Wednesday, March 4, 2009

भावना की राजनीति

ऐसे भी आहत होती हैं भावनाएं
राजकिशोर

यह तो शुरू से ही पता है कि भावना बुद्धि से ज्यादा मजबूत होती है। पर मैं समझता था कि लोकतंत्र, या कोई भी तंत्र, भावना के साथ-साथ बुद्धि से भी चलता है। व्यक्तिगत जीवन में भले ही भावना बुद्धि पर विजयी हो जाती हो, पर सामाजिक जीवन में बुद्धि का स्थान भावना से ऊंचा है। कारण यह है कि भावनाओं के द्वंद्व को सुलझाने का कोई वस्तुपरक तरीका नहीं है, लेकिन बुद्धि के क्षेत्र में तर्क और बहस के द्वारा किसी सुसंगत निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। कानून में भी बुद्धि को ही प्राथमिकता दी जाती है। अगर कोई अपनी प्रेमिका की बेवफाई से आहत हो कर उसकी हत्या कर देता है, तो अदालत न्याय करते समय उसकी भावनाओं पर विचार नहीं करेगी, यह देखेगी कि उसका आचरण बुद्धिसंगत था या नहीं।

देश में हम काफी लंबे समय से भावना की एक ऐसी राजनीति देख रहे हैं जिसका बुद्धि से कोई संबंध नहीं है। भावना के इसी तीव्र उभार से एक चार सौ साल पुरानी जीर्ण-शीर्ण मस्जिद गिरा दी गई। इस तरह समाज के एक वर्ग की भावना तो तृप्त हो गई, पर इससे दूसरे वर्ग की जो भावनाएं आहत हुईं, उन पर लगाने के लिए कोई मरहम अभी तक खोजा नहीं जा सका है। मामला सोलह साल से अदालत में है, पर वह भी अभी तक कोई सुकून नहीं दे पाया है। बीच में भावना की यह राजनीति कुछ मंद हो गई थी, पर इधर भावनाओं में फिर उभार आने लगा है। हाल ही में मंगलूर की एक पेयशाला में स्त्रियों के जाने से राम के कुछ स्वनियुक्त सैनिकों की भावनाएं आहत हो गईं, तो वे हाथ-पैर चलाने वहां पहुंच गए। इससे पब प्रेमियों की भावनाएं आहत हुईं और उन्होंने गुलाबी चड्ढियों का अभियान शुरू कर दिया। वास्तव में कितनी चड्ढियां भेजी गईं, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। कुछ लोगों ने पहले से ही हल्ला मचाना शुरू कर दिया था कि इस बार भी वेलेंटाइन डे मनाया गया, तो उनकी भावनाएं आहत होंगी और अपनी आहत भावनाओं को शांत करने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि इससे किस-किसकी भावनाएं आहत होंगी।

उन्हीं दिनों तर्क और भावना का एक और द्वंद्व देखने को मिला। कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन में एक लेख छपा जिसमें कहा गया था कि हम सभी स्त्री-पुरुषों का सम्मान करते हैं, पर अगर उनके विश्वास अतार्किक या अत्याचारी हों, तो हमसे यह उम्मीद न की जाए कि हम इन विश्वासों का भी सम्मान करेंगे। इस लेख में ईसाई और मुस्लिम मत की भी कुछ आलोचना की गई थी। इससे समाज के एक वर्ग की भावनाएं आहत हो गईं। स्टेट्समैन के संपादक को यह मौका देने के बजाय कि वे अपना मत के समर्थन में तथ्य और तर्क दें, उन्हें, मुद्रक और प्रकाशक के साथ-साथ, तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया। आश्चर्य यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमारे अनेक विद्वान और लेखक चित्रकार हुसेन का पक्ष तो लेते हैं, पर स्टेट्समैन के इसी मूल अधिकार की रक्षा के लिए दस-बीस सेकुलर हाथ भी नहीं उठे। इससे मेरी भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं। मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि भावना वास्तव में होती भी है कि भावना के नाम पर सिर्फ कुश्तियां हो रही हैं। हमारे देश के लोग इतने ही भावनामय हैं या हो गए हैं, तो देश में इतना दुख और अन्याय क्यों है? जहां भावना को वास्तव में आहत होना चाहिए, वहां ऐसा क्यों नहीं होता? इस सिलसिले में मुझे अपनी आहत भावनाओं का खयाल आया तो आता चला गया। मेरे मन में आया कि मुझे भी अपनी आहत भावनाओं का कुछ करना चाहिए। ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, तो उनकी सूची बना कर जनता जनार्दन के समक्ष पेश तो कर ही सकता हूं।

