Sunday, August 26, 2007

हिन्दी की तसलीमाएं कहां हैं


हिन्दी की तसलीमाएं कहां हैं?
राजकिशोर


तसलीमा नसरीन पर हैदराबाद में मुस्लिम कट्टरपंथियों की ओर से जो हमला हुआ, उसके प्रतिवाद में हिन्दी के दिल्ली-निवासी तमाम मूर्धन्य लेखक एक हो गए, यह आनंद की बात है। तसलीमा कुछ खास मानव मूल्यों का प्रतीक बन चुकी हैं, इसलिए जरूरी है कि उनकी आवाज को दबाने के सभी प्रयत्नों को निष्फल किया जाए। वे अपनी अभिव्यक्तियों में अकेली हैं, यह एहसास तो उनके भीतर पैदा होने ही नहीं दिया जाना चाहिए। दुख की बात यह है कि तसलीमा नसरीन का महत्व समझते हुए भी हिन्दी जगत में यह प्रश्न बार-बार उठाए जाने पर भी नहीं उठ पा रहा है कि हमारी तसलीमाएं कहां हैं। मेरा खयाल है कि हिन्दी को एक नहीं, कई-कई तसलीमा नसरीनों की जरूरत है। कुछ पुरुष तसलीमा भी होने चाहिए।

ऐसा नहीं है कि हिन्दी में विद्रोही पुरुष या महिलाएं नहीं हैं। उर्दू, बांग्ला या किसी भी अन्य भारतीय भाषा से अधिक बारीकी और गहराई के साथ हिन्दी में स्त्रियों के बहुमुखी शोषण की विवेचना की गई है और की जा रही है। इस समझ के बनने में मार्क्सवाद का विशेष योगदान रहा है। लेकिन मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओं ने बिना किसी वाद का सहारा लिए सतर्क जीवनानुभव के आधार पर (जीवन किसी भी सिध्दांत से बड़ी पाठशाला है) शोषण, दमन और आत्मदमन के पहलुओं पर निर्भीक हो कर कलम चलाई है। यह जरूर है कि तसलीमा जिस धड़ल्ले से धर्म के वीभत्स रूपों और धर्म की आड़ में चलने वाले अधर्मों पर कलम चलाती हैं, वह हिन्दी में नहीं के बराबर हो रहा है। एक समय में प्रेमचंद, यशपाल और राहुल सांस्कत्यायन ने यह काम किया था। भगत सिंह का प्रसिध्द निबंध ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ आज तक चाव से पढ़ा जाता है। इस मूल समस्या पर ध्यान देने के बजाय हिन्दी के प्रसिध्द लेखक भी जाति की समस्याओं पर ज्यादा एकाग्र रहे हैं। निश्चय ही जाति की स्वतंत्र सत्ता बन चुकी है, पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि वह धर्म नामक वृक्ष की ही एक शाखा है। ब्राह्मणवाद पर लगातार हमला करना और धर्म की आलोचना के लिए समय या चित्त न निकाल पाना एक गंभीर चूक है। प्रेमचंद की विरासत में इस चूक के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। इस संदर्भ में हमें ‘सरिता’ नामक पत्रिका के संस्थापक-संपादक विश्वनाथ जी का आभारी होना चाहिए जिन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से धार्मिक पाखंड के खिलाफ लगातार एक तीखा अभियान चलाया। इस मामले में उन्होंने कछ अतियां भी कीं, इसके बावजूद उनका यह काम ऐतिहासिक महत्व का है।

हिन्दी की इस न्यूनता पर विचार करते समय तीन बातों की ओर तुरंत ध्यान जाता है। पहली बात यह है कि हिन्दी ने पाठकों से अपना जीवंत संपर्क तोड़ लिया है। आज हिन्दी के श्रेष्ठतम लेखक और कवि वे हैं जो सबसे कम पढ़े जाते हैं। यह हुआ इसलिए कि जब हिन्दी के पाठक, भाषा और साहित्य के स्तर पर घुटनों के बल रेंग रहे थे, हिन्दी लेखक ने तय किया कि उसे विश्व स्तर का साहित्य लिखना है। वह भूल गया कि अंग्रेजी का लेखक तरह-तरह के प्रयोग कर सकता है, क्योंकि उसके पास एक बड़ा और संपन्न पाठक परिवार है। हिन्दी के अधिकांश पाठक तो अभी भी प्रेमचंद और यशपाल के जमाने में रह रहे हैं। साहित्यिक महानता की खोज में अपने पड़ोसी पाठक-पाठिकाओं की साहित्यिक जरूरतों को भूल जाना एक सामाजिक अपराध है, जिसकी कोई ग्लानि हिन्दी जगत में दिखाई नहीं पड़ती।

महत्व की दूसरी बात यह है कि हिन्दी में जनप्रिय साहित्य की बेहद कमी है। यहां सिर्फ दो ध्रुवांत हैं -- महान लेखक और मेरठ उद्योग। मेरठ उद्योग के नीरस और कुरुचिकर उत्पादों के भरोसे हिन्दी के लाखों पाठकों को छोड़ देना एक शर्मनाक घटना है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में यह प्रतिभा नहीं है कि वह ऐसी रोचक-रोमांचक किताबें लिख सके, जिन्हें रेल यात्रा के दौरान या फालतू समय में पढ़ने का लुत्फ उठाया जा सके। चंद्रकांता नामक महान कृति इसी हिन्दी में लिखी गई थी, जिसे पढ़ने के लिए बताते हैं कि हजारों लोगों ने हिन्दी सीखी। धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता अभी भी चाव से पढ़ा जाता है। शिवानी के उपन्यासों की बिक्री कम हो गई है, लेकिन हिन्दी के प्रतिभाशाली प्रकाशकों ने अगर जनप्रिय लेखन छापने और बेचने का मोर्चा अलग से खोला होता, जिससे वे और ज्यादा मालामाल हो सकते थे, तो मेरा अनुमान है कि अकेले मनोहर श्याम जोशी तीन महीने में एक उम्दा उपन्यास उन्हें दे सकते थे। अपने को गंभीर मानने वालों को इस कमतर विधा का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए, क्योंकि यही वे प्रवेश द्वार हैं जिनसे हो कर युवा वर्ग का एक हिस्सा गंभीर साहित्य की दुनिया में प्रवेश करता है। कोई बचपन में ही सुकरात या अज्ञेय नहीं हो जाता।

तीसरी बात भी कम गंभीर नहीं है। जैसे धर्म की बेड़ियां होती हैं, वैसे ही विचारधारा की भी बेड़ियां होती हैं। सन साठ के बाद हिन्दी लेखन की दुनिया में प्रवेश करने वाले ज्यादातर लेखक मार्क्सवाद से प्रभावित थे। यह बहुत अच्छी बात थी। जो मार्क्सवाद से प्रभावित नहीं हुआ, क्या वह भी कोई विचारशील प्राणी है? लेकिन इसके साथ-साथ एक दुर्घटना भी हुई --- हिन्दी के लेखकों ने अपनी-अपनी पार्टियों को अपना ध्रुवतारा मान लिया। पार्टियां वोट की भिखारी हैं। अंग्रेजी की एक कहावत बताती है, भिखारी को चुनने की आजादी नहीं होती। सो मार्क्स के पवित्र नाम के सहारे अपनी अर्ध-पवित्र या पूर्ण अपवित्र राजनीति करने वाली मार्क्सवादी पार्टियों ने धर्म को तो छेड़ा ही नहीं। जो धर्म के छेड़ेगा, उसे दस वोट भी मुश्किल से मिलेंगे। तथाकथित धार्मिक लोगों ने गांधी जी का भी विरोध किया था। जो पार्टियां स्त्री उत्पीड़न का विरोध करेंगी, वे अपने ज्यादातर पुरुष सदस्यों को नाराज कर देंगी। जैसा कि कई मार्क्सवादी महिला कार्यकर्ताओं ने अपने आत्मवृत्तांतों में लिखा है, मार्क्सवादी दलों के नेता और कार्यकर्ता खुद भी स्त्री के सवाल पर पुरुषवादी विकृतियों के असाध्य शिकार हैं। वे स्त्रियों को सहचर नहीं, सखी भी नहीं, अर्ध-रखैल मानते हैं। हिन्दी का लेखक भी, आत्मप्रेरणाावश, इसी दलीय षडयंत्र का शिकार बना रहा है। वह भूल गया कि पार्टी का नेता अलोकप्रिय होने का खतरा नहीं उठा सकता, पर लेखक के लिए तो यह वरदान ही है कि समाज में उससे नाराज लोगों की संख्या बढ़ती जाए। मेरे मित्र शंभुनाथ का कहना है कि वह कलम क्या उठी जिसने शत्रु नहीं बनाए। लेकिन तसलीमा ने शत्रु बनाए हैं तो मित्र भी कम नहीं बनाए हैं। यह ज्यादातर हिन्दी लेखकों की स्व-अर्जित बदकिस्मती है कि उन्होंने हिन्दी के व्यापक समाज में न शत्रु बनाए, न मित्र।

