Friday, October 31, 2008

पाप, पाप और पाप

इक्कीस महापापों की इस नगरी में
राजकिशोर


कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटि (सीएसआर) यानी कंपनियों की समाजिक जिम्मेदारी का आजकल बहुत शोर है। मुर्गों को जिबह करनेवाले सावधान हो गए हैं। वे दाएं हाथ से कत्ल और बाएं हाथ से कुछ दान-पुण्य कर अपराध बोध से बचना चाहते हैं। या, अपनी मलिन हो चुकी छवि को सुधारना चाहते हैं। जैसे पहले ईश्वर को चंदा दिए बगैर पाप का माल हजम नहीं होता था, वैसे ही असामाजिक क्रियाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाने के लिए कुछ चेक ऐसे भी काटने होते हैं जो कंपनी के सामाजिक सरोकारों पर मुहर लगा दें। जाहिर है, इस अवधारणा में ही यह निहित है कि सीएसआर के अलावा कंपनी जो कुछ भी करेगी, उससे उसकी सामाजिक जिम्मेदारी व्यक्त होना आवश्यक नहीं है। गोया आज का प्रबंधन शास्त्र यह मान कर चल रहा है कि कंपनी की मूल गतिविधि तो असामाजिक या समाज-विरोधी होगी, पर कंपनी अपने सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेगी। मिर्जा गालिब ने इन्हीं स्थितियों के लिए फरमाया था : रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई।
यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं होगा कि कैथलिक चर्च ने सीआरएस की नकल पर ही सात महापापों की नई सूची घोषित की है। चर्च कभी इतना कमजोर नहीं रहा कि वह अपने मूल लक्ष्यों पर दुनियादार लोगों के साथ समझौता कर ले। दुनिया के सभी धर्म बोली के स्तर पर उदार रहे हैं। आखिरन यह बोली ही तो है जो साधु को चोर से जुदा करती है। वेश-भूषा और भाषा -- ये दो जबरदस्त तत्व हैं जो समाज में धर्म की निजी छवि बनाते हैं और उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं। इसलिए वेटिकन ने अगर गत नौ मार्च को सात आधुनिक महापापों की सूची जारी की, तो यह उचित ही नहीं, आवश्यक भी था। इससे यह भी जाहिर हो जाता है कि कैथलिक चर्च अपने सरोकारों में आधुनिक होना चाहता है। ईसा मसीह ने दो हजार साल पहले जो कहा था, वह उनके अपने समय के यथार्थ पर आधारित था। वह आज भी पुराना नहीं पड़ा है, लेकिन आधुनिक समय में कुछ ऐसा यथार्थ भी प्रगट हुआ है, जिस पर आलोचनात्मक नजर डालना जरूरी है। ईसा मसीह आज होते, तो वे भी यही करते। इस तरह, सात नए महापापों के नाम गिना कर कैथलिक चर्च ने अपना नवीनीकरण किया है। अगर चर्च एक बहुत बड़ी कंपनी है, तो उसे भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दो-चार होना होगा। यानी, हम चाहें तो यह सोचने का पाप कर सकते हैं कि कैथलिक चर्च पर सीएसआर संस्कृति की कुछ छाया जरूर है।
इन सात नए महापापों की सूची पर नजर डालते ही यह उपस्थित हो जाएगा कि हम कितने खतरनाक समय में जी रहे हैं। पाप हैं, तो पापी भी होंगे। आज के बड़े-बड़े पापी कौन-कौन-सा पाप कर रहे हैं? गिनते चलिए। एक, पर्यावरण का प्रदूषण। यह ईश्वर की बनाई हुई सुंदर सृष्टि के साथ बलात्कार है। जो पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है, उसका मुंह ईश्वर के विपरीत दिशा में ही हो सकता है। यह सृष्टि सभी के लिए है, पर कुछ लोग अपने लालच के कारण इसे सभी के लिए विनाशकारी बना रहे हैं। उन्हें अपने और अपने नाती-पोतों की चिंता भले ही न हो, पर दूसरों और उनके नाती-पोतों को खतरे में डालने का उन्हें क्या अधिकार है? दो, जीन के स्तर पर मेनुपुलेशन। यह भी ईश्वर की व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ है। जीन के स्तर पर मेनुपुलेशन से लाभ भी हो सकते हैं, जैसे कई असाध्य बीमारियों का हल निकल आना या आनुवंशिक बीमारियों पर नियंत्रण। लेकिन मानव मन इतना चंचल है कि इस टेक्नोलॉजी के परिणाम भयावह भी हो सकते हैं। यह खुदा की खुदाई के साथ इतने बुनियादी स्तर पर हस्तक्षेप है कि इसके परिणामों के बारे में आज अनुमान भी नहीं किया जा सकता। इसलिए बेहतर है कि हम भानमती के इस पिटारे को खोलें ही नहीं। तीन, सीमाहीन धन जमा करना। पहले भी यह महापाप होता था, लेकिन कुछ ही लोग यह पाप कर सकते थे। आज इन पापियों का लंबी-लंबी सूचियां दुनिया भर में छापी जा रही हैं। ऐसा लगता है कि यह दुनिया धन के देवता मैम्मन के हाथ बिक चुकी है। सीमाहीन धन के केंद्र होंगे, तो सीमाहीन गरीबी भी होगी। इसलिए चार, गरीबी पैदा करना। अगर किसी को ईश्वर ने ही गरीब बनाया है, तो बात दीगर है, लेकिन किसी आर्थिक प्रक्रिया या कुछ खास निर्णयों की वजह से गरीबी पैदा की जा रही है, तो यह महापाप है। जाहिर है, इशारा वैश्वीकरण की तरफ है, जो गरीब देशों में इसी शर्त पर पैर रखता है कि हम वहां गरीबी पैदा करेंे, तो हमें रोका न जाए।
पांच, मादक पदार्थों की तस्करी और इन पदार्थों का सेवन करना। मेरी अदना समझ में सेवन करनेवालों को सामान्य पापियों की श्रेणी में रखा जाता, तो बेहतर था। वेश्याएं, स्त्री और पुरुष दोनों, शिकार होती हैं, शिकारी नहीं। लेकिन मादक पदार्थों की तस्करी में जो लोग लगे हुए हैं, उनके लिए तो घोर से घोर नरक भी मुलायम जगह है, ऐसा मानना चाहिए। चर्च ने अब ऐसे लोगों पर उंगली रख दी है। छह, नैत्तिक रूप से बहसतलब प्रयोग। इसके उदाहरण नहीं दिए गए हैं, लेकिन वैज्ञानिक ऐसे अनेक प्रयोग कर रहे हैं, जिन पर नैत्तिक आपत्ति हो सकती है। जैसे डॉली नामक भेंड़ का उत्पादन, जो दर्जनों रोगों का शिकार हो कर कष्टमय मौत मरी। सात, मूल मानव अधिकारों की अवहेलना। इस बात को सूची में डालना बहुत जरूरी था। धार्मिक लोग अभी तक कर्तव्यों की भाषा में ही बात करते रहे हैं। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने स्वीकार कर लिया कि मनुष्य के कुछ मूल अधिकार भी होते हैं और किसी भी सूरत में राज्य द्वारा या किसी अन्य द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। आशा है कि कैथलिक चर्च इस मान्यता को अपने धार्मिक प्रतिष्ठान के सदस्यों पर भी लागू करेगा और उनके मूल मानव अधिकारों का सम्मान करेगा।
दो हफ्ते में ही यह बहसतलब हो चला है कि कैथलिक चर्च की निगाह में ये सातों महापाप हैं या महज पाप हैं या पहले बताए गए महापापों के नए उदाहरण हैं। यह मानने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है कि यह धर्म की एक नई जमीन है। अभी तक जिन्हें पाप या महापाप माना जाता था, उनका स्वभाव मनुष्य के निजी जीवन से था। नई सूची मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारियों पर जोर देती है। इससे यह बात पहली बार इतने साफ ढंग से सामने आई है कि मनुष्य न केवल ईश्वर के प्रति, बल्कि समाज के प्रति भी जवाबदेह है। यानी वह व्यक्तिगत स्तर पर भले ही नेक हो, पर अगर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का पालन नहीं कर रहा है, तो स्वर्ग का दरवाजा उसके लिए नहीं खुलेगा। देखा जाए, तो सात पुराने महापाप भी मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारियों की ओर ही उन्मुख थे। वे सात महापाप इस प्रकार हैं : वासना, क्रोध, उदासीनता, अभिमान, लालच, पेटूपन और ईर्ष्या। हिन्दू साहित्य में इसे काम, क्रोध, मद, लोभ आदि के रूप में चित्रित किया गया है। दूसरे धर्मों में भी ऐसी ही व्यवस्थाएं हैं। कहना न होगा कि ये सारी समस्याएं मानव अस्तित्व के साथ गुंथी हुई हैं। हममें से हरएक गौर करेगा, तो वह अपने को किसी न किसी बिन्दु पर महापापी मानने से बच नहीं सकता। शायद हमारा अस्तित्व में होना ही पाप है। इसीलिए तो संतों को गिन-गिन कर बताना पड़ा कि कहां-कहां तुम्हें सावधान रहना चाहिए। संतों में जो बुद्धिमान थे, उन्होंने अपने लिए घोषणा की -- मो सम कौन कुटिल खल कामी। लेकिन कोई जीवन भर यह भजन गाता रहे और कुटिल, खल, कामी भी बना रहे, तो यह धर्म की एक ऐसी विफलता है जिसे अत्र तत्र सर्वत्र देखा जा सकता है। यह धार्मिक रास्ते की एक बहुत बड़ी समस्या भी है, जिस पर विचार करते हुए कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो धर्म पृथ्वी पर रहेगा जरूर, लेकिन एक रंगमंचीय अभिनेता के रूप में। फिर भी यह हर्ष और बधाई की बात है कि एक बड़े धार्मिक प्रतिष्ठान ने दुनिया के बिगड़ते हुए हालात में हस्तक्षेप करने की सैद्धांतिक कोशिश की है। इससे ईसाई जगत की सामूहिक आत्मा में कुछ तो तनाव पैदा होगा और शायद कुछ परिवर्तन भी आए। इस संभावना के मद्दे-नजर क्या हम दुनिया के अन्य धार्मिक प्रतिष्ठानों से बिनती कर सकते हैं कि वे भी अपनी-अपनी सूचियां ले कर हाजिर हों? हमारे शंकराचार्य भी क्या सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिए जमा होते रहेंगे या गरीबी, विषमता, बेईमानी, जुल्म, अन्याय आदि पर भी अपने विचार रहेंगे? जो धर्म की रक्षा नहीं करता, धर्म सबसे पहले उसी का नाश करता है।
चौदह महापापों की चर्चा करने के बाद अब हम उन सात पापों का जिक्र करेंगे जिन्हें महात्मा गांधी गिना गए हैं। आश्चर्य है कि गांधीवादी महात्मा की विरासत का उल्लेख करते हुए इन सातों पापों की चर्चा सबसे कम करते हैं। लेकिन नहीं, यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि गुरु के वचन वहीं तक मान्य होते हैं जहां तक वे किसी त्याग की फरमाइश नहीं करते। महात्मा जी की पाप सूची, मेरे खयाल से, एक ऐसी सर्वांग पूर्ण सूची है, जो हमारे अस्तित्व के सभी कोनों को झिझोड़ देती है। यह सूची इस प्रकार है और सुझाव दिया जा सकता है कि महात्मा के दूसरे उद्धरणों के साथ इन्हें भी अधिकतम प्रचार दिया जाना चाहिए। इसलिए कि ये सातों पाप हमारे समय की केंद्रीय विडंबनाओं पर आधात करते हैं।
महात्मा की दृष्टि में सात पाप इस प्रकार हैं : (1) काम किए बिना धन, (2) अंतरात्मा के बिना सुख, (3) चरित्र के बिना ज्ञान, (4) नैतिकता के बिना व्यापार, (5) मनुष्यता के बिना विज्ञान, (6) त्याग के बिना पूजा और (7) सिद्धांत के बिना राजनीति। इन सात पापों के दायरे में हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों प्रकार का जीवन आ जाता है। कहा जा सकता है कि इस आधार पर नई मानव संस्कृति की रचना भी की जा सकती है। इस प्रसंग में संतोष की बात यही है कि देश की करोड़ों गरीब जनता को इनमें से दो-चार पाप करने की ही सुविधा है। महात्मा जी इन्हें ही अपना आदमी मानते थे। अगर हम समर्थ लोग इस बात को थोड़ा-सा भी मान लें, तो हम अनेक पापों से बच सकते हैं। 000