क्या बताऊं, सुबह उठते ही मेरी भावनाओं के आहत होने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिन की पहली चाय के साथ अखबारों का बंडल जब बिस्तर पर धमाक से गिरता है, तो तुरंत खयाल आता है कि सुबह-सवेरे मेरे घर के दरवाजे पर अखबार पहुंचाने के लिए लिए कितने लोगों को रात भर काम करना पड़ा होगा। सबसे ज्यादा अफसोस होता है अपने हॉकर पर। वह बेचारा चार-पांच बजे तड़के उठा होगा, अखबारों के वितरण केंद्र पर गया होगा, वहां से अखबार उठाए होंगे और अपनी साइकिल पर रख कर उन्हें घर-घर पहुंचाया होगा। यहां तक कि उसे साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता, जिसे दुनिया भर में मजदूरों का मूल अधिकार माना जाता है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि अखबार सुबह के बजाय शाम को छपें और बंटें? रविवार को तो अखबारवालों को भी छुट्टी मनानी चाहिए। अखबार पुलिस, दमकल और अस्पताल की तरह कोई अत्यंत आवश्यक सेवा नहीं है जिसके बिना कुछ बिगड़ जाएगा।

अखबार पढ़ने लगता हूं, तो कम से कम दो चीजें मुझे आहत करती हैं। पहली चीज हत्या और आत्महत्या के समाचार हैं। सभी हत्याओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन ऐसी हत्या-निरोधक संस्कृति तो बनाई ही जा सकती है जिसमें रोज इतनी मारकाट न हो। आत्महत्याओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे व्यक्ति की नहीं, समाज की विफलता के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। व्यवस्था को सुधार कर ये आत्महत्याएं भी रोकी जा सकती हैं। जो दूसरी चीज मेरी भावनाओं को आहत करती है, वह है देशी-विदेशी सुंदरियों की सुरुचिहीन तसवीरें। यह सोच कर मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं कि भगवान द्वारा दिए गए सौंदर्य के अद्भुत उपहार का कैसा भोंडा इस्तेमाल करने के लिए इन्हें प्रेरित और विवश किया जा रहा है। मेरी बेटी को अगर इस रूप में अपने को पेश करना पड़ गया, तो मुझे बहुत पछतावा होगा कि वह पैदा ही क्यों हुई।

जब तैयार हो कर काम पर निकलता हूं, तो मेरी भावनाओं का आहत होना फिर शुरू हो जाता है। जब अपनी सोसायटी के सफाईकर्ता पर नजर उठती है, तो शर्मशार हो जाता हूं। वह दिन भर घर-घर से कूड़ा-कचरा जमा करता है, सोसायटी की सीढ़ियों और सड़कों को झाड़ू से बुहारता है और बदले में उसे महीने में तीन-चार हजार भी नहीं मिलते। यही दुर्दशा चौकीदारों की है, जो सोसायटी में रहनेवाले परिवारों की सुरक्षा का खयाल रखते हैं, पर उनके जीवन में किसी तरह की सुरक्षा नहीं है। यहां तक कि उनकी नौकरी भी स्थायी नहीं है। सोसायटी से बाहर आने पर गली में कई ऐसे बच्चे मिलते हैं जिन्हें देख कर कुपोषण की राष्ट्रीय समस्या का ध्यान आता है। कुछ ऐसे बच्चे भी दिखाई देते हैं, जिन्हें उस समय स्कूल में होना चाहिए था। वे कामवालियां भी दिखाई देती हैं जो एक ही दिन में कई घरों की साफ-सफाई, चौका-बरतन आदि करती हैं और हमारा जीवन आसान बनाती हैं, फिर भी जिन्हें देख कर लगता नहीं है कि इससे होनेवाली आमदनी से उनके परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता होगा।

