Wednesday, September 12, 2007

वामपंथ : चलो इक बार फिर से...

चतुर खिलाड़ी का कमजोर दांव

राजकिशोर

यह तो शुरू से ही निश्चित था कि मनमोहन सिंह की सरकार पूरे पांच वर्ष नहीं चल पाएगी, क्योंकि कांग्रेस और वामपंथ स्वाभाविक सहचर नहीं हैं। केरल, पश्चिम बंगाल तथा कई अन्य राज्यों में उनके बीच कांटे की लड़ाई होती है। फिर भी दोनों साथ सके, तो इसलिए कि भाजपा का भूत उनका पीछा कर रहा था। उसी समय अगर वामपंथ ने बाहर से समर्थन देने का निर्णय किया होता और संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (जो तो संयुक्त है मोर्चा और प्रगतिशील तो उसे कह ही नहीं सकते, क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों में उसने प्रतिक्रियावादी नीतियों का परिचय दिया है) बनाने के झमेले में पड़ा होता, तो वह इस सरकार को बेहतर तरीके से अनुशासित कर सकता था। लेकिन तब उसे सत्ता की वह मलाई नहीं मिलती जिसके बल पर उसने शिक्षा और संस्कृति के इलाके में बहुत-से मूल्यवान पदों को हथिया रखा है। इस कारण वामपंथ की भागेदारी शुरू से ही संदिग्ध ईमानदारी की रही है। कांग्रेस भी शुरू से ही यह मान कर चल रही है कि कम्युनिस्टों से उसकी अंतत: बन नहीं सकती, इसलिए वह भी उनका अवसरवादी उपयोग ही करती आई है। इन तीन सालों के साहचर्य के दौरान तो कांग्रेस वामपंथ को बदल पाई वामपंथ कांग्रेस की विचारधारा को थोड़ा भी प्रगतिशील या जनवादी बना पाया। ऐसी स्थिति में आश्चर्य करना हो, तो इस पर करना चाहिए कि विग्रह का क्षण इतनी देर से क्यों आया।

इसका कारण संभवत: यह है कि दोनों ही मुख्य सहयोगी मध्यावधि चुनाव से घबराते रहे हैं। अभी भी मध्यावधि चुनाव एक ऐसा जुआ है जिसे पूरे मन से कोई खेल नहीं रहा है। कायदे से कांग्रेस को ही सबसे पहले इसके लिए तैयार रहना चाहिए था, क्योंकि वह दूसरों के कंधे पर बैठ कर सत्ता नामक ऊंचे पेड़ के रसदार फल तोड़ रही है, लेकिन उसमें आत्मविश्वास की भयानक कमी दिखाई देती है। मनमोहन सिंह ने कहा है कि उन्हें पूरा विश्वास था कि वे एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। लेकिन उन्हें शायद यह विश्वास नहीं है कि वे दूसरी बार भी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। इसलिए वे अपने वर्तमान कार्यकाल को जितना अधिक खींच सकते हैं, खींचना चाहेंगे। वामपंथ ने भी मध्यावधि चिनाव की कोई तैयारी नहीं कर रखी है, क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में वह अपनी कोई निर्णायक भूमिका देख ही नहीं पाती। इस स्तर पर वह किसी चीज की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती - बस किसी का समर्थन और किसी का विरोध करना जानती है। भाजपा तो सशंक भी है, क्योंकि राजग सरकार की विदाई के बाद भाजपा जितनी टूटी और बिखरी है उतना कोई और दल नहीं। अब तो यह भी पूछा जाने लगा है कि भाजपा का नेता कौन है या थोड़ा साफ-साफ पूुूछिए तो भाजपा का कोई नेता है भी या नहीं। एक विपक्षी या मुख्य विपक्षी दल के रूप में भाजपा का काम-काज आश्चर्यजनक रूप से धूमिल रहा है। 'बाबरी मस्जिद तोड़ो' आंदोलन से उसने जो शक्ति अर्जित की थी, वह पारे की तरह बिखर चुकी है। ऐसी स्थिति में वह मध्यावधि चुनाव की चाहत करे तो कैसेे? लेकिन वामपंथी अगर सोचते हैं कि अमेरिका के साथ परमाणु करार का करारा विरोध कर वे भारतीय जनता की निगाह में बहुत ऊंचे उठ जाएंगे, तो यह आधी रात में सूर्योदय की कामना करने की तरह है।

