Sunday, September 30, 2007

भगत सिंह और हम - 2

भगत सिंह को कैसे याद करें
राजकिशोर

पुजारी देवता के अनुसार नहीं चलता, वह अपने

अनुसार चलता है। श्रद्धांजलि अर्पित करते समय हम

महापुरुष के निकटतम जाने की कोशिश नहीं करते,

उसे ही अपने निकटतम ले आते हैं। यह मानव

व्यवहार की दुख भरी ट्रेजेडी है। श्रद्धा बढ़ती जाती है,

पर उसका सारतत्व क्षीण होता जाता है। देवता

गाजे-बाजे के साथ आता है और अपने भक्तों को वैसा

ही छोड़ जाता है जैसे वे थे। यही कारण है कि दुनिया

भर में धर्म प्रवर्तकों और महापुरुषों को श्रद्धांजलि

अर्पित करने के इतने कार्यक्रम होते हैं, फिर भी

दुनिया बदलती नहीं है। बल्कि सारे धूम-धड़ाके के

बाद वह और ज्यादा धूमिल और खोखली नजर आती

है, जैसे नाटक खत्म हो जाने के बाद रंगशाला का

सन्नाटा भांय-भांय करने लगता है।
भारत की केंद्रीय सत्ता ने भगत सिंह

की सौवीं जयन्ती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने

का जो तरीका चुना, वह उसकी अकड़ का परिचायक

है। भगत सिंह अगर कोई बड़े उद्योगपति होते और

भारत सरकार उनकी याद में सिक्का जारी करती, तो

बात समझ में आ सकती थी। सभी जानते हैं कि

शहीदे-आजम को सिक्कों से कोई लगाव नहीं था।

बल्कि वे उस व्ववस्था का विनाश करने के हिमायती

थे जिसकी नींव सिक्कों पर खड़ी है। भगत सिंह को

सिर्फ आजादी के लिए संघर्ष से जोड़ कर देखना ठीक

नहीं है। यह उनका बहुत ही अधूरा मूल्यांकन है।

शुरुआती दौर में बेशक भारत को आजाद कराने की

तड़प उन्हें बेचैन किए हुए थी, पर जैसे-जैसे उनमें

परिपक्वता आने लगी -- जितनी जल्दी और जितनी

तेजी से उनमें परिपक्वता आई, वह विलक्षण है --

उन्हें यह प्रतीति होने लगी कि आर्थिक आजादी के

बिना राजनीतिक आजादी का कोई मतलब नहीं है।

दिलचस्प यह है कि यही बात स्वतंत्रता संघर्ष के एक

और नायक महात्मा गांधी भी कह रहे थे। बीसवीं

शताब्दी की शुरुआत से दुनिया भर में औपनिवेशिक

शासन से मुक्ति की लड़ाइयां चल रही थीं। यह

भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की विलक्षणता है कि उसमें

राजनीतिक मुक्ति पर जितना जोर था, उससे कहीं

अधिक जोर आर्थिक और सामाजिक मुक्ति पर था।

इस संदर्भ में कांग्रेस के भीतर रह कर राजनीतिक

संघर्ष कर रहे जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण,

आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर

अली आदि के लक्ष्य और भगत सिंह, चंद्रशेखर

आजाद, वोहरा, सुखदेव आदि के लक्ष्य में कोई अंतर

नहीं था। दोनों वर्गों के नेता समाजवादी व्यवस्था में

ही भारत का भविष्य देखते थे। हमारा वह भविष्य

कहां गया? इसकी जांच किए बिना भगत सिंह या

किसी भी स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि देने का कोई

मतलब नहीं है।
लेकिन इस मतलब से किसको मतलब

है? भगत सिंह की पवित्र स्मृति में सिक्का जारी

करने वाली सरकार वही है, जो रिजर्व बैंक द्वारा जारी

किए जाने वाले नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर

छापती आई है। गांधी जी का जन्म बनिया जाति में

जरूर हुआ था, पर वे बनियागीरी की व्यवस्था के

मामूली शत्रु नहीं थे। उनकी मनपसंद अर्थव्यवस्था

विकेंद्रीकरण पर आधारित थी, जिसमें प्रत्येक गांव

और शहर अपनी जरूरत की प्राय: सभी चीजें अपने

स्तर पर पैदा करेगा। ऐसी व्यवस्था पूंजीवाद और

खुले बाजार पर आधारित हो ही नहीं सकती। इसलिए

गांधी जी के आदर्शों की याद दिलाने के लिए प्रत्येक