सड़क पर आने के बाद दाएं-बाएं कचरे के ढेर मेरी भावनाओं को आहत करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि पूरे शहर के लिए एक ही दिल्ली नगर निगम है, पर कुछ इलाकों की सड़कें साफ-सुथरी होती हैं और कुछ इलाकों की सड़कें टूटी-फूटी और गंदी। यह भेदभाव क्यों? फिर मिलती हैं सिगरेट और गुटके की एक के बाद एक चार दुकानें। इन्हें देखते ही गुस्सा आ जाता है कि हमारा स्वास्थ्य मंत्री अपना काम क्यों नहीं कर रहा है। वह सिगरेट और गुटकों के कारखाने बंद नहीं करा सकता, जो उसका संबैधानिक दायित्व है, तो कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि इन जहरीले पदार्थों की दो दुकानों के बीच कम से कम एक किलोमीटर का फासला रखवाए। दफ्तर जाने के लिए ऑटोरिक्शा लेने की कोशिश करता हूं, तो पांच में से चार ड्राइवर मीटर पर चलने से इनकार कर देते हैं। कानून की इस खुली अवहेलना पर मेरी भावनाएं बुरी तरह आहत होती हैं। तब तो होती ही हैं जब मैं देखता हूं कि पांच-पांच, छह-छह लाख की बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग अकेले भागे जा रहे हैं और उनसे दो या तीन गुना बड़े आकार की बसों में सौ-सौ आदमी-औरतें ठुंसे हुए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब सड़क पर हफ्तों से नहाने के अवसर से वंचित, दीन-हीन चहरे कुछ बेचते हुए या सीधे भीख मांगते हुए न दिखाई पड़ते हों। फुटपाथ पर लेटी हुई ऐसी मानव आकृतियां भी दिखाई देती रहती हैं जिनका अहस्ताक्षरित बयान यह है कि इस दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं है।

क्या-क्या बयान करूं। रास्ते में कई आलीशान होटल पड़ते हैं। इनके एक कमरे का एक दिन का किराया आठ-दस हजार रुपए है। यह याद आता है, तो मेरा खून खौलने लगता है। तॉल्सतॉय ने अपनी एक कहानी के जरिए पूछा था, आदमी को कितनी जमीन छाहिए? इन स्वर्ग-तुल्य होटलों को देख कर मेरे मन में प्रश्न उठता है, आदमी को पराए शहर में ठहरने के लिए कितनी सुख-सुविधाएं चाहिए? मेरा बस चले, तो इन होटलों को रातों-रात गिरा कर इनकी जगह छोटी-छोटी धर्मशालाएं बनावा दूं, जहां पचास रुपए में एक छोटा-सा कमरा मिल सके। रास्ते में एक सरकारी अस्पताल भी पड़ता है। उसमें दाखिल रोगियों के हालात की कल्पना कर मन अधीर हो जाता है। कभी-कभी दफ्तर जाने का रास्ता रास्ता कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है, क्योंकि कोई वीआइपी गुजर रहा होता है।

दफ्तर पहुंचता हूं, तो भावनाएं शांत नहीं होतीं। वरन उनके आहत होने के कई और कारण निकल आते हैं। सबसे पहले निगाह पड़ती है सुरक्षा गार्ड पर। दफ्तर के भीतर काम करनेवाले हम लोगों की ड्यूटी सात-आठ घंटे की होती है, पर गार्ड की ड्यूटी बारह घंटे की होती है। हमें साल में तरह-तरह की छुट्टी मिलती है, पर उसके लिए हफ्ते में एक छुट्टी छोड़ कर कोई और छुट्टी नहीं है। उसकी तनखा हम सबसे कम है -- बत्तीस सौ रुपए। दफ्तर में कुछ लोगों को पांच हजार रुपए महीना मिलता है, तो कुछ को पचास हजार। क्या उनकी योग्यताओं में इतना ज्यादा अंतर है? अगर सचमुच ऐसा है, तो बाकी लोगों को अपनी योग्यता बढ़ाने का अवसर क्यों नहीं मिलता? जब वे कम उम्र के थे, उस समय उन्हें यह अवसर क्यों नहीं मिला?