समाजवादी आंदोलन पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में


समाजवादी आंदोलन : पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में
राजकिशोर

स्वतंत्रता से पहले समाजवाद आंदोलन नहीं, एक छोटी-सी धारा थी। यह धारा कांग्रेस की व्यापक राजनीति का एक हिस्सा थी, जिसे लोहिया ने मिरची या अदरख ग्रुप की संज्ञा दी है। इस ग्रुप के सदस्यों की खूबी यह थी कि ये सभी गांधी जी के साथ थे, पर विचारों से मार्क्सवादी थे। मार्क्सवादी समूह कांग्रेस के बाहर भी थे। वे अपने को कम्युनिस्ट कहते थे। े गांधी जी के जबरदस्त आलोचक थे। कांग्रेस के भीतर और बाहर के समाजवादियों में दो मुख्य फर्क थे। कम्युनिस्ट राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्र्ीय थे और अपने अंतरराष्ट्रीय अनुरोगों के चलते राष्ट्रीय हितों को बलिदान कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया। इसके भीतर कांग्रेस के भीतर के समाजवादी पहले राष्ट्रीय थे, बाद में अंतरराष्ट्रीय। दूसरी बात यह थी इनका भारत की संस्कृति, परंपरा, इतिहास आदि से लगाव था। गांधी जी के प्रभाव से इनका मिजाज आम तौर पर लोकतांत्रिक और अहिंसक था। दूसरी ओर कम्युनिस्टों के काम-काज में सैनिक कार्यशैली का असर ज्यादा दिखाई देता था। वे 'सर्वहारा की तानाशाही' स्थापित करने के लिए बेकरार थे। साथ ही, भारतीय समाज और उसकी परंपराओं के प्रति उनका दृष्टिकोण अवमानना और उपहासपूर्ण था। ये अपने को नए युग का अग्रदूत मानते थे। इस तरह, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से काम कर रहा संगठन एक ओर नए जमाने के विचार -- मार्क्सवाद -- को अपनाते हुए भी उसे गांधी जी के नेतृत्व के अधीन ही विकसित करने का प्रयास कर रहा था और दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर एक दबाव ग्रुप का काम करना चाहता था। जवाहरलाल नेहरू इस ग्रुप के सर्वोच्च, पर अनौपचारिक नेता थे। अन्य महत्वपूर्ण नेता थे, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर अली, नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि। इन सब में लोहिया अकेले नेता थे, जो समाजवाद का कोई भारतीय संस्करण विकसित करने के लिए व्याकुल थे।
यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद जिसे समाजवादी आंदोलन के नाम से जाना गया, उसका सबसे ज्यादा श्रेय राममनोहर लोहिया को जाता है।लोहिया कभी भी मार्क्सवादी नहीं रहे। मार्क्स से वे प्रभावित जरूर थे। जो समाजवादी मूलतः मार्क्सवादी थे, उन्होंने स्वतंत्रता के बाद मार्क्सवाद का परित्याग कर दिया। कोई धर्म की तरफ चला गया, किसी ने विनोबा की शरण ली और जो बचे रह गए, वे क्रमशः लुंज-पुंज होते गए और अंततः किसी काम के नहीं रहे। लोहिया ने समाजवाद के चिराग को रोशन रखा और उसमें नए-नए आयाम जोड़ने का काम किया। इसलिए समाजवादी चिंतन और समाजवादी राजनीति के नाम पर उनकी ही याद आती है -- किसी और की नहीं। इसलिए स्वातंत्र्योत्तर भारत में समाजवादी आंदोलन का मतलब लोहियावादी राजनीति का विकास और पराभव ही मानना चाहिए। बाकी सभी दावे आधारहीन हैं।
लोहिया की राजनीति के कई ध्रुव थे। वे आर्थिक विषमता के विरोधी थे। भारत में ही नहीं, दुनिया के स्तर पर भी। भारत के सामाजिक ढांचे को समझने के कोशिश करते थे तथा जाति प्रथा को नष्ट करने के हिमायती थे। स्त्रियों और शूद्रों को विशेष अवसर दे कर उनकी तीव्र उन्नति करने का प्रयत्न लोहिया का विशेश एजेंडा था। लेकिन इन सबके लिए जरूरी था कि भारत से अंग्रेजी हटे तथा लोक भाषाओं के जरिए भारत की साधारण जनता को अपनी स्वाभाविक मुखरता मिले। कांग्रेस का एकछत्र शासन रहते हुए यह सब असंभव था। इसलिए कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए सक्षम रणनीति बनाना लोहिया की एक और विशेषता थी। राज्यों में तो इस वर्चस्व को अपने जीवन काल में ही तोड़ गए थे, केंद्र में यह घटना उनकी मृत्यु के लगभग एक दशक बाद हुई। लेकिन लोहिया के जीवन काल में ही केंद्र में कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ चुकी थी और कम्युनिस्टों के सहारे टिकी हुई थी।
अपने समय के उग्रतम राष्ट्रवादी होते हुए भी लोहिया में कमाल की विश्वदृष्टि थी। उन्होंने एशियाई एकता की पहल की और इसके लिए हुए कई सम्मेलनों में हिस्सा लिया। विश्व राजनीति में वे तीसरे कैंप के पक्षधर थे, जिसका एक फूहड़ संस्करण गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रूप में प्रगट हुआ। संयुक्त राष्ट्र का पुनर्गठन, अंतरराष्ट्रीय जमीदारी का खात्मा, विश्व भर में आय की विषमता का खात्मा, रंगभेद की समाप्ति, मानव अधिकारों का प्रतिष्ठा, दुनिया में कहीं भी आने-जाने और बसने की आजादी आदि उनके प्रिय विषय थे। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि वे एक नई सभ्यता की खोज कर रहे थे। यह उनका दुर्भाग्य था कि उन्होंने भारत में यह काम करने की कोशिश की जो अभी अपनी सभ्यता सं ऊबा नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि मौजूदा समय में कोई भारतीय मेधा ही यह काम कर सकती थी। पश्चिमी सभ्यता कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध है।
जहां तक समाजवादी राजनीति का सवाल है, उसका मूल्यांकन करना बहुत कठिन है, क्योंकि लोहिया के पास जो विराट दृष्टि थी, उसका वहन करने योग्य नेताओं और कार्यकर्ताओं का निर्माण एक बहुत भारी काम था। फिर भी लोहिया ने यह असंभव काम कर दिखाया, यद्यपि कुछ हद तक ही। आज भी, जब लोहिया का निधन हुए चालीस साल होने जा रहे हैं, उनके व्यक्तिगत प्रशंसक और भक्त काफी बड़ी संख्या में हैं। सच तो यह है कि गांधी के बाद लोहिया के ही शिष्य सबसे ज्यादा बने। इनमें सभी तरह के लोग थे - मधु लिमए जैसे विद्वान, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे संगठक, राजनारायण और मनीराम बागड़ी जैसे उपद्रवी, लाडली मोहन निगम जैसे भावुक, ओमप्रकाश दीपक जैसे चरित्रवान और अध्यवसायी,
दिनेश दासगुप्त जैसे निष्ठावान और त्यागी, मामा बालेश्वर दयाल जैसे कर्मयोगी, कर्पूरी ठाकुर जैसे जन नेता, किशन पटनायक जैसे विचारक आदि। दुख की बात यह है कि इनमें से कोई भी, लोहिया की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकार को आगे बढ़ाने की बात तो दूर, बचाने लायक भी साबित नहीं हुआ। सिर्फ किशन पटनायन ने समाजवादी आंदोलन को जारी रखने का काम किया, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपना एक अलग समूह बना लिया। अंत में स्थिति यह आ गई कि लोहिया और किशन पटनायक के बीच कोई निरंतरता देखना कठिन हो गया। इस तरह, एक शानदार जूलूस एक विक्षिप्त शवयात्रा में तब्दील हो गया। अब तो इस शवयात्रा के पथिक भी कम होते जा रहे हैं। क्या लोहिया जल्द ही भुला दिए जाएंगे?
फिर भी समाजवादी राजनीति को इस बात का श्रेय है कि उसने भारत की राजनीति और समाज में जितने मौलिक मुद्दे उठाए, उतने किसी और आंदोलन, दल या नेता ने नहीं। जाति को राजनीति के केंद्र में लाने के लिए अकसर समाजवादियों को कोसा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि समाजवाद की जाति राजनीति वह नहीं थी जो बाद की ाजनीति में देखी गई। जैसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने साम्यवाद की राजनीति का बारह बजा रखा है, वैसे ही लोहिया के अयोग्य शिष्यों ने समाजवाद की जाति दृष्टि को बहबाद कर दिया। समाजवादियों की एक आलोचना यह है कि उन्होंने 1967 में जनसंघ के साथ हाथ मिला कर उसे विश्वसनीयता प्रदान की या उसकी साख बनाई। बाद की घटनाओं को देखते हुए यह आलोचना कुछ हद तर बैध जान पड़ती है, लेकिन कुछ ही हद तक, क्योंकि 1967 तक जनसंघ का चेहरा इस कदर खूनी नहीं था और इससे भी बड़ी बात यह कि लोहिया के सामने उस समय सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस की एकछत्रता को नष्ट करना था। लोहिया के आलोचक भूल जाते हैं कि 1967 के गैरकांग्रेसवाद के प्रयोग में सीपीआई भी शामिल थी और सीपीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह की मित्र रही है जिन्होंने भाजपा के समर्थन से अपनी सरकार बनाई और चलाई।
समाजवादी आंदोलन आज नहीं है। लेकिन समाजवादी समाज की इच्छा मजबूत हुई है। आज अन्याय का उससे ज्यादा प्रतिरोध हो रहा है जितना लोहिया के जीवन काल में होता था। अन्याय के विविध प्रकारों की समझ भी बढ़ी है। दलित, स्त्रयां, आदिवासी, किसान आदि समूह न्याय के लिए व्यग्र हैं। नक्सलवाद बढ़ा है जो इस बात का चिह्न है कि गरीब और पिछड़े लोग सम्मानजनक जीवन बिताने के लिए कुछ भी करने और सहने को तैयार हैं। मेरे खयाल से, यह सर्वश्रेष्ठ माहौल है जब समाजवादी आंदोलन को पुनर्जीवित करने का गंभीर प्रयास किया जा सकता है। 000

