Saturday, September 8, 2007

अंग्रेजी और भारतीय लेखन

बुद्धिजीवियों में जाति प्रथा
राजकिशोर
समाजवादियों और कम्युनिस्टों में दांतकाटी रोटी नहीं तो सहयात्री का भाव तो होना ही चाहिए था। आखिर दोनों ही वर्गहीन समाज के लिए काम करते हैं या कहिए, काम करते थे, क्योंकि आजकल वर्गहीन समाज का नाम कौन लेता है ! लेकिन इतिहास में इन दोनों विचारधाराओं के बीच कटु संघर्ष चलता रहा है, जो दुर्भाग्यवश आज भी जारी है। इसका कारण यही हो सकता है कि सत्ता के लिए प्रतिद्वंद्विता दोनों करते थे। जब सत्ता बीच में आ जाती है, तो विचार का उपयोग पूंजी की तरह होने लगता है और पूंजियों की तरह विचार भी अपने वर्चस्व के लिए आपस में टकराने लगते हैं। भारत में भी यही होता आया है। भारत के कम्युनिस्टों की सबसे सच्ची और प्रखर आलोचना अगर किसी ने की है, तो वे भारत के समाजवादी ही हैं -- खासकर राममनोहर लोहिया वाली धारा के। दूसरी ओर, समाजवादियों की ओर जितनी घृणा के साथ कम्युनिस्टों ने देखा है, उतनी घृणा के साथ किसी और राजनीतिक समूह ने नहीं। यह अकारण नहीं है कि कम्युनिस्ट पतित होता है, तो वह सीधे कांग्रेस में जाता है या उसका सहयोगी बन जाता है। एक समय में कहा जाता था कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस का दूसरा घर है। लेकिन समाजवादी पतित होता है, तो वह कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ कर किसी भी पार्टी में जा सकता है -- यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी में भी। उदाहरण के लिए, जॉर्ज फर्नांडीज अगर कम्युनिस्ट हो गए होते, तो मैं उन्हें बधाई दे सकता था, लेकिन वे भाजपा की तरफ चले गए और इसके लिए शर्मिंदा होने को आज भी तैयार नहीं हैं। हो सकता है, कोई पूर्व कम्युनिस्ट भी भाजपा में मिल जाए। पत्रकारिता में, खासकर अंग्रेजी की पत्रकारिता में, इसके कई मशहूर उदाहरण हैं। मनोविज्ञान के विद्यार्थियों के लिए अध्ययन का यह एक उचित विषय है।
इस मामले में मेरा अपना अनुभव कुछ अलग नहीं रहा है। मेरे कम्युनिस्ट मित्रों को मेरा लेखन कभी अच्छा नहीं लगा। लेकिन इस बात को वे सीधे व्यक्त नहीं करते थे। इसकी सजा मुझे अन्य रूपों में मिलती रही। मुझे पूरा विश्वास है कि अगर भारत की सभी पत्र-पत्रिकाओं में कम्युनिस्ट बुध्दिजीवियों का कब्जा होता, तो मैं न तो पत्रकार बन पाता और न ही मेरा कोई लेख कहीं छप पाता। हाल ही में एक श्रेष्ठ कम्युनिस्ट कथाकार ने फोन पर मुझे बताया कि उनकी निगाह में मेरा कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि मैं कम्युनिज्म की आलोचना करता हूं। मैंने उन्हें याद दिलाया कि आलोचना मैं कम्युनिज्म की नहीं, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों की करता रहा हूं और आज भी करता हूं, तो उन्होंने और भी गुस्से में आ कर कहा कि बहकाइए मत, दोनों एक ही बात है। मैं अवाक रह गया कि इतना अच्छा कथाकार और इतना साफ सोचनेवाला आदमी विचारधारा और उसके अनुयायियों को एक मान सकता है। जैसे कोई भक्त यह दावा करने लगे कि यह भगवान की मूर्ति नहीं है, यह मूर्ति ही भगवान है -- मूर्ति के बाहर कोई भगवान नहीं है। जब किसी विचारधारा के लोग यह मानने लगें कि वे ही विचारधारा हैं, तो इससे उनका और विचारधारा, दोनों का नुकसान होता है। इससे अधिक नुकसान तब होता है, जब विचारधाराएं एक-दूसरे के साथ मित्रतापूर्वक