गांधी मेरे भीतर
राजकिशोर
महात्मा गांधी से मुझे बहुत कष्ट है। सच तो यह है
कि जितना कष्ट उनसे है, उतना किसी और से नहीं।
सोते-जागते जब भी उनकी याद आती है, आत्मा पर
असह्य बोझ-सा महसूस होता हैं। ऐसा लगता है, जैसे
मैं उस तरह जी कर जिस तरह जी रहा हूं कोई पाप
कर रहा हूं। महापुरुष और भी हैं जिनकी जीवनी पढ़
कर मैं प्रेरित हुआ हूं या जिनसे कुछ सीखा है। लेकिन
उनसे डर नहीं लगता। मसलन आंबेडकर को पढ़ कर
खुद पर नहीं, हिन्दू समाज पर ग्लानि होती है। बर्ट्रेंड
रसेल की याद आती है, तो दुख होता है कि मेरे पास
उनके जैसी जानकारी और तार्किक दिमाग क्यों नहीं
है। इसी तरह शॉ और लोहिया का विट मुझे भला
लगता है। पर इनकी निकटता से मेरी आत्मा कोई
कचोट महसूस नहीं करती। कबीर के दोहे और पद
मधुर लगते हुए भी जैसे मेरे अस्तित्व को चिढ़ाते हैं।
लेकिन मैं यह मान कर अपने को तसल्ली दे लेता हूं
कि अनन्त में धूमी रमाना मेरे बस की बात नहीं है।
मार्क्स बहुत अच्छे लगते हैं, पर उन्हें पढ़ते हुए अपने
वर्तमान जीवन को ले कर तुरंत किसी चुनौती का
एहसास नहीं होता। शोषण की यह व्यवस्था खत्म
होनी चाहिए, यह बात मन में बार-बार आती है, पर
इसके लिए मैं अकेला क्या कर सकता हूं? मध्यवर्गीय
होते हुए भी मार्क्सवादी हुआ जा सकता है, इसके
असंख्य उदाहरण चारों ओर दिखाई देते हैं। मार्क्सवादी
होना नैतिक से ज्यादा राजनीतिक परिवर्तन नजर
आता है। लेकिन इतिहास और भूगोल, दोनों स्तरों पर
गांधी मेरे यानी मेरी पीढ़ी के भारतीयों के सबसे निकट
है, इसलिए उनका दबाव सबसे ज्यादा महसूस होता
है। वैसे भी गांधी मानो कुछ और ही चीज हैं। वे
तत्काल जीवन व्यवहार में परिवर्तन की मांग करते
हैं। गांधी को छोड़ कर मुझे कोई ऐसा व्यक्तित्व
दिखाई नहीं देता जिसने ठीक उसी तरह जिया हो
जिस तरह वह सोचता था कि आदमी को जीना
चाहिए। बाकी सभी महापुरुषों में कुछ न कुछ कमी
नजर आती है। ऐसा लगता है, वे अपने लिए कम
और दूसरों के लिए ज्यादा कह रहे हैं। लेकिन गांधी?
उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही, जिस पर वे खुद
अमल नहीं कर रहे हों। जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र
नहीं है जिसके लिए उनके पास कुछ व्यावहारिक संदेश
न हो। यही मेरा सिरदर्द है। कथनी और करनी में
फर्क होने पर पहले दुख होता था, अब शर्म आती है।
कोई व्यक्ति असंभव या असंभव-सी
बात कहता है, तो उससे तर्क करने का मन करता है।
लेकिन जब गांधी कहते हैं, तो कोई भी बात असंभव
नहीं लगती। मन में खयाल आता है कि जब गांधी
जी ने इसे संभव कर दिखाया, तो मुझे मुश्किल क्यों
होनी चाहिए? उदाहरण के लिए, जब डॉक्टर ने उच्च
रक्तचाप के कारण कस्तूरबा के लिए नमक खाना बंद
कर दिया, तो वे बिफर पड़ीं। डॉक्टर के जाने के बाद
उन्होंने गांधी जी से कहा कि तुमने चीनी तो पहले से
ही छुड़वा रखी है, अब मुझे नमक भी छोड़ना पड़ेगा।
फिर खाने में स्वाद क्या रह जाएगा? चाहे जो हो, मैं
तो नमक कभी नहीं छोड़ूंगी। गांधी जी ने बहुत
समझाया। लेकिन वे नहीं मानीं। इस पर गांधी जी
कुछ देर के लिए बाहर गए और लौट कर कस्तूरबा से
बोले -- ठीक है, तुम नमक छोड़ो या नहीं, मैं साल
भर के लिए नमक छोड़ रहा हूं। अब कस्तूरबा निरस्त्र