Thursday, October 30, 2008

भारत का चंद्रयान

चंद्र खिलौना लैहों
राजकिशोर

करीब चार सौ साल पहले हिन्दी के सबसे बड़े कवियों में एक, सूरदास, ने कल्पना की थी कि बाल कृष्ण यशोदा मैया से चंद्र खिलौना लेने के लिए मचलते हैं और माता यशोदा उन्हें किसी तरह फुसला कर मना लेती हैं। कृष्ण का वास्तविक स्वरूप भगवान का था। कुरुक्षेत्र में जब वे अर्जुन को अपनी असली सूरत दिखाते हैं, तो पता चलता है कि कोटि-कोटि चंद्र और सूर्य उनके असीम आयतन में क्षुद्र कणों की तरह बिखरे हुए हैं। इसलिए अपने बाल रूप में जब वे चंद्रमा को खिलौना समझ और बता रहे थे, तो वे अपनी दूसरी मां से कौतुक ही कर रहे होंगे। भगवान के लिए तो सब कुछ कौतुक ही है। हम सब उसकी कठपुतलियां हैं। हमारी ट्रेजेडी यह है कि हम अपने इस कठपुतलीपन को समझते हैं और दुख पाते हैं। गुस्सा करें तो किस पर? कहीं सुनवाई है?लेकिन क्या हम भारत सरकार की भी कठपुतलियां हैं जिसका दावा है कि वह जो कुछ करती है, हमारे प्रतिनिधि के रूप में और हमारे भले के लिए ही करती है? कुछ वर्षों से वह भी चंद्र खिलौने के लिए मचल रही थी और अब वह अंतरिक्ष में अपना चंद्रयान भेज कर इस ‘महानतम उपलब्धि’ पर इतरा रही है जैसे वह सचमुच चंद्रमा को हाथ में ले कर उसके साथ खेल रही हो। भारत ने जब पहली बार परमाणु परीक्षण किया था, तब यह कुछ के लिए खेद की और ज्यादातर के लिए खुशी की बात थी। उस घटना की खुशी समझ में आती है। परमाणु परीक्षण सामरिक प्रतिरक्षा का एक अनिवार्य अंग बन चुका है – खास तौर से तब जब आपके किसी पड़ोसी के पास परमाणु बम हो। भारत ने दूसरी बार परमाणु परीक्षण किया, तो उसे ले कर विवाद और ज्यादा गहरा गया, क्योंकि इस बार केंद्र में कांग्रेस की नहीं, भाजपा की सरकार थी, जो भारतीय व्यक्ति के चरित्र को नहीं, भारतीय राष्ट्र की सामरिक क्षमता को मजबूत बनाना चाहती है। फिर भी उस परमाणु परीक्षण का एक सकारात्मक पहलू था, क्योंकि जब तक धरती पर युद्ध एक वास्तविक संभावना है, तब तक प्रतिरक्षा के मामले में प्रत्येक देश के पास नए से नए हथियार होने ही चाहिए। लेकिन हम अपना एक मानवहीन या मानवयुक्त यान चंद्रमा की सतह पर भेज कर कौन-सा तीर मार लेंगे?चंद्रमा के बहुत-से रहस्य हैं जो अभी तक खुल नहीं सके हैं। दुनिया के पांच देश अब तक बार-बार चंद्रमा की टोह लेते रहे हैं। उन्होंने अब तक जो जानकारियां हासिल की हैं उनमें से बहुत कुछ को बाकी दुनिया से साझा भी किया है। इन जानकारियों से चंद्रमा के बारे में या हमारे सौर मंडल के बारे में कोई अभिभूत कर देनेवाली जानकारी नहीं मिल पाई है, सिवाय इसके कि चंद्रमा में न तो जीवन है और न ही जीवन को बनाए रखनेवाली स्थितियां हैं। अगर कुछ विशेष जानकारियां अभी भी अपेक्षित या प्रतीक्षित हैं, तो अपने इसरो पर हम यह भरोसा नहीं कर सकते कि उसके वैज्ञानिक वे जानकारियां ला सकेंगे। हर भारतीय जानता है कि अंतरिक्ष विज्ञान के मामले में दुनिया के दर्जनों देश भारत से आगे हैं। प्राचीन काल में तो भारत के अंतरिक्ष अध्येता ही दुनिया भर में अग्रणी थे। हमारे ही एक सपूत खगोलज्ञ ने कई हजार वर्ष पहले पृथ्वी और सूर्य के बीच की सही-सही दूरी और सूर्य की आवर्तन की अवधि की गणना कर ली थी, जिससे विश्व भर के वैज्ञानिक अभी भी चमत्कृत हैं। स्वतंत्र होने के बाद भारत सरकार ने इस महान परंपरा की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने और उसे आगे बढ़ाने का अभियान शुरू कर दिया होता, तो हम समझते कि विज्ञान में हमारी रुचि वास्तविक है। उस समय तो हम अपनी बुद्धि से एक जीप तक बनाने में असमर्थ थे और भारत के पहले रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को इंग्लैंड से जीप आयात करने के मामले में भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों का सामना करना पड़ा था। आज भी हम अपनी बुद्धि से एक अच्छी कलम या एक अच्छा ट्रांजिस्टर तक बनाने में अक्षम हैं। लेकिन कई वर्षों से सरकारी हलकों में ‘मुझे चांद चाहिए' की हसरत भरी गहमागहमी जारी है।बाल कृष्ण को तो खेलने के लिए चांद चाहिए था। भारत सरकार बच्ची नहीं है। वह जानती है कि अभी तक सिर्फ चार देशों --- अमेरिका, रूस, जापान और चीन तथा यूरोपीय देशों के समवाय यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने चंद्रमा तक यान भेजने में रुचि दिखाई है। इनमें से अमेरिका और रूस को आसानी से अलग किया जा सकता है, क्योंकि ये दोनों देश जो युद्ध जमीन पर लड़ रहे थे, वही युद्ध वे अंतरिक्ष में भी लड़ना चाहते थे। जापान तो अमेरिका का गर्ल फ्रेंड ठहरा। अमेरिका जो चाहता है, जापान को करना पड़ता है। वास्तव में तो उसे इलेक्ट्रॉनिक्स और मोटर गाड़ियों में ज्यादा दिलचस्पी है। अंतरिक्ष में प्रतिद्वंद्विता की होड़ में चीन ही सच्चा खिलाड़ी है, क्योंकि वह अपने आपको इस स्थिति में लाना चाहता है कि अकेले ही पूरी दुनिया से होड़ ले सके। नि:संदेह यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बुद्धिमत्ता दिखाई है। यूरोप में कम से कम पांच ऐसे देश हैं जो अकेले अपने बूते पर चंद्रमा पर बस या कार भेज सकते थे। लेकिन उन्होंने इस पिटे-पिटाए खेल में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब उन्हें यह जरूरी लगा, तो समवेत रूप से यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के माध्यम से यह छोटा-सा काम पूरा कर डाला।भारत चाहता तो सार्क के माध्यम से या भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश संघ के माध्यम से अपनी चंद्र अभिलाषा पूरी कर सकता था। अधिकतर खर्च वह खुद करता तथा बाकी दोनों पड़ोसी नातेदारों से रस्म के तौर पर कुछ सहयोग राशि ले लेता। इससे भविष्य की क्षेत्रीय राजनीति का एक अच्छा नक्शा उभर सकता था। लेकिन भारत के शासकों में इतनी दूरंदेशी कहां! वे तो ‘फेयर एंड लवली' से अपना बदरंग चेहरा चमकाना चाहते हैं। ‘फेयर एंड लवली’ एक लोकप्रिय क्रीम है जो चेहरे पर गोरापन लाने का झांसा देती है। हमारा शासक वर्ग भी बहुत दिनों से गोरा बनने का सपना देख रहा है। त्वचा का अपना जीनशास्त्र है। गोरा तो हम बन नहीं सकते, चाहे हमारी सात पुश्तें पश्चिमी देशों में रह लें। लेकिन गोरों जैसे कुछ काम करके गोरा क्लब में शामिल होने की कामना हम जरूर कर सकते हैं। परमाणु बिजलीघर के लिए यूरेनियम हासिल करने के लिए अमेरिका और यूरेनियम विक्रेता संघ के पांवों पर बिछ कर हमने इस मनहूस दिशा में एक कदम रखा तो अब अपने खर्च पर चंद्रयान भेज कर दूसरा कदम रख कर मन ही मन लड्डू खा रहे हैं।जरा गौर कीजिए कि चंद्रयान के सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में पहुंच जाने पर हमारे दो शीर्ष राज्यकर्मियों ने क्या कहा। राष्ट्रपति प्रतिभापाटिल का राष्ट्र के नाम संदेश यह है : ‘चंद्रयान से जुड़े सभी वैज्ञानिकों को बधाई। यह गर्व के साथ-साथ जश्न का भी समय है। देश का मान और बढ़ गया है।’ इसी की प्रतिध्वनि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बधाई संदेश में सुनाई देती है : ‘आज का दिन अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए ऐतिहासिक है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में देश की प्रतिष्ठा में इजाफा हुआ है।’ दोनों शीर्षस्थों को नाज इस बात का है कि चंद्रयान छोड़ने से देश की इज्जत बढ़ी है। अब हम पांच के उस क्लब में शामिल हो गए हैं जिन्होंने चंद्रमा पर झंडा गाड़ा है। अब चंद्रमा की सूखी, पथरीली सतह पर पांच के बजाय छह झंडे होंगे। ईश्वर अगर यह देख रहा होगा, तो वह हम भारतीयों के इस तमाशे पर ठठा कर कितना हंस रहा होगा। शायद वह यह भी सोचता हो कि इस जमीन पर कई-कई अवतार ले कर मुझसे गलती तो नहीं हो गई! इनके सुधरने के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। बेशक भारत की विशाल अर्थव्यवस्था को देखते हुए यह कोई मंहगा तमाशा नहीं है। बताते हैं कि इस कार्यक्रम पर कुल मिला कर मात्र चार सौ छियासठ करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। चार सौ छियासठ करोड़ रुपए आजकल होते क्या हैं? दिल्ली और मुबई में इस रकम से उस स्तर की मुश्किल से चालीस-पचास ही कोठियां खरीदी जा सकती हैं जिस स्तर की कोठियों में अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और मुकेश अंबानी जैसी हस्तियां रहती हैं। हमारे राष्ट्रपति भवन की कीमत तो इससे कहीं बहुत ज्यादा होगी। यानी हम चाहें तो सोच सकते हैं कि जैसे दिवाली की रात बहुत-से अमीर परिवार कई लाख रुपयों के पटाखे जला डालते हैं या नववर्ष के आयोजनों पर लाखों रुपए फूंक देते हैं, वैसे ही भारत सरकार ने अपनी किसी छोटी-सी जेब से कुछ रकम निकाल कर अपनी एक हविस पूरी कर ली। आखिर इज्जत का सवाल है। अब हम गर्व से यह याद कर सकते हैं कि हमारा भी यान चंद्रमा तक हो आया है। बेशक इसके लिए यह भुला देना होगा कि जिन देशों के नागरिक अपने देश पर गर्व करते हैं, वे चंद्र या मंगल यानों की गिनती नहीं रखते, बल्कि यह बताते हैं कि उनके यहां स्वस्थ और दीर्घायु लोगों की संख्या कितनी बड़ी है, कि उनके यहां ज्यादातर लोग खुशहाल जिंदगी जीते हैं और भूख तथा बीमारी से बहुत कम लोग मरते हैं।इन सब चीजों को यानी बहुसंख्य भारतीयों का जीवन खुशहाल बनाने की चुनौती को हमारी लोकतांत्रिक रीति से चुनी हुई सरकार या सरकारों ने मान्यता ही नहीं दी है। इसलिए इस चुनौती को स्वीकार न करने की ग्लानि का कोई सवाल ही नहीं है। गरीब, भूखे, अशिक्षित, बीमार और अर्ध-रोजगारशुदा भारतीय मानो किसी और ग्रह पर बसते हों। भारत में आदमी वही है जिसका पैसा शेयर बाजार में लगा हो। जो महानगरों के मंहगे घरों में रहता हो और जिसकी दैनिक आमदनी गरीब लोगों की दैनिक आमदनी से सैकड़ों गुना ज्यादा हो। इसी अल्पसंख्यक भारत को परमाणु बिजलीघर पर गर्व करने का नशा है, चंद्रमा की यात्रा का शौक है, अरबपतियों की बढ़ती हुई संख्या पर शैंपेन खोलने का उन्माद है। दिन भर बजबजाते हुए मीडिया के माध्यम से पूरे देश को संदेश दिया जा रहा है कि घीसू और माधो, होरी और धनिया भी जमींदार साहब के इस जश्न में हिस्सा लें और खुश हों कि वे उस देश में रहते हैं जिस देश में चंद्रमा एक खिलौना है। वे भूल जाएं कि चार सौ छियासी करोड़ रुपयों से लाखों बच्चों को डायरिया से मरने से बचाया जा सकता है या एकाध लाख वेश्याओं को शरीफों की तरह जीने का अवसर दिया जा सकता है। 000

