राजकिशोर
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं जयंती पर हमें क्या करना चाहिए? ऐसे मौकों पर आम तौर पर जो कार्यक्रम होते हैं, वे हो रहे हैं और आगे साल भर होते रहेंगे। श्री प्रभाष जोशी जैसे संजीदा और भावुक लोगों को लग रहा है कि ये कार्यक्रम और बेहतर, व्यवस्थित तथा अर्थगर्भित ढंग से हो सकते हैं, पर इसकी पहल करने वाला न कोई दल दिखाई दे रहा है, न कोई सरकार। उनकी शिकायत बहुत सही है और उसकी सुनवाई होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश में, जहां से उस महान युध्द का बिगुल बजा था, पिछले दो महीनों से चुनाव का वातावरण है। सभी नेता और दल एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैं। चुनाव प्रचार इतना जानदार कभी नहीं था जितना इस बार देखा गया। इनमें से एक पार्टी अपने को समाजवादी बताती है। दूसरी का दावा है कि वह बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती है। एक तीसरी पार्टी तो अपने को 1857 के योध्दाओं का वारिस ही बताती है। लेकिन चुनाव अभियान के दौरान इनमें से किसी ने भी 1857 के साहस और मुद्दों का प्रेरक जिक्र नहीं किया। यहां उन वामपंथी और दलित-स्त्रीवादियों का जिक्र करने का अवकाश नहीं है जो बहुत सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि 1857 की लड़ाई भारत के दूरगामी हितों के खिलाफ थी और यह बहुत अच्छा हुआ कि वह विफल हो गई। जाहिर है, इस वर्ग के चिंतकों और लेखकों और एक्टिविस्टों को मनाना होगा तो वे इस पहले स्वतंत्रता संग्राम की विफलता का समारोह मनाएंगे।
लेकिन जिनकी नजर में स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है, वे 1857 के संदेश को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? उन्हें तो कुछ न कुछ करना ही होगा, नहीं तो वे इतिहास और अपना समय, दोनों के प्रति अन्याय कर रहे होंगे। अपने समय के साथ न्याय करने के लिए इतिहास के साथ न्याय करना जरूरी है, जैसे इतिहास के प्रति जो सच्चा होगा, वह अपने समय की चुनौतियों से विमुख नहीं हो सकता। इतिहास की सीख यही है कि मनुष्य दो ही तरह के काम कर रहा होता है : या तो वह क्रांति के लिए काम कर रहा होता है या फिर क्रांति के विरुध्द काम कर रहा होता है। 1857 में भी ऐसे लोग कम नहीं थे जिन्होंने क्रांति के विरुध्द काम करने का विकल्प चुना था। नहीं तो मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश की इतनी बड़ी आबादी पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं कर पाते। उनके उत्तराधिकारियों को उसके नब्बे साल बाद भारत से बोरिया-बिस्तर उठा कर चल देने का निर्णय करना पड़ा, इसके पीछे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस आदि क्रांतिकारियों का सतत और गंभीर काम था। क्रांतिकारियों की सभी धाराओं की याद करने और उनके प्रति सिर झुकाने का बाद, यह कहा जा सकता है कि भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम मुख्यत: अहिंसक था। भगत सिंह को अधिक दिनों तक जीने का मौका मिलता, तो वे भी एक विशाल अहिंसक संघर्ष ही संगठित करते, जिसकी जरूरत के बारे में उन्होंने अपने दस्तावेजों में बार-बार जिक्र किया है। इस तरह, हमारे पास संघर्ष के हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के अनुभव हैं और हम विवेक के आधार पर चुन सकते हैं कि आज कौन-सा रास्ता हमारे लिए श्रेयस्कर होगा।
सवाल सिर्फ रास्ते और विधि का ही है। वरना आज 1857 की क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कोई ईमानदार मतभेद हो ही नहीं सकता। वह संग्राम विदेशी गुलामी के विरुध्द छेड़ा गया था। यानी स्वतंत्रता के पक्ष में था। उन दिनों स्वतंत्रता की परिभाषा, कम से कम भारत में, काफी सीमित थी। यूरोप में मेरी वोल्सटोनेक्राफ्ट 1792 में 'ए विंडिकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वीमेन' नामक पुस्तक लिख चुकी थीं और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1859 में 'ऑन लिबर्टी' नामक अपना प्रसिध्द ग्रंथ लिखा। इन दोनों ही पुस्तकों में स्वतंत्रता को बहुत ही व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया था। हमारे लिए यह अवसर दूसरे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान आया, जब भगत सिंह ने स्वतंत्रता को समाजवादी व्यवस्था के रूप में और महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज के रूप में परिभाषित किया। आज स्वतंत्रता का अध्ययन बहुत विस्तृत हो चुका है और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान उसके दायरे को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। इसलिए 1857 में जिसे आजादी कहा गया, वह आज पर्याप्त नहीं है। उस आजादी में लोकतंत्र तक नहीं था। आज हमें जो आजादी चाहिए, उसमें लोकतंत्र, समाजवाद, ग्राम स्वराज, जाति-मुक्त समाज आदि बहुत कुछ शामिल है। 