Saturday, August 25, 2007

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए एक कार्यक्रम

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक कार्यक्रम

राजकिशोर

देश इस समय एक भयावह संकट से गुजर रहा है। उदारीकरण के मुट्ठी भर समर्थकों को छोड़ कर समाज का कोई भी वर्ग भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं है। किसान, मजदूर, मध्य वर्ग, छात्र, महिलाएं, लेखक, बुध्दिजीवी सभी उद्विग्न हैं। राजनीतिक दल न केवल अप्रासंगिक, बल्कि समाज के लिए अहितकर, हो चुके हैं। नेताओं को विदूषक बने अरसा हो गया। हर आंदोलन किसी एक मुद्दे से बंधा हुआ है। नागरिक जीवन की बेहतरी के लिए संगठित प्रयास नहीं हो रहे हैं। कमजोर आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। कुछ लोगों की संपन्नता खतरनाक ढंग से बढ़ रही है। ऐसी निराशाजनक स्थिति में एक ऐसे राष्ट्रीय कार्यक्रम पर अमल करना आवश्यक प्रतीत होता है जो तत्काल राहत दे, अन्यायों को मिटाए, क्रांतिकारी वातावरण बनाए, राजनीतिक सत्ता का सदुपयोग करे और अंत में समाजवाद की स्थापना करे। यह भारतीय संविधान (उद्देशिका, मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्व और मूल कर्तव्य) की मांग भी है। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां प्रस्तावित की जाती है। यह कार्यक्रम गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर और जिला स्तर पर समाजसेवी संगठनों और समूहों द्वारा चलाया जा सकता है।

पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम

(क) स्वास्थ्य और सफाई : सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता के अनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। दवाओं की चोरी रोकी जाए। सभी मशीनें काम कर रही हों। जो बिगड़ जाएं, उनकी मरम्मत तुरंत हो। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों। एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों। निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें। सार्वजनिक स्थानों की साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया जाए। जहां इसके लिए सांस्थानिक प्रबंध न हो, वहां स्वयंसेवक यह काम करें। रोगों की रोकथाम के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए जाएं। जो काम सरकार न कर सके, वे नागरिकों द्वारा किए जाएं।

(ख) शिक्षा : सभी स्कूलों का संचालन ठीक ढंग से हो। सभी लड़के-लड़कियों को स्कूल में पढ़ने का अवसर मिले। जहां स्कूलों की कमी हो, वहां सरकार, नगरपालिका, पंचायत आदि से कह कर स्कूल खुलवाएं जाएं। चंदे से भी स्कूल खोले जाएं। जो लड़का या लड़की पढ़ना चाहे, उसका दाखिला जरूर हो। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए न चलाया जाए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले।

(ग) कानून और व्यवस्था : थानों और पुलिस के कामकाज पर निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो। अदालतों के कामकाज में व्यवस्था आए। रिश्वत बंद हो।

(घ) परिवहन : सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की निर्धारित संख्या से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा, टैक्सियां, साइकिल रिक्शे आदि नियमानुसार तथा उचित किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक सुविधाओं से युक्त हों।

(ड.) नागरिक सुविधाएं : नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों, इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा, प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार, नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना, वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि, उनके लिए नागरिकों के सहयोग से काम किया जाए।

(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाई : मजदूरों को उचित वेतन मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा करनी होगी।

(घ) उचित कीमत : अनेक इलाकों में एक ही चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार पर सामान बेचते हैं, उचित मूल्य पर नहीं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर खरीदी गई है। उस कीमत में मुनाफे का न्यूनतम प्रतिशत जोड़ कर प्रत्येक वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं की कीमतों के मामले में इस सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन करने के लिए आग्रह किया जाएगा। कोई भी चीज लागत मूल्य के डेढ़ गुने से ज्यादा पर नहीं बिकनी चाहिए। विज्ञापन लुभाने के लिए नहीं, सिर्फ तथ्य बताने के लिए हों

(ड.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।

ये तथा इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में सघन रूप से चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है। गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद तीसरे वर्ष से बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।

तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम

भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अत: अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट, गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटलों, महंगी कारों, जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाएगी जिनकी आम भारतीयों को जरूरत नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों, स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों, सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही कीमत का टिकट हो।

चार वर्ष बाद का कार्यक्रम

चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब सत्ता का सही इस्तेमाल हो। इस अभियान का उद्देश्य नए और अच्छे राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता और दल पैदा करना भी है। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से उपर्युक्त कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे, उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून बनाएं। सत्ताधारियों पर दबाव डाला जाएगा कि कानून बना कर आर्थिक विषमता घटाएं, संपत्ति का केंद्रीकरण खत्म करें। निजी पूंजी और धन की सीमा निर्धारित करें। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का प्रयत्न करें। सभी के लिए सम्मानजनक जीविका का प्रबंध किया जाए। गृहहीनों को तुरंत रहने का स्थान दिया जाए। इसके लिए शिक्षा संस्थाओं, थानों, सरकारी व निजी बंगलों, दफ्तरों आदि के खाली स्थान का उपयोग किया जा सकता है। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ।

