Sunday, March 30, 2008

समाजवाद के प्रश्न

समाजवादी किसे कहेंगे
राजकिशोर

एक बार मिर्जा गालिब से किसी अंग्रेज ने पूछा -- क्या टुम मुसलमान है? गालिब ने जवाब दिया -- हुजूर, आधा। मतलब पूछे जाने पर गालिब ने कहा -- शराब पीता हूं, सूअर नहीं खाता। लेकिन इस्लाम के किसी अनुयायी से पूछ कर देखिए, वह यह नहीं मानेगा कि जो आदमी सूअर नहीं खाता और शराब नहीं पीता, वह पूरा मुसलमान है। दुनिया की बात छोड़िए, भारत में ही ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो इन दोनों चीजों से दूर हैं। तो क्या वे सभी मुसलमान हो गए? मुसलमान होने के लिए कुछ करना भी होता है, जैसे खुदा और रसूल में यकीन रखना, नमाज पढ़ना, रोजा रखना, जकात देना आदि-आदि। यह सब करने के बाद भी कोई खरा मौलवी कह सकता है कि जो यह सब करते हैं, लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए -- हकीकत में वे न खुदा से डरते हैं और न कुरआन की हिदायतों के मुताबिक जीते हैं, वे सच्चे मुसलमान नहीं हैं। ये सवाल ईसाइयत के बारे में भी किए जा सकते हैं। जिन अंग्रेजों ने दुनिया भर में अपने उपनिवेश बनाए और स्थानीय लोगों को या तो गुलाम बना लिया या नष्ट कर दिया, क्या उन्हें ईसाई कहा जा सकता है? कुछ ऐसी ही बात गांधीवाद के बारे में भी कही जा सकती है। कोई आदमी शाकाहारी भोजन करता है, रोज नियम से चरखा चलाता है, खादी पहनता है, गीता, कुरआन और बाइबिल पढ़ता है, ब्रह्मचर्य धारण किए हुए है, तो क्या सिर्फ इसलिए उसे गांधीवादी मान लिया जाए? विज्ञान के साथ इस तरह की समस्याएं नहीं हैं। ग्रहों के बारे में जानकारी यह नहीं बताती कि हमें दो बार खाना चाहिए या दस बार खाना चाहिए। रसायनशास्त्र यह नहीं बता सकता कि ब्रह्मचर्य अच्छा है या बुरा है। भौतिकविज्ञानी से इस बारे में सलाह मांगना बेकार है कि पड़ोसी के घर में चूल्हा नहीं जला है, तब भी क्या हम पेट भर कर भोजन कर सकते हैं। जब जानकारी का दायरा मनुष्य और मानव समाज की ओर मुड़ता है, तो ज्ञान नीति-निरपेक्ष नहीं हो सकता। आदमी से संबंधित किसी भी शास्त्र को यह बताना ही होगा कि क्या करना अच्छा है और क्या करना बुरा। बात आगे भी जाती है। जब कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि यह अच्छा है और वह अच्छा नहीं है, तो इसकी विश्वसनीयता तभी बनेगी जब उसके अपने आचरण से यह साबित हो। धर्म और राजनीति के क्षेत्र में तो यह सबसे बड़ी और उतनी ही सीधी कसौटी है। इस सिलसिले में महात्मा जी का यह कथन याद आता है -- मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।
अब हम आसानी से यह पहचान सकते हैं कि कौन समाजवादी है और कौन नहीं। समाजवादी वह है जिसकी समाजवाद में आस्था है और जो अपनी इस आस्था के मुताबिक जीने का प्रयास कर रहा है। महात्मा जी ने कभी यह नहीं कहा कि वे सत्य के मार्ग पर चलते रहे हैं। उनका दावा सिर्फ यह था कि वे बराबर इसकी कोशिश करते रहे। इसीलिए उन्होंनेे अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग' कहा। समाजवादी भी अपने जीवन में समाजवाद के प्रयोग कर सकता है। जरूरी नहीं कि उसका नेता जिसे समाजवाद बता रहा हो, समाजवाद वही हो। नरेंद्रदेव भी समाजवादी थे, लोहिया भी और किशन पटनायक भी। सभी के विचार एक जैसे नहीं थे। पर उन सभी में साम्य यह है कि उन्होंने जो जीवन जिया, वह उनके विचारों से बहुत भिन्न नहीं था। कुछ जगहों पर ये तथा अन्य महापुरुष भी च्युत हुए होंगे, लेकिन धरती पर रहनेवाला धूल-मिट्टी से कब तक बच सकता है? इसलिए किसी व्यक्ति के आचरण को जांचने की कसौटी यह नहीं है कि वह कहां-कहां या कितना गिरा, कसौटी यह है कि वह कितना उठा और उसके जीवन की दिशा, कुल मिला कर, गिरने की तरफ रही या उठने की तरफ। समाजवाद को कई तरह से परिभाषित किया जा सकता है। सबमें ये बातें समान होंगी कि समस्त व्यवस्था समाज के हित में होगी, हर आदमी की इज्जत की जाएगी, कोई किसी को नौकर नहीं रखेगा, तथा हर स्तर पर लोकतंत्र होगा। इससे कम पर किसी विचार को समाजवादी कहना ठीक नहीं है। इसलिए समाजवादी उसे कहेंगे जो इन बातों पर तथा इनसे निकलनेवाली या इनकी पूरक अन्य बातों पर विश्वास करता हो और इन्हें अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर रहा हो। यह कोशिश दिखावा नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसी कोशिश नहीं है, तो किसी समाजवादी संगठन का सदस्य होने या समाजवादियों के साथ घूमने-फिरने या किसी समाजवादी कार्यक्रम में उपस्थित होने या भाग लेने से कोई समाजवादी नहीं हो जाएगा। हो सकता है किसी के पास कारखाना हो, लेकिन अगर वह उस कारखाने के भीतर लोकतंत्र नहीं लाता और समाजवादी दल को लाखों रुपए सालाना चंदा देने के बावजूद अपना सारा ध्यान एक से दो और दो से तीन कारखाने खड़े करने की कोशिश में लगा रहता है, तो मैं उसे समाजवादी नहीं मानूंगा। कोई समाजवाद का प्रकांड विद्वान है, लेकिन उसका जीवन नीचता से लबालब भरा हुआ है, तो वह भी मेरी निगाह में समाजवादी नहीं है। वे नेता भी समाजवादी नहीं हैं जो समाजवाद की राजनीति नहीं करते या जिनके आचरण में समाजवाद का कोई तत्व नहीं है। समाजवाद के विपरीत आचरण करनेवालों को समाजवादियों का समर्थक, सहायक, प्रशंसक, फाइनांसर कुछ भी कहा जा सकता है, समाजवादी नहीं।