Wednesday, October 29, 2008

पूंजीवाद की महिमा


मेरी संपत्ति का मूल्य मेरे काबू में नहीं
राजकिशोर

दीपावली की रात को जुआ खेलने का महत्व है। कब और क्यों, जुए को हिन्दुओं के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली का अंग बना दिया गया, पता नहीं। शायद इस तथ्य को सामाजिक रूप से आत्मसात कराने के लिए कि धन-संपत्ति आनी-जानी चीज है या जिंदगी एक जुआ भी है। जिंदगी एक जुआ है या कहिए महज एक संयोग है, यह बात बहुत शुरू में ही मेरी समझ में आ गई थी। लेकिन हाल ही में मेरी समझ में यह बात आई कि मेरे पास जो धन-संपत्ति है, वह भी जुआ है या उसका मूल्य मेरे अधीन नहीं है। और तभी से मैं भीतर ही भीतर कांप रहा हूं।

इसका पहला एहसास तब हुआ जब मेरे फ्लैट की कामत अचानक कई गुना बढ़ गई। पूर्वी दिल्ली के एक साधारण-से इलाके में यह फ्लैट मैंने 1996 में सवा छह लाख रुपए में खरीदा था। संपत्ति बनाने की इच्छा मेरे मन में कभी नहीं रही। लेकिन जब नवभारत टाइम्स ने छह साल की नौकरी के बाद अचानक मुझे विदा कर दिया और उसके साथ ही मकान किराया भत्ता जाता रहा, तो समस्या हुई कि कहां रहा जाए। तब मैं अपने छोटे-से जीवन में नौवीं बार किराए का घर खोजने के लिए निकल पड़ा। तब तक दिल्ली में किराए इतने बढ़ गए थे कि किसी साधारण आदमी के लिए किराए पर घर लेना असंभव हो चुका था। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया कि सब कहीं से कर्ज ले कर एक छोटे-से फ्लैट को अपना बनाया जाए। उस विकट स्थिति में कई मित्रों का उदार सहयोग आजीवन अविस्मरणीय रहेगा।

इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह हुई कि वही फ्लैट कुछ ही वर्षों में चौदह-पंद्रह लाख का हो गया। यह मेरे लिए एक आंख खोल देने वाली विस्मयकारी घटना थी। यानी उस फ्लैट में रहते हुए भी मैं सात या आठ लाख रुपए कमा चुका था। इस कमाई के लिए मैंने कुछ भी नहीं किया था। दूसरी ओर, लगभग तीस साल तक नौकरी करने के बाद भी मेरी कुल बचत मुश्किल से तीन लाख रुपए थी। मैंने बहुत ही तकलीफ के साथ यह महसूस किया कि मेरी योग्यता (वह जैसी और जितनी भी हो) तथा बाजार को स्वीकार्य श्रम करने की क्षमता की तुलना में यह बात ज्यादा कीमती थी कि मैं एक ऐसे शहर में और एक ऐसे इलाके में रह रहा था, जहां संपत्ति का मूल्य इतनी तेजी से बढ़ता है।

आज बताते हैं कि उस फ्लैट का मूल्य पचास लाख के आसपास है। यानी बिना कुछ करे-धरे मैं पचास लाख रुपए का स्वामी हो चुका हूं। संपत्ति का मूल्य इसी गति से बढ़ता रहा, तो अनुमान किया जा सकता है कि दस साल बाद मैं करोड़पती हो जाऊंगा। क्या विडंबना है ! क्या मजाक है! बाजार नामक अदृश्य शक्ति मेरे पास जो है, उसकी कीमत तय कर रही है और उस मामले में मुझे पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है। ऐसे समाज में जीने का औचित्य क्या है जहां आपके रहने के घर तक की कामत भी दूसरे ही लगा रहे हों ?

मामला सिर्फ कीमत के बढ़ने का नहीं है। कम होने का भी है। जब पंजाब में आतंकवाद का बोलबाला था, तब वहां संपत्ति का मूल्य बहुत अधिक गिर गया था। कल अगर दिल्ली में भी आतंकवाद फैल जाए या किसी और वजह से यहां जीना असुरक्षित हो जाए, तो यहां भी संपत्ति का मूल्य गिरता जाएगा। उसके लिए भी मैं स्वयं कहीं से भी जिम्मेदार नहीं होऊंगा। पर मैं गरीब जरूर हो जाऊंगा।

हाल ही में मेरे एक सहकर्मी (जाहिर है, कहीं पढ़ कर या टीवी से सुन कर ) बता रहे थे कि शेयर बाजार के गिरने से अनिल अंबानी की कुल संपत्ति का मूल्य गिर कर इतने अरब रुपए से इतने अरब रुपए ही रह गए हैं। इसी तरह, जिन लोगों की भी पूंजी शेयरों में लगी हुई थी, वे सब कुछ ही दिनों में पहले से कम अमीर हो गए हैं। क्या इसीलिए कहा गया है कि धन-संपत्ति माया है? माया शायद इसलिए कहा गया था कि उससे लगाव एक मरीचिका है। वह स्थायी नहीं है। आती-जाती रहेगी। या, वह जो भी है, तुम्हारी नहीं है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी है -- उसे बचाओ। बाकी चीजें बाहरी हैं और उन पर तुम्हारा ध्यान जमा रहा तो जो वास्तव में तुम्हारा है, उसकी रक्षा तुम नहीं कर सकोगे। आज आत्मा को चरित्र या व्यक्तित्व कहा जा सकता है।

लेकिन हम जिस तरह की व्यवस्था में और जिस समय में रह रहे हैं, उसमें सचमुच ऐसा लगता है कि कोई भी भौतिक चीज हमारे कब्जे में नहीं छोड़ी गई है। पूंजीवाद के आने के पहले जिंदगी में ऐसी अस्थिरता सिर्फ उन्हीं इलाकों में थी जो राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, सूखा, बाढ़ आदि से पीड़ित रहा करते थे। बाकी इलाकों में धन-संपत्ति का मूल्य स्थिर था। सोने का मूल्य सैकड़ों वर्षों तक स्थिर रहा करता था। इसलिए तब अपनी बचत को सोने में ढाल कर भविष्य के प्रति निश्चिंत रहा जा सकता था। आज सोना भी सोना नहीं है। कभी उसकी कीमत तेजी से चढ़ने लगती है तो कभी तेजी से लुढ़कने लगती है। बेशक सोने की कीमत शेयरों की तुलना में अपेक्षाकृत स्थिर रहती है। लेकिन अमेरिका जैसे देश में अगर कोई अधेड़ आदमी अपनी बचत सोने में लगा कर रखता है, तो उसे मूर्ख माना जाएगा। सोना पेंशन नहीं दे सकता। शेयरों में लगा हुआ पैसा मासिक पंशन का इंतजाम कर सकता है। पर शेयर खुद लुढ़कने लगे, तब ? आज अमेरिका के लाखों परिवारों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई है, तो इसका कारण यह है कि वहां भयानक मंदी छाई हुई है। मनमोहन सिंह कहते हैं कि उस मंदी का असर हम पर भी पड़ रहा है। यानी अमेरिका के कुछ मनचले बैंकरों की बेवकूफियों ने भारत के लाखों लोगों की कुल संपत्ति की कीमत गिरा दी है और इनमें अनिल अंबानी जैसे उद्योगपति भी हैं।

इस अनिश्चितता का कोई इलाज होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मुझे शेयर बाजार के धराशायी होने से कोई तकलीफ नहीं है। जब शेयरों के भाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे थे, तब जो लोग अनाप-शनाप कमाई कर रहे थे, वे ही आज संकट में हैं। जिन्होंने दिन देखा है, उन्हें रात भी देखनी चाहिए -- यह प्राकृतिक न्याय है। लेकिन उनसे जरूर गहरी सहानुभूति है जो इस प्राकृतिक न्याय की चक्की में पिस कर अचानक कंगाल हो गए हैं या अपने को आत्महत्या करने के लिए विवश पा रहे हैं। पूंजीवादी विचारक कहते हैं, यह असुरक्षा लाइलाज है। असमर्थ लोगों को बचे रहने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन धरती पर अनिल अंबानी या रतन टाटा जैसे समर्थ लोगों की संख्या कितनी है? बाकी लोगों के लिए एक ही विकल्प बचा है कि वे ऐसी अर्शनीतियों का जी-जान से विरोध करें जो हमारे जिंदा रहने के साधनों के मूल्य में अनिश्चितता लाती हैं और ऐसी अर्थनीतियों के पक्ष में काम करें जिनसे जीवन में कुछ निश्चितता, स्थिरता और सुरक्षा आती हो। जीवन होगा मूलत: जुआ, पर हमारा घर, हमारी कमाई, हमारा पेंशन -- सब कुछ जुए पर लगा हुआ हो और यह जुआ हम नहीं, ऐसे लोग खेल रहे हों, जिनका हमारे हिताहित से कोई संबंध नहीं है, यह बात पूरी तरह से समाज और मानव विरोधी है और इसे एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। प्रिय पाठक, इस बारे में आपकी क्या राय है?

Saturday, October 25, 2008

छिन्न-भिन्न भारत

भविष्य का भारत
राजकिशोर


पड़ोसी के लड़के आदित्य ने जब भारत के भविष्य का नया नक्शा मेरी मेज पर रखा, तो मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं। आदित्य एक निबंध प्रतियोगिता में भाग ले रहा है। प्रतियोगिता का विषय है -- भारत में शांति। अन्य छात्रों की तरह आदित्य ने इंटरनेट, अंकलों और आंटियों की मदद नहीं ली। लेख लिखने का यह सबसे आसान रास्ता था। आदित्य ने कठिन रास्ता चुना। उसने कई दिनों तक इस विषय पर खुद सोचा। नतीजा मेरे सामने था।

आदित्य ने भारत का नया ही नक्शा खींच डाला था। इस नक्शे में एक राष्ट्र की जगह पांच राष्ट्र थे। पांचों के बीच मोटी-मोटी लाइन ऑफ कंट्रोल थी। पुलिस राइफल लिए गश्त लगा रही थी। भारत के नए विभाजन का किस्सा आदित्य के मुंह से ही सुनिए ।

'अंकल, यह देखिए। यह रहा हिन्दू भारत। इसे मैंने केसरिया से रंग दिया है। यहां देश भर के हिन्दू रहेंगे। अपने इलाके में वे चाहे जिस मस्जिद या चर्च को तोड़ें, यह उनके अधिकार क्षेत्र में होगा। इसके खिलाफ किसी भी कोर्ट में नहीं जाया जा सकेगा। यहां अगले और पिछड़े के बीच युद्ध तो हो सकता है, पर अल्पसंख्यकों का दमन तो हो ही नहीं सकता। कारण, इस भारत में अल्पसंख्यक होंगे ही नहीं।

'अल्पसंख्यकों के लिए मैंने तीन अलग-अलग भारत बनाए हैं। एक बड़ा-सा इलाका मुसलमानों को दिया है। इस इलाके में सिर्फ मुसलमान रह सकेंगे। एक इलाका सिखों को दिया है। भारत विभाजन से इन दोनों कौमों की आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई थीं। अब हो जाएंगी। एक छोटा-सा इलाका ईसाइयों के लिए बनाया है। दुनिया में कौन नहीं जानता कि भारत मूलत: धार्मिक देश है। इसलिए धर्म के आधार पर ठीक से विभाजन कर दिया जाए, तो अशांति की जड़ ही खत्म हो जाएगी।

'अंकल, यह देखिए, यह इलाका दलितों के लिए हैं। इस देश में सिर्फ दलित रहेंगे। उसके बाद वे यह शिकायत नहीं कर सकेंगे कि सवर्ण समाज हमें सता रहा है। यहां दलित अपने लिए नया कल्चर डेवलप कर सकेंगे। कैसा है मेरा यह प्लान?'