संगठन : जाहिर है, यह सारा कार्यक्रम एक सांगठनिक ढांचे के तहत ही चलाया जा सकता है। खुदाई फौजदार व्यक्तिगत स्तर पर भी कुछ काम कर सकते हैं, पर संगठन की उपयोगिता स्वयंसिध्द है। शुरुआत गांव तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे ऊपर उठना चाहिए। जिस जिले में कम से कम एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन सबसे आखिर में बनेगा। सभी पदों के लिए चुनाव होगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे पहचान बनाने और संगठित हो कर काम करने में सहायता मिलेगी।

कार्य प्रणाली : यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या अभियान चलाया जाए, उसका अहिंसक, लोकतांत्रिक, शांतिमय तथा सद्भावपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा अन्य संबध्द अधिकारियों को सूचित किए बगैर सामाजिक दबाव, सामाजिक अंकेक्षण, और सामूहिक संघर्ष का कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस, जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार अभियान के नए-नए तरीके निकाले जा सकते हैं। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया जाए। संगठन के भीतर आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।

स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत क्रांतिकारी गीतों, गजलों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी। उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, छात्र, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।

काम करने के कुछ नमूने

(1) पांच कार्यकर्ता निकटस्थ सरकारी अस्पताल में जाते हैं। अस्पताल के उच्चतम अधिकारी से अनुमति ले कर वार्डों, ओपीडी, एक्सरे आदि विभागों का मुआयना करते हैं और लौट कर अधिकारी से अनुरोध करते हैं कि इन कमियों को दूर किया जाए। कमियां दूर होती हैं या नहीं, इस पर निगरानी रखी जाती है। उचित अवधि में दूर न होने पर पुलिस को सूचित कर धरना, सत्याग्रह आदि का कार्यक्रम शुरू किया जाता है। (2) कुछ कार्यकर्ता पास के सरकारी स्कूल में जाते हैं। प्रधानाध्यापक से अनुमति ले कर स्कूल की स्थिति के बारे में तथ्य जमा करते हैं और प्रधानाध्यापक से कह कर कमियों को दूर कराते हैं। प्रधानाध्यापक स्कूल के लोगों से बातचीत करने की अनुमति नहीं देता, तो लगातार तीन दिनों तक उससे अनुरोध करने के बाद स्कूल के बाहर सत्याग्रह शुरू कर दिया जाता है। (3) कार्यकर्ता राशन कार्ड बनाने वाले दफ्तर में जाते हैं और वहां के उच्चाधिकारी को अपने आने का प्रयोजन बताते हैं। राशन कार्ड के लिए आवेदन करने वालों सभी व्यक्तियों को उचित अवधि में कार्ड मिल जाया करे, यह व्यवस्था बनाई जाती है। जिनका आवेदन अस्वीकार कर दिया जाता है, उन्हें समझाया जाता है कि कौन-कौन-से दस्तावेज जमा करने हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में किराए के घर में रहने वाले किसी व्यक्ति के पास निवासस्थान का प्रमाणपत्र नहीं है, तो कार्यकर्ता मकान मालिक से आग्रह कर उसे किराए की रसीद या कोई और प्रमाण दिलवाएंगे।

(अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव कृपया इस पते पर भेजें -- राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल truthonly@gmail.com उचित समझें तो फोटो-कॉपी करवा कर मित्रों में वितरित करें तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद कराएं।)

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक कार्यक्रम

राजकिशोर

देश इस समय एक भयावह संकट से गुजर रहा है। उदारीकरण के मुट्ठी भर समर्थकों को छोड़ कर समाज का कोई भी वर्ग भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं है। किसान, मजदूर, मध्य वर्ग, छात्र, महिलाएं, लेखक, बुध्दिजीवी सभी उद्विग्न हैं। राजनीतिक दल न केवल अप्रासंगिक, बल्कि समाज के लिए अहितकर, हो चुके हैं। नेताओं को विदूषक बने अरसा हो गया। हर आंदोलन किसी एक मुद्दे से बंधा हुआ है। नागरिक जीवन की बेहतरी के लिए संगठित प्रयास नहीं हो रहे हैं। कमजोर आदमी की कोई सुनवाई नहीं है। कुछ लोगों की संपन्नता खतरनाक ढंग से बढ़ रही है। ऐसी निराशाजनक स्थिति में एक ऐसे राष्ट्रीय कार्यक्रम पर अमल करना आवश्यक प्रतीत होता है जो तत्काल राहत दे, अन्यायों को मिटाए, क्रांतिकारी वातावरण बनाए, राजनीतिक सत्ता का सदुपयोग करे और अंत में समाजवाद की स्थापना करे। यह भारतीय संविधान (उद्देशिका, मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्व और मूल कर्तव्य) की मांग भी है। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की एक बहुत संक्षिप्त रूपरेखा यहां प्रस्तावित की जाती है। यह कार्यक्रम गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर और जिला स्तर पर समाजसेवी संगठनों और समूहों द्वारा चलाया जा सकता है।

पहले और दूसरे वर्ष का कार्यक्रम

(क) स्वास्थ्य और सफाई : सरकारी अस्पतालों में नियम और नैतिकता के अनुसार काम हो। रोगियों को आवश्यक सुविधाएं मिलें और पैसे या रसूख के बल पर कोई काम न हो। डॉक्टर पूरा समय दें। दवाओं की चोरी रोकी जाए। सभी मशीनें काम कर रही हों। जो बिगड़ जाएं, उनकी मरम्मत तुरंत हो। बिस्तर, वार्ड आदि साफ-सुथरे हों। एयर कंडीशनर डॉक्टरों और प्रशासकों के लिए नहीं, रोगियों के लिए हों। निजी अस्पतालों में रोगियों से ली जाने वाली फीस लोगों की वहन क्षमता के भीतर हो। प्राइवेट डॉक्टरों से अनुरोध किया जाए कि वे ज्यादा फीस न लें और रोज कम से कम एक घंटा मुफ्त रोगी देखें। सार्वजनिक स्थानों की साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दिया जाए। जहां इसके लिए सांस्थानिक प्रबंध न हो, वहां स्वयंसेवक यह काम करें। रोगों की रोकथाम के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए जाएं। जो काम सरकार न कर सके, वे नागरिकों द्वारा किए जाएं।

(ख) शिक्षा : सभी स्कूलों का संचालन ठीक ढंग से हो। सभी लड़के-लड़कियों को स्कूल में पढ़ने का अवसर मिले। जहां स्कूलों की कमी हो, वहां सरकार, नगरपालिका, पंचायत आदि से कह कर स्कूल खुलवाएं जाएं। चंदे से भी स्कूल खोले जाएं। जो लड़का या लड़की पढ़ना चाहे, उसका दाखिला जरूर हो। शिक्षा संस्थानों को मुनाफे के लिए न चलाया जाए। छात्रों को प्रवेश देने की प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी हो। किसी को डोनेशन देने के लिए बाध्य न किया जाए। फीस कम से कम रखी जाए। शिक्षकों को उचित वेतन मिले।

(ग) कानून और व्यवस्था : थानों और पुलिस के कामकाज पर निगरानी रखी जाए। किसी के साथ अन्याय न होने दिया जाए। अपराधियों को पैसे ले कर या रसूख की वजह से छोड़ा न जाए। सभी शिकायतें दर्ज हों और उन पर कार्रवाई हो। हिरासत में पूछताछ के नाम पर जुल्म न हो। जेलों में कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उनकी सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति हो। अदालतों के कामकाज में व्यवस्था आए। रिश्वत बंद हो।

(घ) परिवहन : सार्वजनिक परिवहन के सभी साधन नियमानुसार चलें। बसों में यात्रियों की निर्धारित संख्या से अधिक यात्री न चढ़ाए जाएं। बस चालकों का व्यवहार अच्छा हो। महिलाओं, वृध्दों आदि को उनकी सीट मिलें। ऑटोरिक्शा, टैक्सियां, साइकिल रिक्शे आदि नियमानुसार तथा उचित किराया लें। बस स्टैंड, रेल स्टेशन साफ-सुथरे और नागरिक सुविधाओं से युक्त हों।

