देवता बनाम मनुष्य
राजकिशोर
ईश्वर मनुष्य के लिए है या मनुष्य ईश्वर के लिए? यह सवाल ही बेहूदा है। क्योंकि ईश्वर मनुष्य-विरोधी नहीं हो सकता। वह नहीं चाहता तो हम पैदा ही नहीं होते। उसने हमें जन्म दिया है, तो वह हमारे हितों की फिक्र भी करेगा। दूसरी तरफ, मनुष्य अगर ईश्वर के लिए है, तो ईश्वर की संहिता ऐसी नहीं हो सकती जिसमें मनुष्य के भले की चिंता न की गई हो। इसलिए मनुष्य और ईश्वर में कोई द्वैध नहीं है। द्वैध या तो अज्ञान से पैदा होता है या फिर अहंकार से। मनुष्य अगर विनम्र हो कर ईश्वर के पास जाए, तो वह निराश नहीं लौटेगा। ऐसे लोग या संगठन सामयिक तौर पर ही सफल हुए हैं जिन्होंने मनुष्य को देवताओं से या देवताओं को मनुष्य से लड़ाने का षडयंत्र किया है। अंतत: तो मनुष्य और ईश्वर की चेतना एक ही सूत्र से बंधी हुई है, जिसे हम चाहें तो सत्य कह सकते हैं।
सेतु समुद्रम योजना के संदर्भ में हिन्दूवादी नेताओं ने न तो धार्मिक व्यक्ति की विनम्रता दिखाई है और न ही सत्य के प्रति समर्पित व्यक्ति का साहस। उनकी एक बुनियादी कमी यह है कि भारत को श्रीलंका से जोड़ने वाली इस लघुद्वीप श्रंखला को उन्होंने सिर्फ अपनी परंपरा के अनुसार याद किया है। एक अच्छे और ज्ञान-पिपासु हिन्दू के रूप में यह नाकाफी है। यह भी बताया जाना चाहिए था कि रामसेतु को इस्लाम और ईसाई धर्मों में भी मान्यता दी गई है। वहां इसे आदम के पुल के रूप में याद किया जाता है। मान्यता यह है कि प्रथम मनुष्य आदम श्रीलंका स्थित आदम शिखर पर तपस्या करने के लिए इसी राह से गुजरे थे और जहां-जहां उनके पदचिह्न पड़े, वहां-वहां लघुद्वीप बन गए। इस्लाम के अनुसार आदम ने इस शिखर पर एक हजार वर्षों तक एक पैर पर खड़े हो कर प्रायश्चित किया था। ईसाइयत की एक धारा मानती है कि श्रीलंका ही वह स्वर्गोद्यान है, जहां आदम की पैदाइश हुई थी और शैतान के बहकावे पर ज्ञान का फल खा लेने के कारण आदम और ईव को जहां से बहिष्कृत किया गया था। आश्चर्य है कि श्रीलंका सरकार का पर्यटन विभाग अपने विज्ञापनों में इन मान्यताओं का उपयोग क्यों नहीं करता। क्या इसलिए कि वहां बौध्दों की बहुतायत है? एक धर्म किस तरह दूसरे धर्म की मान्यताओं का दमन या उनकी उपेक्षा करने का प्रयास करता है, यह इसका एक अच्छा उदाहरण है। शायद इसीलिए विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता हिन्दू धर्म की पुस्तकों को छोड़ कर कोई और किताब नहीं पढ़ते, जब कि दूसरे धर्मों की किताबें भी उतनी पवित्र मानी जानी चाहिए जितनी अपने धर्म की। अगर सच्चा नहीं है तो कोई भी धर्म सच्चा नहीं है, नहीं तो सभी धर्म समान रूप से सच्चे हैं।
