रहता है कि भूमंडलीकरण नहीं तो क्या? मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसका पूरा नहीं तो एक संतोषजनक उत्तर समाजवाद के पास है। अगर नहीं है, तो समाजवाद को बचाने की कोई जरूरत नहीं है।
2 comments:
आप इतने दिनों से ब्लाग पर थे पर ब्लागवाणी पर दिखायी क्यों नहीं दिये?
स्वागतम
बढ़िया सुझाव हैं। ईमानदारी से एक और प्रयास किया जाना चाहिए।
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