Sunday, October 7, 2007

गांधी से विश्वासघात (गांधीवाद के प्रश्न - 3)


अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस

के माय
ने

राजकिशोर

भारत सरकार 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा


दिवस के रूप में मान्यता दिलाने में सफल रही, इस

पर वे ही खुश हो सकते हैं जो गांधी को ठीक से नहीं

जानते। यह सच है कि गांधी जी आखिरी सांस तक

यही कहते रहे कि सत्य और अहिंसा, यही मेरे दो

मूल मंत्र हैं। लेकिन सत्य को निकाल दीजिए, तो

अहिंसा लुंज-पुंज हो कर रह जाएगी। महात्मा और जो

कुछ भी थे, लुंज-पुंज नहीं थे। न वे लुंज-पुंज व्यक्ति

या बिरादरी को पसंद करते थे। बल्कि उनकी शिकायत

ही यही थी कि भारत के लोगों द्वारा हथियार रखने

पर पाबंदी लगा कर अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को

नामर्द बना दिया। मर्द और नामर्द की शब्दावली आज

की नारीवादियों को पसंद नहीं आएगी। लेकिन गांधी

जी मर्द थे, मर्दवादी नहीं थे। वे तो अपनी संतानों की

मां और बाप, दोनों बनना चाहते थे। महात्मा की पौत्री

मनु गांधी की एक किताब का नाम है, बापू मेरी मां।

इसके बावजूद गांधी जी को मर्दानगी से बहुत लगाव

था। जब किसी किस्म की कायरता की निन्दा करनी

होती थी, तो वे कहते थे, यह मर्द को शोभा देने वाली

बात नहीं है। मर्दानगी से उनका अभिप्राय शायद पौरुष

से था और स्त्रियों में भी पौरुष होता है। सांख्य दर्शन

में पुरुष और प्रकृति की बात कही गई है। प्रकृति

निश्चेष्ट है और पुरुष में सक्रियता है। जाहिर है, यहां

पुरुष में स्त्री भी शामिल है। स्मरणीय है कि महात्मा

स्त्रियों को भी तेजस्वी देखना चाहते थे। इतनी तेजस्वी

कि जरूरत पड़ने पर वे अपने पति को भी ना कह

सकें।
फिर भी महात्मा को सत्य का पुजारी

नहीं, अहिंसा का पुजारी कहा गया, तो यह बिलकुल

अर्थहीन नहीं था। इसके पहले संघर्ष का एक ही अर्थ

होता था, हिंसक संघर्ष। भारत की जनता के सामने

धनुष-बाण वाले राम की तसवीर हमेशा मौजूद रही है,

जिन्होंने रावण का वध करके सीता को छुड़ाया।

रामचंद्र शुक्ल जैसे विचारक भी इस क्षात्र धर्म के

दीवाने थे। इसीलिए गांधी के संघर्ष में उनका विश्वास

नहीं था। अकबर इलाहाबादी जैसे सयाने कवि ने इस

पर विस्मय प्रगट किया था कि लड़ने चले हैं, हाथ में

तलवार भी नहीं। शायद उस समय के और भी

बहुत-से लोग ऐसा ही सोचते हों कि क्या सत्याग्रह

करने से आजादी मिल सकेगी ? लेकिन मिली और

कवि गा उठा कि दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना

ढाल, साबरमती के संत तुमने कर दिया कमाल।

अहिंसा का अर्थ ठीक से नहीं समझने वालों को इस

बात का एहसास नहीं है कि यह कमाल दीन-हीन और

निरीह अहिंसा का नहीं, बल्कि साहसी अहिंसा का था।

सच तो यह है कि हिंसक की अपेक्षा अहिंसक बनने

में अधिक साहस की जरूरत होती है। यह साहस उसी

में हो सकता है जो मानता है कि मैं सत्य के रास्ते

पर चल रहा हूं। यानी अहिंसक व्यक्ति या समूह में जो

ताकत होती है, वह सत्य की होती है। सत्य के बिना

अहिंसा आलस्य या कायरता का दूसरा नाम है।
महात्मा को अहिंसा के मुकाबले सत्य अधिक प्रिय