मैंने पूछा, 'लेकिन बेटे, बिहार और यूपी के जिन लड़कों को महाराष्ट्र में पीटा गया, वे भी हिन्दू हैं और जिन्होंने पीटा, वे भी हिन्दू हैं। तो फिर तुम्हारे भारत में, या कहो भारतों में, शांति कैसे बनी रह सकती है? लखनऊ के शिया-सुन्नी दंगे मशहूर हैं।'

'इसका समाधान भी मैंने सोच लिया है। जैसे मुस्लिम भारत में शिया और सुन्नी चाहें तो अपने देश का एक और विभाजन कर सकते हैं। शियाओं का देश अलग और सुन्नियों का अलग। इसी तरह, दलितों की विभिन्न जातियों में आपस में न पटे, तो उनमें से हरएक को अलग-अलग देश दिया जाएगा। हिन्दू भारत भी चाहे तो जातियों के आधार पर अपने को पुनर्विभाजित कर सकता है, जैसे गांवों में ब्राह्मणों, ठाकुरों, बनियों, चमारों आदि की टोलियां अलग-अलग होती हैं।

मेरा गला खुश्क होने लगा था। मैंने कहा, शायद तुम ठीक कहते हो। प्रेम बनाए रखने के लिए कुछ दूरी जरूरी है। करीबी से कलह बढ़ता है।

आदित्य ने कहा, 'अब तो अदालत ने भी मान लिया है कि जो साथ-साथ नहीं रह सकते, उन्हें अलग हो जाना चाहिए। कपूर आंटी को तो इसी आधार पर तलाक मिला है। कपूर अंकल से रोज उनका झगड़ा होता था। जो बात व्यक्तियों पर लागू होती है, वही समुदायों पर भी। भारत में तो तभी शांति होगी, जब हर संप्रदाय, हर समुदाय को अपना अलग देश मिल जाएगा। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।'

मैंने जिज्ञासा प्रगट की, 'जम्मू-कश्मीर का क्या सोचा है?'

आदित्य ने कहा,'मेरी योजना लागू कर दी जाए, तो यह समस्या भी हल हो जाएगी। जम्मू के लोग हिन्दू भारत में आ जाएंगे। कश्मीर के मुसलमान मुस्लिम भारत में। सारा झगड़ा ही खत्म हो जाएगा। सभी को आजादी मिल जाएगी।'

'लेकिन कश्मीरी मुसलमान भारत के दूसरे मुसलमानों के साथ रहना पसंद करेंगे?'

'अकल, यह उनकी समस्या है। और यह बंटवारा ऐसे ही थोड़े हो जाएगा? देश में बड़े पैमाने पर जनमत संग्रह किया जाएगा। जरूरत पड़ी तो बार-बार जनमत संग्रह करवाया जाएगा। उसके बाद देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों को ले कर भारत विभाजन आयोग गठित किया जाएगा। अरुंधति राय जैसा कोई व्यक्ति इस आयोग का महासचिव होगा। आयोग की रिपोर्ट पर संसद में विचार होगा। तब जा कर यह ऐतिहासिक कार्य संपन्न हो पाएगा।'

मैंने जिज्ञासा प्रगट की, 'अच्छा, यह बताओ, तुम्हारी योजना में हमारे जैसे लोगों का क्या होगा, जो न धर्म मानते हैं न जाति?'

आदित्य मुसकराते हुए बोला, "यह बात शुरू से ही मेरे दिमाग में थी। अगर ऐसे लोगों की की संख्या बीस लाख से ज्यादा हुई, तो इन्हें भी एक छोटा-सा देश मिलेगा।'

तब तक मेरी पत्नी तश्तरी में फल और मिठाई ले कर आ गई थी। उसने पूछा, " लेकिन बेटे, तुम्हारी योजना में हम स्त्रियों का क्या होगा? हम कहां रहेंगी?' आदित्य -- 'आंटी, क्या औरतों को भी अलग देश चाहिए? तब तो सारा बंटा धार हो जाएगा। वे वहीं जाएंगी जहां उनका परिवार जाएगा।' पत्नी -- 'क्यों, क्या औरतों को आजादी नहीं चाहिए?'

आदित्य विचारों में खो गया।

मैंने उसके चिंतन में बाधा डाली, 'और बेटे, तुम? तुमने अपने लिए इनमें से कौन-सा देश चुन रखा है?'

आदित्य हंसने लगा, 'अंकल, आप भी अजीब सवाल पूछते हैं। मुझे भारत में रहना ही नहीं है। आईआईटी पूरा होते ही मैं स्टेट्स चला जाऊंगा। वहां मेरे एक सगे अंकल हैं, दो मामा हैं, तीन कजन हैं। पापा ने कह रखा है, पहले तुम चलो, पीछे-पीछे हम भी आ जाएंगे।'

गरीब ईसाइयों के एक नेता की प्रतिक्रिया पर


धर्म और पैसा
राजकिशोर


मेरे एक लेख पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पुवर क्रिश्चियन लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष एल आर फ्रांसिस ने ईसाई चर्चों की अनेक विसंगतियों की ओर संकेत किया है। जैसे चर्च के अंदर शोषण, अत्याचार और दमन। यहां मैं धर्म और पैसे से जुड़े हुए मामलों तक सीमित रहना चाहता हूं।

फ्रांसिस के अनुसार, इस वर्ग में तीन तरह के सवाल आते हैं -- विदेशी पैसा, चर्च की संपत्ति और चर्च अधिकारियों द्वारा अपने कर्मचारियों का आर्थिक शोषण। ये तीनों ही मामले गौरतलब हैं। इनके बीच आपसी रिश्ता भी है।

फ्रांसिस के अनुसार, 'हाल ही में रतलाम (मध्य प्रदेश) की एक रेलवे कॉलोनी में स्थित 85 वर्ष पुराने चर्च में आग लगा दी गई। इस घटना को सीधे हिन्दू संगठनों से जोड़ा गया। मामला तुरंत अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया गया। बाद में पता चला कि उक्त घटना की तह में था उसी चर्च का चौकीदार -- नोएल पारे। चर्च की 86वीं वर्षगांठ मनाई जानेवाली थी। बड़े समारोह की तैयारियां थीं। किन्तु उस चर्च के चौकीदार पर आठ हजार का कर्ज था। कर्ज था बनियों का, जिनसे वह पेट भरने के लिए जरूरी नून-तेल उधार लेता था।

'चर्च प्रशासन उसे मात्र 1,000 रुपए मासिक वेतन देता था। कितना बड़ा अंतर है सरकारी नियमों में न्यूनतम मजदूरी को ले कर और चर्च प्रशासन द्वारा दी जाने वाली मजदूरी के बीच। देश की राजधानी दिल्ली में ही चर्च द्वारा चलाए जाने वाले अधिकतर संगठनों में भी ऐसा ही हाल है। सरकारी आदेश पोप पोषित धर्मराज्य के प्रशासकों के ठेंगे पर होते हैं। चर्च का गुलाम कर्मचारी 24 घंटे काम करके एक हजार रुपए अर्थात 33 रुपए प्रतिरोज पाता है। ऐसी स्थिति में क्रिया की प्रतिक्रिया अर्थात शोषण का परिणाम आक्रोश होगा ही। आक्रोशवश ऐसा कर्मचारी कुछ भी कर सकता है -- हत्या या आत्महत्या या फिर तोड़फोड़, मारपीट, आगजनी कुछ भी।'

आंतरिक शोषण का यह मामला ईसाई धर्म की खूबी नहीं है। मेरा अनुमान है कि सभी धार्मिक संगठनों में इस तरह का आर्थिक शोषण होता है। असल में, यह समुचित नौकरी नहीं होती, जिसमें डीए, पीएफ, ग्रेट्युटी आदि का प्रावधान हो। यह चाकरी श्रद्धा की है। श्रद्धा ज्ञान और भक्ति देती है, तो गरीब को भौतिक स्तर पर गुलाम भी बनाती है। इस तरह की गुलामी राजनीतिक संगठनों के तंत्र में भी दिखाई देती है। शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने कर्मचारियों को नियम-संगत और जायज पैसे देता हो। इससे यह भी पता चलता है कि जो धर्म या राजनीति ऐसा करते हैं, वे वास्तव में कितने नैतिक हैं। नैतिकता का मूल आधार छोड़ देने के बाद कैसा धर्म और कैसी राजनीति।

फ्रांसिस का दूसरा मुद्दा है चर्च की संपत्ति का। वे लिखते हैं, 'मलयाली मूल और मंगलूर-कर्नाटक-गोवा पुर्तगाली मूल के धर्माचार्यों द्वारा भारत के ईसाई चर्च एवं अन्य संस्थान संचालित हो रहे हैं। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब विदेशी मिशनरी अपने मूल देशों की ओर लौटे तो भारत की ईसाई चल और अचल पूंजी पर इन्हीं दक्षिण भारतीय पादरियों - बिशपों का एकाधिकार हो गया जो आज तक बना हुआ है। शेष ईसाई तो मात्र शासित और शोषित रूप में ही चर्च के सदस्य हैं।' कहने की जरूरत नहीं कि संपत्ति अकसर विषमता पैदा करती है। इसीलिए सभी धर्मों में संपत्ति को हिकारत की निगाह से देखा गया है। जाहिर है, आप या तो कुबेर के दास बन सकते हैं या भगवान के भक्त। दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। लेकिन सभी धर्म संस्थान ऐश्वर्य की खोज में रहते हैं। वे अपने मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों को आलीशान से आलीशान रूप देना चाहते हैं। इससे इन संगठनों में चरित्र वालों को नहीं, पैसे वालों को महत्व मिलता जाता है। जैसे-जैसे पैसे की आपूर्ति बढ़ती है, धार्मिक संगठन के भीतर तानाशाही का तत्व मजबूत होता है और धर्म धुआं बन कर उड़ने लगता है। इसलिए इस पर विचार होना चाहिए कि धार्मिक संगठनों के पास संपत्ति होनी चाहिए या नहीं और होनी चाहिए तो कितनी तथा उसके प्रबंधन का तरीका क्या हो। इतिहास बताता है कि अकूत संपत्ति पर कब्जा करने के लिए धार्मिक संगठनों में हत्याएं तक हुई हैं। पैसा बारूद की तरह ही खतरनाक चीज है। जीविका के लिए जितना धन चाहिए, उससे अधिक धन-संपत्ति होने से धार्मिक संगठन पूरी तरह धार्मिक नहीं रह जाते। आज जब धर्म की भूमिका पर पुनर्विचार चल रहा है, यह प्रश्न उठाने लायक है कि धार्मिक संगठनों के लोग आर्थिक दृष्टि से परजीवी या उपजीवी क्यों हों। वे भी क्यों न अपनी कमाई हुई रोटी ही खाएं और तब दूसरों को सीख दें कि धर्मपूर्वक जीने का मतलब क्या होता है।