लेखक का रास्ता

तुम समय के साथ नहीं चलोगे
राजकिशोर

बाइबल के सात परमादेशों (तुम लालच नहीं करोगे, तुम गर्व नहीं करोगे, तुम ईर्ष्या नहीं करोगे आदि) की तरह मुझे पता नहीं कि लेखकों के लिए भी कहीं कुछ परमादेश जारी हुए हैं या नहीं। यह संतों के बाद दूसरी प्रजाति है, जिसके सदस्य किसी के हुक्म से बंधे हुए नहीं होते। वे अपना रास्ता खुद बनाते हैं। इसमें यह थोड़-सा संशोधन जरूरी लगता है कि जो संत किसी संगठन में शामिल हो जाता है, उसे उस संगठन के अनुशासन में रहना पड़ता है। इसी तरह, जो लेखक किसी संगठन में शामिल हो जाता है, उसे अपने संगठन के निर्देशों का आदर करना पड़ता है। न तो अनुशासन बुरा है और न संगठन। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में इनकी जरूरत होती है। लेकिन जब वे स्वतंत्रता के दूसरी ओर खड़े होने की कोशिश करते हैं, तो वे अपनी भूमिका पर कोलतार पोत देते हैं। इसीलिए रचनात्मकता के क्षेत्र में संगठनों को प्राय: शक की निगाह से देखा जाता है।

फिर भी, कुछ अनौपचारिक परमादेश तो जारी किए ही जा सकते हैं। इनकी सूची बनाना दिलचस्प काम होगा। कभी रुचि हुई, तो यह काम करूंगा। दरअसल, ये परमादेश नहीं, समाज की अंतरात्मा के चीत्कार हैं। हर व्यक्ति में यह अंतरात्मा निवास करती है। मेरी अंतरात्मा जो कह रही है, उसे मैं यहां व्यक्त करना चाहता हूं। मेरे खयाल से, इस समय लेखकों को जो पहला परमादेश दिया जा सकता है, वह यह है कि तुम समय के साथ नहीं चलोगे। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में समय के साथ चलना बुद्धिमानी मानी जाती है। उद्योगपति समय के साथ नहीं चलता, तो वह मारा जाता है। नागरिक समय का साथ छोड़ देता है, तो वह अपने ही लोगों के बीच बासी हो जाता है। समय को अकसर प्रगति का चिह्न माना जाता है। लेकिन कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है, जब समय के साथ चलना मूर्खतापूर्ण हो सकता है। पराधीन भारत में जब सभी संपन्न लोग अंग्रेजी पोशाक अपना रहे थे, एक अधेड़ आदमी ने तय किया कि वह अधनंगा रहेगा। और भी मामलों में उसने अपने समय के साथ चलने से इनकार कर दिया। लोगों ने उसे महात्मा कहा। आज दुनिया भर के विचारशील लोग कह रहे हैं कि वह अधनंगा बूढ़ा उन सभी से ज्यादा प्रासंगिक है जिन्होंने समय के साथ चल कर सत्ता पाई और मौज किया।

लेखकों में भी समय के अनुसार चलने की ख्वाहिश होती है। यहां तक कि वे अपनी भाषा-शैली और मुहावरा ही नहीं, विषयवस्तु भी समय के अनुसार उठाते हैं। वे इस पर कम विचार कम करते हैं कि समय की वास्तविक जरूरत क्या है। वे देखते यह है कि इस समय लेखन की दिशा क्या है और फिर उसी के अनुसार लिखने लग जाते हैं ताकि जल्दी मान्यता मिल सके। युवा लेखक जब ऐसा करता है, तो बात समझ में आती है। वह अभी अपनी दिशा खोज रहा होता है। लेकिन जो लेखक आगे भी नकलची बना रहता है, वह जितनी जल्द पैदा होता है, उतनी ही जल्द मर भी जाता है। किसी भी नए साहित्यिक आंदोलन के दौरान ऐसे बहुत-से लेखक पैदा होते हैं जो समय के साथ चलने की कोशिश में वह थोड़ी-बहुत रचनात्मकता भी खो बैठते हैं जो उनमें मौजूद होती है। इतिहास उनका उल्लेख 'इत्यादि' में भी नहीं करता।
यह जरूर है कि जो लेखक समय के अनुसार नहीं चलते, उन्हें इसका हरजाना चुकाना पड़ सकता है। जैसे अज्ञेय और निर्मल वर्मा को चुकाना पड़ा। कुछ समय तक रेणु भी इसके शिकार रहे। लेकिन आज उनके अवदान को कोई झुठला नहीं सकता। यिद्दिश भाषा में लिखनेवाले सिंगर ने अपनी निराली ही राह बनाई और उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत में इसके इतने ही जबरदस्त उदाहरण विजयदान देथा हैं। वे जिस शैली में कहानी लिखते हैं, वह किसी भी दृष्टि से आधुनिक नहीं है। लेकिन ऐसा माननेवालों की संख्या बढ़ती जाती है कि इस समय उनके जैसा आधुनिक लेखक भारत में कोई और नहीं है।

इसीलिए मैं यह कहना चाहता हूं कि मित्र, तुम लेखक हो, सचमुच लेखक हो, तो समय के साथ चलने से इनकार कर दोगे। बेशक तुम समय को गधा नहीं समझोगे। उसकी मांगों पर गहराई से विचार करोगे। लेकिन अगर तुम्हें लगता है कि यह भटका हुआ समय है, तो तुम उसके पीछे-पीछे नहीं दौड़ोगे। शक्तिशाली लोग चिल्ला रहे हों -- स्त्री-स्त्री, दलित-दलित, तो तुम भी इन्हीं विषयों पर लिखने नहीं बैठ जाओगे। लिखोगे भी तो विचार करोगे कि क्या कोई नया कोण उपस्थित करने की जरूरत है। पिटा-पिटाया सत्य समय का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। वह समय को अपने छाते से ढकने का प्रयास करता है। कई कारणों से साहित्य में हुआं-हुआं खूब चलता है और उसके बीच सत्य सुनाई नहीं देता। अकसर साहित्य में हुआं-हुआं सियार नहीं, खुद शेर करते हैं। खासकर जब वे बूढ़े हो चुके हों और नए सत्यों को या अपने से अलग सत्यों को देखने की क्षमता खो बैठे हों। तुम लेखक हो, तो इस भीड़ में शामिल होने से इनकार कर दोगे। तुम समय की एक ही आवाज नहीं सुनोगे। सभी आवाजें सुनने की कोशिश करोगे। वे आवाजें भी, जो किसी और को सुनाई नहीं पड़ रही हों। और फिर, तुम भी तो अपने समय का हिस्सा हो। तुम्हारी अपनी भी कोई आवाज हो सकती है। उसे तुम नहीं सुनोगे, तो और कौन सुनेगा?

माना जाता है कि साहित्य में लोकतंत्र सबसे ज्यादा होता है। होता है। लेकिन यहां भी राजनीतिक लोकतंत्र की तरह बहुमत के राज की समस्या खड़ी हो सकती है। जो बहुमत कह रहा हो, वही सत्य है, यह मान लिया जाए तो साहित्य में अल्पसंख्यक का क्या होगा? साहित्य किसी भी समाज में स्वयं अल्पसंख्यक होता है। उसकी दुनिया में भी बहुमतवाद? यह तो अपने स्वभाव के साथ ही जुल्म है। साहित्य के आंतरिक लोकतंत्र का तकाजा यह है कि यहां संप्रदाय न बनें। दोस्तियां और दुश्मनियां न निभाई जाएं। लेखकों को भेड़ की तरह हांका न जाए। आंदोलन चलें। अभियान चलाए जाएं। लेकिन लेखक के एकांत पर हमला न किया जाए। वहां अगर एक छोटी-सी कंदील झिलमिला रही है, तो उसकी रोशनी पर भी भरोसा किया जाए -- हो सकता है, उसका सच दोपहर के सूरज के सच से बड़ा हो।