हो गईं। पति फीकी सब्जी खाए और पत्नी की सब्जी
में नमक पड़ा हो, यह कैसे हो सकता है? सो
कस्तूरबा को भी नमक छोड़ना पड़ा। यह प्रेम की
शक्ति थी, जिसके चलते महात्मा कोई भी त्याग कर
सकता था।
जहां तक मेरा सवाल है, तभी-कभी
लगता है कि मुझमें न किसी और के प्रति प्रेम है, न
अपने आपसे कोई वास्तविक लगाव है। अन्यथा क्या
कारण है कि मैं साधारण से साधारण त्याग भी नहीं
कर पा रहा हूं? पत्नी बहुत चाहती है कि मैं सिगरेट
पीना छोड़ दूं। डॉक्टर कई बार कह चुके हैं। एक बार
तो एक डॉक्टर नाराज भी हो गए थे। मैं रोज प्रतिज्ञा
करता हूं कि कल सुबह से या यह पैकेट खत्म हो
जाने के बाद सिगरेट छोड़ दूंगा। इसके चलते सप्ताह
में दो-तीन दिन सिगरेट पीना कम हो जाता है। फिर
पुरानी बीमारी लौट आती है। मैं अपने आप पर
शर्मिन्दा होता हूं, खुद को कोसता हूं, इस बार पहले
से ज्यादा मजबूती से संकल्प करता हूं, पर तलब
उठते ही समर्पण कर देता हूं।
मिठाई खाने का मामला भी ऐसा ही
है। मुझे सात-आठ साल से मधुमेह है। मिठाई खाना
सख्त मना है। लेकिन मौका मिलते ही मिठाई पर इस
तरह टूट पड़ता हूं जैसे मुझे कोई देख न रहा हो।
त्यौहारों के मौसम में तो अति हो जाती है। इसके
लिए बार-बार पत्नी से डांट खाता हूं। अब तो बेटी भी
मुझ पर हंसती है। पर अपनी आदत नहीं छोड़ पाता।
दो हफ्ता पहले मैंने अपने एक मित्र परिवार के सामने
प्रतिज्ञा कर ली कि आज से मिठाई बंद। कई दिनों
तक इस पर टिका रहा। एक दिन पत्नी ने प्रेमवश यह
कह कर एक मिठाई खिला दी कि कभी-कभी खाने में
कोई हर्ज नहीं है। उसके बाद मानो मेरी आत्म-वर्जना
टूट गई। मैंने कई बार अपने मन से मिठाई खा ली।
गांधी जी के प्रभाव से, इसे घरवालों से छिपाया नहीं।
लेकिन नहीं छिपाने से क्या गलत सही हो जाता है?
फिर मैं यह दावा कैसे कर सकता हूं कि गांधी से मुझे
बहुत प्रेरणा मिलती है? क्या खाक प्रेरणा मिलती है,
अगर मैं छोटी-ठोटी बातों में भी दृढ़ नहीं रह पा रहा
हूं? मैं जानता हूं कि सिगरेट न पीने और मिठाई न
खाने के लिए गांधी जैसे महात्मा से प्रेरणा लेने की
कोई जरूरत नहीं है। यह काम तो ऐसा कोई भी
व्यक्ति कर सकता है, जिसमें थोड़ा-सा संयम हो। अगर
मैं यह मामूली-सा संयम नहीं पाल पा रहा हूं, तो मेरे
लिए धिक्कार ही धिक्कार है! मैं किस मुंह से गांधी
को पढ़ता हूं और किस मुंह से लिखता हूं कि आज
अगर कहीं रास्ता है, तो वह गांधी के आस-पास है !
यह जरूर है कि गांधी जी की
मानसिक संगत में रहते हुए मैं अपनी कई बुराइयों से
मुक्त होने की दिशा में बढ़ा हूं। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि
अब बहुत कम सताते हैं। जब मैं सुनता हूं कि अमुक
दो लाख पा रहा है या तमुक विदेश जा रहा है या
फमुक ने शानदार गाड़ी ले ली है, तो मन बिलकुल
नहीं कचोटता। दूसरों की सहायता करने में आनंद
आने लगा है। अपने बारे में कम, समाज के बारे में
ज्यादा सोचता हूं। भाषा में अहिंसा को साधने की
कोशिश कर रहा हूं। दूसरों पर कम हंसता हूं, अपने
पर ज्यादा। लेकिन यह सब राजमहल में चूड़ा खाने
जैसा लगता है। यह व्यथा हमेशा सताती रहती है कि
इन मामूली परिवर्तनों से क्या होने वाला है? अगर
गांधी कभी स्वप्न में मुझसे रिपोर्ट मांगें, तो मैं क्या
जवाब दूंगा?