पेश आने के बजाय दुश्मनी के संबंध बना लेती हैं। कहा जा सकता है कि प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं में विरोध के अलावा और कौन-सा संबंध हो सकता है ? यह सही है। लेकिन जिन विचारधाराओं के बीच रात और दिन का रिश्ता नहीं है, उनके बीच तो सहृदय संवाद हो ही सकता है। जैसे आस्तिक के तर्क सुनने के बाद नास्तिक ईश्वर में विश्वास करने लगता है और नास्तिक के तर्क सुनने के बाद आस्तिक ईश्वर से अपना रिश्ता तोड़ लेता है, उसी तरह हो सकता है कि एक ईमानदार और अच्छी बहस के बाद समाजवादी कम्युनिस्ट और कम्युनिस्ट समाजवादी हो जाए। लेकिन इसकी संभावना तभी होती है, जब विचारधारा सत्य की खोज का एक माध्यम हो। जब विचारधारा को ही सत्य मान लिया जाए, तो विकास या परिवर्तन से नफरत शुरू हो जाती है। मैं कई दफा सीपीएम में शामिल होने की इच्छा जाहिर कर चुका हूं, पर पार्टी के किसी भी नेता ने इस पर विचार नहीं किया।
यह सब याद आया रांगेय राघव द्वारा पुनर्लिखित -अंतर्मिलन की कहानियां - में मतंग नामक तपस्वी की कहानी पढ़ कर। मतंग का जन्म एक ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था, जिसका पति शूद्र था। अत: मतंग को भी शूद्र ही माना गया। एक घटना के बाद उन्होंने ब्राह्मण बनने का निश्चय किया। उन्होंने घोर तपस्या करना शुरू कर दिया। इंद्र का आसन डोलने लगा। वह आए और मतंग को वर देने की इच्छा प्रगट की। मतंग ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं तो सिर्फ ब्राह्मण बनना चाहता हूं। यह सुन कर इंद्र ने कहा, हे तपस्वी, ब्राह्मणत्व प्राप्त करना तो अत्यंत दुर्लभ कार्य है। तुम इस असाध्य वस्तु की अभिलाषा मत करो। ब्राह्मणत्व सबसे श्रेष्ठ है। वह तपस्या करने से प्राप्त नहीं हो सकता। यह कह कर इंद्र लौट गए। मतंग ने और कठिन तपस्या शुरू कर दी। इंद्र फिर आए। लेकिन मतंग को तो ब्राह्मणत्व ही चाहिए था, कुछ और नहीं। इंद्र को फिर निराश हो कर लौट जाना पड़ा। मतंग की तपस्या और उग्र हुई। जान पर बन आई। इंद्र फिर प्रगट हुए और उसे समझाया कि ब्राहमणत्व तो मिलने से रहा। तुम बाकी कुछ भी मान लो। मतंग ने प्रश्न किया, हे देवराज, ब्राह्मणत्व के-से कर्म करके भी मैं ब्राह्मण क्यों नहीं बन सकता? जबकि बहुत ब्राह्मण ऐसे हैं, जो जन्म से ब्राह्मण हो कर भी ब्राह्मण का सा-सा आचार नहीं करते, क्या वे फिर भी ब्राह्मण हैं? जब समाज में ऐसे व्यक्तियों को ब्राह्मण कह कर स्वीकार किया जाता है, तो फिर मैं श्रेष्ठ कर्म करके भी ब्राह्मण क्यों नहीं बन सकता ? इंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। मजबूर हो कर तपस्वी मतंग को कोई और वर स्वीकार करना पड़ा। क्या इंद्र इतने अज्ञानी थे कि उन्हें जाति प्रथा के बुनियादी नियम तक मालूम नहीं थे ? क्या हमारे आज के बुध्दिजीवी इतने मासूम हैं कि वे जाति प्रथा को मजबूती से अपनाए हुए हैं ? 000

2 comments:

अनुनाद सिंह said...

राजकिशोर जी आपका हिन्दी चिट्ठाजगत में स्वागत है।

यदि आपने अपना चिट्ठा 'नारद' पर रजिस्टर नहीं कराया हो तो जरूर करा लें।
http://narad.akshargram.com/

इससे आपकी प्रविष्टियों के बारे मे सभी लोगों को बिना प्रयत्न जानकारी मिलती रहेगी।

Anonymous said...

चिट्ठेकारी शुर करने पर बधाई । सातत्य जरूरी है। कभी मार्क्स की राजनीति पर उपदेश दीजिएगा,उम्मीद है। 'शायद हमारे लिए उपयोगी हो'!