नाशुक्रे नायपॉल

क्योंकि सर विदिया हैं ही ऐसे
राजकिशोर
सर विदिया नायपॉल के बारे में जब यह खबर पढ़ी कि उन्होंने अपनी पहली पत्नी के साथ बेहद क्रूर व्यवहार किया था, अपनी महिला मित्र से पच्चीस साल तक संबंध रखने के बाद उसे अचानक त्याग दिया था और वे लगातार वेश्यागमन करते रहे, तो मैं यह नहीं कहूंगा कि मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। सच तो यह है कि मुझे तुरंत विश्वास हो गया, क्योंकि मुझे लगता है कि अब मैं लेखकों के मन को थोड़ा पहचानने लगा हूं। मुझे तो यह भी लगता है कि हो सकता है कि नायपॉल ने अपने प्रेम या यौन जीवन के बारे में अभी भी सब कुछ न बताया हो। उनकी अधिकृत जीवनी में उतना ही आ सकता था जितना नायपॉल चाहते थे कि आए। आखिर यह उनकी अधिकृत जीवनी है। लेखक ने यह जीवनी लिखने के लिए बहुत शोध किया है, लेकिन अगर शोध के कुछ नतीजे ऐसे थे जो सर विदिया का नुकसान कर सकते थे, तो उन्हें शामिल करने की अनुमति कैसे मिल सकती थी? किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के पहले उसका पूरा मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

सर विदिया नायपॉल अंग्रेजी के शीर्षस्थ गद्यकारों में एक माने जाते हैं। यह शिकायत आम है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने में देर हुई। बहुत दिनों से वे साहित्य लिखना बंद कर चुके हैं। अब वे यात्रा वृत्तांत लिखते हैं और चाहते हैं कि इन्हंो भी महत्वपूर्ण माना जाए। यह मेरा दुर्भाग्य है कि उनका लेखन मुझे कभी पसंद नहीं आया। भारत के बारे में उनके दोनों वृत्तांत वाहियात है। इन वृत्तांतों में उन्होंने भारतीयों को आघात देने के लिए कुछ सतही बातें खोजी और कही हैं। मैं नहीं समझता कि उनके जैसा कोई और विजन-विहीन लेखक है जिसे नोबेल पुरस्कार मिला हो। जिस तरह चमत्कार दिखाने भर से कोई व्यक्ति संत नहीं हो जाता, उसी तरह चौंकानेवाले तथा स्मार्ट वाक्य लिख या बोल कर कोई महान लेखक नहीं हो जाता। पिछली बार जब सर विदिया भारत आए थे, तो उन्होंने भारत की श्रेष्ठ लेखिका नयनतारा सहगल के साथ दुर्व्यवहार कर यह साबित कर दिया था कि उनकी आचरण संहिता में असभ्यता के अनेक तत्व हैं।

इसलिए यह अपेक्षित ही था कि उनका निजी जीवन भी कुछ ऐसा नहीं होगा जिसे आदर्श के रूप में अपनाया जा सके। इस जीवनी से एक और बात सामने आई है, जिसकी चर्चा नहीं हो पाई है। नॉयपॉल को अपने मित्रों को खोते जाने की खब्त है। किसी से भी उनकी दोस्ती ज्यादा दिन नहीं टिकती। यही कारण है कि जब उनकी पत्नी पेट्रीशिया का अंतिम संस्कार हुआ, तो मित्रों और परिचितों की उपस्थिति बहुत क्षीण थी। कल्पना की जा सकती है कि इसके पीछे नॉयपॉल के स्वभाव की कौन-सी विशेषताएं यानी रुग्णताएं रही होंगी। क्या यही रुग्णताएं उनके प्रेम जीवन में भी मौजूद रही हैं? नॉयपॉल की प्रेमिका, जिसे अंग्रेजी में पता नहीं क्यों रखैल (मिस्ट्रेस) बताया जाता है, मार्गरेट यद्यपि नॉयपॉल के साथ बिताए गए दिनों को बड़े लाड़ से याद करती हैं, लेकिन उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि सर विदिया के लिए औरतों के दो ही इस्तेमाल हैं -- एक, उनके यौन खालीपन को भरना और दो, उनके लिए तरह-तरह के काम करना। स्त्री को पूर्ण मनुष्य मानने और उसके साथ दोस्ताना व्यवहार करना उनके लिए संभव नहीं था। लेकिन पुरुषों के साथ भी उनका व्यवहार क्या ऐसा ही नहीं था? जब आप मान लेते हैं कि आप साध्य हैं तथा अन्य सभी लोग सिर्फ साधन, तो आपकी जीवन कथा कुछ ऐसी ही होगी।

जो लोग नायपॉल को बड़ा लेखक मानते हैं, उन्हें इन नई सूचनाओं ने स्तब्ध कर दिया है। उनकी नजर में नायपॉल अब एक बाजारू आदमी हैं। लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। हम ऐसे सैकड़ों लेखकों को -- और कुछ लेखिकाओं को भी -- जानते हैं, जिन्होंने उच्च कोटि का साहित्य लिखा है, लेकिन जीवन ऐसा जिया जिसे हरामीपन से भरा हुआ कहा जा सकता है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है। इस पर गहन मनोवैज्ञानिक शोध की जरूरत है, ताकि मानव मन की गतियों को कुछ और अच्छी तरह समझा जा सके। लेखक ही नहीं, अधिकांश जीनियस ऐसे ही पाए जाते हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े संत और दार्शनिक भी। शायद वे अपने आपको इतना विशिष्ट मान बैठते हैं कि उनके निकट दूसरे व्यक्तियों की कोई अहमियत नहीं रह जाती। अगर नैतिकता-निरपेक्ष हो जाना ही जीनियस होने का लक्षण है, तो मेरी तरह आप भी मानेंगे कि दुनिया में जीनियस न ही पैदा हों, यही बेहतर है। लेकिन नहीं, सभी जीनियस ऐसे नहीं होते। उदाहरण के लिए, गांधी किसी से छोटे जीनियस नहीं थे। लेकिन उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ अपने निजी जीवन को भी पित्र बनाने की पूरी कोशिश की। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ भी ऐसे ही थे। वे जितनी स्त्रियों की ओर आकर्षित हुए, उससे अधिक स्त्रियां उनकी ओर आकर्षित हुईं। लेकिन ऐसा कोई किस्सा नहीं मिलता जिससे यह माना जा सके कि उन्होंने किसी को अपना शिकार बनाया या किसी के साथ विश्वासघात किया। ये वे महापुरुष हैं जिनके विचार, लेखन और आचरण में संगति मिलती है। कहा जा सकता है कि इस तरह के लेखकों, विचारकों और समाज सेवियों का अवदान ज्यादा गहरा और निर्माणकारी है। व्यक्तित्व की अन्विति के बिना कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। यह नहीं हो सकता कि आप रातें तो लाल इलाकों में बिताएं और दिन में क्रांति की तैयारी करें। एक दूसरा पहलू उन लेखकों या संतों का है जो फिसल गए। फिसलन एक मानवीय व्यापार है। फिसल कोई भी सकता है। यह भी संभव है कि किसी लेखक ने अपने साहित्य में उच्चतम कसौटियों का निर्माण किया, पर वह स्वयं उन कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका। तॉल्सतॉय ऐसे ही एक जीनियस लेखक थे। वे दिन भर ब्रह्मचर्य की शपथ लेते थे और रात उतरते ही उन पर वासना सवार हो जाती थी। ऐसे सभी मनीषियों ने, जिनमें गांधी भी शामिल हैं, बाद में अपनी विच्युतियों पर गहरा अनुताप प्रगट किया है। लेकिन नायपॉल जैसे लेखकों को अपने इस तरह के अतीत पर गरूर होता है। वे सोचते हैं कि उन्होंने जो कुछ किया, वह उनका अधिकार था। ऐसी घटनाओं का सबसे बुरा नतीजा यह होता है, जैसा कि सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' में बाबा खड्ग सिंह को कहते हैं, लोग प्रतिभाओं के चरित्र पर भरोसा करना ही छोड़ देते हैं। पंडिता रमाबाई ने स्त्रियों को सलाह दी थी कि उन्हें बाबाओं और धर्मगुरुओं के पास नहीं जाना चाहिए और एकांत में तो उनसे मिलना ही नहीं चाहिए। आज भी यह सलाह बेखटके दी जा सकती है, क्योंकि दुनिया नामक इस जंगल में कौन-सा पशु किस पशु की खाल ओढ़ कर घूम रहा है, यह जानना बहुत कठिन है। नायपॉल से संबंधित उद्घाटनों ने इस सचाई की पुष्टि ही की है।