(ड.) नागरिक सुविधाएं : नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था करना प्रशासन, नगरपालिका, पंचायत आदि का कम है। ये काम समय पर और ठीक से हों, इसके लिए नागरिक हस्तक्षेप जरूरी है। बिजली, पानी, टेलीफोन, गैस आदि के कनेक्शन देना, इनकी आपूर्ति बनाए रखना, सड़क, सफाई, शिक्षा, चिकित्सा, प्रसूति, टीका, राशन कार्ड, पहचान पत्र आदि विभिन्न क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय स्तर पर सतत सक्रियता और निगरानी की जरूरत है। जिन चीजों की व्यवस्था सरकार, नगरपालिका आदि नहीं कर पा रहे हैं जैसे पुस्तकालय और व्यायामशाला खोलना, वेश्यालय बंद कराना, गुंडागर्दी पर रोक लगाना आदि, उनके लिए नागरिकों के सहयोग से काम किया जाए।

(ग) उचित वेतन, सम्मान तथा सुविधाओं की लड़ाई : मजदूरों को उचित वेतन मिले, उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार हो, उनके काम के घंटे और स्थितिया अमानवीय न हों, उन्हें मेडिकल सहायता, छुट्टी आदि सुविधाएं मिलें, इसके लिए संघर्ष करना ही होगा। गांवों में खेतिहर मजदूरों के हितों की रक्षा करनी होगी।

(घ) उचित कीमत : अनेक इलाकों में एक ही चीज कई कीमतों पर मिलती है। सभी दुकानदार 'अधिकतम खुदरा मूल्य' के आधार पर सामान बेचते हैं, उचित मूल्य पर नहीं। ग्राहक यह तय नहीं कर पाता कि कितना प्रतिशत मुनाफा कमाया जा रहा है। नागरिक टोलियों को यह अधिकार है कि वे प्रत्येक दुकान में जाएं और बिल देख कर यह पता करें कि कौन-सी वस्तु कितनी कीमत दे कर खरीदी गई है। उस कीमत में मुनाफे का न्यूनतम प्रतिशत जोड़ कर प्रत्येक वस्तु का विक्रय मूल्य तय करने का आग्रह किया जाए। दवाओं की कीमतों के मामले में इस सामाजिक अंकेक्षण की सख्त जरूरत है। खुदरा व्यापार में कुछ निश्चित प्रतिमान लागू कराने के बाद उत्पादकों से भी ऐसे ही प्रतिमानों का पालन करने के लिए आग्रह किया जाएगा। कोई भी चीज लागत मूल्य के डेढ़ गुने से ज्यादा पर नहीं बिकनी चाहिए। विज्ञापन लुभाने के लिए नहीं, सिर्फ तथ्य बताने के लिए हों

(ड.) दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के हित : इन तीन तथा ऐसे अन्य वर्गों के हितों पर आवश्यक ध्यान दिया जाएगा। इनके साथ किसी भी प्रकार के दर्ुव्यवहार और भेदभाव को रोकने की पूरी कोशिश होगी।

ये तथा इस तरह के अभियान शुरू के दो वर्षों में सघन रूप से चलाए जाने चाहिए, ताकि लोगों में यह विश्वास पैदा हो सके कि गलत चीजों से लड़ा जा सकता है, स्वस्थ बदलाव संभव है और इसके लिए किसी बड़े या चमत्कारी नेता की आवश्यकता नहीं है। गांव और मुहल्ले के सामान्य लोग भी संगठित और नियमित काम के जरिए सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह का वातावरण बन जाने के बाद तीसरे वर्ष से बड़े कार्यक्रम हाथ में लिए जा सकते हैं।

तीसरे और चौथे वर्ष का कार्यक्रम

भारत में अंग्रेजी शोषण, विषमता तथा अन्याय की भाषा है। अत: अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग के विरुध्द अभियान चलाना आवश्यक है। बीड़ी, सिगरेट, गुटका आदि के कारखानों को बंद कराना होगा। जो धंधे महिलाओं के शारीरिक प्रदर्शन पर टिके हुए हैं, वे रोके जाएंगे। महंगे होटलों, महंगी कारों, जुआ, शराबघरों या कैबरे हाउसों में नाच आदि को खत्म करने का प्रयास किया जाएगा। देश में पैदा होनेवाली चीजें, जैसे दवा, कपड़ा, पंखा, काजू, साइकिल आदि, जब भारतीयों की जरूरतों से ज्यादा होंगी, तभी उनका निर्यात होना चाहिए। इसी तरह, उन आयातों पर रोक लगाई जाएगी जिनकी आम भारतीयों को जरूरत नहीं हैं या जो उनके हितों के विरुध्द हैं। राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री, मत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी आदि से छोटे घरों में और सादगी के साथ रहने का अनुरोध किया जाएगा। उनसे कहा जाएगा कि एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल खुद करने के बजाय वे उनका उपयोग अस्पतालों, स्कूलों, वृध्दाश्रमों, पुस्तकालयों आदि में होने दें। रेलगाड़ियों, सिनेमा हॉलों, नाटकघरों आदि में कई क्लास न हों। सभी के लिए एक ही कीमत का टिकट हो।

चार वर्ष बाद का कार्यक्रम

चार वर्षों में इस तरह का वातावरण बनाने में सफलता हासिल करना जरूरी है कि राजनीति की धारा को प्रभावित करने में सक्षम हुआ जा सके। हम राज्य सत्ता से घृणा नहीं करते। उसके लोकतांत्रिक अनुशासन को अनिवार्य मानते हैं। हम मानते हैं कि बहुत-से बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकते हैं जब सत्ता का सही इस्तेमाल हो। इस अभियान का उद्देश्य नए और अच्छे राजनीतिक नेता, कार्यकर्ता और दल पैदा करना भी है। लेकिन जिस संगठन के माध्यम से उपर्युक्त कार्यक्रम चलेगा, उसके सदस्य चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। जिन्हें चुनाव लड़ने की और सत्ता में जाने की अभिलाषा हो, उन्हें संगठन से त्यागपत्र देना होगा। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के इस आंदोलन से जरूरी नहीं कि किसी एक ही राष्ट्रीय दल का गठन हो। कई राजनीतिक दल बन सकते हैं, ताकि उनमें स्वस्थ और लोकतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता हो सके। जो लोग सत्ता में शिरकत करेंगे, उनसे यह अपेक्षा की जाएगी कि वे मौजूदा संविधान को, यदि उसके कुछ प्रावधान जन-विरोध पाए जाते हैं तो उनकी उपेक्षा करते हुए, सख्ती से लागू करने का प्रयत्न करें। बुरे कानूनों को खत्म करें। अच्छे और जरूरी कानून बनाएं। सत्ताधारियों पर दबाव डाला जाएगा कि कानून बना कर आर्थिक विषमता घटाएं, संपत्ति का केंद्रीकरण खत्म करें। निजी पूंजी और धन की सीमा निर्धारित करें। किसानों सहित सभी को उसकी उपज और उत्पादन का उचित मूल्य दिलाने का प्रयत्न करें। सभी के लिए सम्मानजनक जीविका का प्रबंध किया जाए। गृहहीनों को तुरंत रहने का स्थान दिया जाए। इसके लिए शिक्षा संस्थाओं, थानों, सरकारी व निजी बंगलों, दफ्तरों आदि के खाली स्थान का उपयोग किया जा सकता है। सभी नीतियों में जनवादी परिवर्तन ले आएँ।

संगठन : जाहिर है, यह सारा कार्यक्रम एक सांगठनिक ढांचे के तहत ही चलाया जा सकता है। खुदाई फौजदार व्यक्तिगत स्तर पर भी कुछ काम कर सकते हैं, पर संगठन की उपयोगिता स्वयंसिध्द है। शुरुआत गांव तथा मुहल्ला स्तर पर संगठन बना कर करनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे ऊपर उठना चाहिए। जिस जिले में कम से कम एक-चौथाई कार्य क्षेत्र में स्थानीय संगठन बन जाएं, वहां जिला स्तर पर संगठन बनाया जा सकता है। राज्य स्तर पर संगठन बनाने के लिए कम से कम एक-तिहाई जिलों में जिला स्तर का संगठन होना जरूरी है। राष्ट्रीय संगठन सबसे आखिर में बनेगा। सभी पदों के लिए चुनाव होगा। सदस्यों की पहचान के लिए बाईं भुजा में हरे रंग की पट्टी या इसी तरह का कोई और उपाय अपनाना उपयोगी हो सकता है। इससे पहचान बनाने और संगठित हो कर काम करने में सहायता मिलेगी।