।।।
सादगी एक गुण है, पर गांधी जी के विचार से यह
आवश्यकता भी है। जिस देश के लोग सादगी से नहीं
रह सकते, वहां कोई भी अर्थव्यवस्था काम नहीं कर
सकती। सादगी से लगाव न होने का मतलब है, भीतर
कहीं लालच कुलांचें भर रहा है और लालच, सच में,
सभी बुराइयों की जड़ है। फिर, सादगी का संबंध
सौंदर्य बोध से भी है। रचाया हुआ सौंदर्य नजरों को
भाता है, लेकिन हमेशा नहीं। जब इस सुंदरता की
व्यक्तिगत और सामाजिक लागत की याद आती है, तो
यह कुरूप नजर आने लगती है। सादगी सुघड़ता ही
नहीं, शक्ति भी है। सिद्धांत के तौर पर और उससे भी
ज्यादा आदतवश सादगी का पालन करनेवाला आदमी
भय पर सहज ही काबू पा लेता है। उसकी निर्भयता
ज्यादा टिकाऊ होती है। गांधी जी को जहां तक समझ
पाया हूं, सादगी जीवन का एक केंद्रीय सूत्र है। जिसने
सादगी की भावना खो दी या अर्जित ही नहीं की,
उससे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। वह दिन-रात
कामनाओं के भंवर में गोते खाता रहेगा। जो लोग
सामाजिक जीवन जीते हैं, उनके लिए तो सादगी से
रहना और भी जरूरी है।
इस मोर्चे पर मैं अपने को दिवालिया
तो नहीं पाता, पर बहुत मजबूत भी नहीं पाता। जब
तक मैं दिल्ली नहीं आया था, मेरे जीवन में काफी
सादगी थी। इसका एक कारण यह था कि मेरी
आमदनी कम थी। एक कारण, एकमात्र कारण नहीं,
क्योंकि किशोरावस्था के कुछ जिज्ञासु और लालच-सने
दिनों को छोड़ कर विचलन, विलासिता या फिजूलखर्ची
के लिए कोई तड़प मैंने अपने भीतर नहीं पाई। इसी
कारण मैं न पद की होड़ में पड़ा न पैसा कमाने की
वासना मुझे जकड़ सकी। दिल्ली आने के कई वर्षों
तक कलकत्ता का यह प्रभाव मेरे भीतर अक्षत रहा।
लेकिन अब पाता हूं कि मैं कई प्रकार की अनावश्यक
सुविधाओं के मकड़जाल में घिर गया हूं। निजी कार
के बिना भी अच्छी तरह आना-जाना किया जा सकता
है, यह अच्छी तरह जानते हुए भी ऐसा लगता है कि
काफी दिनों तक उससे छुटकारा नहीं है। व्यक्तिगत
जीवन में एअरकंडीशनिंग का विरोधी मैं अब भी हूं,
पर उसका मोह छोड़ा नहीं जाता। कपड़ों तथा निजी
उपभोग सामग्री पर पर खर्च बहुत कम किया जा
सकता है, पर यह भी मात्र कार्य-सूची का अंग बन
कर रह गया है। थैेले, कलम, स्टेशनरी आदि पर मैं
जो पैसे फूंक देता हूं, उससे कई उपयोगी काम किए
जा सकते है। मेरी एक बड़ी समस्या समय की बरबादी
है। मैं जितने ज्यादा घंटे सोता हूं, उसे ले कर
अपराध भावना हमेशा बनी रहती है। इसका एकमात्र
सकारात्मक पहलू यह है कि उतने घंटे कोई गलत
काम करने से बचा रहता हूं। आलसी आदमी न पाप
कर सकता है, न पुण्य। सादगी अगर एक बुनियादी
मूल्य है, तो यह नींद, आराम, सुख, गति सभी चीजों
पर लागू होता है। दरअसल, यह मूल्य किसी भी क्षेत्र
में अतिवाद के खिलाफ एक कारगर तावीज है। पिछले
कुछ वर्षों में मैंने अपने कई अतिवादों से मुक्ति पाने
की कोशिश की है और कुछ में थोड़ी-बहुत सफलता भी
पाई है, पर दिन में बीसियों बार यह दिखाई पड़
जाता है कि मुझे अभी दूर, बहुत दूर जाना है।
।।।
गांधी जी के सेक्स संबंधी विचारों से मैं कभी सहमत
नहीं हो पाया। उन्होंने जैसा यौन जीवन जिया, उसकी