Friday, March 28, 2008

खिलाड़ियों की नीलामी

गुलामी का नया दौर
राजकिशोर

हमारी पीढ़ी ने वह दौर नहीं देखा है जब गुलामों की सार्वजनिक नीलामी हुआ करती थी। यह उसका दुर्भाग्य नहीं, सौभाग्य है। मानव जाति के इतिहास में जो सबसे बर्बर और घृणित प्रथा रही है, वह यही थी -- लाखों स्त्री-पुरुषों को गुलाम बना कर रखना। जरा उस दृश्य की कल्पना कीजिए जब किसी गुलाम को नीलाम किया जाता था। यह जगह बगदाद, मिस्र, पाटलीपुत्र, उज्जैन, लाहौर, पेशावर, लंदन, पेरिस कोई भी हो सकती थी। सीन कुछ यों होता था। दस-पंद्रह पुरुष और स्त्रियां एक छोटे- से दायरें में एक-दूसरे से बंधे खड़े हैं। हरएक के पैरों में लोहे की भारी जंजीरें हैं। हाथ भी जंजीरों से बंधे हुए हैं। उनका वर्तमान मालिक एक नौजवान गुलाम को पकड़ कर जनता के सामने ले आता है और शुरू हो जाता है -- साहबान, यह मेरा सबसे अजीज गुलाम है। मजबूत, ईमानदार और वफादार। बेहद मेहनती। यह सारे काम कर सकता है। दिन भर में सिर्फ चार घंटे सोता है। जरा इसकी बांहों पर नजर दौड़ाइए, फौलाद की बनीं है। चाहें तो हाथी को एक हाथ से उठा लें। इसके पैरों में गजब की फुर्ती है। यह घोड़े की रफ्तार से भी तेज दौड़ सकता है। हां, तो साहबान, बोली लगाइए। देखें, वह कौन खुशकिस्मत है जो इसे खरीद कर अपने घर ले जाता है। उसकी जिंदगी जन्नत में बदल जाएगी। हां, तो साहबान, पहली बोली दस दीनार की लगी है। यह क्या बात हुई? जनाब, आप मुर्गा या बकरा नहीं खरीद रहे हैं। जिन्न की तरह सारे काम पलकों में करके रख देनेवाला एक ठोस, मजबूत आदमी खरीद रख रहे हैं। इसकी तौहीन मत कीजिए। लोहे के भाव सोना नहीं मिलता। ...

उस गुलाम का नया मालिक तय हो जाने के बाद गुलामों का सौदागर सर झुकाए एक गुलाम युवती को पेश करता है और फिर शुरू हो जाता है -- अब मैं आपकी खिदमत में आज का सबसे हसीन तोहफा पेश करता हूं। इसे ईरान से पकड़ कर लाया गया है। इसकी कमसिन उम्र और दुबले-पतले शरीर पर मत जाइए। इसके भीतर गजब की ताकत भरी हुई है। बिना थके चौबीसों घंटे घर-बाहर के सारे काम कर सकती है। खाना इतना लजीज बनाती है कि आप उंगलियां चाटते रह जाएंगे। इसमें बला की शोखी है। इतने अदब से पेश आती है कि आप तवायफों की अदाएं भूल जाएंगे। क्वांरी भी है। बिस्तर पर आग उगलती है। तो साहबान, बोली लगाइए। शान से बोली लगाइए। मैं पहले से बता देता हूं... इसे सौ दीनार से कम पर नहीं दे सकता। समझिए, आप हीरा खरीद रहे हैं, हीरा ...

यह मत समझिए कि यह सारी दृश्य कल्पना से बुना हुआ है। सौ-दो साल पहले तक दुनिया के किसी भी बड़े शहर में यह आम बात थी। परिवार के कब्जे में दस-बीस गुलामों का होना सभ्य जीवन की अनिवार्य शर्त माना जाता था। सत्तरहवीं शताब्दी के थॉमस मोर की एक प्रसिद्ध किताब है -- यूटोपिया। इसमें एक आदर्श समाज का चित्र खींचा गया है। लेकिन यह आदर्श समाज कैसा है? थॉमस मूर बताते हैं कि इस आदर्श समाज में भारी शारीरिक मेहनतवाले सभी काम गुलाम ही करेंगे। जिस संयुक्त राज्य अमेरिका को स्वतंत्रता की भूमि माना जाता है, वहां 1863 तक -- आज से सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले -- गुलाम रखने की व्यवस्था को जायज और कानून-संगत माना जाता था। उस साल अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहन लिंकन ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए अपने देश के दक्षिणी राज्यों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। उत्तरी अमेरिका गुलामी की प्रथा को खत्म कर चुका था, पर दक्षिणी राज्य इसके लिए तैयार नहीं थे। अमेरिका के इस गृह युद्ध में गुलामी को बनाए रखनेवाले इलाकों की सैनिक पराजय हुई और अमेरिका के माथे से गुलामी प्रथा का कलंक मिटा।

इसी अमेरिकी संस्कृति की छाया में पल रहे आधुनिक वर्ग की क्या स्थिति हैं? यह हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम यह अश्लील दृश्य देखने के लिए बचे हुए हैं। मुंबई के एक सुसज्जित होटल में देश के सबसे शानदार क्रिकेट खिलाड़ियों की बोली लग रही है -- यह रहा धोनी -- क्रिकेट का आला खिलाड़ी। तो साहबान बोली लगाइए। इसकी रिजर्व प्राइस है अस्सी लाख भारतीय मुद्रा। एक व्यापारी बोली लगाता है -- एक करोड़। दूसरा कंधे उचका कर कहता है -- दो करोड़। कीमत चढ़ती जाती है -- ढाई करोड़... तीन करोड़.. चार करोड़... पांच करोड़। सवा पांच करोड़। साढ़े पांच करोड़। अंत में छह करोड़ पर नीलामी बंद होती है। छह करोड़ एक, छह करोड़ दो ... छह करोड़ तीन। लीजिए चेन्नई टीम, क्रिकेट की दुनिया का यह बेताज बादशाह आपका हुआ। अब आप इससे जी भर कर क्रिकेट खेलाइए। यह उफ तक नहीं करेगा। इसका खेल बेच कर आप जी भर कर कमाइए। अब ईशांत शर्मा की नीलामी शुरू होती है। यह इंडियन क्रिकेट के भविष्य का सबसे चमकता हुआ शिकारा है। आपको मालामाल कर देगा। इसकी प्राइस शुरू होती है साठ लाख भारतीय मुद्रा से। बोली तीन करोड़ बयासी लाख पर टूटती है। ईशान्त कोलकाता टीम का हुआ। ... जी हां, अब इरफान पठान का नंबर है। यह भी एक होनहार खिलाड़ी है... किसी से कमतर नहीं है। इरफान को तीन करोड़ इकहत्तर लाख भारतीय रुपए में नीलाम कर दिया जाता है।