शाम को घर लौटता हूं, तो जगह-जगह जाम मिलता है। गाड़ियां ज्यादा हैं, सड़कें कम। क्या यही वह शहरी जीवन है जिसका स्वप्न हमारे वास्तुकारों ने देखा होगा? समझ में नहीं आता कि इस शहर को कौन चला रहा है या कोई चला भी रहा है या नहीं? समय बरबाद होने का खयाल आते ही भावनाएं मुरझाने लगती हैं। लौटने के रास्ते में एक वेश्यालय पड़ता है। फुटपाथ पर हमारी दर्जनों मां-बहनें अपनी अस्मत का सौदा करने के लिए इंतजार करती मिलती हैं। उनकी ओर देखा नहीं जाता। उनके बारे में सोचा तक नहीं जाता। दस साल से यही सिलसिला चला आता है। दिल्ली राज्य की मुख्यमंत्री एक महिला हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष एक महिला है। भारत की राष्ट्रपति एक महिला हैं। तीनों दिल्ली में ही रहती हैं। क्या उन्हें अभागी औरतों के इस टोले के बारे में कुछ भी नहीं पता? क्या उनके चर और अनुचर उन्हें कुछ भी नहीं बताते? या, वे इस तरह की खबरें सुनना ही नहीं चाहते? यह सिद्धांत ठीक नहीं है कि औरतों की दुर्दशा को समाप्त करने के लिए औरतों को ही सक्रिय होना चाहिए। मर्दों की आंखों में भी शर्म दिखाई पड़नी चाहिए और उनकी भुजाएं भी फड़फड़ानी चाहिए। यह सब सोचते हुए घर पहुंचता हूं और चाय पी चुकने के बाद टीवी खोलता हूं, तो भावनाएं एक बार फिर आहत होने लगती हैं। सोते समय यही प्रश्न दिमाग में मंडराता रहता है कि इस बेईमान, बदमाश, अपराधी, फूहड़ और विज्ञापनी दुनिया में रहने के लिए हमें कौन बाध्य कर रहा है? 000

होली पर विशेष

रस ही जीवन / जीवन रस है
राजकिशोर

भारत में होली सबसे सरस पर्व है। दशहरा और दीपावली से भी ज्यादा। दूसरे त्योहारों में कोई न कोई वांछा है। या वांछा की पूर्ति का सुख। होली दोनों से परे है। यह बस है, जैसे प्रकृति है। अस्तित्व के आनंद का उत्सव। वांछा और वांछा की पूर्ति, दोनों में द्वंद्व है। यह जय-पराजय से जुड़ा हुआ है। दोनों ही एक अधूरी दास्तान हैं। सच यह है कि दूसरा हारे, तब भी हमारी पराजय है। कोई भी सज्जन किसी और को दुखी देखना नहीं चाहता। किसी का वध करके उसे खुशी नहीं होती। करुणानिधान राम ने जब रावण पर अंतिम प्राणहंता तीर चलाया होगा, तो उनका हृदय विषाद से भर गया होगा। उनके दिल में हूक उठी होगी कि काश, रावण ने ऐसा कुछ न किया होता जो उसके लिए मृत्यु का आह्वान बन जाए; काश, उसने अंगद के माध्यम से भेजे गए संधि प्रस्ताव को मंजूर कर लिया होता; काश, उसने विभीषण की सत सलाह का तिरस्कार नहीं किया होता। अर्जुन का विषाद तो बहुत ही प्रसिद्ध है। युद्ध छिड़ने के ऐन पहले उसे अपने तीर-तूरीण भारी लगने लगे। उसके मन में उचित ही यह भाव पैदा हुआ कि अपने संगे-संबंधियों को मार कर सुख पाना एकदम अनैतिक है। यह भावना जितनी ज्यादा फैले, दुनिया के लिए उतना ही अच्छा है। श्मशान में सभ्यता का विकास नहीं होता। फिर भी महाभारत इसीलिए हो पाया, क्योंकि कृष्ण अपने सखा को यह समझा सके कि अन्याय का प्रतिरोध करना अगर जीवन-मरण का प्रश्न बन जाए, तब भी संघर्ष से भागना नहीं चाहिए। नतीजा यह हुआ कि दिन में कुरुवंश के लोग दिन में एक-दूसरे की जान लेते थे और रात को उनकी याद कर आंसू बहाते थे। इस तरह, द्वंद्व और उनका शमन जीवन प्रक्रिया को आगे बढ़ाता था। होली की विशेषता यह है कि यहां किसी प्रकार का द्वंद्व नहीं है; सामाजिक नैतिकता के नाम पर लादी हुई अनैतिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप द्वंद्व है भी, तो उसका शमन नहीं, समाहार है। हृदय की मुक्तावस्था को क्या कहते हैं, मुझे नहीं मालूम, पर यह अनुभव जरूर है कि होली को मन से मनाया जाए, तो कुछ ऐसी ही अवस्था पैदा होती है।