कार्य प्रणाली : यह इस कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। जो भी कार्यक्रम या अभियान चलाया जाए, उसका अहिंसक, लोकतांत्रिक, शांतिमय तथा सद्भावपूर्ण होना आवश्यक है। प्रत्येक कार्यकर्ता को गंभीर से गंभीर दबाव में भी हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करनी होगी। सभी निर्णय कम से कम तीन-चौथाई बहुमत से लिए जाएंगे। पुलिस तथा अन्य संबध्द अधिकारियों को सूचित किए बगैर सामाजिक दबाव, सामाजिक अंकेक्षण, और सामूहिक संघर्ष का कोई कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाएगा। अपील, अनुरोध, धरना, जुलूस, जनसभा, असहयोग आदि उपायों का सहारा लिया जाएगा। आवश्यकतानुसार अभियान के नए-नए तरीके निकाले जा सकते हैं। किसी को अपमानित या परेशान नहीं किया जाएगा। जिनके विरुध्द आंदोलन होगा, उनके साथ भी प्रेम और सम्मानपूर्ण व्यवहार होगा। कोशिश यह होगी कि उन्हें भी अपने आंदोलन में शामिल किया जाए। संगठन के भीतर आय और व्यय के स्पष्ट और सरल नियम बनाए जाएंगे। चंदे और आर्थिक सहयोग से प्राप्त प्रत्येक पैसे का हिसाब रखा जाएगा, जिसे कोई भी देख सकेगा। एक हजार रुपए से अधिक रकम बैंक में रखी जाएगी।

स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता समूह काम करेंगे। वे सप्ताह में कुछ दिन सुबह और कुछ दिन शाम को एक निश्चित, पूर्वघोषित स्थान पर (जहां सुविधा हो, इसके लिए कार्यालय बनाया जा सकता है) कम से कम एक घंटे के लिए एकत्र होंगे, ताकि जिसे भी कोई कष्ट हो, वह वहां आ सके। कार्यक्रम की शुरुआत क्रांतिकारी गीतों, गजलों, भजनों, अच्छी किताबों के अंश के पाठ से होगी। उसके बाद लोगों की शिकायतों को नोट किया जाएगा तथा अगले दिन क्या करना है, कहां जाना है, इसकी योजना बनाई जाएगी। जिनके पास समाज को देने के लिए ज्यादा समय है जैसे रिटायर लोग, नौजवान, छात्र, महिलाएं, उन्हें इस कार्यक्रम के साथ विशेष रूप से जोड़ा जाएगा।

काम करने के कुछ नमूने

(1) पांच कार्यकर्ता निकटस्थ सरकारी अस्पताल में जाते हैं। अस्पताल के उच्चतम अधिकारी से अनुमति ले कर वार्डों, ओपीडी, एक्सरे आदि विभागों का मुआयना करते हैं और लौट कर अधिकारी से अनुरोध करते हैं कि इन कमियों को दूर किया जाए। कमियां दूर होती हैं या नहीं, इस पर निगरानी रखी जाती है। उचित अवधि में दूर न होने पर पुलिस को सूचित कर धरना, सत्याग्रह आदि का कार्यक्रम शुरू किया जाता है। (2) कुछ कार्यकर्ता पास के सरकारी स्कूल में जाते हैं। प्रधानाध्यापक से अनुमति ले कर स्कूल की स्थिति के बारे में तथ्य जमा करते हैं और प्रधानाध्यापक से कह कर कमियों को दूर कराते हैं। प्रधानाध्यापक स्कूल के लोगों से बातचीत करने की अनुमति नहीं देता, तो लगातार तीन दिनों तक उससे अनुरोध करने के बाद स्कूल के बाहर सत्याग्रह शुरू कर दिया जाता है। (3) कार्यकर्ता राशन कार्ड बनाने वाले दफ्तर में जाते हैं और वहां के उच्चाधिकारी को अपने आने का प्रयोजन बताते हैं। राशन कार्ड के लिए आवेदन करने वालों सभी व्यक्तियों को उचित अवधि में कार्ड मिल जाया करे, यह व्यवस्था बनाई जाती है। जिनका आवेदन अस्वीकार कर दिया जाता है, उन्हें समझाया जाता है कि कौन-कौन-से दस्तावेज जमा करने हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में किराए के घर में रहने वाले किसी व्यक्ति के पास निवासस्थान का प्रमाणपत्र नहीं है, तो कार्यकर्ता मकान मालिक से आग्रह कर उसे किराए की रसीद या कोई और प्रमाण दिलवाएंगे।

(अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव कृपया इस पते पर भेजें -- राजकिशोर, 53, एक्सप्रेस अपार्टमेंट्स, मयूर कुंज, दिल्ली - 110096 ईमेल raajkishore@gmail.com उचित समझें तो फोटो-कॉपी करवा कर मित्रों में वितरित करें तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद कराएं।)

हिन्दी का हाल

हिन्दी ऐसी क्यों होती जा रही है

राजकिशोर

'प्रिंट मीडिया' को हम 'मुद्रित माध्यम' क्यों नहीं कहते? इस प्रश्न के उत्तर में ही जन माध्यमों में हिंदी भाषा के स्वरूप की पहचान छिपी हुई है। उसकी सार्मथ्य भी और उसकी दुर्बलता भी।

जब कलकत्ता से हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' शुरू हो रहा था, उस समय मणि मधुकर हमारे साथ थे। कार्यवाहक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह मीडिया पर एक स्तंभ शुरू करने जा रहे थे। प्रश्न यह था कि स्तंभ का नाम क्या रखा जाए। मणि मधुकर साहित्यिक व्यक्ति थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। उनसे पूछा गया, तो वे सोच कर बोले - संप्रेषण। सुरेंद्र जी ने बताया कि उन्हें 'माध्यम' ज्यादा अच्छा लग रहा है। अंत में स्तंभ का शार्षक यही तय हुआ। लेकिन सुरेंद्र प्रताप की विनोद वृत्ति अद्भुत थी। उन्होंने हंसते हुए मणि मधुकर से कहा, 'दरअसल, हम दोनों ही अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे। आपने 'कम्युनिकेशन' का अनुवाद संप्रेषण किया और मैंने मीडियम या मीडिया का अनुवाद माध्यम किया।'

उस समय संप्रेषण और माध्यम एक ही स्थिति का वर्णन करने वाले शब्द लगते थे। आज वह स्थिति नहीं है। मीडिया के लिए आज कोई संप्रेषण शब्द सोच भी नहीं सकता। यह शब्द अब कम्युनिकेशन के लिए रूढ़ हो चुका है। मास कम्युनिकेशन को जन संप्रेषण कहा जाता है, मास मीडिया को जन माध्यम। जो बात ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि 1977 में भी हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी की छाया दिखाई पड़ने लगी थी। कवर स्टोरी को आवरण कथा या आमुख कथा कहा जाता था। लेकिन आज कवर स्टोरी का बोलबाला है। जाहिर है कि अंग्रेजी अब अनुवाद में नहीं, सीधे आ रही है और बता रही है कि हम अनुवाद की संस्कृति से निकल कर सीधे अंग्रेजी के चंगुल में है। किसी टेलीविजन चैनल की भाषा कितनी जनोन्मुख है, इसका फैसला इस बात से किया जाता है कि उस चैनल पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कितना प्रतिशत होता है। ऐसे माहौल में अगर दूरदर्शन की भीषा पिछड़ी हुई, संस्कृतनिष्ठ और प्रतिक्रियावादी लगती है, तो इसमें हैरत की बात क्या है।