अठारहवीं शताब्दी और इक्कीसवीं शताब्दी की नीलामियों के बीच बेहद फर्क है। वे गुलाम सचमुच के गुलाम होते थे। उन्हें कम से कम खुराक दी जाती थी और उनसे गधे की तरह काम लिया जाता था। गुलामी का बोझ सहते-सहते बहुत-से तो जवानी में ही मर जाते थे। आज के गुलाम शानदार जिंदगी जीते हैं। साल में करोड़ों रुपया कमाते हैं। हर महीने फॉरेन जाते हैं। लजीज खाना खाते हैं, उम्दा कपड़े पहनते हैं और राजमहल जैसे घरों में रहते हैं। इनकी अपनी प्राइवेट जिंदगी है। लेकिन खिलाड़ी के रूप में ये अपनी जिंदगी जीनेे के लिए आजाद नहीं हैं। जो इन्हें नीलामी में जीत कर ले गया है, वह इनसे अपनी इच्छा अनुसार खिलवाएगा। एक फर्क यह भी है कि वे गुलाम अपनी मर्जी से न तो गुलाम होते थे और न अपनी मर्जी से खरीदे या बेचे जाते थे। ये गुलाम अपनी मर्जी से नीलामी के मैदान में आ खड़े हुए हैं। स्वेच्छया गुलाम हुए हैं। वे गुलाम चौबीसों घंटे के गुलाम होते थे। इनकी गुलामी सिर्फ क्रिकेट खेलने तक है। बाकी वक्त इनका अपना है। फर्क हैं, तमाम तरह के फर्क हैं। मध्य युग और आधुनिक युग के फर्क हैं। लेकिन गुलामी तो गुलामी ही है। उसकी मूलभूत शर्तों में कोई फर्क नहीं आया है। गुलामी की अवधारणा वही है, सिर्फ ब्योरे बदल गए हैं।


बहुत पहले, किशोरावस्था में, एक फिल्म देखी थी -- कोई गुलाम नहीं। आज की फिल्म शायद इस नाम से बनेगी -- हम सब गुलाम हैं। जो लोग समझते हैं कि सिर्फ क्रिकेटर या अभिनेता-अभिनेत्रियां गुलाम हो रहे हैं, उनसे निवेदन है कि इस तस्वीर पर गौर फरमाएं। एक नौजवान डॉक्टर पचीस हजार रुपए महीने पर एम्स में लगता है। दो साल बाद मैक्स अस्पताल उसे तीस हजार रुपए पर अपने यहां ले जाता है। तीन साल बाद उसे अपोलोवाले पचास हजार रुपए महीने पर खींच ले जाते हैं। वहां दो साल गुजारने के बाद उसे इंग्लैंड या अमेरिका का कोई अस्पताल दो लाख रुपए भारतीय मुद्रा पर बुला लेता है। क्रिकेट खेलने की तरह हर जगह उसे रोगी ही देखना है। लेकिन जैसे-जैसे वह बेहतर डॉक्टर होता जाता है यानी अपनी दुनिया का धोनी, ईशांत शर्मा और इरफान पठान होता जाता है, उसकी कीमत बढ़ती जाती है। इन खिलाड़ियों की नीलामी दिख गई, औद्योगिक सभ्यता के दूसरे खिलाड़ियों की नीलामी नहीं दिखती। पर उनकी नीलामी भी सतत चलती रहती है। बस हमें दिखाई नहीं देती।


किशोरावस्था में ही एक छोटे-से मुशायरे में मैंने एक शायर को, जो शायद ट्रेड यूनियन नेता भी थे, यह शेर पढ़ते सुना था -- वह दौरे-गुलामी था, इसके हम दौरे-गुलामां कहते हैं।000

Wednesday, March 26, 2008

सभ्यता और साहित्य

शहर में किताब की जगह
राजकिशोर


क्या आपने कोई सभ्य शहर देखा है? मैंने तो नहीं देखा। न ऐसे किसी शहर के बारे में मैंने सुना है। मैं समझता हूं कि किसी भी युक्तिसंगत परिभाषा में सभ्य शहर उसे ही कहा जाएगा जहां किताबों का, कला का, साहित्य का पूरे शहर में सम्मान हो। लोग खाली वक्त में सिर्फ खान-पान की या कपड़ों की या फिल्म स्टारों की बात न किया करें। उनकी बातचीत का कुछ संबंध किताबों की संस्कृति से भी हो। किताबी कीड़ा बन जाना कोई अच्छी बात नहीं है, लेकिन ऐसा कीड़ा बनने पर भी गर्व नहीं होना चाहिए जिसके जीवन में किताबों ने कोई अहम भूमिका न निभाई हो। ऐसा लगता है कि तथाकथित सभ्यता का जैसे-जैसे विकास हो रहा है, लोगों के जीवन में किताब के लिए जगह कम से कमतर होती जा रही है।
बेशक, कुछ देशों में आज भी किताबों की खपत काफी है। लेकिन इनका एक बड़ा हिस्सा मनोरंजन प्रदान करनेवाली या सफलता के नुस्खे बतानेवाली किताबों का है। ऐसी किताबों की भी बड़े पैमाने पर जरूरत है। हर समय गंभीर रहना गधे को ही शोभा देता है। जीवन में थोड़ा चुलबुलापन, थोड़ी किस्सागोई, थोड़ा रहस्य-रोमांच भी होना चाहिए। उपदेशों की भी जरूरत है। लेकिन यह किताब नहीं, किताब का हाशिया है। यह हाशिया बड़ा होता रहे, इस पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। डर बस यही है कि कहीं यह मुख्य स्थान की जगह न ले ले। यह कुछ ऐसी ही घटना होगी जैसे कोई सब कुछ छोड़ कर दिन भर समोसा-जलेबी ही खाता रहे। यह तो समोसा-जलेबी का भी दुरुपयोग है। गुलाब रंग, खुशबू और बनावट के लिए होता है न कि सब्जी बनाने के लिए। आज मुझे लगता है कि गुलाबों का इस्तेमाल सब्जी बनाने के लिए हो रहा है। इसी को सौंदर्याभिरुचि कहा जा रहा है।
कहा जा सकता है कि बीते जमाने में भी लोगों के जीवन में किताबों की कौन-सी बहुतायत थी! एकदम सही बात है। इसीलिए उस जमाने को कोई सभ्य जमाना नहीं मानता। उस समय सभ्यता का विकास हो रहा था। विकास की इस प्रक्रिया में आगे जाने और पीछे ठेलने की रस्साकशी कायम थी। कुछ लोग ज्ञान और कला को विमुक्त करना चाहते थे, तो दूसरे उनके प्रसार को रोकना चाहते थे। लेकिन मनुष्य के मूल संवेग किसी के रोके नहीं रुकते। जमींदार के डर से लोगों का सपना देखना बंद नहीं हो जाता। यही कारण है कि जिसे प्रॉपर साहित्य कहते हैं, उसे जनता के बीच जाने से रोक दिया गया, तो जनता ने लोक कथाओं, लोक गीतों, लोकोक्तियों आदि के माध्यम से अपनी रचनात्मक आकुलता को तृप्त करना शुरू कर दिया। इस तरह उच्च साहित्य और निम्न साहित्य, ये दो कोटियां बन गईं। मजे की बात यह है कि उच्च साहित्य में कई निम्नताएं थीं और निम्न साहित्य में कई ऊंचाइयां थीं। शुरू में सभ्यता के कला और साहित्य आयाम में इस तरह की ऊंचाइयां और नीचाइयां नहीं थीं। ले-दे कर जीवन समतल था। बाद में, निजी पूंजी के संचय से सांस्कृतिक स्तर में भी फर्क आ गया। भाषा कुछ लोगों की गुलाम हो कर रह गई। बड़े चित्रकारों का काम राजमहलों या व्यापारियों के घर में ही देखा जा सकता था। राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के असमान वितरण ने संस्कृति के क्षेत्र में भी असाधारण विषमताएं पैदा कर दीं। इसी से जनता का अपना साहित्य पैदा हुआ। यह साहित्य अभी भी गांवों और कस्बों में न केवल कायम है, बल्कि विकसित भी होता जा रहा है। शहरीकरण इसका सबसे बड़ा शत्रु है।