होली का त्यौहार मनाने के लिए वसंत ऋतु को चुना गया, तो इसके ठोस कारण हैं। इन कारणों से हर कोई अवगत है। ये कारण मुख्यत: बाहर से आते हैं। लेकिन वे प्रभावी तभी होते हैं जब भीतर संचित कोई अद्भुत चीज अंगड़ाई ले कर जाग उठती है। कामना, विचार, हर्ष. विषाद सब कुछ हमारे भीतर ही है। लेकिन जागते वे तब हैं जब बाहर से उन्हें उद्दीपन और आलंबन मिलता है। बाहर और भीतर का विभाजन वास्तविक से ज्यादा कृत्रिम है। तभी तो यह विभाजन अकसर चिटख जाता है। श्वसुर साल भर श्वसुर रहता है, पर होली के दिन वह देवर बन जाता है। (फागुन में ससुर जी देवर लगेंं) इसका मतलब यही है कि उसमें देवरपन हमेशा मौजूद था, पर वह उभरता तब है जब उसे आवश्यक उद्दीपन मिलता है। यह उद्दीपन बहू देती है। इसका मतलब यह भी है कि बहू में भी सनातन नारी साल भर जीवित रहती है, पर बाहर आने के लिए वह उचित मौसम का इंतजार करती है। यह मौसम फागुन के अलावा और क्या हो सकता है?

बताते हैं, प्रकृति हर्ष और विषाद से परे हैं। उसे न दुख होता है न सुख होता है। लेकिन क्या पता। प्रकृति के बारे में हमारी जानकारी इतनी संक्षिप्त है कि उसके आधार पर कोई बड़ा फैसला नहीं किया जा सकता। हम यह तो जान गए हैं कि कीट-पतंगों को, पेड़-पौधों को भी दुख-सुख होता है, वे हर परिवर्तन से संवेदित होते हैं। लेकिन सभी प्राणी, जिनमें उद्भिज भी शामिल हैं, अगर प्रकृति की कोख से ही जन्म लेते हैं, तो यह कोख किसी भी स्तर पर इतनी बांझ नहीं हो सकती कि वह बिलकुल संवेदनहीन हो जाए। मार्क्स ने ठीक पहचाना था कि पदार्थ से ही चेतना पैदा होती है। तो फिर पदार्थ खुद अचेतन कैसे हो सकता है?