1857 के सेनानी स्वतंत्रता को अपना जन्मसिध्द अधिकार (इस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग नहीं किया; बाद में बाल गंगाधर तिलक ने इस खूबसूरत जुमले का आविष्कार किया, जो हमारे हृदय में अमिट रूप से अंकित है) को मानते थे , जिसे पाने की हसरत में लाखों लोगों को जान की कुरबानी देनी पड़ी। गांधी और भगत सिंह के संघर्ष में भी लाखों लोग शहीद हुए। लेकिन आज भी हम अपने काबिल पुरखों के सपनों के समाज से बहुत दूर हैं। सरकारी नीतियों में हाल में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इसी तरह बरदाश्त किए जाते रहे, तो वह समाज हमसे और दूरतर होता जाएगा। इसलिए, भारतवासी होने के नाते, यह हमारा एक भूला हुआ ऐतिहासिक कर्तव्य है कि हम एक वास्तविक रूप से स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करें। कर्तव्य होने के नाते यह हमारा अधिकार भी है और अपने इस मूलभूत, जन्मसिध्द अधिकार का प्रयोग करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। जो रोकने की कोशिश करेगा, वह भारतीय संविधान के साथ बेवफाई कर रहा होगा। इसी तरह, जो इस अपने इस अधिकार का विधिसम्मत रूप से उपयोग कर रहे होंगे, वे भारतीय संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे होंगे। संविधान के अनुच्छेद 51क का आदेश भी है कि ' भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह -- (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती से अधिक पवित्र मौका क्या हो सकता है जब संविधान में बताए हुए अपने इस 'मूल कर्तव्य' का पालन करने के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रांतिकारी जिहाद छेड़ दें? यह हमारे मूल अधिकारों में एक है।
इस क्रांति की तैयारी कौन-से आदर्श पाने के लिए होगी? यह निर्धारित करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से, स्वयं हमारे संविधान में ही इसका जोरदार उल्लेख किया हुआ है। मैं यहां सिर्फ दो अनुच्छेदों को उध्दृत करूंगा। अनुच्छेद 38 का निर्देश है कि '(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा'। अनुच्छेद 39 'राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व' इस प्रकार बताता है : 'राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ) पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु याशक्ति के अनुकूल न हो; (च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।'
यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे साभ भी हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अध्याय का दर्जा दिया गया है। लेकिन नागरिकों का पर्याप्त दबाव न पड़ने के कारण इस मूल अधिकार को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नागरिक चाहें तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को (संविधान का भाग 4) लागू कराने के लिए आंदोलन जरूर कर सकते हैं। संविधान न्यायपालिका की शक्ति की सीमाओं को जानता है। इसलिए वह उन्हें असंभव दिखाई पड़ने वाले कामों का जिम्मा नहीं देता। लेकिन नागरिक समाज की शक्ति असीमित होती है। वह राजाओं और सामंतों की व्यवस्था को खत्म कर सकता है, वह अन्याय और असमानता के सभी रूपों को नष्ट कर सकता है, वह प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन बिताने की परिस्थितियों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकता है। यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हमारी न्यायपालिका भले ही आज इस स्थिति में न हो कि वह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए सरकार को बाध्य कर सके, लेकिन अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे आते हैं, तो वह इन साहसी लोगों की सहायता ही करेगी -- उन्हें राज्य के कोप से और अन्याय तथा विशमता को बरकरार रखने की इच्छा और शक्ति रखने वाली शक्तियों के कोप और दमन से बचाएगा। आखिर हमारी न्यायपालिका इसी संविधान की कोख से पैदा हुई है और उसका काम इस संविधान की रक्षा करना ही है।
अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना तथा हर इलाके में जोरदार आंदोलन छेड़ देना। यह काम कठिन है, पर असंभव बिलकुल नहीं है। इसके लिए फिलहाल कोई राजनीतिक दल बनाने की जरूरत नहीं है। 'भारत सेवक संघ' या ऐसे ही किसी विनीत नाम से गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर आदि स्तरों पर संगठन बनाने चाहिए तथा उन्हें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर विभिन्न सूत्रों में पिरोना चाहिए। कार्यक्रम की शुरुआत इस प्रकार के अभियानों से की जा सकती है -- (1) हम अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग नहीं चलने देंगे, क्योंकि भारत में अंग्रेजी शोषण और विषमता की भाषा है। (2) हमारी टोलियां इस दृष्टि से स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों की सतत निगरानी करेंगी कि वहां नियमों के अनुसार काम होता है या नहीं। गुप्त रूप से किए जाने वाले भुगतानों को असंभव कर दिया जाएगा और इस तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाएगा कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही न रह जाए। (3) सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों -- बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी आदि -- को नियमानुसार चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। (4) जहां राशन कार्ड बनाए जाते हैं, नागरिक पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी आदि के परमिट जारी किए जाते हैं, उन सभी कार्यालयों की सख्त निगरानी की जाएगी और उचित ढंग से काम करवाया जाएगा। (5) नागरिकों की प्रशासनिक समस्याओं, जैसे बिजली-पानी के कनेक्शन पाने में देर या धींगामुश्ती, को सुलझाने के लिए सहायता समूह होंगे। (6) महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। (7) सभी वेश्यालय बंद कराए जाएंगे। आदि-आदि। बाद में और भी रेडिकल कदम उठाए जाएंगे, जैसे सिगरेट-बीड़ी आदि के कारखानों को बंद कराना, विभिन्न उत्पादकों से हिसाब लेना कि उनकी लागत क्या पड़ती है और वे ग्राहक से कितना वसूल कर रहे हैं, मजदूरों को उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं दी जा रही हैं या नहीं। ये सभी विधि-सम्मत काम हैं और ऐसा करते हम सरकार तथा समाज की मदद ही कर रहे होंगे। जब सार्वजनिक सेवा का यह कार्यक्रम व्यापक रूप से फैल जाएगा, तब राजनीतिक दल भी बनाए जा सकते हैं और संसद तथा विधान सभाओं की सहायतों से कानूनों में ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हों जो संविधान के उच्छ आदर्शों के अनुसार जीने और व्यवस्था को चलाने में सहायता कर सकें।
निश्चय ही, ये सारे कां मजेदार, आनंदपूर्ण और हमारी बुनियादी न्याय भावना को संतुष्ट करने वाले हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों की व्यवस्था में उल्लेखनीय फर्क आएगा। फिर देर करने की क्या बात है? आइए, हम अपने-अपने इलाके में इसकी शुरुआत करने के लिए जुटें और काम शुरू कर दें। जो ईश्वर को मानते हैं, वे आश्वस्त रह सकते हैं कि वह उनकी सहायता जरूर करेगा। जो नास्तिक हैं, उनके पास इतिहास का बल होगा। 1857 की लड़ाई करने की पहल कुछ ऐसी ही भावना से पैदा हुई होगी। 000
लेकिन जिनकी नजर में स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है, वे 1857 के संदेश को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? उन्हें तो कुछ न कुछ करना ही होगा, नहीं तो वे इतिहास और अपना समय, दोनों के प्रति अन्याय कर रहे होंगे। अपने समय के साथ न्याय करने के लिए इतिहास के साथ न्याय करना जरूरी है, जैसे इतिहास के प्रति जो सच्चा होगा, वह अपने समय की चुनौतियों से विमुख नहीं हो सकता। इतिहास की सीख यही है कि मनुष्य दो ही तरह के काम कर रहा होता है : या तो वह क्रांति के लिए काम कर रहा होता है या फिर क्रांति के विरुध्द काम कर रहा होता है। 1857 में भी ऐसे लोग कम नहीं थे जिन्होंने क्रांति के विरुध्द काम करने का विकल्प चुना था। नहीं तो मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश की इतनी बड़ी आबादी पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं कर पाते। उनके उत्तराधिकारियों को उसके नब्बे साल बाद भारत से बोरिया-बिस्तर उठा कर चल देने का निर्णय करना पड़ा, इसके पीछे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस आदि क्रांतिकारियों का सतत और गंभीर काम था। क्रांतिकारियों की सभी धाराओं की याद करने और उनके प्रति सिर झुकाने का बाद, यह कहा जा सकता है कि भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम मुख्यत: अहिंसक था। भगत सिंह को अधिक दिनों तक जीने का मौका मिलता, तो वे भी एक विशाल अहिंसक संघर्ष ही संगठित करते, जिसकी जरूरत के बारे में उन्होंने अपने दस्तावेजों में बार-बार जिक्र किया है। इस तरह, हमारे पास संघर्ष के हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के अनुभव हैं और हम विवेक के आधार पर चुन सकते हैं कि आज कौन-सा रास्ता हमारे लिए श्रेयस्कर होगा।