नोट पर चरखे की तसवीर उकेरी जाती, तो यह ज्यादा

उपयुक्त होता। सरकार की नजर में मैल होने के

परिणामस्वरूप हम पाते हैं कि जिस चरखे की खोज

के कारण गांधी जी महात्मा बन सके, उस चरखे को

तो विदा कर दिया गया, उसकी जगह सरकारी मुद्रा

पर स्वयं महात्मा को बैठा दिया गया मानो महात्मा

अपने चरखे से बड़े हों। यह किसी धनुर्धर से उसका

तीर-धनुष छीन कर उसे फूलों की माला पहनाना है।

अपनी इसी मुद्रा-प्रियता के कारण मनमोहन सिंह ने

भगत सिंह की याद में सरकारी सिक्का जारी करना

आवश्यक समझा। क्या यह भगत सिंह जैसी विभूति

को सिक्कों से तौलने की तरह नहीं है? लेकिन

पूंजीवाद की खुली वकालत करने वाली सरकार भगत

सिंह को और दे ही क्या सकती थी?
साधु ही साधु को पहचानता है।

क्रांतिकारी ही क्रांतिकारी को समझ सकता है। इसलिए

यह सर्वथा उचित था कि माले और उस जैसे संगठनों

ने दिल्ली में साम्राज्यवाद - विरोधी मोर्चा निकाल कर

शहीदे-आजम को याद किया। भगत सिंह में जो आग

थी, उसे चिनगारियों की ही आहुति दी जा सकती है।

लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह आग विषमता

और अन्याय को भस्म करने के लिए थी, न कि आम

आदमी या सत्ता के निचले पायदान के प्रतिनिधियों को

भूनने के लिए। भगत सिंह को अकसर क्रांतिकारी

हिंसा का प्रतीक मान लिया जाता है। शुरू में वे इस

राह पर कुछ दूर तक चले भी थे। पर बहुत जल्द

उन्हें इस सत्य का एहसास हो गया कि जिस संघर्ष

में आम लोगों को बड़े पैमाने पर शामिल किया जाना

है, वह हिंसा पर आधारित हो ही नहीं सकता।

आजकल भगत सिंह के इस वक्तव्य को खूब उद्धृत

किया जाने लगा है -- ' मैं घोषणा करता हूं कि मैं

आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के

आरंभिक दिनों को छोड़ कर शायद कभी नहीं था।

और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल

नहीं कर सकते।' एक दूसरी जगह भगत सिंह और

साफ-साफ कहते हैं, 'अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा

क्रांतिकारी इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं

कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों

से नहीं हो सकती, बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फुटित

और विकसित होना चाहिए।' इसके बावजूद हम पाते

हैं कि अपने को क्रांतिकारी मानने वाले बहुत-से

संगठन हिंसा की आग में खुद जल रहे हैं और दूसरों

को जला रहे हैं। नक्सलवादी हिंसा में आज तक

हजारों निर्दोष लोगों की जान जा चुकी है। शायद ही

कोई ऐसा हफ्ता बीतता होगा जिसके दौरान कुछ

निरीह लोग तथाकथित क्रांति की वेदी पर बलि न

चढ़ाए जाते हों। इसके द्वारा हिंसा की आग में जल रहे

हमारे ये बेचैन नौजवान अखिल भारतीय क्रांति को

नजदीक ला रहे हैं या दूर धकेल रहे हैं? मुझे यकीन

है कि यह हिंसा इसीलिए संभव हो पा रही है कि

भारतीय राज्य ने इसे बरदाश्त करने की नीति बनाई

हुई है, क्योंकि क्रांतिकारी आतंकवाद की छाया में देश

के अत्यंत पिछड़े इलाके ही हैं और हत्या साधारण

लोगों की ही जाती है। अन्यथा भारतीय राज्य में

इतनी शक्ति जरूर है कि वह नक्सलवाद का सफाया

कर सके। सभी जगह कश्मीर जैसी स्थितियां नहीं हैं।

भगत सिंह से जिन्हें सचमुच प्रेम है, उन्हें विचार

करना चाहिए कि अगर शहीदे-आजम को सिक्कों से

तौलना जायज नहीं है, तो उनकी स्मृति के इर्द-गिर्द

बारूद की दुर्गंध फैलाना भी उनके साथ न्याय करना

नहीं है।



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