प्रकृति की यह सचेतनता वसंत ऋतु में पूरे शबाब में होती है। अन्य सभी ऋतुओं में कुछ न कुछ द्वंद्व होता है। गरमी, बारिश, जाड़ा -- सभी आवश्यक हैं और इस नाते प्रिय भी, पर अतिरेक में वे कष्ट भी देते हैं। वसंत ही एकमात्र ऋतु है जिसका कोई अतिरेक नहीं हो सकता। सभी चीजों का उत्कर्ष होता है, पर उत्कर्ष का उत्कर्ष क्या होगा? सागरमाथा (एवरेस्ट) अपनी ऊंचाई को कैसे लांघ सकता है? वसंत ऋतु परिवर्तन के पूरे चक्र का उत्कर्ष है। इसी के लिए प्रकृति साल भर तैयारी करती है, जैसे मानवी का शरीर सोलह साल तक साधना करता है ताकि उस पर यौवन का फूल खिल सके या जैसे जननी नौ महीने तक हर रंग से गुजरती है तब कोई शिशु धरती पर प्रगट होता है और सभी के दिलों पर छा जाता है। वसंत प्रकृति का यौवन भी है और उसकी रचनात्मकता का चरम उभार बिंदु भी। उसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आनंद ही आनंद है। रस ही रस है। जीवन ही जीवन है। इसीलिए मनुष्य ही नहीं, संपूर्ण जीव जगत के साथ उसकी अनुकूलता है। वसंत में जैसे प्रकृति खुलती है, उसकी कंचुकियां छोटी पड़ जाती हैं, वैसे ही हम भी खुलते हैं, हमारे लिए हमारा परिवेश छोटा लगने लगता है। यह वह सर्वश्रेष्ठ उपहार है जो सृष्टि अपने आपको देती है। वरना तो बाकी सृष्टि में आंखों को जला देनेवाली रोशनी है -- जहां-जहां तारे हैं, या फिर उनके बीच का ठोस सघन अंधेरा, जिसमें कोई अपने आपको भी देख नहीं सकता। हम धरतीवालों को अपनी किस्मत पर इतराना चाहिए।

धरती इसलिए अनोखी है, क्योंकि सृष्टि भर में यहीं जीवन है। यहीं रस है। यह रस सबसे ज्यादा नर-नारी के बीच पैदा होता है, क्योंकि प्रकृति की अभी तक की योजना यही है। उसने पशु-पक्षियों में भी, पेड़-पौधों में भी युग्म बनाए हैं, पर इन युग्मों में वह आकर्षण, वह ताकत, वह निरंतरता नहीं है, जो मानव युग्म में दिखाई देता है। हो सकता है, लाखों-करोड़ों वर्ष पहले हमारे पूर्वज स्त्री-पुरुष भी जब-तब ही एक-दूसरे की ओर प्यार और लालसा की निगाहों से देखते रहे हों, पर वह संस्कृति के ककहरे का युग था। संस्कृति के निरंतर विकास ने न केवल शरीर को कोमल और सुंदर बनाया है, बल्कि दो शरीरों के बीच कला का इतना बड़ा सागर पैदा किया है जिसमें हम निरंतर ऊभ-चूभ होते रहते हैं। इसीलिए हमारे एक पूर्वज ने आह भरते हुए कहा था कि जो मनुष्य साहित्य, संगीत और कला से विहीन है, वह सींग-पूंछ रहित जानवर की तरह है। होली इसी सांस्कृतिकता का उत्सव है। जो होली के दिन सूखे पेड़ की तरह अपना और दूसरों का मूड खराब किए रहता है, उसे नरक का अनुभव करने के लिए जीवनोत्तर जीवन की प्रतीक्षा नहीं करनी होती। वह आंखवाला हो कर भी अंधा है, कानवाला हो कर भी बहरा है और हृदय होते हुए भी पत्थर है। वह समाज में होते हुए भी समाज से बाहर है, अपने भीतर होते हुए भी अपने को नहीं पहचानता। खुदा ऐसे लोगों को माफ करे -- ये नहीं जानते कि ये क्या खो रहे हैं।