जीवन की खूबी ही यह है कि इसकी सभी धाराएं अंतत: एक-दूसरे को प्रभावित करती है, जैसे सारी नदियां या तो आपस में विलीन हो जाती है या समुद्र में जा कर पर्यवसित हो जाती हैं। सभ्यता के इतिहास में यह घटित हुआ लोकतंत्र से, टेक्नोलॉजी के विस्तार से और आम जनता में खुशहाली आने से। ग्लोब का एक बड़ा हिस्सा -- अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका -- अभी भी इन तीन नियामतों से वंचित है। लेकिन एक बड़े हिस्से में क्रांति भी आ गई है। इन क्रांतिकारी देशों को ही आधुनिक कहा जाता है। आधुनिक जीवन की एक विडंबना यह है कि उसमें आर्थिक सुविधाओ के विस्तार और व्यक्तिगत जीवन की स्वच्छंदता के लिए जितना स्कोप पैदा किया, उतना साहित्य और कला के लिए नहीं किया। पहले की कोई भी संस्कृति इतनी एकायामी नहीं थी।
आधुनिक संस्कृति में दो ध्रुव बन गए हैं। एक ध्रुव गंभीर और संवेदनशील साहित्य का है। इस ध्रुव पर बहुत कम लोग रहते हैं। दूसरा ध्रुव है मास मीडिया का, जिसमें टीवी, सीडी और डीवीडी प्लेयर, सिनेमा, वीडियो फिल्में, नाच-गाना आदि आते हैं। इसमें भी कहीं-कहीं गुण दिखाई देता है, पर यह मुख्यत: एक सतही और छिछोरी दुनिया है। दुर्भाग्य यह है कि पहले जो काम लोक साहित्य और लोक कलाएं किया करती थीं, वही काम अब मास मीडिया कर रहा है। लोक साहित्य जितना सादा और असली था, यह छिछोरी दुनिया उतनी ही कृत्रिम और सतही है, क्योंकि इसमें पूंजी का बड़े पैमाने पर प्रवेश हुआ है। जीवन के पवित्र पक्ष भी शेयर बाजार की मारामारी से भर गए हैं।
सभ्यता का एक केंद्रीय सवाल यह है कि यह छिछोरी संस्कृति कब खत्म होगी। इसके खत्म होने के बाद ही वास्तविक संस्कृति का प्रसार हो सकता है। या, वास्तविक संस्कृति के प्रसार से मास मीडिया की यह धुंध कट सकती है। यह कैसे होगा? इसे कौन संभव करेगा? दस गुणीजन जहां इकठ्ठा हों, वहां इस सवाल पर विचार होना चाहिए। जब चारों ओर सूखा पड़ा हो, तब अपने छोटे-से तालाब में नहा कर तृप्त होने की कोई खास मजा या सार्थकता नहीं है। बेशक सतहीपन में इतना दम कभी नहीं आ सकता कि वह गंभीरता को नष्ट ही कर डाले। कवि के शब्दों में, सब कुछ होना बचा रहेगा। लेकिन कितना और किस हद तक? इस बारे में कोई खास सचेतनता नहीं है तथा प्रयास तो और भी कम है, इसीलिए दिल्ली में इतना बड़ा पुस्तक मेला चल रहा है और राजधानी के नब्बे प्रतिशत नागरिकों में इसे ले कर कोई उत्सुकता नहीं है। क्या इसके बावजूद हमें अपने शहर को सभ्य शहर मानना होगा?