विदेशी पैसे का सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं। फ्रांसिस के अनुसार, 'चर्च अधिकारी आज विभिन्न तरीकों से अथाह दौलत कमा रहे हैं। उनका पूरा व्यवसाय इस देश के करोड़ों वंचितों के नाम पर चल रहा है।' इस अथाह दौलत का एक बड़ा हिस्सा अंतरराष्ट्रीय ईसाई संगठनों से आता है। भारत में या किसी भी लोकतांत्रिक देश में धर्म प्रचार करने का अधिकार सभी को है, लेकिन इस सिलसिले में विदेशी पैसे की खतरनाक भूमिका को नहीं भूलना चाहिए। आप इटली, अमेरिका या इंग्लैंड के पैसे से भारत के आदिवासियों के लिए स्कूल और अस्पताल बनाते हैं, तो उनका भला नहीं करते। पहली बात तो इसमें करुणा का तत्व कहीं नहीं है। यह निवेश की तरह दिखाई देता है। दूसरी और ज्यादा मारक बात यह है कि आप आदिवासियों को आत्मनिर्भर होने का पाठ नहीं पढ़ा रहे होते हैं। धार्मिक व्यक्ति अगर आत्मनिर्भर नहीं है, तो वह धर्म का पालन कर ही नहीं सकता। इसलिए सामाजिक कल्याण के कामों के पीछे भी राष्ट्रीय या सामुदायिक आत्मनिर्भरता होनी चाहिए। लोग अपने श्रम और योगदान से अपना जीवन संवारें। मुफ्त में मिलने वाला विदेशी पैसा कामचोर और लालची बनाता है तथा स्वाभिमान की जड़ खोद देता है। प्रदूषण उन तक भी फैलता है जिनके माध्यम से यह विदेशी पैसा आता है। दलाली की संस्कृति से कोई ऊंची धर्म भावना नहीं पनप सकती।

कुल मिला कर कहना यह है कि धर्म और पैसे के रिश्तों पर गहराई से विचार होना चाहिए। पैसे ने धर्म का बहुत अपकार किया है। पैसे की अधीनता स्वीकार कर लेने के बाद धर्म की मौलिकता नष्ट हो जाती है और वह संपन्न लोगों के निहित स्वार्थों का औजार बन जाता है। अगर भारत की ईसाई मिशनरियां अमीर नहीं होतीं, तो उनसे किसी समुदाय को ईर्ष्या भी नहीं होती। मैं नहीं जानता कि गरीब ईसाइयों के बीच एल आर फ्रांसिस की साख कैसी है, लेकिन उन्होंने जो प्रश्न उठाए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। अन्य धर्मों के लोगों के मन में भी इस तरह के प्रश्न उठने चाहिए।

Friday, October 24, 2008

धर्म परिवर्तन का मुद्दा

धर्म के नाम पर
राजकिशोर


बौखलाए हुए हिन्दू संगठनों के इशारे पर कंधमाल तथा कुछ अन्य स्थानों पर ईसाइयों के साथ जो जुल्म किया गया, वह कई अर्थों में कायराना था। पहली बात तो यह उपद्रव उन राज्यों में हुआ, जहां भाजपा सत्ता में है। अपने ही द्वारा शासित राज्य में अगर आप उपद्रव करते हैं, तो जाहिर है कि आप सोचते हैं कि आपका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। बिगाड़ सचमुच कोई कुछ नहीं पाया, क्योंकि केंद्र सरकार भी बहुत-से मामलों में लुंज-पंज है। उसमें यह चाव ही नहीं है कि भारत में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों को रोके। यह हमारे समाज की भी कायरता है कि हम किसी विशेष समुदाय के सदस्यों पर हमला होते हुए देखते रहते हैं, लेकिन किसी को बचाने के लिए आगे नहीं आते। क्या हमारे यहां समाज धर्म नाम की चीज लुप्त हो रही है? फिर तो हममें से कोई भी सुरक्षित नहीं है। हमारे किसी मत या काम से नाराज हो कर कोई भी गुंडा समूह हमें मार कर चला जाएगा और कोई कुछ बोलेगा नहीं। कायरता का तीसरा स्तर सबसे अधिक घातक और चिंताजनक है। अगर कुछ उत्साही हिन्दू यह सोचते हैं कि ऐसा करके वे हिन्दू धर्म की रक्षा कर रहे हैं या हिन्दू धर्म का नाम ऊंचा कर रहे हैं, तो यह हिन्दू धर्म की एक पराजय है। इस तरह की घटनाओं से हिन्दुत्व बदनाम ही होता है। धारणाा यह बनती है कि यह कोई धार्मिक समुदाय नहीं, बल्कि एक अराजक समूह है, जिसे सामान्य नागरिक शिष्टाचार की भी परवाह नहीं है। शुक्र है कि ऐसे उत्साही हिन्दू मुट्ठी भर ही है। लेकिन मुट्ट्ठी भर लोग भी कितना अधिक नुकसान कर सकते हैं, यह बाबरी मस्जिद के विध्वंस से, ईसाइयों के साथ हाल में हुए सलूक से और मुसलमान आतंकवादियों की तैयारियों से भली भांति समझा जा सकता है। सच यही है कि किसी भी देश-काल में कोई भी पूरा का पूरा समुदाय खराब नहीं हो जाता। मुट्ठी भर लोग ही दुष्टता करते हैं, जिसका परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़ना है। हिटलर के जर्मनी में भी ऐसे लोगों की संख्या कम न थी जो उसके जुल्मो-सितम के खिलाफ थे।
धर्म परिवर्तन का मामला जितना सीधा है उतना ही पेचीदा भी। इसलिए इस विषय पर कोई भी मत प्रगट करने के पहले बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। संविधान और कानून से ज्यादा यह धर्मों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से संबंधित विषय है। कायदे से दुनिया के किसी भी हिस्से में धर्म परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। हर समाज ने अपना ईश्वर या अपना धर्म पैदा किया है। कारण, इसके बिना समाज का काम चल ही नहीं सकता। पिछड़े से पिछड़े आदिवासी समूह में चले जाइए, आप पाएंगे कि वहां भी जीवन और समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियम-कायदा बनाए गए हैं। मुख्तसर में धर्म यही है। जैसे-जैसे जीवन में जटिलता आती है और समाज के चिंतन का स्तर ऊंचा होता जाता है, पुरानी व्यवस्थाएं नाकाफी लगने लगती हैं और धर्म के नए-नए रूपों का जन्म होता जाता है। इन्हें नए-नए धर्म समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। नए से नए धर्म में भी कुछ ऐसा बचा रहता है जो पुराने से पुराने धर्म में मौजूद था। उदाहरण के लिए ईसाइयत ने बहुत-सी ऐसी चीजों को नहीं छोड़ा है जो उसके पहले से चले आ रहे यहूदी धर्म में मौजूद थीं। इसी तरह, भारत में वैदिक धर्म तथा बौद्ध और जैन धर्मों के बीच पूर्ण विपर्यय दिखाने की कोशिश होती है। इस तुलना में द्वेष भाव ज्यादा है। कोई भी समाज अपने को इस तरह उलटते हुए नहीं चलता है। परंपरा और नूतनता उसके दो पैर होते हैं और दोनों के साथ-साथ चलने से ही गति आती है।
चूंकि सभी धर्मों या धर्म के सभी रूपों या प्रणालियों का लक्ष्य एक ही है, चूंकि सभी ईश्वरों के व्यक्तित्व में तमाम तरह के फर्क होने के बावजूद वे मनुष्य का एक ही धर्म प्रतिपादित करते हैं, इसलिए धार्मिक टकराव एक मूर्खतापूर्ण या उद्दंड चीज हो जाती है। मतभेद विकासजन्य भी हो सकता है, लेकिन इस धारणा में काफी सचाई है कि जहां विकास जितना ज्यादा होगा, वहां हिंसा उतनी कम होगी या अहिंसा उतनी ज्यादा होगी। विकसित ईश्वर कम विकसित ईश्वर को समझा-बुझा सकता है, उसे गिरफ्तार कर जेल में डालने की नहीं सोच सकता। इस दृष्टि से हिन्दू अपने को बधाई दे सकते हैं। उन्होंने बहुत पुराने समय से अपने धर्म को सनातन धर्म कहा है -- एषु धर्म: सनातन:। वस्तुत: सनातन धर्म की खोज ही असली धार्मिक खोज है। जो धर्म सिर्फ कुछ दशकों या शताब्दियों तक ही वैध है, क्या वह भी धर्म कहलाने का अधिकारी है? इसीलिए हिन्दू होना एक भौगोलिक संज्ञा थी -- न कि किसी विशेष विचारधारा का नाम। दुख की बात है कि ऐसे हिन्दू भी दिखाई पड़ते हैं जो अपने को किसी धार्मिक चेतना से नहीं, बल्कि कुछ विशेष चिह्नों या किसी उग्रवादी मांगपत्र के आधार पर परिभाषित करते हैं। धर्म और संस्कृति को छोड़ कर कोई ऐसा बंधन नहीं हो सकता जो किसी समूह को सात्विक ढंग से जोड़ सके। कानून, नैतिकता, लोकतंत्र, मानव अधिकार, समाजवाद आदि धर्म के ही विभिन्न प्रकार और विकास हैं। यहां तक कि सच्ची और नैतिक नास्तिकता भी धर्म का ही एक रूप है। इसीलिए सच्चा धार्मिक अपनी अंतरात्मा को छोड़ कर किसी और से डरता नहीं है।
इस तरह, कोई भी देख सकता है कि धर्म परिवर्तन का कोई भी अभियान एक व्यर्थ का और विवाद बढ़ाने वाला उद्यम है। जो लोग धर्म के लिए नहीं, धर्म परिवर्तन के लिए काम करते हैं, वे धर्म और ईश्वर, दोनों की निगाह में गुमराह लोग हैं। इसमें शक किया जाना चाहिए कि वे धार्मिक भी हैं अथवा नहीं। ईसाई मिशनरियों की तारीफ की जानी चाहिए कि वे दुनिया के बीहड़ से बीहड़ इलाकों में जा कर वहां के दीन-दुखी लोगों की सेवा करते हैं। मानव सेवा की यह एक अद्वितीय परंपरा है जिससे सभी समुदायों के सदस्यों को सीखना चाहिए। लेकिन इस सेवा का लाभ उठाते हुए लोगों को नया ईश्वर पकड़ाना या उन्हें यह बताना कि आज से सिर्फ मेरा धर्म ग्रंथ ही तुम्हारा धर्म ग्रंथ है, बुरी बात है। वैज्ञानिक रूप से भी यह गलत है। इस तरह के सतही परिवर्तनों के बगैर भी उनका काम चल सकता है। हां, यह प्रचार करने में कोई हर्ज नहीं है कि कुछ लोगों का ईश्वर ऐसा भी है या कुछ के धर्म ग्रंथों में ऐसा भी कहा गया है, जिसे सबको जानना चाहिए। यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे किसी वैज्ञानिक को गुरुत्वाकर्षण शक्ति के बारे में पता लगे, तो वह सबको बताने को आतुर दिखाई पड़े। इसके बाद किसी का मत बदल जाए, तो अलग बात है। फिर भी, धर्म परिवर्तन के लिए आतुर व्यक्ति को सच्चा धार्मिक व्यक्ति या संगठन पहले यही समझाएगा कि क्यों, तुम्हारे अपने धर्म में क्या कमी है जो तुम धर्म बदलने आए हो या तुम चाहो तो अपने वर्तमान धर्म में रहते हुए भी उतने ही नेक इनसान बन सकते हो। ज्यादा आबादी में या अधिक भूगोल पर फैलने से कोई धर्म बड़ा नहीं हो जाता। वह बड़ा इससे होता है कि उसे मानने वाले लोग कितना ऊंचा जीवन जीते हैं। सच्चे हिन्दू, मुसलमान या ईसाई का लक्ष्य अपने लिए मोक्ष पाना होगा, न कि उसके पहले दूसरों के मोक्ष की चिंता करना।
महात्मा गांधी ने धर्म परिवर्तन के अभियानों का विरोध इसीलिए किया था कि इससे समाज में एक अनावश्यक कलह मचा रहता है। धर्म में प्रतिद्वंद्विता की गुंजाइश नहीं है। अच्छाइयां आपस में झगड़ती नहीं हैं, वे एक-दूसरे का समर्थन करती हैं। इसलिए विभिन्न धार्मिक समूहों को अपने-अपने स्तर पर अच्छा बनने का प्रयास करना चाहिए न कि अपने ईश्वर या धर्म ग्रंथ की अधिक से अधिक मार्केटिंग की फिक्र करनी चाहिए। धार्मिक समूहों में अपनी-अपनी संख्या बढ़ाने की प्रतिद्वंद्विता एक मानसिक विकार है और इसका वास्तविक धार्मिकता से कोई संबंध नहीं है। स्वयं महात्मा गांधी एक बार ईसाई धर्म स्वीकार करने के बहुत करीब आ गए थे, लेकिन उन्होंने विचार करके देखा तो पाया कि ईसाई हो जाने पर ऐसा कुछ भी नया नहीं मिलेगा जो हिन्दू धर्म में पहले से मौजूद न हो। बाद में उन्होंने पाया कि अन्य धर्मों की हकीकत भी यही है। तभी से उन्होंने धर्मों की तुलनात्मक विवेचना छोड़ दी और यह कहने लगे कि मैं जितना हिन्दू हूं, उतना ही मुसलमान भी और उतना ही ईसाई भी। यानी मेरे लिए सभी धर्म एक जैसे अच्छे हैं, क्योंकि सभी तो मनुष्य को अच्छा बनने के लिए प्रेरित करते हैं। मैं इस रास्ते से जा कर अच्छा बनूं या उस रास्ते से जा कर, बात तो एक ही है। फिर आपस में कैसा झगड़ा और कैसी प्रतिद्वंद्विता? तीर्थयात्री क्या एक-दूसरे पर हमला करते हुए आगे बढ़ते हैं?
धर्म परिवर्तन का अभियान चलाना जितना बुरा है, इस अभियान को बलपूर्वक रोकना उससे भी ज्यादा बुरा है। मैं अगर सच्चा हिन्दू हूं, तो मुझे इससे चाहे जितनी परेशानी हो कि मेरे सभी सगे-संबंधी मुसलमान या ईसाई होते जा रहे हैं, इसे रोकने के लिए मैं न तो तलवार या लाठी ले कर निकलूंगा और न ही पेट्रोल के पीपे जमा करूंगा। एक-दूसरे को समझाना-बुझाना सभी का हक है। सच तो यह है कि इस तरह के वैचारिक मंथन की स्वस्थ परंपरा शुरू हो जाए तो सभी धार्मिक प्रणालियों और सब प्रकार के ईश्वरों का पत्ता कट जाएगा और लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि अच्छा होने के लिए हमें किसी मंदिर, मस्जिद, चर्च, धर्मग्रंथ, यज्ञ, परंपरा, रोजा, नमाज आदि की जरूरत नहीं है, किसी काल्पनिक देवता की शरण में जाने की जरूरत नहीं है, किसी परलोक, स्वर्ग-नरक पर यकीन करने की जरूरत नहीं है और अपने को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि कहने की भी जरूरत नहीं है। ये सब धर्म के छिलके हैं। असली तत्व तो इनके भीतर से झांकता है और पूजा उसी की होनी चाहिए। इसी अर्थ में संत कबीर ने कहा था कि मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान। यहां हालत यह है कि तलवार को तो कोई पूछता नहीं, सारी लड़ाई म्यानों तक सीमित है। ऐसी लड़ाइयों से किस समाज का भला हुआ है या किस समाज का भला हो सकेगा?
इसमें संदेह नहीं कि परीक्षा की घड़ी में ही साबित होता है कि कौन कितना धार्मिक है। अगर ईसाई संगठन किसी खास आबादी को अपने धर्म में दीक्षित करने के लिए प्रयासशील हैं, तो देखने की बात यह हो जाती है कि हम अपनी इस परेशानी का करते क्या हैं। अगर हम सचमुच चाहते हैं कि कोई धर्म परिवर्तन न करे, तो उसके पास विनय के साथ जाएंगे और उसे समझाएंगे-बुझाएंगे न कि धर्म परिवर्तन कराने वाले के घर में आग लगा देंगे। इस तरह का क्रोध किसी को शोभा नहीं देता। यह कानून की निगाह में अपराध तो है ही; ऐसा करके हम अपने को धार्मिक तो क्या, मनुष्य भी साबित नहीं करते। यह बात सही है कि ईसाई संगठन सेवा करके लोगों का दिल जीतते हैं और तब उनके हृदय में अपना ईश्वर स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन इसे प्रलोभन नहीं कहा जा सकता। ज्यादा से ज्यादा यह सेवा का प्रतिफल मांगने जैसा है। ईसाई संगठन इस शर्त के साथ सेवा नहीं करते कि पहले तुम मेरे ईश्वर को अपने दिल में जगह दो, फिर हम तुम्हारी देखभाल करेंगे। वे नि:शर्त सेवा करते हैं, ईश्वरों के विनिमय की बाद बाद में उठती है। इसे कानून बना कर या गुंडागर्दी करके कैसे रोका जा सकता है? आप धर्म की चिंता करें, धर्म परिवर्तन अपनी चिंता खुद कर लेगा। इक्का-दुक्का मामलों की बात और है। उनसे किसी के पेट में दर्द भी नहीं होता। लेकिन सचाई यही है कि किसी अन्याय-मुक्त और न्यायप्रिय समाज में बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हो ही नहीं सकता। होता भी नहीं है। इसलिए अन्याय से लड़ना ज्यादा जरूरी और महत्वपूर्ण है। धर्म की शक्ति इसी से प्रगट होती है, न कि मारकाट या आगजनी से। 000