नर-नारी का आकर्षण एक विशिष्ट प्रकार का आकर्षण है, जिसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। इसीलिए सभी भक्त ईश्वर को अपना माशूक मान कर उसकी मादक अनुभूति से घिरे रहते हैं। कबीर को लगता था कि राम उनके प्रियतम हैं और वे राम की बहुरिया हैं। कृष्ण को तो पति मान कर ही भजने की प्रथा है। ईसाई संतों को ईश्वर की वधू होने का अनुभव होता था। ये सभी अभिव्यक्तियां प्रगाढ़तम संबंध की जानी-पहचानी अनुभूति हैं। लेकिन सिर्फ अपनी पत्नी से होली खेल कर कौन उल्लास में डूब सकता है? सिर्फ अपने पति से होली खेल कर कौन बीरबहूटी बन सकती है? अतिशय निकटता नए आविष्कार करने की क्षमता को कुंद कर देती है। निष्प्रयास स्वीकृति प्रेम को आलसी बना देती है। इसीलिए अनेक समझदार लोगों ने सलाह दी है कि स्त्री-पुरुष को एक साथ नहीं रहना चाहिए और साथ रहने की मजबूरी हो तो रोज एक साथ एक ही बिछावन पर सोना नहीं चाहिए। पूरी तरह स्वकीय और पूरी तरह परकीय, दोनों बुरे हैं। हर स्त्री और हर पुरुष को थोड़ा स्वकीय और थोड़ा परकीय बने रहना चाहिए। नहीं तो आकर्षण की डोरी अतिशय तनाव से टूट कर गिर सकती है और बहुत ज्यादा ढीली हो जाने पर लुंज-पुंज हो जा सकती है। दोनों ही संस्करण घातक हैं। वे डोरी के गुण-धर्म को नष्ट कर डालते हैं। जब स्वकीयता के साथ परकीयता होगी और परकीयता के साथ स्वकीयता, तब हमें होली जैसे अद्भुत त्यौहार की महत्ता समझ में आएगी, जो स्वकीय और परकीय के विभाजन की दीवार को अपने रंग-गीले हाथों से गिरा देता है। फागुन के नशे में कौन स्वकीय रह जाता है या रह जाती है और कौन इस बोध से घिरा रहता है या घिरी रहती है कि वह परकीय है? जैसे प्रकृति की व्यवस्था अभिन्न है, हर जर्रा हर जर्रे का मायका या ससुराल है, वैसे ही सभी स्त्री-पुरुष एक नैसर्गिक व्याकरण की संज्ञाएं, विशेषण और क्रियापद बन जाते हैं। अब इससे आगे क्या कहूं, तू मुझमें है, मैं तुझमें हूं। अगर यह प्रेम है, तो अध्यात्म भी यही है।

रस ध्वनि में है, स्पर्श में है, रंग में है। होली में हम तीनों का मधुर उत्तान देखते हैं। होली गाई जाती है, होली खेली जाती है और होली पर हम गले भी मिलते हैं। कुछ लोग होली के रंग में खुशबू भी मिला देते हैं। होली पर पकवान तो गरीब से गरीब के घर भी बनते हैं, जो हमारी स्वादेंद्रिय को तृप्त करते हैं। इस तरह होली ऐंद्रिय जगत की संपूर्णता का उत्सव बन जाता है। लेकिन इन तीनों में रंग का स्थान अन्यतम है। इंद्रियों के सभी विषयों में रंग ही दूर से चमकता है। सूर्य की लालिमा हमें कितनी दूर से दिखाई पड़ती है। चंद्रमा का प्रकाश निकटतर है, लेकिन वह भी कम दूर नहीं है। यह गुण किसी और तत्व में नहीं है। शायद इसीलिए रंग को होली का मुख्य दूत माना गया। प्रकृति भी इस मौसम में अपने रंगों का पूरा खजाना खोल देती है। एक-दूसरे के शरीर और उसके जरिए आत्मा पर गीला रंग फेंक कर हम मानो इस रंगीनियत का ही इजहार करते हैं। यही वह रस है जो हमारे तन-मन को आह्लादित कर देता है और हमारी भौगोलिक तथा मानसिक दूरियों को पाट देता है। हर कोई फूल और हर कोई भौंरा बन जाता है।