था, यह बात अगर आज बार-बार दुहराई नहीं जाती,

तो इसके पीछे बौद्धिक चतुराई है। यह निश्चित है कि

हिंसा और अहिंसा के बीच चुनाव करना हो, तो

गांधीवादी अहिंसा का ही चुनाव करेगा। लेकिन उससे

बड़ा सच यह है कि अन्याय सहने और हिंसा के बीच

चुनाव करना हो, तो गांधी की पसंद का आदमी वही

होगा जो हिंसा को चुनेगा। महात्मा ने किसी पर भी

अहिंसा लादना नहीं चाहा, न वे किसी भी कीमत पर

अहिंसा की वकालत करते थे। वे यह जरूर मानते थे

कि अहिंसा ही मानवता का नियम है और इसी में

विश्व का भविष्य है। आंख के बदले आंख का सिद्धांत

पूरी दुनिया को अंधा बना देगा। लेकिन हिंसा करने से

बचने के लिए अगर कोई गुलामी की जिंदगी जीता

रहता है, तो वे मानते थे कि यह नामर्दी है। अन्याय

का विरोध करो -- अहिंसा से करो तो अच्छा है, पर

हिंसा से करो तो वह भी ठीक है बनिस्बत अन्याय को

चुपचाप सहने के, महात्मा का मूल मंत्र यह था। इस

मंत्र की मूल बात को ढक कर अगर हम अहिंसा का

जाप करने बैठ जाएंगे, तो यह महात्मा के प्रति तो

अन्याय होगा ही, उससे ज्यादा अपने प्रति अन्याय

होगा। यह और बात है कि हिंसक प्रतिकार लुभावना

चाहे जितना हो, पर उससे मिलने वाली सफलता

सामयिक होती है और जीवन व्यवस्था को किसी

ऊंचाई तक नहीं ले जाती।
अहिंसा वाकई सिंहों का नहीं, बकरों का सिद्धांत है,

अगर उसके साथ अन्याय का विरोध नहीं जुड़ा हुआ

है। महात्मा के पहले अहिंसा के अधिकांश उदाहरण

कायरता के थे। वीर वह था जो युद्ध क्षेत्र में जान देने

के लिए तत्पर रहता था। कहा तो यहां तक गया कि

बरिस अठारह क्षत्री जीए, आगे जीवन को धिक्कार।

बुद्ध और महावीर की अहिंसा में व्यक्तिगत वीरता

जरूर थी, पर उसके पीछे सामाजिक न्याय का कोई

ताकतवर सिद्धांत नहीं था न उसके लिए संघर्ष का

आह्वान था। सिर्फ शिक्षा से ज्यादा बदलाव नहीं

आता। बदलाव आता है संघर्ष से। ईसा मसीह की

अहिसा में भी वीरता का तत्व था, लेकिन जहां तक

सत्ता और संपत्ति के केंद्रीकरण के विरोध का सवाल

था, इसके लिए सिर्फ प्रार्थना थी। महात्मा भी हृदय

परिवर्तन में विश्वास करते थे, पर इसके लिए वे

अनंत काल तक इंतजार करने को तैयार नहीं थे।

अगर हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा करते रहते, तो

'अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के साथ-साथ 'करो या मरो' का

नारा नहीं लगाते। इसीलिए जब महात्मा के साथ

अहिंसा को जोड़ने का आग्रह बहुत बढ़ जाता है, तो

डर लगने लगता है कि कहीं यह अहिंसा को नपुंसक

बनाने की तैयारी तो नहीं है?
संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा

दिवस का प्रस्ताव मान लिया, तो यह स्वाभाविक ही

था। संयुक्त राष्ट्र विश्व की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं

करता, वह राष्ट्रों का प्रतिनिधिक संगठन है। संयुक्त

राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा, यह भारत

की जनता तय नहीं करती, भारत सरकार तय करती

है। भारत सरकार के चरित्र से हम अवगत ही हैं।

इसी तरह दुनिया के अन्य देशों के लोग भी

अपनी-अपनी सरकार के चरित्र से अवगत होंगे। इस

अलग-अलग अनुभव का निचोड़ यह है कि दुनिया की

सभी सरकारें हिंसा में विश्वास करती हैं। इराक में जो

मानव हत्या हुई और हो रही है, उसके लिए जनता

नहीं, सरकारें जिम्मेदार हैं। शस्त्र उद्योग जनता के बल

पर नहीं, सरकारों के बल पर फल-फूल रहा है। ऐसा

लगता है कि दुनिया के किसी भी देश की सरकार को

अहिंसक समाज बनाने की कोई चिंता नहीं है। यही

कारण है कि निरस्त्रीकरण का आंदोलन एक

दिवास्वप्न बन कर रह गया। अभी तो परमाणु

निरस्त्रीकरण जैसी बुनियादी मांग भी दिवास्वप्न ही

प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राज्य के

सदस्य राज्य अगर अहिंसा दिवस मनाने को मंजूरी

देते हैं, तो कल्पना की जा सकती है कि वे अहिंसक

होने की मांग किससे कर रहे हैं। वे राज्यों को

अहिंसक बनने का आह्वान नहीं कर रहे हैं, जनताओं

को छागल धर्म की सीख दे रहे हैं। यह सीख किसके

गले उतरेगी?
बेशक आज की दुनिया में जितनी हिंसा है, उसका एक

बड़ा भाग आतंकवादी हिंसा का है। यह आधुनिक

सभ्यता का एक ऐसा राक्षस है जिसे मार गिराने का

मंत्र अभी तक खोजा नहीं जा सका है। आज जितने

हथियारबंद समूह विश्व भर में काम कर रहे हैं, उतने

इसके पहले शायद कभी नहीं थे। स्पष्ट है कि सभ्यता

की हिंसकता राज्यों की सीमा पार कर नागरिक जीवन

में प्रवेश कर चुकी है और वह भी लगभग उतनी ही

भयावहकता के साथ। आंकड़े पेश किए जाते हैं कि

दूसरे महायुद्ध के बाद आतंकवादी हिंसा से जितने

लोगों की मृत्यु हो चुकी है, उससे काफी कम लोग

द्वितीय महायुद्ध के दौरान सैनिक आक्रमणों से मारे

गए थे। या, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में जितनी

जिंदगियां आतंकवादी हिंसा से तबाह हुईं, उतनी

जिंदगियां तो जापान पर एटमी हमले से भी बरबाद

नहीं हुई थीं। इसलिए एक बुनियादी जीवन मूल्य के

रूप में अहिंसा पर आग्रह एक जरूरी निर्णय है।

लेकिन इससे यह सवाल खारिज नहीं हो जाता कि

अहिंसा का प्रचार करने से क्या नागरिक क्षेत्र की

हिंसा खत्म हो जाएगी?
बुनियादी सवाल शायद यह है कि हिंसा आती कहां से

है। हिंसा के स्रोत अगर हमारी जीवन व्यवस्था में ही

बिखरे हुए हैं, यदि उत्पादन का समस्त आधुनिक तंत्र

तरह-तरह की हिंसा पर टिका हुआ है, यदि परिवार

में हिंसा के बीजों को पनपने दिया जाता है, यदि

व्यक्तियों के आपसी संबंधों में अहिंसा नहीं है, तो

हिंसा के सघन विस्फोटों से छुटकारा नहीं मिल

सकता। व्यक्ति को अहिंसा की शिक्षा तो दी ही जानी

चाहिए -- घर से ले कर स्कूल-कॉलेज तक में और

विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से भी,

लेकिन यह शिक्षा तभी फलीभूत हो सकेगी जब

व्यवस्था को भी अहिंसा-प्रधान बनाया जाए। भारतीय

राज्य कितना हिंसक है, यह हम सभी अपने दैनिक

अनुभव से भी जानते हैं। पुलिस से सभ्यता की आशा

ही नहीं की जाती। सरकारी कर्मचारी आम आदमी को

भेड़-बकरी मानते हैं। नेता लोगों ने लाशों की गिनती

करना छोड़ दिया है। ऐसा तंत्र अगर अहिंसा दिवस की

घोषणा पर प्रसन्नता या संतोष जाहिर करता है, तो

शक होता है कि कहीं यह शासक वर्ग की रणनीति तो

नहीं है कि हिंसा का एकाधिकार हमारे पास ही रहने

दो -- तुम प्रजा हो, तुम्हें हिंसा शोभा नहीं देती !
हमारी समझ से महात्मा का जन्म दिवस मनाने का

सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि इसे सत्याग्रह

दिवस के रूप में मनाया जाए। हां, अहिंसा में नहीं,

सत्याग्रह में ही महात्मा की शक्ति का रहस्य छिपा

हुआ है। भारत को स्वाधीनता अहिंसा से नहीं,

सत्याग्रह से हासिल हुई थी। लोहिया ने ठीक ही कहा

था कि जब तक धरती पर अन्याय है, तब तक हिंसा

रहेगी। हिंसा का प्रयोग या तो अन्याय आरोपित करने

के लिए किया जाएगा या अन्याय का प्रतिवाद करने

के लिए। इन दोनों का विकल्प है, अहिंसक समाज की

स्थापना । इसी का दूसरा नाम है, समाजवाद।

सत्याग्रह वह माध्यम है जिसके बल पर शारीरिक रूप

से कमजोर से कमजोर आदमी भी झूठ और अन्याय

से लड़ सकता है। मानवता को महात्मा का कोई

योगदान है तो यही कि सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, समूह

भी सत्याग्रह के शक्तिशाली हथियार का इस्तेमाल कर

सकते हैं। सत्याग्रह ही अहिंसा की कुंजी है। झूठ पर

टिकी हुई सरकारें जब अहिंसा की पुजारी होने का दावा

करती हैं, तो वे अपने को कुछ और हास्यास्पद बना

लेती हैं।

Tuesday, October 2, 2007

विवाह पर कुछ विचार

विवाह की मीयाद
राजकिशोर

जर्मनी की सबसे चमक-दमक वाली नेता गैब्रील पॉली

ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह प्रस्ताव शामिल कर

हड़कंप मचा दिया है कि विवाह की मीयाद सात वर्ष

होनी चाहिए। सात वर्ष के बाद भी कोई युगल अपने

वैवाहिक संबंध को बनाए रखना चाहता है, तो उसे

इस संबंध की अवधि बढ़ाने की सुविधा मिलनी

चाहिए। पॉली की उम्र पचास वर्ष है। उनका दो बार

तलाक हो चुका है। तलाक के लिए जिम्मेदार कौन

था, नहीं मालूम। इसकी खोज करने की जरूरत भी

नहीं है। हमारे लिए इतना ही काफी है कि गैब्रील

पॉली को भली भांति पता है कि आजकल विवाह

टिकाऊ नहीं होते। उन्हें यह अनुभव भी है कि तलाक

का मामला कितनी बदमजगी का होता है। पहले तो

खुशी-खुशी शादी करो, फिर अदालत के चक्कर लगाते

फिरो कि योर ऑनर, हमें एक-दूसरे से बिछड़ने का

मौका दिया जाए। पॉली को लगता है कि इससे बेहतर

तो यही है कि विवाह की मीयाद शुरू में ही तय कर

दी जाए, जिसके बाद वह स्वत: भंग माना जाएगा।
जर्मनी में और यूरोप के शेष हिस्सों

में राजनेताओं और सामाजिक प्रश्नों पर विचार रखने

वाले कई लोगों ने सात वर्ष के इस प्रस्ताव की हंसी

उड़ाई है, हालांकि वे जानते हैं कि शादी के तीन-चार

वर्ष बाद ही अधिकतर जोड़े तलाकनामा लिए घूमते

नजर आते हैं। इस अतिरंजित प्रतिक्रिया से ऐसा

लगता है कि इस परंपरागत मान्यता से कि विवाह

जीवन भर का सौदा होता है, लोग अभी ऊपर नहीं उठ

पाए हैं। हां, वे यह जरूर मानते हैं कि बीच में ही