आजकल अखबारों में मीडिया की चर्चा बहुत ज्यादा होती है, हालांकि ज्यादातर इसका मतलब टीवी चैनलों से लगाया जाता है। अखबारों में अखबारों की चर्चा लगभग बंद है (पहले भी ज्यादा कहां होती थी?), क्योंकि प्रायः सभी अखबार एक ही राह पर चल रहे हैं और इस राह पर आत्मपरीक्षण के लिए इजाजत नहीं है। बहरहाल, इस तरह के स्तंभों के लिए माध्यम शब्द नहीं चलता, मीडिया का शोर जरूर है। इस बीच अखबारों को चिह्नित करने के लिए प्रिंट मीडिया शब्द चल पड़ा है। चूंकि मीडिया शब्द पहले से चल रहा था, इसलिए उसमें प्रिंट जोड़ देना आसान लगा। मुद्रित माध्यम या मुद्रित मीडिया लिखना अच्छा नहीं लगता -- इस तरह के संस्कृत मूल के या खिचड़ी शब्दों से हम अब बचने लगे हैं (क्योंकि यह पिछड़ेपन का प्रतीक है) और सीधे अंग्रेजी पर्यायों का इस्तेमाल करते हैं। 'रविवार' के समय भी मीडिया के लिए हिंदी का कोई मौलिक शब्द खोजने का श्रम नहीं किया गया था, लेकिन इतनी सभ्यता बची हुई थी कि अंग्रेजी शब्द के अनुवाद से काम चलाया गया।

स्पष्ट है कि जो लोग हिंदी के उच्च प्रसार संख्या वाले दैनिक पत्रों में काम करते हैं, वे हिंदी की दुकान लगभग बंद कर चुके हैं और अंग्रेजी के हाथों लगभग बिक चुके हैं। लेकिन इसमें उनका कसूर नहीं है। जब मालिक लोग हिंदी पत्रकारिता का कायाकल्प कर रहे थे (वास्तव में यह सिर्फ काया का नहीं, आत्मा का भी बदलाव था), उस वक्त काम कर रहे हिंदी पत्रकारों ने अगर उनके साथ आज्ञाकारी सहयोग नहीं किया होता, तो उनमें से प्रत्येक की नौकरी खतरे में थी। आज भी कुछ घर-उजाड़ू या नए फैशन के स्वर्णपाश में फंसे हुए पत्रकारों को छोड़ हिंदी का कोई भी पत्रकार अंग्रेजी-पीड़ित हिंदी अपने मन से नहीं लिखता। उसे यह अपने ऊपर और अपने पाठकों पर सांस्कृतिक अत्याचार लगता है। वह झुंझलाता है, क्रुध्द होता है, हंसी उड़ाता है, कभी-कभी मिल-जुल कर कोई अभियान चलाने का सामूहिक निश्चय करता है, लेकिन आखिर में वही ढाक के तीन पात सामने आते हैं और वह अपना काम दी हुई भाषा में संपन्न कर उदास मन से घर लौट जाता है। उसके सामने एक बार फिर यह तथ्य उजागर होता है कि जिस अखबार में वह काम कर रहा है, वह अखबार उसका नहीं है, कि जिस व्यक्ति ने पूंजी निवेश किया है, वही तय करेगा कि क्या छपेगा, किस भाषा में छपेगा और किन तसवीरों के साथ छपेगा। कार्यक्रम ऊपर से मिलेगा, पत्रकार को सिर्फ 'इंप्लिमेंट' करना है।

ऐसा क्यों हुआ? किस प्रक्रिया में हुआ? यहां मैं एक और संस्मरण की शरण लूंगा। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण से विद्यानिवास मिश्र विदा हुए ही थे। वे अंग्रेजी के भी विद्वान थे, पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बिलकुल नहीं करते थे। विष्णु खरे भी जा चुके थे। उनकी भाषा अद्भुत है। उन्हें भी हिंदी लिखते समय अंग्रेजी का प्रयोग आम तौर पर बिलकुल पसंद नहीं। स्थानीय संपादक का पद सूर्यकांत बाली नाम के एक सज्जन संभाल रहे थे। अखबार के मालिक-इंचार्ज समीर जैन को पत्रकारिता तथा अन्य विषयों पर व्याख्यान देने का शौक है। उस दिनों भी था। वे राजेंद्र माथुर को भी उपदेश देते रहते थे, सुरेंद्र प्रताप सिंह से बदलते हुए समय की चर्चा करते थे, विष्णु खरे को बताते थे कि पत्रकारिता क्या है और हम लोगों को तो खैर समझाते ही थे। सूर्यकांत बाली की विशेषता यह थी कि वे समीर जैन की हर स्थापना से तुरंत सहमत हो जाते थे, बल्कि उससे कुछ आगे भी बढ़ जाते थे। आडवाणी ने इमरजेंसी में पत्रकारों के आचरण पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही कहा था कि उन्हें झुकने को कहा गया था, पर वे रेंगने लगे। मैं उस समय के स्थानीय संपादक को रेंगते हुए देखता था और अपने दिन गिनता था।

सूर्यकांत बाली संपादकीय बैठकों में हिंदी भाषा के नए दर्शन के बारे में समीर जैन के विचार इस तरह प्रगट करते जैसे वे उनके अपने विचार हों। समीर जैन की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुंचे। नई पीढ़ी की रुचिया पुरानी और मझली पीढ़ियों से भिन्न थीं। टीवी और सिनेमा उसका बाइबिल है। । सुंदरता, सफलता और यौन विषयों की चर्चा में उसे शास्त्रीय आनंद आता है। फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों की रंगीन और अर्ध-अश्लील तसवीरों में उसकी आत्मा बसती है। समीर जैन नवभारत टाइम्स को गंभीर लोगों का अखबार बनाए रखना नहीं चाहते थे। वे अकसर यह लतीफा सुनाते थे कि जब बहादुरशाह जफर मार्ग से, जहां दिल्ली के नवभारत टाइम्स का दफ्तर है, किसी बूढ़े की लाश गुजरती है, तो मुझे लगता है कि नवभारत टाइम्स का एक और पाठक चस बसा। समीर की फिक्र यह थी कि नए पाठकों की तलाश में किधर मुड़ें। इस खोज में भारत के शहरी युवा वर्ग के इसी हिस्से पर उनकी नजर पड़ी। उन्होंने हिंदी के संपादकों से कहा कि हिंदी में अंग्रेजी मिलाओ, वैसी पत्रकारिता करो जैसी नया टाइम्स ऑफ इंडिया कर रहा है, नहीं तो तुम्हारी नाव डूबने ही वाली है। सरकुलेशन नहीं बढ़ेगा, तो एडवर्टीजमेंट नहीं बढ़ेगा, रेवेन्य कम होगा और अंत में वी विल बी फोर्स्ड टु क्लोज डाउन दिस पेपर। इस भविष्यवाणी को गंभीरता को बाली ने समझा और हमें बताने लगे कि हमें विशेषज्ञ की जगह एक्सपर्ट, समाधान की जगह सॉल्यूशन, नीति की जगह पॉलिसी, उदारीकरण की जगह लिबराइजेशन लिखना चाहिए। एक दिन हमने उनके ये विचार 'पाठकों के पत्र' स्तंभ में एक छोटे-से लेख के रूप में पढ़े। उस लेख को हिंदी पत्रकारिता के नए इतिहास में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में स्थान मिलना चाहिए।

कोई चाहे तो इसे हिंदी की सार्मथ्य भी बता सकता है। हिंदी अपने आदिकाल से ही संघर्ष कर रही है। उसे उसका प्राप्य अभी तक नहीं मिल सका है। अपने को बचाने की खातिर हिंदी ने कई तरह के समझौते भी किए। अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, उर्दू आदि के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। किसी का तिरस्कार नहीं किया। यहां तक कि उसने अंग्रेजी से भी दोस्ती का हाथ मिलाया। यह हिंदी की शक्ति है, जो शक्ति किसी भी जिंदा और जिंदादिल भाषा की होती है। इस प्रक्रिया में हिंदी हर पराई चीज का हिंदीकरण कर लेती है। अतः उसने अंग्रेजी शब्दों का भी हिंदीकरण किया। आजादी के बाद भी हिंदी अंग्रेजी शब्दों के हिंदी प्रतिशब्द बनाती रही। बजट, टिकट, मोटर और बैंक जैसे शब्द सीधे भी ले लिए गए, क्योंकि ये हिंदी के प्रवाह में घुल-मिल जा रहे थे और इनका अनुवाद करने के प्रयास में 'लौहपथगामिनी' जैसे असंभव शब्द ही हाथ आते थे। आज भी पासपोर्ट को पारपत्र कहना जमता नहीं है, हालांकि इस शब्द में जमने की संभावना है। लेकिन 1980-90 के दौर में जनसाधारण के बीच हिंदी का प्रयोग करने वालों में सांस्कृतिक थकावट आ गई और इसी के साथ उनकी शब्द निर्माण की क्षमता भी कम होती गई। उन्हीं दिनों हिंदी का स्परूप थोड़ा-थोड़ा बदलने लगा था, जब संडे मेल, संडे ऑब्जर्वर जैसे अंग्रेजी नामों वाले पत्र हिंदी में निकलने लगे। यह प्रवृत्ति 70 के दशक में मौजूद होती, तो हिंदी में रविवार नहीं, संडे ही निकलता या फिर आउटलुक के हिंदी संस्करण में साप्ताहिक लगाने की जरूरत नहीं होती, सीधे आउटलुक ही निकलता, जैसे इंडिया टुडे कई भाषाओं में एक ही नाम से निकलता है। 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नए नवभारत टाइम्स ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी बाढ़ पैदा कर दी, जिसमें बहुत-से मूल्य और प्रतिमान डूब गए। बहरहाल, नवभारत टाइम्स का यह प्रयोग आर्थिक दृष्टि से सफल हुआ और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गए। कुछ हिंदी पत्रों में तो अंग्रेजी के स्वतंत्र पन्ने भी छपने लगे।