Thursday, October 9, 2008

स्त्री विमर्श की समस्याएं


माफ करें, यह तो पुरुष विमर्श है
राजकिशोर


बहुत ही खेद के साथ लिखना पड़ता है कि हिन्दी में जिसे सर्वसम्मति से स्त्री विमर्श कहा जाता है, वह मुख्यत: पुरुष विमर्श है। उसमें स्त्री की चर्चा कम, पुरुष की चर्चा ज्यादा होती है। अगर सारी चर्चा यहीं तक सीमित रहे कि पुरुष कैसा होता है, उसने स्त्री के साथ क्या किया है, वह स्त्री के साथ क्या कर रहा है, तो इसे पुरुष विमर्श नहीं तो और क्या कहा जाए? जैसे रीतिकालीन साहित्य का लक्ष्य स्त्री चर्चा थी यानी स्त्री का सौन्दर्य, स्त्रियों के प्रकार, स्त्रियों के कौशल, स्त्री के साथ प्रेम या रति प्रसंग, वैसे ही जिसे स्त्री विमर्श का साहित्य कहा जा रहा है, वह मुख्यत: पुरुषों के स्वभावगत लक्षणों, उनकी दमनकारी विधियों और उसके द्वारा होनेवाला स्त्रियों का शोषण आदि पर केंद्रित होता है। इसमें स्त्री का अपना संघर्ष कम है, पुरुष के प्रति शिकायत ज्यादा।
यह काफी हद तक स्वाभाविक है, क्योंकि किसी भी स्त्री के आंसुओं में पुरुषों के जुल्मो-सितम का लंबा इतिहास समाया हुआ होता है। 'पर्सनल इज पोलिटिकल' को सही मान लें, हालांकि मुझे इसमें थोड़ी शंका है, तो नारीवाद मुख्यत: एक राजनीतिक आंदोलन है। यह पुरुष राजनीति को स्त्री राजनीति से संतुलित करना चाहता है। वैसे तो स्त्री आदि काल से ही अपनी भावनाओं को व्यक्त करती रही है। उसे मुख्य साहित्य में स्थान नहीं मिला, तो उसने लोक गीतो, लोक कथाओं का माध्यम चुना। हिन्दी की लोक भाषाओं -- अवधी, भोजपुरी, मैथिली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी आदि -- में चित्रित स्त्री की व्यथा को एकत्रित किया जाए, तो एक और गंगा बह निकलेगी। खड़ी बोली प्रारंभ से ही पुरुष-भाषा रही है। लेकिन वह हिन्दी क्षेत्र में आधुनिक चेतना के उदय की भाषा भी है। इस उदय में स्त्रियां भी भागीदार रही हैं। अत: खड़ी बोली हिन्दी साहित्य के प्रारंभ से ही स्त्री स्वर भी उपस्थित दिखाई देता है। यह स्वर पिछले एक दशक में तीव्र और व्यापक हुआ है। इसलिए दलित विमर्श की तरह एक अलग नाम भी मिला है -- स्त्री विमर्श।
अगर इतने साहित्यिक और वैचारिक विकास के बावजूद स्त्री स्वर अभी भी पुरुष समाज को अपराधी ठहराने पर ही केंद्रित है, तो मैं कहना चाहूंगा कि पुरुष को पर्याप्त पहचान लिया गया है, उसके दोहरे स्वभाव और पुरुष वर्चस्व की इस चली आ रही संस्कृति को मोटामोटी बहुत बारीकी से समझ लिया गया है, इसी विषय को दुहराते जाने से क्या फायदा? साहित्य में पुनरावृत्ति नाम का दोष भी होता है। यह दोष इस समय इतना फैला हुआ है कि एक स्त्री लेखक और दूसरी स्त्री लेखक के स्वरों में फर्क करना मुश्किल हो गया है। जिधर देखता हूं, उधर तू ही तू है। ऐसे कब तक चलेगा? हिन्दी का स्वर स्वर प्रौढ़ होने से हिचक क्यों कर रहा है? वास्तविक स्त्री विमर्श की ओर बढ़ने से वह डर क्यों रहा है?
अगर नारी विमर्श में पुरुष विमर्श भी स्वस्थ और पूर्णतावादी होता, तो हमारी मित्रगण देख पातीं कि ऐसे पुरुषों की भी एक परंपरा रही है, जिन्होंने स्त्री के श्रेष्ठ गुणों को अपने में समोने में का प्रयास किया है, जिस तरह अनेक स्त्रियों ने पुरुषों के लिए स्वाभाविक माने जाने वाली अधिकार चेतना और खूंखारियत की नकल करने की कोशिश की है। दुख की बात है कि जिस तरह वर्तमान स्त्री विमर्श में इस दूसरी प्रवृत्ति को समझने और उसकी निंदा करने की समझ दिखाई नहीं देती, वैसे ही पुरुष संस्कृति की इस दूसरी धारा की पूर्ण अवज्ञा है जिसमें पुरुष स्त्री के मानव गुणों को अपना कर एक समेकित मनुष्य बनना चाहता है। उदाहरण के लिए, स्त्रीत्व के बहुत-से गुण ईसा मसीह, गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी में देखे जा सकते हैं। सच तो यह है कि ये पुरुष कम, स्त्री ज्यादा लगते हैं। गांधी जी का तो मानना ही था कि वे अपने बच्चों के पिता और माता दोनों ही हैं। उनकी पौत्री मनु गांधी ने अपनी एक किताब के शीर्षक में गांधी जी को अपनी मां बताया है। प्रेमचंद ने कहा है कि जब पुरुष में स्त्री के गुण आ जाते हैं, तब वह देवता बन जाता है। ऐसे देवता-स्वरूप पुरुषों की समानांतर चर्चा चलती रहती, तो स्त्री विमर्श इस संभावना को भी देख पाता कि पुरुष संस्कृति में भी महत्वपूर्ण अंतर्विरोध हैं, जिसकी कोख से वह सज्जन पुरुष निकल सकता है जिसकी स्त्री विमर्शकारों को प्रतीक्षा है। ऐसा कोई आदर्शवाद नहीं है जिसमें जीवन के यथार्थ की अनुगूंज नहीं सुनाई पड़ती हो। इसी तरह, ऐसा कोई यथार्थवाद नहीं है जिसमें आदर्शवाद के कुछ तत्व न हों। इसी द्वंद्वात्मकता के माध्यम से ही वर्तमान कलुषित संस्कृति के बीच से एक बेहतर संस्कृति की पीठिका खोजी जा सकती है और उसमें नए रंग-रूप भरे जा सकते हैं।
एक बात और। आज तक कोई ऐसा महत्वपूर्ण आंदोलन नहीं हुआ, जिसके सदस्यों ने अपने लिए आचरण संहिता न बनाई हो। ईसा मसीह को माननेवाला किस तरह की जिंदगी जिएगा, इसकी एक लिखित-अलिखित संहिता थी। इस संहिता का एक सूत्र यह था कि अगर कोई तुम्हारा कोट मांगे, तो तुम उसे अपनी कमीज भी उतार कर दे दो। गौतम बुद्ध का अनुयायी किसी भी स्थिति में अन्याय और हिंसा नहीं कर सकता था। गांधी जी ने तो अपने पीछे चलनेवालों के लिए इतने नियम-उपनियम बना रखे थे कि उन पर खुद गांधी जी का भी चलना मुश्किल जान पड़ता था। वे अपनी कसौटियों से स्खलित होते रहते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने स्वयं बताया है कि अंतिम दिनों तक उन्हें स्वप्नदोष होता रहा। प्रश्न यह है, स्त्री विमर्श अपनी विमर्शकारों को किस तरह का जीवन बिताने की सलाह देता है? पुरुष की अधीनता में दिन और रात गुजारती जाओ, इसकी सारी सुरक्षाओं का लाभ लेती रहो और अपने साहित्यिक पाठिकाओं-पाठकों को बताती रहो कि ये मर्द बड़े हरामी होते हैं। सारी मांग पुरुषों से है, स्त्रियों से कोई अपेक्षा नहीं कि उनका चरित्र या व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए। इतने एकतरफापन से कोई बड़ी चीज नहीं उभर सकती। 000

