Tuesday, September 1, 2009

अपने को परिभाषित करने का समय

भाजपा को जरूरत है आत्मविसर्जन की
राजकिशोर


भारतीय जनता पार्टी अब उस बिन्दु पर आ गई है जहां उसे अपने को परिभाषित करना ही होगा। पार्टी की सारी समस्याएँ उसकी अस्पष्ट दिशा और नीति की वजह से हैं। अगर कोई यह समझता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक के हस्तक्षेप से भाजपा की समस्याएं सुलझ गई हैं, तो यह उसका भ्रम है। हुआ यह है कि अंदरूनी लड़ाई सिर्फ भीतर चली गई है। विचारधारा के स्तर पर कुछ भी सुलझा नहीं है। इसलिए भाजपा आगे भी बहुत दिनों तक ब्रेकहीन कार की तरह भटकती रहे तो हैरानी की कोई बात नहीं होगी।


इसलिए मुझे लगता है कि भाजपा के उद्धार के लिए अरुण शौरी ने जो रास्ता सुझाया है, वही ठीक है। भाजपा को या तो अपने आपको विघटित कर देना चाहिए या बचे रहने की तबीयत है तो अपने आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हवाले कर देना चाहिए। इस बारे में वह जितना पसोपेश दिखाएगी, अपना उतना ही ज्यादा नुकसान करेगी। सच पूछिए तो भाजपा आज जिस संकट की गिरफ्त में है, वह पैदा ही इसलिए हुआ है कि पार्टी ने उन लक्ष्यों को बिलकुल ताक पर रख दिया है जिनके लिए उसका गठन किया गया था। वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को अपनी विचारधारा बताती है, लेकिन उसके चरित्र में न संस्कृति के दर्शन होते हैं, न राष्ट्रवाद के। अरुण शौरी ठीक कहते हैं, भाजपा की हालत कटी पतंग जैसी हो चुकी है।

भाजपा कांग्रेस या सपा-बसपा की तरह कोई सामान्य पार्टी नहीं है। इसके साथ न तो जन आंदोलन का कोई इतिहास है न यह किसी नेता की महत्वाकांक्षा की उपज है। यह कहना भी सत्य नहीं है कि भाजपा भारत के सवर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करती है। उसके गठन के पीछे एक खास उद्देश्य था। उसका काम यह था कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लक्ष्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक स्तर पर सक्रिय रहे। शुरू में उसने अपना यह कर्तव्य मोटे तौर पर निभाया भी। इससे उसका जनाधार बना। पर धीरे-धीरे लोभ डसने लगा। राजनीतिक सफलता राजनीतिक लक्ष्यों पर हावी हो गई। इसी प्रक्रिया में पार्टी बरबाद होती गई। अब वह ‘xÉ खुदा ही मिला न विसाले ºÉxɨɒ की हालत में है। रोगी की समझ में नहीं आ रहा है कि वह कुछ दिन अस्पताल में भर्ती हो कर अपना इलाज कराए या बदपरहेजी करते हुए अपनी सेहत और खराब कर ले। दूसरी ओर झुकाव अधिक प्रबल जान पड़ता है।

कहना न होगा कि भाजपा के पतन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कम जिम्मेदार नहीं है। संघ ने जब तय किया कि उसे राजनीति में भी घुसना है, तो उसे सोचना चाहिए था कि वह अपने मानस पुत्र का सार-संभाल कैसे करेगी। बगैर देखभाल के लड़के अकसर आवारा हो जाते हैं। भाजपा में जब आवारगी के लक्षण दिखाई देने लगे, तभी संघ को सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए थे। ऐसा लगता है कि संघ को भाजपा की जितनी चिंता करनी चाहिए थी, उसने नहीं की। इससे हालत धीरे-धीरे बिगड़ती गई। इतने बिगाड़ के बाद जो भी हस्तक्षेप होगा, वह कारगर होगा या नहीं, इसमें शक है।