दरअसल, अमेरिका का वर्तमान वामपंथी विरोध एक पुराने सैद्धांतिक टोटके की तरह है। अगर यह टोटका भर नहीं होता, तो उन्हें सवाल यह उठाना चाहिए था कि जब भारत के पास अपनी प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक परमाणु क्षमता है ही, जिसका वह प्रदर्शन भी कर चुका है, तो उसे और अधिक परमाणु क्षमता प्राप्त करने के लिए अमेरिका के पैरों पर क्यों गिरना चाहिए? जहां तक परमाणु शक्ति के नागरिक उपयोग का सवाल है, तो अगर हम अपने बल पर परमाणु बम बना सकते हैं, तो दूसरे जरूरी काम भी कर सकते हैं। परमाणु बिजलीघरों का मामला एक मंहगे शौक के अलावा कुछ नहीं है, क्योंकि भारत जैसे बड़े देश के लिए परमाणु बिजली बड़े पैमाने पर बनाने का सपना हड्डी पर कबड्डी खेलने की तरह है। वामपंथी विरोध को और अधिक विश्वसनीय तथा सारपूर्ण बनाने के लिए यह भी जरूरी था कि हमारे कम्युनिस्ट दोस्त विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता छोड़ने और भारत की अर्थनीति के भारत की व्यापक जनता के हितों के अनुकूल बनाने की जोरदार मांग करते। इससे नई स्वतंत्रता बनाम नई दासता की बड़ी बहस राष्ट्रीय मानस में भूचाल ला सकती थी और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक नया रास्ता खुल सकता था। आज पुरानी अर्थनीति जितनी असंगत है उतनी ही असंगत नई अर्थनीति दिखाई पड़ रही है। पुरानी अर्थनीति में किसान कम से कम आत्महत्या तो नहीं करते थे। आज किसान ही नहीं, मध्य और निम्न वर्ग के लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं। यहां तक कि लघु व्यापारी भी।

जहां तक जनसाधारण का सवाल है, वह वर्तमान स्थिति से भौचक्की है। एक ओर उसके सामने तीव्र विकास के आंकड़े परोसे जा रहे हैं, दूसरी ओर वह अपने अनुभव से देख रही है कि अमीरी के साथ-साथ अभावग्रस्तता भी बढ़ रही है। भारत में आज जितनी आार्थिक विषमता है, उतनी पहले कभी नहीं थी। मध्य वर्ग शुतुर्मुर्ग की तरह यथार्थ को देखना नहीं चाहता और महानगरों में पैदा होने वाली थोड़ी-बहुत चकाचौंध से प्रसन्न है। यही कारण है कि भाजपा को परमाणु करार का अपना विरोध अचानक मद्धिम कर देना पड़ा। ऐसी स्थिति में जनता साथ देगी तो एटमी राष्ट्रीयता को ही, क्योंकि अगर कुछ महीनों में ही चुनाव होता है, तो अर्थनीति का सवाल पीछे छूट जाएगा और भारत को और अधिक परमाणु शक्ति संपन्न देश बनाने की चुनौती सामने जाएगी। जहां तक नई अर्थनीति का सवाल है, वामपंथियों के मुंह में भी खून लग चुका है। अन्य राज्यों में किसान आत्महत्या करते हैं, पश्चिम बंगाल में पुलिस उन पर गोली चलाती है। सो परमाणमु करार की नकली बहस में केवल मनमोहन सिंह जैसा अपरिपक्व नेता चमक उठेगा, बल्कि सोनिया गांधी की कुछ छवियां इंदिरा गांधी के लोक मोहक रूपों की याद दिलाने लगेंगी। यह वामपंथियों द्वारा अपनी गर्दन तश्तरी पर रख कर कांगेस को पेश करने की तरह होगा। लेकिन व्यक्तियों की तरह शायद संगठनों में भी मृत्यु-इच्छा भीतर-भीतर काम करती रहती है। एक समय में यह कांग्रेस में दिखाई पड़ी, फिर भाजपा में और अब वामपंथी दल इसका शिकार नजर आते हैं।

1 comment:

Anonymous said...

इसी तरह वामपंथियों की खबर लेते रहें, सर। आप कमाल का लिखते हैं। धन्यवाद।