अमेरिका में बेलआउट का मुद्दा

पूंजीवाद की नर्सें
राजकिशोर

संयुक्त राज्य अमेरिका को जिस चीज से सबसे ज्यादा डर लगता है, वह है समाजवाद। समाजवाद को रोकने के लिए वह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही परेशान रहा है। जिसे शीत युद्ध का काल कहते हैं (जो अभी खत्म नहीं हुआ है), उसकी पृष्ठभूमि में समाजवाद और पूंजीवाद का संघर्ष ही था। बताते हैं कि इस संघर्ष में समाजवाद की पराजय हुई। जाहिर है, ऐसा मानने वाले लोग यह भी मानते हैं कि सोवियत संघ में समाजवाद था। जो था, वह समाजवाद ही था, तो वह पराजित कैसे हो गया, यह बात समझ में नहीं आती। जब तक समाज है, तब तक समाजवाद की भूख रहेगी। जब समाज को तोड़-तोड़ कर खत्म कर दिया जाएगा, तब समाज की भूख पैदा होगी। इसलिए विकास से या विकास के नाम पर होने वाली किसी भी अवांछनीय चीज से समाजवादियों को चिंता जरूर होती है, पर डर नहीं लगता। वे जानते हैं कि भविष्य उन्हीं का है। लेकिन पूंजीवाद के साथ ऐसा नहीं हैं। चूंकि यह पूरी व्यवस्था लालच और भय पर टिकी हुई है, इसलिए उसे सभी से डर लगता है।
तो क्या संयुक्त राज्य अमेरिका के वे सभी नागरिक, स्तंभकार और सार्वजनिक विचारक लालच और भय की इस व्यवस्था के बहुत बड़े ताबेदार है, जो सात हजार लाख डॉलर की उस गठरी का जम कर विरोध कर रहे हैं जिसे उस देश के दोनों प्रमुख दलों ने अपना समर्थन देना पड़ा? यह गठरी दो वित्तीय संस्थानों को बचाने के लिए बुश प्रशासन ने प्रस्तावित की थी। इसकी आलोचना यह कह कर की जा रही है कि यह तो समाजवाद है, क्योंकि जनता द्वारा दिए गए कर का पैसा ऐसी संस्थाओं को बचाने के लिए खर्च किया जा रहा है, जो अपनी अकुशलता के कारण डूब रही थीं। पीटर एब्लर नाम के एक स्तंभकार ने तो यहां तक लिख दिया कि 'समाजवाद का उदय' यह नया अध्याय 'अमेरिका का उत्थान और पतन' नाम की पुस्तक का आखिरी अध्याय है। इस तरह के स्तंभकार कोई छोटे-मोटे ब्लॉगकार नहीं हैं। इनका लिखा हुआ बहुत बड़े वर्ग द्वारा पढ़ा और (शायद) गुना जाता है। डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तथा उदार नीतियों के समर्थक बराक ओबामा को कम्युनिस्ट कहा जा रहा है और उनके इतिहास का पता लगा-लगा कर साबित किया जा रहा है कि वे तो शुरू से ही कम्युनिस्ट रहे हैं। यह और बात है कि इससे ओबामा की लोकप्रियता कम नहीं हुई है। ऐसा लगता है कि अमेरिका के पूंजीवाद को समाजवाद की दो-चार खुराक की जरूरत है।
सचाई यह प्रतीत होती है कि इस खैरात की गठरी के कटु आलोचक अपनी ही विचारधारा के प्रपंचवादी प्रचार तंत्र के शिकार हो गए हैं जो मानता है कि बाजार की शक्तियां ही फैसला कर सकती हैं कि मनुष्य के लिए सर्वोत्तम क्या है। दरअसल, विचारधारा और राज्य का संचालन, दो अलग-अलग चीजें हैं। विचारधारा के स्तर पर तर्क का निर्वाह करते हुए आप बहुत दूर तक जा सकते हैं, पर चूंकि प्रत्येक राज्य विचार या तर्क से नहीं, व्यावहारिक उद्देश्यों से चल रहा है, इसलिए राज्य का संचालन करते समय आपको बहुत-सी ऐसी चीजों का ध्यान रखना पड़ता है जो आपकी विचारधारा में बाधक हैं। दो उदाहरण लेते हैं। विचार के स्तर पर सभी धर्म ईश्वर के सामना सभी की बराबरी की शिक्षा देते हैं। लेकिन सभी धर्मों के संचालक अमीर और सत्ताधारी लोगों के साथ खासुलखास का संबंध रखते हैं। इन संचालकों की समस्या यह है कि इन्हें अपना धर्मतंत्र भी तो चलाना है। इसी तरह, इस बात पर अचरज किया जाता रहा है कि लोकतंत्र का समर्थक अमेरिका पाकिस्तान सहित ऐसे सभी राज्यों का समर्थन क्यों करता रहा है जहां लोकतंत्र-विरोधी सत्ताएं रही हैं। इसका कारण यह है कि अमेरिका को विश्व स्तर पर अपना वर्चस्व स्थापित करना था और अब बनाए रखना है एवं इस मुहिम में अमेरिका का साथ एकाधिकारवादी सत्ताएं ही दे सकती थीं और दे रही हैं। लेकिन ओबामा को कम्युनिस्ट या समाजवादी कहने वालों ने अफगानिस्तान और इराक पर हमला करने वाले बुश को कभी भी फासिस्ट नहीं कहा। कारण, दोनों की ही निगाह में इन देशों में रहने वालों का हैसियत कीड़े-मकोड़ों जैसी है। वस्तुत: दोनों हैं एक ही वर्ग के, इसलिए उनके मूल विचार में फर्क नहीं है।
तथाकथित समाजवाद का विरोध भी ऐसा ही मामला है। बाजार के तर्क को माना जाए, तो फेल हो जाने वाले वित्तीय संस्थानों को बचाने की कोई जरूरत नहीं है। जिसने जैसा बोया है, वह वैसा काटे। पूंजीवाद के शास्त्र में विफलता के लिए कोई स्थान नहीं है। आपकी दुकान नहीं चल रही है, तो दुकान बंद कर चाहे भीख मांगिए चाहे फाका कीजिए -- सरकार या समाज से यह उम्मीद मत कीजिए कि वे आपके बुरे दिनों के दोस्त बनेंगे। सेवा और सदाव्रत के दिन लद चुके हैं। पूंजीवाद के मंदिर में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा रहता है -- यहां मुफ्त भोजन की व्यवस्था नहीं है। कायदे से, इसके साथ ही यह भी लिख देना चाहिए कि आप अपने भोजन की व्यवस्था कैसे करते हैं, इस बारे में हम कुछ नहीं पूछेंगे। चूंकि अपने भोजन के लिए आप खुद जिम्मेदार हैं, इसलिए यह जिम्मेदारी पूरी न कर पाने की सजा भी आपको ही मिलेगी, बीच में हम कहीं नहीं आते। आप दो बार की जगह पांच बार खाएं, तब भी हम मना नहीं करेंगे और तब भी मना नहीं करेंगे जब आप भोजन के अभाव में आप आत्महत्या करने जा रहे हों।
लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि जो लोग दांत पीस-पीस कर कह रहे हैं कि इन बेईमान और विफल सट्टेबाजों की नाव को डूबने से बचाने के लिए जनता का पैसा क्यों झोंका जा रहा है, वे यह मांग नहीं कर रहे हैं कि शेअर बाजार प्रणाली को ही खत्म कर देना चाहिए, क्योंकि वह सट्टेबाजी का अड्डा है। भारत में भी शेअरों का भाव गिरने पर चिंता प्रगट की जा रही है, यह नहीं पूछा जा रहा है कि शेअर बाजार में किस चीज का उत्पादन होता है। सच्चे पूंजीवाद को शेअर बाजार की कोई जरूरत नहीं है। वहां कोई ऐसी जगह नहीं है जहां नैनो मोटरगाड़ी बनाई जा सके। वहां बड़े-बड़े खिलाड़ी सिर्फ यह तय करते हैं कि कल टाटा मोटर्स के शेअरों का भाव क्या होना चाहिए। शेअर बाजार में भावों के इधर-उधर होने से से जो लोग कमाई करते हैं, वे सट्टेबाज हैं और रुपए को कल-कारखाने या सेवा प्रदानन में लगाने के बजाय कागजों के खेत में बोते हैं और अफवाहों से उसकी सिंचाई करते हैं। यह पूंजी का मखौल है। उसका दुरुपयोग है। इससे वास्तविक समृद्धि नहीं आ सकती। नकली समृद्धि आती है और कोई भी नकली चीज कब भसक जाए, कौन कह सकता है?
लेकिन जो पूंजीवाद हमको-आपको पढ़ाया जाता है, वह और जिस पूंजीवाद का वास्तव में अनुसरण किया गया है और आज भी किया जा रहा है, वे वास्तव में दो अलग-अलग चीजें हैं। पढ़ाए जाने वाले पूंजीवाद के हिसाब से सरकार को किसी निजी कंपनी का न विरोध करना चाहिए न उसकी सहायता करनी चाहिए। सभी को बाजार में अपनी-अपनी किस्मत आजमाने का मौका मिलना चाहिए। लेकिन व्यवहृत पूजीवाद में राज्य ने हमेशा पूंजी की मदद की है। इतिहास बताता है कि राज्य की मदद के बगैर पूंजीवाद इतनी तेजी से फैल ही नहीं सकता था। बल्कि फैल सकता था या नहीं, इसमें भी संदेह है। कारण, यह एक ऐसी नृशंस प्रणाली है जो सिर्फ अधिकार ही अधिकार जानती है, जिसका कोई कर्तव्य शास्त्र नहीं है। बिना कर्तव्य के कोई भी अधिकार व्यक्ति या समाज के हित में नहीं हो सकता। इसलिए कर्तव्यविहीन पूंजीवाद भी किसी भी समाज को चला नहीं सकता। फिर भी, यह यूरोप में चला, तो इसलिए कि यूरोप के शासक वर्ग ने इसे चलाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया। बाजार की खोज में दूर-दूर तक घोड़े दौड़ाए गए और गोरे सैनिकों और व्यापारियों ने मिल-जुल कर रंगीन दुनिया के कोने-कोने में अपने उपनिवेश कायम किए। भारत में इंग्लिस्तान की हुकूमत इसी का एक नतीजा थी। तब भी भारत में पैदा की जाने वाली बहुत-सी चीजें इंग्लिस्तान के उत्पादों पर भारी पड़ती थीं, इसलिए वहां की सरकार को कुछ भारतीय उत्पादों के आयात पर रोक लगानी पड़ी और कुछ पर आयात कर इतना बढ़ा दिया गया कि वहां के मुट्ठी भर लोग ही उनका इस्तेमाल कर सकें। यूरोप ने लगभग पूरी दुनिया को अपना उपनिवेश न बना लिया होता, तो पूंजावीद अपने जन्म पर पछताता रह जाता। इस प्रक्रिया में उत्तर अमेरिका, कनाडा और आस्ट्रेलिया में तो वहां की पूरी की पूरी स्थानीय आबादी का सफाया कर दिया गया।
यही नहीं, पूंजीवाद अपने ही देशों के लोगों के प्रति बहुत ही क्रूर था। उद्योगीकरण और फैक्टरी प्रणाली के शुरू के वर्षों के वृत्तांत पढ़ने पर हृदयहीन आदमी भी बच्चों की तरह रोने लगेगा। स्त्रियों और बच्चों से अठार-अठारह घंटे काम लिया जाता था। बच्चों को पतली चिमनियां साफ करने के काम में लगाया जाता था, जिनमें से बहुतों की लाश ही नीचे उतरती थी। मजदूर गंदी और घनी बस्तियों में रहते थे, जहां किसी भी प्रकार की जन सुविधाओं की व्यवस्था नहीं थी। पश्चिम का यही पूंजीवाद आज स्वच्छ और आकर्षक नजर आता है, क्योंकि शोषण और क्रूरता की बुनियाद पर उसने समृद्धि की आकर्षक इमारत बना ली है। इस समृद्धि का नया आधार आज दुनिया भर में उद्योग-व्यापार करने की आजादी है, क्योंकि इसका लाभ गरीब और अविकसित देशों को नहीं, पहले से ही समृद्ध और टेक्नोलॉजी-प्रधान देशों को मिल रहा है।
यह विशेष लाभ उठाने की स्थिति में जो देश हैं, वही अपनी पंद्रह-बीस प्रतिशत बेरोजगार आबादी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं। अमेरिका में तथाकथित समाजवाद के उदय से त्रस्त विचारक यह मांग भी क्यों नहीं करते कि चूंकि हम बाजारवादी देश हैं, इसलिए सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में सरकार को एक डॉलर भी खर्च नहीं करना चाहिए? कारण, ऐसा हो जाए, तो अमेरिका में भी पूंजीवाद को सदा के लिए दफना दिया जाएगा। सामाजिक सुरक्षा, बीमार कंपनियों की जमानतदारी आदि ऐसे कदम हैं जिनसे पूंजीवाद सहनीय बनता हैं। जो बड़ी-बड़ी कंपनियां बंद हो रही हैं, उन्हें न बचाया जाए तो बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैलेगी और पूंंजीवाद की बाजार प्रणाली भरभरा कर गिर जाएगी। इसलिए ये कदम समाजवाद लाने के लिए नहीं, पूंजीवाद की रक्षा करने के लिए हैं। दुनिया का सबसे बड़ा पूंजीवादी देश दुनिया की सबसे बड़ी सामरिक ताकत भी है, यह संयोग नहीं हो सकता।
यही हालत हमारे अपने देश की भी है। भारतीय राज्य ने शुरू से ही पूंजीवाद की मदद की है। अंग्रेजी राज में भी यही हुआ और उसके बाद भी यही हुआ। पहले छिप-छिप कर यह होता था, अब भारतीय राज्य ने अपने कपड़े उतार दिए हैं। इसलिए एक ओर तो औद्योगिक इकाइयां बैठाने के लिए सस्ते में जमीन, बिजली, कर से छूट आदि दी जाती है, विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाए जाते हैं और दूसरी ओर जन असंतोष को दबाने के लिए इंदिरा आवास योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, किसान कर्ज माफी आदि कार्यक्रम बनाए-बिगाड़े जाते हैं। दरअसल, ये राहत कार्यक्रम पूंजीवाद की नर्सें हैं जो अमीर घायलों को गद्देदार बिस्तर पर ग्लुकोज चढ़ाती हैं और गरीब बीमारों के गले में चीनी और नमक का घोल डालती रहती हैं। 000