अंधेरे में नियुक्तियां

गुप्त नियुक्तियों का मतलब
राजकिशोर

हाल ही में कई युवकों और युवतियों ने मुझसे संपर्क किया। वे चाहते थे कि मैं किसी टीवी चैनल में उनके लिए सिफारिश कर दूं। वे सभी अच्छे और होनहार लगे। कायदे से उनकी नियुक्ति बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी। लेकिन यह न हो सका तो इसीलिए कि दुनिया भर को उपदेश देवाले टीवी चैनलों में, जो रक्तबीज की तरह पैदा हो रहे हैं. नियुक्ति की कोई विवेकसंगत या पारदर्शी प्रणाली नहीं है। सभी जगह सोर्स चल रहा है सरकारी क्षेत्र में हवलदार, चपरासी या सफाई कर्मचारी जैसे साधारण पदों पर नियुक्ति के लिए भी कई महीनों तक चलनेवाली परीक्षण प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इन पदों पर काम कर रहे व्यक्तियों को पांच-सात हजार रुपयों से ज्यादा माासिक वेतन क्या मिलता होगा। लेकिन मीडिया जगत में दस हजार से पचास हजार रुपए महीने तक की नियुक्तियां इतनी गोपनीयता के साथ की जाती हैं कि उनके बारे में तभी पता चलता है जब वे हो चुकी होती हैं। किसी भी पद के लिए और स्थानों की संख्या चाहे जितनी हो, कोई पारदर्शी या समझ में आनेवाली प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती। यह बात सिर्फ मीडिया पर ही नहीं, प्राय: सभी गैर-सरकारी संस्थानों पर लागू होती है।
संपादक या किसी कंपनी के प्रमुख की नियुक्ति के मामले में गोपनीय चयन का तर्क कुछ हद तक समझ में आता है। प्रमुख होने के लिए रुटीन योग्यताओं की नहीं, कुछ विलक्षण गुणों की जरूरत होती है। सेना में कोई भी औसत आदमी भर्ती हो सकता है, लेकिन हर किसी को सेनापति नहीं बनाया जा सकता। इस पद के योग्य व्यक्ति को तो दीया ले कर खोजना पड़ता है। यहां प्रश्न यह है कि सैनिकों, सेना के रसोइयों और पहरेदारों की नियुक्ति भी क्या इसी तरह होगी? सेनापति कोई एक होता है, सेना में तो हजारों और लाखों व्यक्ति शामिल होते हैं। इन नियुक्तियों के लिए कोई परीक्षा नहीं होगी, तो ऐसे ही लोग नियुक्त होंगे जो सेनापति या जूनियर अफसरों से कोई परिचय निकाल लें। सामंती युग में ऐसा ही होता था। पर आधुनिक सेना में भर्ती का कुछ सुनिश्चित आधार तथा तौर-तरीका होता है। सभी को एक निर्दिष्ट प्रक्रिया से गुजरना होता है। यह कमाल लोकतंत्र और कानून के राज का है। अगर किसी की नियुक्ति जांच-प्रक्रिया से गुजरे बगैर या उनमें अधूरी सफलता पाने के बावजूद हो जाए, तो संसद में तहलका मच सकता है और मामले को न्यायालय तक भी ले जाया जा सकता है। इसके विपरीत, निजी क्षेत्र में किसी भी स्तर पर कोई भी नियुक्तियां होती रहें, न कोई भूंकता है न काटता है। कौन-सी व्यवस्था है जो बिना वाचडॉग के चल सकती है?
सरकारी और गैरसरकारी नियुक्तियों के मामले में यह जमीन-आसमान का फर्क क्यों है? क्या सरकारी प्रतिष्ठानों को चलाने के लिए एक तरह के गुणों की जरूरत होती है और गैरसरकारी प्रतिष्ठानों को चलाने के लिए दूसरी तरह के गुणों की ? सरकारी मशीन चलानेवाले और वही मशीन निजी क्षेत्र में चलानेवाले के बीच क्या योग्यता की खाई होती है, जिसे भरा नहीं जा सकता है? फिर उनकी नियुक्ति, वेतन, सेवा शर्तों आदि में इतनी विभिन्नता क्यों? 'समान काम के लिए समान वेतन' -- इस सिद्धांत को देश की सबसे बड़ी आदालत द्वारा मान्यता दी जा चुकी है। यही संविधान-सम्मत भी है। यही नैतिक भी है। सरकारी बस और निजी मालिकाने की बस, दोनों में ही चलनेवाले यात्रियों से एक निश्चित दूरी के लिए एक समान किराया वसूल किया जाता है। लेकिन इन्हीं बसों या रेलगाड़ियों को चलानेवाले ड्राइवरों की नियुक्ति और सेवा शर्तों में इतना फर्क क्यों? क्या यह निजी क्षेत्र की दादागीरी नहीं है?
सामंतवाद और पूंजीवाद में यह प्रमुख फर्क बताया जाता है कि पूंजीवाद अधिक कार्य कुशल है। वह संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करता है। अर्थात पूंजीवाद में गुणतंत्र के अनेक तत्व हैं। लेकिन व्यवहार में ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। पिता की संपत्ति पुत्र को मिलेगी, यह एक स्वाभाविक नियम माना जाता है। पूंजीवाद में यह नियम सामंतवाद से आया है। संसाधनों के कुशल उपयोग की दृष्टि से यह नियम कारगर प्रतीत नहीं होता। पिता अच्छा व्यापारी था, तो इसका मतलब यह नहीं है कि बेटा भी उतना ही कुशल व्यापारी होगा। संभावना यह भी है कि वह पूरे व्यापार को ही नष्ट कर दे। पहले भी अच्छे राजाओं के अयोग्य पुत्र राज्य की बरबादी का कारण बन जाते थे। अगर पूंजीवाद भी, जो ज्यादा बुद्धिसंगत होने का दावा करता है, अपने को इसी नियम का शिकार बनाए रखता है, तो मानना पड़ेगा कि वह बहुत-से मामलों में बुद्धिहीन, पिछड़ा हुआ और सामंती है। इस बात को हमारे पूर्वजों ने अच्छी तरह समझ रखा था। एक बहुत प्रचलित कहावत है कि पूत कपूत तो क्या धन संचय, पूत सपूत तो क्या धन संचय अर्थात पुत्र अयोग्य है, तो उसके लिए धन का संचय क्यों करे? वह तो इसे बरबाद करके छोड़ेगा। दूसरी ओर, अगर पुत्र योग्य है, तो उसके लिए क्या धन जमा करना? वह अपनी व्यवस्था खुद कर लेगा। लेकिन उत्तराधिकार के नियम इस तार्किक व्यवस्था के कायल नहीं हैं।
अब हम नियुक्तियों में कार्य कुशलता की दृष्टि से अतार्किकता की बात करें। पूंजीवाद को कुशलतम कर्मचारियों की जरूरत होती है। उसके लिए प्रत्येक कर्मचारी की कार्य कुशलता महत्वपूर्ण है। अयोग्य कर्मचारी मुनाफे की मात्रा को कम ही करेगा, बढ़ा नहीं सकता। उसकी नियुक्ति से समाज में यह धारणा बनेगी कि नौकरी पाने के लिए गुणों की नहीं, परिचय और पैरवी की जरूरत है। इससे समाज में गुणवत्ता के प्रति आग्रह कम होता जाएगा। लोग नौकरी पाने के लिए अपनी योग्यता नहीं बढ़ाएंगे, बल्कि सोर्स की खोज करेंगे। पत्रकारिता की एक कक्षा में कई विद्यार्थियों ने कहा कि वे सोर्स भिड़ा रहे हैं, ताकि संस्थान से पास हो कर निकलने के बाद उन्हें मीडिया में ठीकठाक नौकरी मिल सके। वे अयोग्य नहीं थे। उन्हें खूब पता था कि संस्थान का छात्र बनने में उन्हें भले ही कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा हो, पर मीडिया में नियुक्ति पत्र पाने में संस्थान की अंतिम परीक्षा में उनके बेहतर अंक कुछ भी मदद नहीं कर पाएंगे। एक तगड़ा सोर्स सभी प्रमाणपत्रों पर भारी पड़ेगा।
सवाल है कि ऐसे समाज में योग्यता का मूल्य क्या है? संसार चक्र में प्रवेश करने के पहले ही अगर सोर्स की महिमा समझ ली जाती है, तो कोई नियोक्ता यह दावा कैसे कर सकता है कि बाजार में उपलब्ध सबसे अच्छे लोग उसके पास हैं?