भाषा संस्कृति का वाहक होती है। प्रत्येक सांस्कृतिक बदलाव अपने लिए एक नई भाषा गढ़ता है। नक्सलवादियों की भाषा वह नहीं है जिसका इस्तेमाल गांधी और जवाहरलाल करते थे। आज के विज्ञापनों की भाषा भी वह नहीं है जो 80 के दशक तक होती थी। यह एक नई संस्कृति है जिसके पहियों पर आज की पत्रकारिता चल रही है। इसे मुख्य रूप से उपभोक्तावाद की संस्कृति कह सकते हैं, जिसमें किसी वैचारिक वाद के लिए जगह नहीं है। इस संस्कृति का केंद्रीय सूत्र रघुवीर सहाय बहुत पहले बता चुके थे -- उत्तम जीवन दास विचार। जैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में उत्तम जीवन (गुड लिविंग) की प्रदर्शनियां लगती हैं, वैसे ही आज हर अखबार उत्तम जीवन को अपने झंग से परिभाषित करने लगा है। अपने-अपने ढंग से नहीं, अपने ढंग से, जिसका नतीजा यह हुआ है कि सभी अखबार एक जैसे ही नजर आते हैं - सभी में एक जैसे रंग, सभी में एक जैसी सामग्री, विचार-विमर्श का घोर अभाव तथा जीवन में सफलता पाने के लिए एक जैसी शिक्षा। अखबार आधुनिकतम जीवन के विश्वविद्यालय बन चुके हैं और पाठक सोचने-समझने वाला प्राणी नहीं, बल्कि मौन रिसीवर।

इसका असर हिंदी की जानकारी के स्तर पर भी पड़ा है। टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुध्द हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। ले लेने के बाद उनसे मांग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो ऑडिएंस की समझ में आए। इस हिंदी का शुध्द या टकसाली होना जरूरी नहीं है। यह शिकायत आम है कि टीवी के परदे पर जो हिंदी आती है, वह अकसर गलत होती है। सच तो यह है कि अनेक हिंदी समाचार चैनलों के प्रमुख ऐसे महानुभाव हैं जिन्हें हिंदी आती ही नहीं और यह उनके लिए शर्म की नहीं, गर्वित होने की बात है। यही स्थिति नीचे के पत्रकारों की है। वे शायद अंग्रेजी भी ठीक से नहीं जानते, पर हिंदी भी नहीं जानते। चूंकि अच्छी हिंदी की मांग नहीं है और संस्थान में उसकी कद्रदानी भी नहीं है, उसलिए हिंदी सीखने की प्रेरणा भी नहीं है। हिंदी एक ऐसी अभागी भाषा है जिसे न जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है।

प्रिंट मीडिया की ट्रेजेडी यह है कि टेलीविजन से प्रतिद्वंद्विता में उसने अपने लिए कोई नई या अलग राह नहीं निकाली, बल्कि वह टेलीविजन का अनुकरण करने में लग गया। कहने की जरूरत नहीं कि जब हिंदी क्षेत्र में टेलीविजन का प्रसार शुरू हो रहा था, तब तक हिंदी पत्रों की आत्मा आखिरी सांस लेने लग गई थी। पुनर्जन्म के लिए उसके पास एक ही मॉडल था, टेलीविजन की पत्रकारिता। मालिक लोग भी कुछ ऐसा ही चाहते थे। संपादक रह नहीं गए थे जो कुछ सोच-विचार करते और प्रिंट को इलेक्ट्रॉनिक का भतीजा बनने से बचा पाते। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के ज्यादातर अखबार टेलीविजन की फूहड़ अनुकरण बन गए। इसका असर प्रिंट मीडिया की भाषा पर भी पड़ा। हिंदी का टेलीविजन जो काम कर रहा है, वह एक विकार-ग्रस्त भाषा में ही हो सकता है। अशुध्द आत्माएं अपने को शुध्द माध्यमों से प्रगट नहीं कर सकतीं। सो हिंदी पत्रों की भाषा भी भ्रष्ट होने लगी। एक समय जिस हिंदी पत्रकारिता ने राष्ट्रपति, संसद जैसे दर्जनों शब्द गढ़े थे, जो सबकी जुबान पर चढ़ गए, उसी हिंदी के पत्रकार प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। इसके साथ ही यह भी हुआ कि हिंदी पत्रों में काम करने के लिए हिंदी जानना आवश्यक नहीं रह गया। पहले जो हिंदी का पत्रकार बनना चाहता था, वह कुछ साहित्यिक संस्कार ले कर आता है। वास्तव में शब्द की रचनात्मक साधना तो साहित्य ही है। इसी नाते पहले हिंदी अखबारों में कुछ साहित्य भी छपा करता था। कहीं-कहीं साहित्य संपादक भी होते थे। लेकिन नए वातावरण में साहित्य का ज्ञान एक अवगुण बन गया। साहित्यकारों को एक-एक कर अखबारों से बाहर किया जाने लगा। हिंदी एक चलताऊ चीज हो गई -- गरीब की जोरू, जिसके साथ कोई भी कभी भी छेड़छाड़ कर सकता है। यही कारण है कि आब हिंदी अखबारों में अच्छी भाषा पढ़ने का आनंद दुर्लभ तो हो ही गया है, उनसे शुध्द लिखी हुई हिंदी की मांग करना भी नाजायज लगता है। जिनका हिंदी से कोई लगाव नहीं है, जिनकी हिंदी के प्रति कोई प्रतिबध्दता नहीं है, जो हिंदी की किताबे नहीं पढ़ते (सच तो यह है कि वे कोई भी किताब नहीं पढ़ते), उनसे यह अपेक्षा करना कि वे हिंदी को सावधानी से बरतें, उनके साथ अन्याय है, जैसे गधे से यह मांग करना ठीक नहीं है कि वह घोड़े की रफ्तार से चल कर दिखाए।

आगे क्या होगा? क्या हिंदी बच भी पाएगी? जिन कमियों और अज्ञानों के साथ आज हिंदी का व्यवहार हो रहा है, वैसी हिंदी बच भी गई तो क्या? लेकिन जो तमीज उतार सकता है, वह धोती भी खोल सकता है। इसलिए आशंका यह है कि धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी मरणासन्न होती जाएगी। आज हिंदी जितनी बची हुई है, उसका प्रधान कारण हिंदी क्षेत्र का अविकास है। आज अविकसित लोग ही हिंदी के अखबार पढ़ते हैं। उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाने लगे हैं। जिस दिन यह प्रक्रिया पूर्णता तक पहुंच जाएगी, हिंदी पढ़ने वाले अल्पसंख्यक हो जाएंगे। विकसित हिंदी भाषी परिवार से निकला हुआ बच्चा सीधे अंग्रेजी पढ़ना पसंद करेगा। यह एक भाषा की मौत नहीं, एक संस्कृति की मौत है। कुछ लोग कहेंगे, यह आत्महत्या है। मेरा खयाल है, यह मर्डर है।