मैं आलोचना नहीं करता। यह उनकी मान्यताओं का
एक मूलभूत हिस्सा था। संयम के उनके प्रयोगों को ले
कर, जिन्हें नासमझी के कारण सेक्स के प्रयोग कहा
जाता है, मुझमें उत्सुकता जरूर है, पर मैं उन
प्रयोगों का निरादर नहीं करता। मैं जानता हूं कि
महात्मा के ज्ञान और अनुभव के सामने हम लोग
उनके पैरों की धूल भी नहीं हैं, इसलिए उन पर शक
करने की बात भी मन में नहीं आती। लेकिन ब्रह्मचर्य
को वे जीवन में जितना केंद्रीय स्थान देते थे, वह मुझे
एक असंभव मांग लगती है। गांधी जी ने स्वयं लिखा
है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद चार बार उनका
मन, जिसे साधने के लिए उन्हें अपने ऊपर जबरदस्त
नियंत्रण बनाए रखना पड़ता था, वासना से विचलित
हुआ। हो सकता है, गिनती करने में उनसे कुछ भूल
भी हुई हो।
मैं इस विषय में अपने को ले कर
किसी भी तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं हूं।
मुझे अपनी कमजोरियों का पता है। इनके कारण मुझे
काफी दुख उठाना पड़ा है। मेरी पत्नी सहज ही
क्षमाशील नहीं होती, तो मेरी गृहस्थी टूट सकती थी।
यह सच है कि विवाह के बाद मैंने कोई मर्यादा नहीं
तोड़ी। लेकिन दोस्ती की प्रगाढ़ता में काफी दूर तक
बहा। अब मुझे लगता है कि यह ठीक नहीं था,
क्योंकि इरादे में भले ही कोई मलिनता न रही हो, पर
व्यवहार के स्तर पर गोपनीयता तो थी ही। किसी भी
स्त्री या पुरुष का अन्य पुरुषों या स्त्रियों से जो भी
संबंध बने, उसमें गोपनीयता का कोई तत्व नहीं होना
चाहिए, नहीं तो तूफान पैदा हो सकता है। संबंधों में
वास्तविक खुलापन तभी आ सकता है जब जीवन में
भी खुलापन हो। यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि
दैहिक संबंध हुए या नहीं। वासना की शुरुआत कल्पना
से होती है। वहां संयम खो देने पर आगे का रास्ता
और रपटीला हो जाता है। यह रपटीलापन मेरे लिए
कम दुख का कारण नहीं है।
अपनी इसी पृष्ठभूमि के कारण और
जमाने के हालात देखते हुए, जहां कदम-कदम पर,
अखबार में, टीवी पर, रेडियो पर, पोस्टरों और होर्डिंगों
में कामुकता को जगाने और बढ़ाने वाला वातावरण
बनाया जा रहा है, दिनों-दिन पवित्रतावाद की तरफ
मेरा वैचारिक झुकाव बढ़ रहा है। मुझे लगता है कि
यह फ्रायड को याद रखने का सही समय नहीं है।
फ्रायड पर पूंजीपतियों ने कब्जा कर लिया है। वे उसके
बहाने से हमारा आत्मिक विनाश करने पर तुले हुए
हैं। इस चुनौती के सामने अतिरेकी तो नहीं, पर
संतुलित पवित्रतावाद निश्चय ही एक कारगर औजार
का काम कर सकता है। जब हम अन्य दृष्टियों से भी
स्वस्थ समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होंगे, तब
नर-नारी संबंधों को भी उदार और जानदार बनाने के
कार्यक्रम पर अमल किया जा सकता है। अन्य मामलों
में संरक्षणशील रहते हुए सिर्फ एक मामले में
क्रांतिकारी इच्छाओं का जोर मारना प्रतिक्रियावाद का
ही एक रूप है। इसीलिए जिस यौन क्रांति का पहले मैं
समर्थन करता था, उसके पीछे, भारत की वर्तमान
परिस्थिति में, मुझे देहवाद का ज्वार नजर आता है।
यौन क्रांति सामाजिक क्रांति का एक बहुत छोटा-सा
हिस्सा है।
अपनी इस दृष्टि के लिए मैं गांधी जी