वर्तमान समस्या यह है कि राम सेतु की मान्यता अगर सही भी है, तो क्या सेतु समुद्रम की परियोजना पर अमल करना गलत होगा? यह एक बड़ा सवाल है और इसका संबंध सिर्फ भाजपा से नहीं है। बताते हैं कि इस परियोजना पर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने स्वीकृति की पहली मुहर लगाई थी। इससे भी ज्यादा महत्व की बात यह है कि अपने घटनापूर्ण छह वर्षों में वाजपेयी सरकार ने राम के जीवन से संबंधित माने जाने वाले प्रसिध्द स्थानों का पुरातात्विक परीक्षण करने की कोई योजना नहीं बनाई। जो सरकार राम नाम पर ही टिकी हुई थी, उसकी इस दर्जे की धर्म-निरपेक्षता हैरत पैदा करती है। जबरदस्त सचाई यह है कि इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं था। राम को ऐतिहासिक पुरुष साबित करने के प्रयत्नों से परस्पर-विरोधी साक्ष्य सामने आ सकते हैं, जैसा कि राम जन्मभूमि मंदिर के नीचे की जमीन के पुरातात्विक परीक्षण बताते हैं। देश में सैकड़ों जगह राम, कृष्ण, विष्णु, शिव, काली, दुर्गा, नारद, अर्जुन, भीम आदि की स्मृति से जुड़े स्थल, नदी तट, गुफाएं, पर्वत खंड आदि मिल जाएंगे। क्या ये सभी ऐतिहासिक रूप से सच ही होंगे? पुरातत्व से इस कठिन प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता। पुरातत्व विज्ञान है। वहां प्रमाण का दर्जा आस्था से ऊपर है। पुरातत्व के क्षेत्र में भी मतभेद होते हैं, पर तर्क के आधार पर उनका समाधान हो सकता है, बशर्ते नीयत खराब न हो। संघ परिवार एक ही रंगत की बातें करता है, इसलिए उससे तर्क नहीं किया जा सकता। लेकिन मामला पूरे हिन्दू समाज और इस्लाम तथा ईसाइयत का भी है। राम सेतु और आदम के पुल तब से अस्तित्व में हैं, जब बड़ा से बड़ा ज्योतिषी तक संघ परिवार के जन्म की भविष्यवाणी भी नहीं कर सकता था।
सवाल यह है कि देवताओं की जन्मपत्री खोजी भी क्यों जाए? देवता फोटोयुक्त आई कार्ड ले कर नहीं धूमते थे। असली राम की तसवीर कौन बना सकता है? ईश्वर और देवता धरती और आकाश से ज्यादा हमारी आत्मा में निवास करते हैं। वहीं उनसे साक्षात्कार भी होता है। लेकिन कमजोर मानव मन अपने देवताओं का सगुण रूप में देखना चाहता है। तभी मूर्तियां बनती हैं, देवालय खड़े किए जाते हैं। लेकिन आस्था की ये मोहक अभिव्यक्तियां मनुष्य के विकास में बाधक क्यों बनें? यहां मैं एक छोटी-सी कल्पना करना चाहता हूं। मान लीजिए कि मुझे अपने शहर में एक जरूरी सड़क बनानी है। लेकिन एक प्राचीन मंदिर उसके रास्ते में पड़ता है। ऐसी स्थिति में कर्तव्यसम्मत तरीका क्या होगा? क्या उस मंदिर को न छेड़ते हुए सड़क का रास्ता बदल दिया जाए? मान लीजिए कि यह विकल्प बहुत खर्चीला है, जैसा कि सेतु समुद्रम परियोजना के मामले में दिखाई देता है। तो क्या कोई दूसरा रास्ता भी है? मेरे विचार से, है। मंदिर में अवस्थित देवता से क्षमा मांगते हुए मंदिर का निर्माण कहीं और किया जा सकता है और मूल परियोजना के अनुसार ही सड़क बनाई जा सकती है। इससे लोक-परलोक एक साथ सध जाते हैं। देवता का अपमान भी नहीं होता और सड़क भी बन जाती है। वास्तव में, देवता और सड़क, दोनों के बीच कोई द्वैध नहीं है। जिन्हें देवता चाहिए, उन्हें सड़क नहीं चाहिए, यह नहीं कहा जा सकता। जिन्हें सड़क चाहिए, वे देवता का अपमान करना क्यों चाहेंगे? मंदिर के गिर जाने से देवता की मृत्यु नहीं हो जाती। ईश्वर हर कहीं है। उसे कहीं भी साकार किया जा सकता है। फिर स्थानविशेष पर क्यों लड़ा जाए? भूगोल अगर इतिहास की गति को रोकना चाहेगा, तो उसे पराजित होना पड़ेगा।