अनबन हो गई, तो संबंध विच्छेद की सुविधा होनी

चाहिए। जाहिर है, जर्मनी की इस ओजस्वी महिला

नेता ने कान को दूसरी ओर से पकड़ने की कोशिश की

है। अगर जीवन भर के लिए किया जाने वाला विवाह

बीच में ही तोड़ा जा सकता है, तो शुरू में ही उसकी

अवधि क्यों न तय कर दी जाए, ताकि पति-पत्नी

दोनों चौकन्ना रहें और एक-दूसरे के सामने अपना

सर्वोत्तम पेश करते रहें? प्रेम में हम गुलाम हो जाते हैं

और विवाह के बाद गुलाम बनाने की कोशिश करते

हैं। अपराध और दंड का यह अद्भुत रिश्ता है। होता

यह भी है कि एक बार विवाह हो जाने के बाद दोनों

दंपति एक-दूसरे की ओर से निश्चिंत हो जाते हैं और

वैवाहिक संबंध को लगातार जीवंत तथा सार्थक बनाए

रखने की जरूरत महसूस नहीं करते।
विचारणीय है कि विवाह और रक्त

संबंधों को छोड़ कर और कोई मानव संबंध जीवन भर

के लिए नहीं होता। रक्त संबंधों में हम चुनाव नहीं कर

सकते, पर विवाह एक चयन है। जब दास-दासियां

होती थीं, वे अपने पूरे जीवन के लिए होती थीं।

उनकी मुक्ति का दिन मुकर्रर नहीं किया जाता था।

अब कानूनी रूप से दास व्यवस्था कहीं नहीं है।

आजीवन कैद जरूर दी जाती है, लेकिन वह सजा है।

हम विवाह को सजा नहीं मानते। यह मां द्वारा संतान

को जन्म देने के बाद जीवन का सबसे बड़ा उत्सव है।

वैवाहिक जीवन यह उत्सव मनाते हुए ही गुजार देना

चाहिए। सबसे अच्छा विवाह वही है जो शेष जीवन

को उत्सवमय बनाए रखे और एक-दूसरे की

जिम्मेदारियों के निर्वाह में सहायक बने। जो विवाह

बीच में टूट जाते हैं, वे शायद शुरू से ही त्रुटिपूर्ण होते

हैं। जब तक त्रुटि का पता चलता है, काफी देर हो

चुकी होती है, जिससे अनावश्यक कटुता और तकलीफ

पैदा होती है। इससे बचने का एक व्यावहारिक तरीका

यह है कि विवाह को अनंत न बनाया जाए। कोई भी

चुना हुआ संबंध अनंत नहीं हो सकता और विवाह भी

एक संबंध ही है। बहुत-से लोग अपने तोते या मैने

पर गर्व करते हैं कि उसने पोस मान लिया है। इसकी

असली परीक्षा यह है कि उस तोते या मैने को पिंजरे

से निकाल कर उड़ा दिया जाए। उसके बाद देखना

चाहिए कि वह अपनी खुशी से पिंजरे में वापस

लौटता/लौटती है या नहीं। कुत्तों और घोड़ों के बारे में

जरूर सुना गया है कि उनमें से कई अपने स्वामी की

मृत्यु के बाद खाना-पीना छोड़ देते हैं और आंसू बहाते

हुए प्राण त्याग देते हैं। सती प्रथा का विरोधी होते

हुए भी मैं उस पति या पत्नी की तारीफ ही करूंगा

जिनकी जीने की इच्छा अपने जीवन साथी के गुजर

जाने के बाद खत्म हो जाती है। आदर्श स्थिति शायद

यह न हो, पर प्रेम अपने को किस-किस तरह से

व्यक्त करता है, कौन जानता है!
लेकिन प्रेम है या नहीं, यह जानना ही

सबसे मुश्किल है। अकसर वासना प्रेम की मुलायम