Sunday, March 23, 2008

तारे जमीन पर

सभ्यता के विरुद्ध एक फिल्म

राजकिशोर

ऐसे परिपक्व और समझदार लोगों की कमी नहीं है जो किसी भी बात पर नहीं रोते। लेकिन कहते हैं, जो भी तारे जमीन पर देखने गया, वह रोते हुए ही लौटा। यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी की आंखें भी गीली हो आईं। ये आंसू किसके लिए थे? मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि वे सिर्फ फिल्म के बाल नायक ईशान के साथ जो बदकिस्मती हुई, उसके लिए थे। फिल्म के अंत में एक सहृदय कला शिक्षक उसे समझने की कोशिश करता है और आखिरन से जीवन की ओर वापस लाने में सफल होता है, जिसके बाद सभी ईशान की प्रतिभा का लोहा मानने लगते हैं, यह तो फिल्म की थीम हुई। संवेदना की जीत और रूढ़िबद्ध मानसिकता की हार, यह भी एक ऐसे रोने की वस्तु है जिसमें हर्ष और विषाद, दोनों का सुंदर घोल होता है। फिर भी, मेरे खयाल से तारे जमीन पर की मुख्य सफलता इस बात में नहीं है। फिल्म की सबसे बड़ी सफलता शायद यह है कि यह हम सभी को अपने बचपन में वापस ले जाती है और यह याद कर हमारे आंसू छलक पड़ते हैं कि काश, हमें भी बचपन में निकोन जैसा कोई अध्यापक मिला होता। प्रिय पाठक, यह अद्वितीय फिल्म देखते हुए मैं तो इसीलिए रोया।

अगर कोई यह समझता है कि यह फिल्म उस मानसिक बीमारी के बारे में है जिसके कारण अनेक बच्चे भरपूर प्रतिभा होते हुए भी पढ़-लिख नहीं पाते और अपने माता-पिता, आध्यापकों, सहपाठियों और पड़ोसियों की नजर में मूर्ख और जिद्दी बने रहते हैं, तो वह गलत नहीं है, पर वह पूरी तरह सही भी नहीं है। फिल्म निर्देशक ने यह दिखा कर हमारी जानकारी बढ़ाई है कि लियानार्दो विंची और अलबर्ट आइंस्टाइन प्रतिभाशाली लोग भी बचपन में इस बीमारी से ग्रस्त थे। लेकिन मामला सिर्फ यह नहीं कि कुछ खास बच्चों का अनादर क्यों होता है। मामला यह है कि जहां तक किसी बच्चे को समझने का सवाल है, सभी बच्चों का अनादर क्यों होता है। हममें से हर एक याद कर सकता है कि जब वह बच्चा था, तब उसे समझने की कितनी कोशिश हुई और उसकी संवेदनाओं का कितना खयाल रखा गया। शायद किसी भी बच्चे को ठीक से नहीं समझा जाता। तारे जब तक आसमान पर रहते हैं, वे एक सुनहली ज्योति से जगमगाते रहते हैं। लेकिन जब वे जमीन पर उतरते हैं, तो यहां की धूल-गर्द उन्हें धूसर कर देती है। एक खिल रहे व्यक्तित्व को सभ्यता के कठोर बंधन में बांधने की तैयारी उसके शैशव से ही शुरू हो जाती है। सभ्यता का यह बंधन इतना कठोर होता है कि वह शिशु के प्राकृतिक अस्तित्व को पीस कर उसे एक फार्मूला मानव में तब्दील कर देती है, जिसके बाद वह स्वत:स्फूर्त और स्वत:प्रेरित व्यक्ति नहीं रह जाता, इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर, अफसर, शिक्षक, क्लर्क, सेल्समैन आदि बन जाता है। ऐसा नहीं है कि यह सब बनने में कोई हर्ज या बुराई है। सभ्यता को चलाना है, तो हमें सभी तरह की भूमिकाओं को सुंदर ढंग से निभानेवाले लोग चाहिए। फिल्म की मांग बस इतनी है कि मनुष्य बनने की कीमत पर जो कुछ भी बना जाता है, वह हमारे स्वाभाविक विकास को कुचलता है, हमें अपनी भावनाओं को गोपन में डाल देना सिखाता है और इस तरह समाज की मानवीय नींव को बरबाद कर देता है। फ्रायड ने इस विकट सभ्यता को जितनी अच्छी तरह समझाया है, किसी और ने नहीं। वे हमारी सभ्यता की बहुत-सी बीमारियों के सच्चे नब्जकार थे। यह और बात है कि उनका भी उपयोग सभ्यता की कुछ बीमारियों को बढ़ाने के लिए ही किया गया। वे समाधि से संभोग की ओर के प्रतीक बना दिये गए।

ध्यान देने की बात है कि इस फिल्म में सिर्फ एक बच्चे का बंद कर दिया गया भविष्य ही नहीं खुलता, बल्कि बहुत-से बालिग लोग भी सुबह होने पर सूरजमुखी की तरह खुलने लगते हैं। सबसे पहले तो वे तीन अध्यापक खुलते हैं जिनका पहले का व्यवहार जल्लाद की तरह था। कला मेले में वे अपने पर हंसना सीखते हैं और अपनी खोई हुई मनुष्यता को वापस पा लेते हैं। फिर ईशान को जिस बोर्डिंग स्कूल में दाखिल कराया गया, उसके प्रधानाध्यापक खुलते है जो पहले यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि नियम-कानून और अनुशासन से मुक्त हो कर भी कोई पढ़ाई हो सकती है। अंत में ईशान के बाप-मां खुलते हैं जिन्होंने मान लिया था कि उनके बच्चे का कोई भविष्य ही नहीं है। कहा जा सकता है कि जो चीज बच्चों को मुक्त करती है, वही बड़ों को भी मुक्त करती है। वस्तुत: बच्चों पर निषेध-प्रतिषेध का एक खास वातावरण लाद दिया जाता है, इसलिए बड़े हो कर वे भी आरोपण की भाषा में ही अपना जीवन व्यवहार चलाते हैं और अपने बच्चों से भी इसी भाषा में संवाद करते हैं। यह अधम सिलसिला कब से चला रहा है, मालूम नहीं। लेकिन अब तो यह हमारी सभ्यता का एक केंद्रीय मर्ज बन चुका है। निर्देशक ने महापुरुषों में से ऐसे उदाहरण दिए हैं जिन्हें वह बचपन में पढ़ने की वही तकलीफ थी जिससे ईशान परेशान था। लेकिन हम चाहें तो याद कर सकते हैं कि गांधी जी ने भी बचपन में स्पेलिंग की गलतियां की थीं और रवीन्द्रनाथ को भी स्कूली शिक्षा रास नहीं आई।

किसी भी सभ्यता की एक विशेषता यह होती है कि वह हमेशा अंतर्विरोधों से भरी हुई होती है। हम देख सकते हैं कि तारे जमीन पर जैसी खूबसूरत फिल्म इसी सभ्यता का पेट फाड़ते हुए निकली है। गांधी, रवींद्रनाथ, कार्ल मार्क्स, फ्रायड आदि महापुरुष इसी सभ्यता की देन हैं जिन्होंेने इसे सीधा कर पैर के बल खड़ा करने की कोशिश की। ऐसे ही एक महापुरुष हुए गिज्जू भाई, जिनकी शिक्षाओं पर गौर किए बिना कोई अच्छा अभिभावक बन सकता है अच्छा शिक्षक। लेकिन ये सभी हस्तियां सभ्यता के हाशिए पर खड़ी दिखाई देती हैं। आमिर खान की यह फिल्म भी ऐसी है। कुछ और समय तक इसकी सराहना होती रहेगी। फिर लोग इसे भूल जाएंगे और इश्क, अपराध तथा हास्य-विनोद की सुपरिचित दुनिया में रम जाएंगे। सभ्यताएं अपने घुनों को इसी तरह सक्रिय रखती है। तारे जमीन पर दुर्दशा हो, इसके पहले क्या यह मांग की जा सकती है कि सरकारी खर्च पर, सामाजिक संगठनों के माध्यमों से और लोगों की अपनी मांग पर यह फिल्म प्रत्येक स्कूल-कॉलेज और गांव-मुहल्ले में दिखाई जाए?