मेरी उलझन यह है कि जो रस स्त्री-पुरुष के बीच पैदा होता है, उसका कुछ हिस्सा पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच क्यों नहीं पैदा होता? स्त्रियां भी स्त्रियों के साथ होली खेलती हैं और पुरुष भी पुरुषों के साथ होली खेलते हैं। पुरुषों की बनिस्बत स्त्रियों की अपनी होली ज्यादा मजेदार, ज्यादा चुहल भरी होती है, क्योंकि उनमें प्राकृतिक लालित्य होता है और उनकी आपस की प्रतिस्पर्धा उतनी तीव्र और बहुआयामी नहीं होती जितनी पुरुषों के आपसी संबंधों में। इसीलिए युवाओं की होली ज्यादा खुली हुई होती है : वे इतने परिपक्व नहीं हुए होते हैं कि जिंदगी के द्वंद्वों को कुछ घड़ी के लिए भुला न सकें और अपने को रंगीनी के हाथों निश्शर्त सुपुर्द न कर सकें। शोक की बात यह है कि होली का यह सहज उल्लास साल भर हमारा साथ नहीं देता। स्त्री-पुरुष का आकर्षण बारहों महीने चौबीसों घंटे बना रहता है, पर पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच प्रगाढ़ता में तरह-तरह के अवरोध पैदा होते रहते हैं और जीवन रस को सोखते रहते हैं। कहा जा सकता है कि हमने जो सभ्यता गढ़ी हुई है, वह हमारे सहज सुखों का सोख्ता है। यह सोख्ता स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों के रस को भी सोखता रहता है और जीवन को उतना रसमय नहीं होने देता जितना वह वास्तव में है और आज भी हो सकता है। विषमता की तरह-तरह की दीवारें खड़ी कर हमने अपनी जिंदगियों को दुखपूर्ण बना डाला है। होली हर साल हमें यह याद दिलाने आती है कि यारो, यह जीना भी कोई जीना है जिसमें जीवन का रस द्वंद्वों की आंच में भाप बन कर उड़ता रहता है और हम जितना दूसरों से, उतना ही अपने आपसे बेगाना होते जाते हैं।

इस विसंगति में ही हम पहचान सकते हैं कि होली का दिन मजाक और हास-परिहास का दिन क्यों बन जाता है। जब हिरण्यकश्यप की बहन उसके संतनुमा बेटे प्रह्लाद को ले कर आग के कुंड में बैठ गई थी और बालक प्रह्लाद जल कर भस्म हो जाने के बजाय उससे पूरी तरह अक्षत और साबुत निकल आए, तो उसके तुतलाते होंठों पर एक ऐसी मुसकान जरूर होगी जिसने उस क्रूर-कपटी राजा का दिल तार-तार कर दिया होगा। यह मुसकान अन्याय और जुल्म के विरुद्ध विजय की शाश्वत मुसकान है। बाद की पीढ़ियां इतनी किस्मतवाली नहीं रहीं कि वे इस विध्वंसक आग से अपने को भस्म न होने दें। पर ऐसी हर आग के खिलाफ गाने तो गाए ही जा सकते हैं, प्रहसन तो किया ही जा सकता है, उसका मजाक तो उड़ाया ही जा सकता है। यह भी एक प्रकार की विमुक्ति है : साल भर हमारे कोमल मनों में जो तनाव जमा होते रहते हैं, उनसे उल्लासपूर्ण विमुक्ति का दुर्लभ मौका, जब आप कोयले को कोयला और कीचड़ को कीचड़ कह सकते हैं। होली के दिन कोई किसी का गुसैयां नहीं रह जाता। किसी से भी प्यार किया जा सकता है और किसी पर भी छींटाकशी की जा सकती है। लेकिन यह छींटाकशी भी विनोद भाव के परिणामस्वरूप मृदु और सहनीय हो जाती है। बल्कि जिसका परिहास किया जाता है, वह भी बुरा न मानने का अभिनय करते हुए बरबस हंस पड़ता है। शायद यही 'बुरा न मानो होली है' के हर्ष-विनोद घोष का उद्गम स्थल है।

होली वह अनोखा दिन है जब जिसे बहुमत से बुरा समझा जाता है, वह भी बुरा नहीं रह जाता। जिसे बहुमत से अच्छा माना जाता है, उसकी सार्वजनिक ऐसी-तैसी की जाती है। कह सकते हैं कि होली एक ऐसा स्वच्छ दर्पण है जिसके हम, हमारा समाज, हमारी तथाकथित संस्कृति सब निर्वस्त्र हो कर खड़े हो जाते हैं और अपने पर जितना इतराते हैं उतना ही सकुचाते भी हैं। क्या ही अच्छा हो कि हम रोज एक घंटा होली के मूड में आ जाया करें और दिन भर के गर्दो-गुबार को झटक कर साफ चित्त से प्रकृति की उस नियामत की सुरमई गोद में बच्चों की तरह लेट जाया करें जिसे नींद कहते हैं और जो मृत्यु का एक लघु संस्करण है, ताकि अगली सुबह के बाल सूर्य की तरह हम भी ताजादम हो कर जीवन में वापसी का सुख अनुभव करते हुए अपने दिन भर के कामकाज में लग सकें। 000