चादर ओढ़ कर अपने को प्रगट करती है। प्रेम निवेदन

करते समय जो याचक नजर आता है, विवाह के बाद

वह शेर हो उठता है। यहां शेर में शेरनी भी शामिल

है। आदमी को जानवर बनने से रोकने के लिए भी

मीयादी विवाह उपयोगी साबित हो सकता है। कुछ

लोग प्रेम को मीयादी बुखार मानते है। यह बुखार

उतर जाने के बाद भी जो संबंध टिका रहे, वही असली

संबंध है। बाकी सब समझौता है। मानवता जितना

आगे बढ़ आई है, उसके बाद भी उसे ं समझौते का

जीवन जीने को बाध्य क्यों करना चाहिए? कुछ

समझदार लोग कह सकते हैं कि सात वर्ष भी क्यों?

कोई जोड़ा जितने वर्षों के लिए निबद्ध होना चाहता है,

उतने ही वर्ष क्यों नहीं? यह प्रश्न भी विचारणीय है।

बहरहाल, विवाह की मीयाद जो भी तय की जाए,

उसके साथ यह शर्त जरूर लगानी चाहिए कि जिस

दंपति को कम से कम बीस साल तक साथ रहना है,

उसे ही बच्चा पैदा करने का अधिकार होगा। तलाक

का सबसे बुरा शिकार बच्चा ही होता है।
इस सिलसिले में अपने मुहल्ले की

एक कामवाली याद आती है। जिस व्यक्ति से उसका

विवाह हुआ था, वह कुपति निकला। उससे

छुट्टा-छुट्टी हो गई। उसके बाद इस युवा काम वाली

की जिंदगी में कई पुरुष आए। पर कोई नहीं टिका।

कोई पैसे ले कर भाग गया, कोई कुछ और। आजकल

वह जिस पुरुष के साथ रहती है, उससे विवाह कर

लेने की सलाह दी गई, तो होशियार काम वाली ने

कहा, ‘ विवाह कर लूंगी, तो वह मुझे नौकरानी

समझने लगेगा। अभी ही ठीक है। वह बदमाशी करेगा,

तो मैं उसे घर से निकाल दूंगी।’
आश्चर्य की बात यह कि जिस सत्य

को एक साधारण काम वाली भी, इतने कम समय में,

समझ गई है, उसे ले कर विद्वानों में इतना मतभेद

नजर आता है।

Monday, October 1, 2007

ईशनिन्दा का सवाल

कुछ शब्दों को भूल जाइए, जैसे ईशनिन्दा
राजकिशोर

भारतीय जनता पार्टी के पढ़े-लिखे लोग भी, जैसे लालकृष्ण आडवाणी, जब ईशनिन्दा जैसे शब्दों का प्रयोग हिन्दू धर्म के संदर्भ में करते हैं, तो मन उदास हो जाता है। ये लोग हमेशा इस बात पर गर्व करते हैं कि हिन्दू धर्म दुनिया भर में एक निराला धर्म है, क्योंकि इसमें लोकतंत्र और उदारता 'इन-बिल्ट' हंै। हिन्दू आदमी सहज ही विशालहृदय होता है और सभी धर्मों का सम्मान करता है। अपनी इस मान्यता के आधार पर ये नेता इस्लाम और ईसाइयत की निन्दा करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते। विडंबना यह है कि जब मौका पड़ता है, तो इन्हीं धर्मों की कुछ अननुकरणीय आदतों का अनुकरण करने से बाज नहीं आते और इस तरह सिद्ध करते हैं कि इस्लाम और ईसाइयत कुछ मामलों में हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि हिन्दू समाज आज भी उनसे कुछ सीख सकता है।

