चुनाव से डरने वाला देश
राजकिशोर
बताया जाता है कि चुनाव लोकतंत्र का मेरुदंड है। यह वह व्यवस्था है जिसमें शासक अपने को जनता पर नहीं थोप सकता। वह शासक तभी बन सकता है जब जनता ने उसे इस दायित्व के लिए चुन लिया हो। लेकिन रोज-रोज चुनाव नहीं किए जा सकते। वे एक निश्चित अवधि के बाद ही आयोजित किए जा सकते हैं। लेकिन जब सरकार की किसी नीति पर राष्ट्रीय विवाद खड़ा हो जाए तब? क्या तब भी हमें चुनाव से डरना चाहिए? चुनाव से भयभीत देश में किस तरह का लोकतंत्र चल सकता है?
अमेरिका से परमाणु करार निश्चय ही एक ऐसा मुद्दा है जिस पर भारत की संसद बंटी हुई है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा उसका तीव्र विरोध कर रही है। यह और बात है कि भाजपा अगर आज सत्ता में होती, तो वह अमेरिका से इससे भी बुरा परमाणु करार कर सकती थी। लोकतांत्रिक राजनीति की यह एक भारी विडंबना है कि कोई भी विपक्षी दल सरकार की किसी नीति का समर्थन कर ही नहीं सकता। विपक्ष में होने का नतलब विरोध करना है। इस दृष्टि से भाजपा एक सामान्य विरोधी दल की तरह आचरण कर रही है। लेकिन वामपंथियों की आलोचना को अवसरवादी नहीं कहा जा सकता। यह उनकी नीति का सुसंबध्द हिस्सा है। यह नीति सही है या गलत, यह अलग मामला है। अमेरिका का नाम सुनते ही भड़क जाना कोई अच्छी आदत नहीं है, जैसे मार्क्सवाद या साम्यवाद का नाम सुनते ही भड़क जाना एक बीमार दिमाग का लक्षण है। वस्तुनिष्ठ विचार से ही प्रगति होती है। एकतरफा विचार प्रगति की राह में रोड़े बन जाते हैं। इसके बावजूद अगर वामपंथी सोचते हैं कि परमाणु करार बने रहने की स्थिति में वे वर्तमान सरकार का समर्थन करना जारी नहीं रख सकते, तो यह उनका अपना स्वतंत्र फैसला है। यूपीए सरकार को इस फैसले का सम्मान करना चाहिए।
अगर यूपीए और वामपंथ में सचमुच दरार पड़ ही जाती है, तो जरूरी नहीं कि मनमोहन सिंह की सरकार गिर ही जाए। इसलिए पिछले दिनों यह जो आशंका हो गई थी कि सरकार अब गिरी-तब गिरी, वह सनसनी की एक बेकार खोज थी। बताते हैं कि इस समय कोई भी दल मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। लेकिन इससे अधिक चिंता की बात यह है कि जनता भी नहीं चाहती कि मध्यावधि चुनाव हो। इसकी पुष्टि में कई जनमत सर्वेक्षण पेश किए जा सकते हैं, हालांकि इस तरह के सर्वेक्षणों से देश के एक बहुत सीमित वर्ग की राय अभिव्यक्त होती है। इससे यह भी पता चलता है कि परमाणु करार के औचित्य पर मतदाता भी अपना मंतव्य नहीं देना चाहते। वे चुनाव की हवा से ही घबराने लगते हैं। नया चुनाव होने से बेहतर है कि इस समय जैसी भी सरकार है, वह चलती रहे।
चुनाव के नाम पर यह पस्ती क्या भारतीय राजनीति का एक बहुत बड़ा संकट नहीं है? सभी जानते हैं कि फिलहाल भारत में राजनीतिक अस्थिरता है। कोई भी दल अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। राजनीतिक गठबंधन भी काफी हद तक अवसरवादी हैं। ऐसी स्थिति में हमें स्थिर सरकारों की कामना क्यों करनी चाहिए? राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में सरकारें बार-बार बनती और टूटती हैं। यह सामाजिक मंथन की प्रक्रिया है, जिससे समाज की शुध्दि होती है और वह वास्तविक स्थिरता की खोज में आगे बढ़ता है। लेकिन यह तभी संभव है जब चुनाव वास्तव में लोकतांत्रिक हों। वे लोकतंत्र को आगे बढ़ाएं न कि उसके पांवों की जंजीर बन जाएं। जब चुनाव देश के लिए संकट बन जाते हैं, तभी लोगों को उनकी आहट सुनते ही घबराहट होने लगती है।
दुर्भाग्य से भारत में आम चुनाव लोकतंत्र का उत्सव नहीं, बल्कि उसके लिए आफत बन चुका है। चुनाव में सभी दलों द्वारा पैसा जिस तरह पानी की तरह बहाया जाता है, लोगों को डराया-धमकाया जाता है, वह हमारे लोकतंत्र को संकुचित कर रहा है। आज स्थिति यह है कि विधान सभा का चुनाव भी एकाध करोड़ रुपए खर्च किए बिना सफलतापूर्वक नहीं लड़ा जा सकता। संसदीय चुनावों में दल और उम्मीदवार कितना खर्च करते हैं, इसकी कोई सीमा नहीं है। मध्य वर्ग का कोई भी ईमानदार व्यक्ति उम्मीदवार बनने की सोच ही नहीं सकता। इस तरह चुनाव लड़ने की भौतिक योग्यता एक खास वर्ग के हाथ में सिमट गई है। क्या ऐसे चुनावों को लोकतांत्रिक चुनाव कहा जा सकता है जो चुनाव की पवित्रता को ही नष्ट करने वाले हों?
इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि लोग चुनाव से डरते हैं। वे वास्तव में अपने लोकतंत्र से डरते हैं। वे मानते हैं कि यह लोकतंत्र जितना कम सक्रिय हो, देश के लिए उतना ही अच्छा है। यही कारण है कि बहुत-से अबोध और असहाय लोग तानाशाही के समर्थन में बोलने लगते हैं। वे तर्क करते हैं कि इस देश को कुछ समय के लिए एक अच्छे और कुशल तानाशाह की जरूरत है। संभवत: गुजरात में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का कारण उनका तानाशाह आचरण ही है। कहने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र की विफलता से ही जनमानस में तानाशाही के प्रति आकर्षण पैदा होता है। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। चुनाव का एक अच्छा विकल्प जनमत संग्रह है। लेकिन हमारे यहां इसकी परंपरा नहीं बन पाई है। ऐसा लगता है कि हमारे शासक जनता को मूर्ख मानते हैं। वे जनता की ओर से बड़े-बड़े फैसले अपने आप कर लेते हैं। इसलिए हमारे यहां किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर सार्वजनिक बहस का वातावरण नहीं बन पाता। फिर भी हमें इस बात पर गर्व करना सिखाया जाता है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में रहते हैं, तो यह एक राष्ट्रीय विडंबना ही है। दुख की बात यह है कि यह एकमात्र राष्ट्रीय विडंबना नहीं है। 000
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