Friday, October 3, 2008

वह एक व्यक्तित्व


बाबू
राजकिशोर


उस दिन ऑफिस देर से पहुंचा था, पर अपने केबिन का दरवाजा खोलते ही मन खिल उठा। सामने की एक कुरसी पर बैठा बाबू बीड़ी फूंक रहा था। उसका हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था, लेकिन इससे उसका व्यक्तित्व और निखर आया था। बाल घने हो गए थे। दाढ़ी-मूंछ बढ़ी हुई थी। उनके बीच उसके तराशे हुए पतले होठों पर हलकी-सी, शाश्वत किस्म की मुसकान थी। चेहरे पर पहले वाली बेचैनी नहीं, एक नई किस्म की शांति थी। यह हमारा बाबू था, जो करीब पांच साल पहले अचानक दिल्ली छोड़ कर पता नहीं कहां लापता हो गया था।

उस दिन बाबू दिन भर मेरे साथ रहा। हम लोग तरह-तरह की बातें करते रहे। रात को मैंने उसे जम कर शराब पिलाई। फिर उसे एक ईसाई परिवार के यहां ले जा कर छोड़ दिया, जहां वह ठहरा हुआ था। अगले दिन उसे रात की रेल से झारखंड लौट जाना था। पांच साल से वह वहीं के एक गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ रह रहा था। बाबू के शब्दों में, 'बड़े मौज में हूं। चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जिनके यहां रहता हूं, उनका कुछ कामकाज कर देता हूं। उनके बच्चों को पढ़ा देता हूं। गांव के लोगों का भी कुछ छोटा-मोटा काम कर देता हूं। रात को ढेर-सी शराब पी कर सो जाता हूं। कभी-कभी दिन में भी एकाध गिलास ले लेता हूं।' मैं उससे कहता रहा कि बाबू, तुम अपनी प्रतिभा और ज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहे हो, अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हो, दूसरों को भी गलत रास्ता दिखा रहे हो, पर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह धीमे-धीमे हंसता रहा। जब मेरा उपदेश पूरा हो गया, तो वह बोला, 'सर, यहां प्रतिभा और ज्ञान की जरूरत किसे है? पहले में सार्थकता में खुशी खोज रहा था। अब खुशी में ही सार्थकता देख रहा हूं।'

बाबू से मिल कर जितना आनंद आया था, उससे बिछड़ते हुए उतना ही विषाद हो रहा था। काश, मैं उसके लिए कुछ कर पाता। लेकिन इतनी बड़ी दिल्ली जिसके लिए कुछ नहीं कर पाई, उसके लिए मैं क्या कर सकता था।

बाबू से मेरी मुलाकात नौ-दस साल पहले दिल्ली में ही हुई थी। लगा था कि रामविलास शर्मा या नामवर सिंह को उनकी युवावस्था में देख रहा हूं। उन दिनों वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था। उसके शोध का विषय था -- आधुनिक हिन्दी साहित्य में गृहस्थ रस। जब कोई उसे छेड़ता, तो वह कम से कम आधा घंटे तक गृहस्थ रस की अवधारणाा पर बोलता रहता। उसका कहना था कि यह श्रृंगार रस से भिन्न है, क्योंकि श्रृगार रस में प्रेम प्रेम के लिए होता है, गृहस्थ रस में प्रेम जीने के लिए होता है। बाबू कभी-कभी अखबारों में लिखता भी था। हर लेख नए ढंग का और बेहद पठनीय। उसका कहना था कि वह लेक्चरर बनेगा और सिर्फ पढ़ेगा-लिखेगा, किसी लंद-फंद में नहीं पड़ेगा।

पर लेक्चरर बनाने वालों को वह पसंद नहीं आया। एक तो उसके नाम से यह स्पष्ट नहीं होता था कि उसकी जाति क्या है। रेकॉर्ड में उसका नाम था, श्यामल कांति। वह किसी को अपनी जाति बताता भी नहीं था। दूसरे, यह भी स्पष्ट नहीं था कि वह यूपी का है या बिहार का। तीसरे, उसने किसी को गॉडफादर नहीं बनाया था। उसे विश्वास था कि उसकी योग्यता ही उसे लेक्चरर बनाएगी। जब तीन साल तक इंतजार करने के बाद किसी भी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय ने उसे नहीं पूछा, तो वह पत्रकारिता में चला आया। कुछ दिनों तक बड़े उत्साह में रहा, फिर चिड़चिड़ा होने लगा। हर दूसरे दिन बॉस से उसका झगड़ा हो जाता था। झगड़ा वह शुरू नहीं करता था। उसके बॉस उसके काम की सराहना भी करते थे। लेकिन उसके अधिकारियों को उसके जैसे सुयोग्य व्यक्ति का आॉफिस में होना ही खलता था। वह जिस अखबार में भी काम करता, अपने साथियों में बहुत लोकप्रिय हो जाता था। बॉस की इज्जत उनके पद से होती थी, बाबू की इज्ज्त उसकी योग्यता और गुणों से। सो हर तीसरे महीने वह एक नए दफ्तर में दिखाई देता।

अखबार छोड़ कर जब वह एक टीवी चैनल में गया, तो उसने वहां कमाल ही कर दिया। दूसरे महीने की तनख्वाह ले कर वह अपने हेड के पास गया और बोला -- इतने पैसे मुझसे हजम नहीं होंगे। मैं नौ घंटे की ड्यूटी में काम ही क्या करता हूं। पांच-सात छोटी-छोटी खबरें बना देता हूं। इसके लिए दस हजार काफी हैं। बाकी पैसे आप लौटा लीजिए। ऐसी ही अजीबोगरीब हरकतों के कारण वह टीवी की दुनिया में टिक नहीं सका। बाद में सुना, कहीं अनुवाद का काम कर रहा है। फिर मालूम हुआ, किसी एनजीओ में लग गया है। उसके बाद तो वह अदृश्य ही हो गया।

यह जान कर तसल्ली हुई कि अब वह परेशान नहीं है, बल्कि सुख से है। सुख ठीक-ठीक क्या होता है, मैं नहीं जानता। पर इतना जरूर है कि अगर मेरे बस में होता, तो मैं भी उसके साथ चल देता। रात को जी भर कर शराब पीने के बाद चांदनी तले धर्म, नैतिकता, जीवन, ब्रह्मांड, आदि विषयों पर बातें करने से ज्यादा मजेदार और क्या हो सकता है !

Thursday, October 2, 2008

आतंकवाद और गांधीवाद

आतंकवाद के समय में गांधी

राजकिशोर

 

महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय नजर आता है, तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। जब शहर-दर-शहर बम विस्फोट हो रहे हों और निर्दोष तथा अनजान लोगों की जान जा रही हो तथा आतंकवादी समूह इस तरह प्रसन्न हो रहे हों जैसे उन्होंने किसी  महान काम को अंजाम दे दिया हो, उस वक्त हम गांधी की किस चीज का अनुकरण कर सकते हैं? आतंकवाद की उग्रतर हो रही समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है?

हम जानते हैं कि हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में भी गांधी जी को निरुत्तर करने के लिए उनसे इस तरह के सवाल किए जाते थे। लेकिन महात्मा के पास सत्य और अहिंसा की ऐसी अचूक दृष्टि थी कि वे कभी भी लाजवाब नहीं हुए। उनका कहना था कि अगर किसी आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया है, तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगी? अंत में वह इस अहिंसक शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करनेवाला तथा जिस पर आक्रमण हुआ है, वह दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था, तो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। लेकिन इस पर किसी ने अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। शायद यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है।

      लेकिन आतंकवाद की समस्या तो युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष होता है, जब कि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाए? इस संदर्भ में निवेदन यह है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता है, तो इरादा यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूं, मुझे अपनी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन करना पड़े, तब बताओ कि मेरी बीमारी ठीक करने का नुस्खा तुम्हारे पास क्या है। विनम्र उत्तर यह है कि यह कैसे संभव है? स्वास्थ्य लाभ करने के लिए वह जीवन शैली कैसे उपयुक्त हो सकती है जिससे बीमारी पैदा हुई है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।

अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं, तो जो समाज हम बनाएंगे, उसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि वे निहायत अस्वाभाविक बस्तियां हैं, जहां जीवन का रस रोज सूखता जाता है। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय तेज वाहनों से आते-जाते रहें, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।

लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। आतंकवादी पागल नहीं होता है। वह अपनी समझ से किसी बड़े अन्याय के खिलाफ लड़ रहा होता है। जब ऐसा कोई अन्याय होगा ही नहीं और हुआ भी तो तुरंत उसे सुधारा जा सकेगा, तब आतंकवादी मानसिकता क्योंकर बनेगी? ऐसे समाज में  मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। क्या इस तरह का समाज कभी बन सकेगा? पता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें अन्य प्रकार के आतंकवाद पैदा होते हैं। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।

ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमंे पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनके परिवार का एक सदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है। 000