ऐसी ही एक चीज है, ब्लेसफेमी, जिसे हिन्दी में ईशनिन्दा कहा जा रहा है। इस शब्द का हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में सही-सही अनुवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह अवधारणा ही भारत में नहीं रही है। आज भी नहीं है। किसी भी गांव या शहर में आप ऐसे व्यक्तियों से आसानी से टकरा जा सकते हैं जो ईशनिन्दा में रस लेते हैं। ईशनिन्दा की ईसाई अवधारणा में सिर्फ ईश की निन्दा शामिल नहीं है, बाइबिल, ईसा मसीह, चर्च, पोप आदि की निन्दा भी शामिल है। मध्य युग के यूरोप में यह सबसे गंदा और खतरनाक शब्द बन गया था, क्योंकि ईशनिन्दा का आरोप लगा कर लाखों ऐसे पुरुष-स्त्रियों का सफाया कर दिया गया जो उस समय के चर्च से सहमत नहीं थे या जिनके बारे में ऐसी आशंका थी। यह एक तरह से यूरोपीय समाज का गृह युद्ध था, जिसमें कैथलिक धर्म सत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हर इलाके में खूनी दस्ते पैदा कर रही थी। प्रेम और करुणा की शिक्षा देने वाला, ईसा मसीह का कोमल-संवेदनशील धर्म अचानक भेड़िए की तरह खूंखार हो गया था और उछल-उछल कर तर्कशील मानवता का शिकार कर रहा था। इस्लाम में भी इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। सलमान रुश्दी की जान लेने के लिए जारी किए गए फतवों के पीछे यह भावना ही है कि उन्होंने ईशनिन्दा का अपराध किया है।
भारत में ईशनिन्दा का मामला कभी कोई मुद्दा ही नहीं बना, क्योंकि यहां न तो ईश का कोई एक ही स्वरूप मान्य है, न कोई एक धर्म पुस्तक है जिसकी शिक्षाओं पर चलने के लिए सभी को बाध्य किया जाता हो और न ही चर्च जैसा कोई अखिल भारतीय संगठन है जो लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन को नियंत्रित करता हो। यहां प्रारंभ से ही 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' और 'जतो मत ततो पथ' की मान्यता रही है। वैचारिक स्वातंत्र्य की इस परंपरा के कारण हमारे देश में ऐसे संप्रदाय भी पनपे और लोकप्रिय हुए जिनमें गॉड और अल्लाह जैसी धारणाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है। भारतीय दर्शन के कई ऐसे रूप हैं, जिनमें सृष्टि का निर्माण करने वाले परमात्मा के लिए कोई मान्यता नहीं है। चार्वाकों की एक बहुत पुरानी परंपरा है जो इस लोक को ही सत्य मानते थे तथा परलोक, स्वर्ग, नरक, पूजा-पाठ, श्राद्ध, ब्राह्मण वर्ग, जाति आदि का मजाक उड़ाया करते थे। गीता में खुद भगवान कृष्ण कहते हैं कि मेरे पास आने का कोई एक निश्चित तरीका नहीं है। बौद्ध और जैन धर्मों में ब्राह्मण मतों की लगभग सारी चीजों को नकारा गया है। बाद में भक्ति आंदोलन के दौरान तो सारी परंपरा ही उलट-पुलट दी गई। भक्त कवियों ने दशरथ-सुत को अपना राम मानने से इनकार कर दिया। उन्हें उस राम से कोई लगाव नहीं था जिसने शंबूक की हत्या की थी और सीता का परित्याग कर दिया था। वे राम के उस आकाशधर्मी व्यक्तित्व पर फिदा थे जिसकी गोद में सिर रख कर किसी भी जाति का किसी भी तरह का आदमी असीम शांति का अनुभव कर सकता था। वे लौकिक राम को नहीं, जिसकी सीमाएं थीं, अलौकिक राम को खोज रहे थे, जो असीम है और जिस पर किसी विशेष समाज या वर्ग की नैतिकता आरोपित नहीं की जा सकती।