दूसरे शब्दों में, राम का ऐतिहासिक अस्तित्व था या नहीं, यह विवाद सेतु समुद्रम परियोजना के आड़े नहीं आना चाहिए। सीधा और भला रास्ता यह है कि जिन लघुद्वीपों को हटाया जाना है, उनकी निर्माण सामग्री को पुरातत्त्व विभाग में संरक्षित कर लेना चाहिए, ताकि जरूरत होने पर शोध किया जा सके। यह सामग्री इतनी ज्यादा है कि विश्व हिंदू परिषद तथा अन्य संगठन भी उसका एक हिस्सा शोध या आस्था के लिए ले जा सकते हैं। उसके बाद जिन-जिन वर्गों की भावना आहत हो सकती है, उनसे क्षमा मांगते हुए नहर निर्माण का काम शुरू किया जा सकता है। विद्वान लोग और भी बेहतर तरीके खोज सकते हैं।
ऐसा करने से धर्मनिरपेक्षता पराजित नहीं होती है। बल्कि सम्मानित और स्वीकृत होती है। पूर्णत: नास्तिक, धर्मविहीन होते हुए भी इस तरह की कार्य पध्दति अपनाई जा सकती है। सरकार को धर्मनिरपेक्ष होना ही चाहिए, लेकिन सरकार, जो सबकी है और सबके लिए है, होने के नाते उसे समाज के सभी वर्गों की संवेदना का सम्मान भी करना चाहिए। यह सम्मान करते हुए ही -- या, करते हुए भी -- धर्मनिरपेक्षतावादी अपनी विचारधारा पर अमल कर सकते हैं और उसे फैला सकते हैं। धर्म का प्रादुर्भाव इसीलिए हुआ था कि वह मनुष्य को विनीत और संवेदनशील बना सके। धर्म ने यह काम एक हद तक किया भी है। तभी गांधी, रामकृष्ण परमहंस, सूफी साधु और शायर तथा मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी हस्तियां पैदा हो सकी हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का सिध्दांत भी इसीलिए सामने आया है कि वह मनुष्य को बेहतर बना सके। इसी धारा से मार्क्स, लेनिन और माओ जैसे व्यक्तित्व पैदा हुए। विवेक की विनम्रता से कोई दुश्मनी नहीं है। धर्म के नाम पर की जाने वाली कलही राजनीति को धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों ही रास्तों से पराजित किया जा सकता है। मुश्किल यह है कि इस समय भारतीय समाज में धर्म और धर्मनिरपेक्षता, दोनों ही अपने सहज कर्तव्यों से च्युत नजर आते हैं।
3 comments:
मेरी सलाह मानें तो ब्लाग्स के लिए मौलिक लेखन करिए. छपे हुए को मत ठेलिये.
कुछ करना हि है तो देश कि तरक्की करो| लेकिन ये लोग तो देश कि तरक्की मे रोडा है| सरकार को कुछ करने से पहले एक जाच होनी चाहिये कि टापु राम ने बनाये है| इनको भी पता तो चले|
इस लेख में जिस विनम्रता की ओर संकेत है,समूची तर्कशीलता और संतुलन के साथ वह विनम्रता और सदाशयता ही इस लेख को अत्यंत महत्वपूर्ण और ग्राह्य बनाती है . भारत जैसे विभिन्नताओं से भरे देश में यह विनयपूर्ण सच ही गांधी के सत्याग्रह की तरह कारगर साबित हो सकता है . अवज्ञा भी सविनय हो सकती है यह तो हमने गांधी से ही सीखा है .
इस बेहतरीन हस्तक्षेप के लिए मेरी बधाई स्वीकारें .
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