सवाल सिर्फ रास्ते और विधि का ही है। वरना आज 1857 की क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कोई ईमानदार मतभेद हो ही नहीं सकता। वह संग्राम विदेशी गुलामी के विरुध्द छेड़ा गया था। यानी स्वतंत्रता के पक्ष में था। उन दिनों स्वतंत्रता की परिभाषा, कम से कम भारत में, काफी सीमित थी। यूरोप में मेरी वोल्सटोनेक्राफ्ट 1792 में 'ए विंडिकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वीमेन' नामक पुस्तक लिख चुकी थीं और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1859 में 'ऑन लिबर्टी' नामक अपना प्रसिध्द ग्रंथ लिखा। इन दोनों ही पुस्तकों में स्वतंत्रता को बहुत ही व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया था। हमारे लिए यह अवसर दूसरे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान आया, जब भगत सिंह ने स्वतंत्रता को समाजवादी व्यवस्था के रूप में और महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज के रूप में परिभाषित किया। आज स्वतंत्रता का अध्ययन बहुत विस्तृत हो चुका है और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान उसके दायरे को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। इसलिए 1857 में जिसे आजादी कहा गया, वह आज पर्याप्त नहीं है। उस आजादी में लोकतंत्र तक नहीं था। आज हमें जो आजादी चाहिए, उसमें लोकतंत्र, समाजवाद, ग्राम स्वराज, जाति-मुक्त समाज आदि बहुत कुछ शामिल है। 1857 के सेनानी स्वतंत्रता को अपना जन्मसिध्द अधिकार (इस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग नहीं किया; बाद में बाल गंगाधर तिलक ने इस खूबसूरत जुमले का आविष्कार किया, जो हमारे हृदय में अमिट रूप से अंकित है) को मानते थे , जिसे पाने की हसरत में लाखों लोगों को जान की कुरबानी देनी पड़ी। गांधी और भगत सिंह के संघर्ष में भी लाखों लोग शहीद हुए। लेकिन आज भी हम अपने काबिल पुरखों के सपनों के समाज से बहुत दूर हैं। सरकारी नीतियों में हाल में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इसी तरह बरदाश्त किए जाते रहे, तो वह समाज हमसे और दूरतर होता जाएगा। इसलिए, भारतवासी होने के नाते, यह हमारा एक भूला हुआ ऐतिहासिक कर्तव्य है कि हम एक वास्तविक रूप से स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करें। कर्तव्य होने के नाते यह हमारा अधिकार भी है और अपने इस मूलभूत, जन्मसिध्द अधिकार का प्रयोग करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। जो रोकने की कोशिश करेगा, वह भारतीय संविधान के साथ बेवफाई कर रहा होगा। इसी तरह, जो इस अपने इस अधिकार का विधिसम्मत रूप से उपयोग कर रहे होंगे, वे भारतीय संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे होंगे। संविधान के अनुच्छेद 51क का आदेश भी है कि ' भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह -- (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती से अधिक पवित्र मौका क्या हो सकता है जब संविधान में बताए हुए अपने इस 'मूल कर्तव्य' का पालन करने के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रांतिकारी जिहाद छेड़ दें? यह हमारे मूल अधिकारों में एक है।
इस क्रांति की तैयारी कौन-से आदर्श पाने के लिए होगी? यह निर्धारित करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से, स्वयं हमारे संविधान में ही इसका जोरदार उल्लेख किया हुआ है। मैं यहां सिर्फ दो अनुच्छेदों को उध्दृत करूंगा। अनुच्छेद 38 का निर्देश है कि '(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा'। अनुच्छेद 39 'राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व' इस प्रकार बताता है : 'राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ) पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु याशक्ति के अनुकूल न हो; (च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।'
यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे साभ भी हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अध्याय का दर्जा दिया गया है। लेकिन नागरिकों का पर्याप्त दबाव न पड़ने के कारण इस मूल अधिकार को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नागरिक चाहें तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को (संविधान का भाग 4) लागू कराने के लिए आंदोलन जरूर कर सकते हैं। संविधान न्यायपालिका की शक्ति की सीमाओं को जानता है। इसलिए वह उन्हें असंभव दिखाई पड़ने वाले कामों का जिम्मा नहीं देता। लेकिन नागरिक समाज की शक्ति असीमित होती है। वह राजाओं और सामंतों की व्यवस्था को खत्म कर सकता है, वह अन्याय और असमानता के सभी रूपों को नष्ट कर सकता है, वह प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन बिताने की परिस्थितियों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकता है। यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हमारी न्यायपालिका भले ही आज इस स्थिति में न हो कि वह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए सरकार को बाध्य कर सके, लेकिन अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे आते हैं, तो वह इन साहसी लोगों की सहायता ही करेगी -- उन्हें राज्य के कोप से और अन्याय तथा विशमता को बरकरार रखने की इच्छा और शक्ति रखने वाली शक्तियों के कोप और दमन से बचाएगा। आखिर हमारी न्यायपालिका इसी संविधान की कोख से पैदा हुई है और उसका काम इस संविधान की रक्षा करना ही है।
अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना तथा हर इलाके में जोरदार आंदोलन छेड़ देना। यह काम कठिन है, पर असंभव बिलकुल नहीं है। इसके लिए फिलहाल कोई राजनीतिक दल बनाने की जरूरत नहीं है। 'भारत सेवक संघ' या ऐसे ही किसी विनीत नाम से गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर आदि स्तरों पर संगठन बनाने चाहिए तथा उन्हें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर विभिन्न सूत्रों में पिरोना चाहिए। कार्यक्रम की शुरुआत इस प्रकार के अभियानों से की जा सकती है -- (1) हम अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग नहीं चलने देंगे, क्योंकि भारत में अंग्रेजी शोषण और विषमता की भाषा है। (2) हमारी टोलियां इस दृष्टि से स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों की सतत निगरानी करेंगी कि वहां नियमों के अनुसार काम होता है या नहीं। गुप्त रूप से किए जाने वाले भुगतानों को असंभव कर दिया जाएगा और इस तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाएगा कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही न रह जाए। (3) सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों -- बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी आदि -- को नियमानुसार चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। (4) जहां राशन कार्ड बनाए जाते हैं, नागरिक पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी आदि के परमिट जारी किए जाते हैं, उन सभी कार्यालयों की सख्त निगरानी की जाएगी और उचित ढंग से काम करवाया जाएगा। (5) नागरिकों की प्रशासनिक समस्याओं, जैसे बिजली-पानी के कनेक्शन पाने में देर या धींगामुश्ती, को सुलझाने के लिए सहायता समूह होंगे। (6) महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। (7) सभी वेश्यालय बंद कराए जाएंगे। आदि-आदि। बाद में और भी रेडिकल कदम उठाए जाएंगे, जैसे सिगरेट-बीड़ी आदि के कारखानों को बंद कराना, विभिन्न उत्पादकों से हिसाब लेना कि उनकी लागत क्या पड़ती है और वे ग्राहक से कितना वसूल कर रहे हैं, मजदूरों को उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं दी जा रही हैं या नहीं। ये सभी विधि-सम्मत काम हैं और ऐसा करते हम सरकार तथा समाज की मदद ही कर रहे होंगे। जब सार्वजनिक सेवा का यह कार्यक्रम व्यापक रूप से फैल जाएगा, तब राजनीतिक दल भी बनाए जा सकते हैं और संसद तथा विधान सभाओं की सहायतों से कानूनों में ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हों जो संविधान के उच्छ आदर्शों के अनुसार जीने और व्यवस्था को चलाने में सहायता कर सकें।
निश्चय ही, ये सारे कां मजेदार, आनंदपूर्ण और हमारी बुनियादी न्याय भावना को संतुष्ट करने वाले हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों की व्यवस्था में उल्लेखनीय फर्क आएगा। फिर देर करने की क्या बात है? आइए, हम अपने-अपने इलाके में इसकी शुरुआत करने के लिए जुटें और काम शुरू कर दें। जो ईश्वर को मानते हैं, वे आश्वस्त रह सकते हैं कि वह उनकी सहायता जरूर करेगा। जो नास्तिक हैं, उनके पास इतिहास का बल होगा। 1857 की लड़ाई करने की पहल कुछ ऐसी ही भावना से पैदा हुई होगी। 000
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