ऐसे समाज में अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि राम ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे या राम के ऐतिहासिक व्यक्ति होने का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलता, तो दूसरों के पास इसके सिवाय कोई और सभ्य विकल्प नहीं है कि वे या तो एक शालीन चुप्पी की शरण में चले जाएं या साक्ष्य और तर्क के आधार पर इस स्थापना का खंडन करें। अगर तर्क और साक्ष्य की कमी है, तो कोई भी भलामानुष यह कह कर उस व्यक्ति से झगड़ा नहीं करेगा या अदालत में उसकी पेशी नहीं कराएगा कि वह तो ईशनिन्दा कर रहा है। अगर राम को अनैतिहासिक बताना ईशनिन्दा है, तो दलित विचारकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा राम की लगातार आलोचना करना कि वे जाति प्रथा में विश्वास करते थे, कि उन्होंने ब्राह्मणों का वर्चस्व बनाए रखने के लिए पिछड़ी जाति के तपस्वी शंबूक की बिना वजह हत्या कर दी, उन्होंने निर्दोष सीता को राज्यबदर कर दिया, क्या तथाकथित ईश निन्दा के दायरे में नहीं आता? फिर अभी तक आडवाणी जैसे नेताओं ने इस संदर्भ में यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया? भाजपा ने जब मायावती के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, तब क्या उसे पता नहीं था कि मायावती को ईश निन्दा में आनंद आता है? क्या स्वयं डॉ. आंबेडकर ने ईशनिन्दा का अपराध नहीं किया थ? क्या गांधी जी भी ईशनिन्दा के अपराधी नहीं थे, क्योंकि वे अकसर कहा करते थे कि मेरा राम वह नहीं है जो अयोध्या का राजा था? नहीं सर, भारत में अगर ईशनिन्दा को अपराध की श्रेणी में डाल दिया जाएगा, तो गांधी और आंबेडकर ही नहीं, भगत सिंह जैस क्रांतिकारी सपूत भी इस कठघरे मेंं कैद हो जाएंगे। देश में इस समय वैसे ही विग्रह कम नहीं है, कृपया इसका एक और अध्याय खोलने की मेहरबानी न करें।
फतवे का मामला भी ऐसा ही है। भाजपा के एक पूर्व सांसद ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के खिलाफ एक किस्म का फतवा जारी किया और जब चारों तरफ आलोचना होने लगी, तो वे मुकर गए, मानो प्रेस हमेशा गलत रिपोर्टिंग करता हो। यह ईश निन्दा की तरह ही एक नई बीमारी है। भारत में धर्मपीठों या मान्य विद्वानों द्वारा निर्णय दिए जाते रहे हैं, व्यवस्थाएं दी जाती रही हैं, लेकिन किसी ने कोई फतवा जारी नहीं किया। यह देश फतवों से नहीं, धार्मिक चेतना और विवेक से संचालित होता रहा है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक चेतना समय-समय पर मंद नहीं पड़ी है या विवेक कुंद नहीं पड़ा है, पर किसी के भी, वह चाहे जितना भी बड़ा हो या बड़े पद पर हो, इस दावे को स्वीकार नहीं किया गया कि सत्य उसकी मुट्ठी में कैद है। इस दृष्टि से भाजपा का दर्शन पहला ऐसा भारतीय दर्शन है जो मानता है कि हमारे सिवाय सभी गलत और झूठे हैं और हमें उनके खिलाफ भीड़वादी कार्रवाइयां करने का अधिकार है। पुरानी भाषा में इसे सांप्रदायिक उन्माद कहा जाता था, आजकल इसे फासीवाद के माध्यम से समझा जाता है। सेतु समुद्रम परियोजना पर अमल हो या नहीं हो, राम जैसे चरित्र को हिटलरी बाना पहनाने की कोशिश करना एक बीमार दिमाग का काम है।