का ऋणी हूं। इस पर मैं स्वयं कितना अमल कर
पाता हूं, यह मेरे लिए हमेशा परीक्षा में बैठने की तरह
उद्विग्नतापूर्ण होता है।
।।।
लेकिन मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? क्या मैं गांधी
जी की 'आत्मकथा' की नकल करना चाहता हूं? क्या
मैं सार्वजनिक रूप से अपनी कमियों की चर्चा कर
किसी प्रकार की महानता का दावा कर रहा हूं? अगर
ऐसा है, तो मुझसे बढ़ कर नीच कोई और नहीं हो
सकता।
दरअसल, गांधी को जानने की प्रक्रिया
अपने भीतर से ही शुरू होती है। वे लगातार
आत्मपरीक्षण के 'मोड' में रहते थे। यह कुछ-कुछ
लेखक होने की नियति की तरह है, जो निर्द्वंद्व हो कर
कुछ भी भोग नहीं सकता। भोक्ता होने के साथ-साथ
वह दर्शक और आलोचक भी होता है। कायदे से हर
आदमी को ऐसा ही जीवन जीना चाहिए। इसी रास्ते
से सत्य से साक्षात्कार होता है या हो सकता है। पहले
मैं गांधी के प्रसंग में जो कुछ लिखता था, वह एक
प्रकार से सामाजिक चर्चा थी, जिसका आत्मानुभव से
कुछ भी लेना-देना नहीं था। वह महज विचार था।
लेकिन गांधी जी कोई विचारक नहीं थे। वे विचारशील
जरूर थे और मैं दावा कर सकता हूं कि अच्छा जीवन
जीने के लिए यह काफी होता है। गांधी जी की
विचारशीलता ही उन्हें कर्तव्य की प्रयोगशीलता का
रास्ता दिखाती थी। उन्होंने अपने जीवन को 'सत्य के
प्रयोग' माना है। सत्य की दिशा में पहला कदम सच
बोलना है। उसके बाद ही सत्य के गहनतर रूपों से
मुठभेड़ होती है। इसीलिए मैं इस साहस के मूल्य को
मैं समझ पाया हूं कि मुझे अपने जीवन को ज्यादा से
ज्यादा पारदर्शी बनाना चाहिए। यह नोट इसी दिशा में
एक छोटा-सा कदम है।
गांधी जी के अनुसार, सत्य जीवन की
प्रयोगशाला में ही मिलता है। आंखें बंद कर ध्यानस्थ
होना ऋषियों के लिए जरूरी होगा, हमारे लिए
वांछनीय यह है कि हम अपनी सक्रियताओं में ही
सत्य का संधान करें। व्यक्ति और समाज के लिए सही
रास्ता क्या है, यह जानने के लिए गांधी जी ने अपने
व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक-राजनीतिक जीवन
में तरह-तरह के प्रयोग किए। इनमें से कुछ सफल
हुए, कुछ नहीं। अपनी विफलताओं का जितना मार्मिक
वर्णन खुद गांधी जी कर गए हैं, कोई और क्या
करेगा। फिर भी वे निश्चेष्ट कभी नहीं हुए। इसीलिए
मुझे अगर गांधीवाद अच्छा लगता है, तो मैं अपनी
इस परख को व्यक्तिगत और सामाजिक प्रयोगों के
माध्यम से ही सत्यापित कर सकता हूं।
जाहिर है, यह चुनौती बहुत ही भारी
है। इसके बारे में सोचते ही मन कांपने लगता है और
पैर लड़खड़ाने लगते हैं। लेकिन यह कोई असंभव
चुनौती नहीं लगती। इस चुनौती का सामना करने में
मैं बिलकुल विफल रहा, तो यही साबित होगा कि मैं
कमजोर, कायर और ढोंगी हूं। लेकिन तब भी मैं यही
कहूंगा कि मैं चलने में असमर्थ रहा तो क्या, सत्य
का रास्ता यही है, यही है, यही है। आमीन।
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1 comment:
आपकी इस पोस्ट से गांधी के प्रति तो सम्मान भाव बढता ही है, मैं आपको भी एक नए आलोक में देख पा रहा हूं . बेहद अच्छी पोस्ट .
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