उदाहरण के लिए दो मुद्दे लिए जा सकते हैं - गोवध और अंग्रेजी। साठ के दशक में भाजपा का पूर्वावतार जनसंघ हमेशा गोवध पर पाबंदी लगाने के पक्ष में रहता था। इसके लिए उसने आंदोलन भी किया। लेकिन अब उसे गोवध रोकने को सार्वजनिक मुद्दा बनाने से शरम आती है। गोविंदाचार्य का यह सवाल अनुत्तरित है कि भाजपा के शासन में गोमांस के निर्यात में वृद्धि क्यों हुई। चरित्रगत दृढ़ता की मांग यह थी कि भाजपा के नेता साफ-साफ कहते कि गोवध और गोमांस भोजन के बारे में हमारी राय बदल चुकी है। पर वे ऐसा कह नहीं सकते। दरअसल, उनकी राय बदली नहीं है। पर सत्ता की मजबूरियों के कारण उन्होंने इसकी परवाह करना छोड़ दिया था कि गायों का क्या होता है। कायदे से भाजपा के नेतृत्व की संवेदना का विकास होना चाहिए था और उन्हें गाय के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं के जीवित रहने के अधिकार का कायल हो जाना चाहिए था। भाजपा के गोमांस की बिक्री में वृद्धि के लिए नहीं, बल्कि शाकाहार आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए जाना जाना चाहिए था। मेरा अनुमान है, संघ के लोग शाकाहारी ही होंगे।

जहां तक अंग्रेजी विरोध का प्रश्न है, भाजपा ने इसे छोड़ कर अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारी है। एक जमाने में जनसंघ का मतलब था, ‘ʽþxnùÒ, हिन्दू, ʽþxnÖùºiÉÉxÉ’* आज भाजपा का कोई भी नेता हिन्दी का नाम तक नहीं लेता। उसके तथाकथित नायक अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखते हैं। भाजपा ने हिन्दी का साथ इसलिए छोड़ा क्योंकि उसे हिन्दी प्रदेश के बाहर अपने पांव फैलाने थे। हिन्दी प्रदेश के बाहर फैलने की तमन्ना में कुछ भी गलत नहीं था, पर भाजपा को वहां अपने विचारों के साथ जाना चाहिए था -- अपने विचारों को छोड़ कर नहीं। वह दक्षिण भारत में हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ाने का उद्यम करती, तो उसे वोट पाने में समय लगता, पर लोग पार्टी को उसके वैचारिक आग्रहों के लिए जानते। फिलहाल तो उसे अवसरवाद के लिए जाना जाता है, जिसने केंद्र में सत्ता पाने के लिए कश्मीर, समान सिविल कानून आदि पर अपने मूल विश्वासों के साथ भी समझौता कर लिया। स्पष्ट है कि भाजपा जनादेश का तो क्या सम्मान करेगी, वह संघादेश को भी भूल-बिसरा चुकी है।

बहुत-से विचारक भाजपा को यह सलाह देते रहे हैं कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नकेल से अपने को छुड़ा ले और अपने द्वारा चुने हुए स्वतंत्र रास्ते पर चले। यही एक तरीका है जिससे देश की नंबर दो (श्लेष के लिए क्षमा करें) पार्टी सेकुलर बन सकती है। मेरी समझ में नहीं आता कि भाजपा के पुनर्निर्माण में सिर्फ एक ही अपेक्षा क्यों। सेकुलर होना तो एक न्यूनतम बात है। पर असली मामला चरित्र का है। चरित्ररहित हो जाने के बाद क्या तो सेकुलर और क्या तो नॉन-सेकुलर। वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुक्त हो कर दिखाना भाजपा के लिए असंभव है। उसका सारा मजमा तो इसीलिए जुटा है कि वह सेकुलर नहीं है। सेकुलर होने का फैसला करनेवाली भाजपा में कितने नेता, कितने कार्यकर्ता रह जाएंगे? जब भैंस ही पानी में डूब जाएगी, तब उसकी दुम बचा कर क्या होगा?

यथार्थ और आदर्श, दोनों की मांग यह है कि भाजपा जैसी तंगदिल, तंगदिमाग पार्टियों का अस्तित्व होना ही नहीं चाहिए। इसलिए भाजपा को जो सर्वोत्तम सलाह दी जा सकती है, वह यह है कि वह अपने को सुपुर्दे-खाक कर दे। अगर उसमें यह हिम्मत नहीं है, तो उसके लिए दूसरा सर्वोत्तम विकल्प यह है कि वह अपने जन्मदाताओं की इच्छाओं का ध्यान करे और उनके अनुसार चलने की कोशिश करे। लेकिन क्या यह कोशिश सफल होगी? सफल इसलिए नहीं होगी कि संघ के जो आदर्श हैं, उनके आधार पर कोई जनतांत्रिक दल चलाना संभव नहीं है। 000

चिरंतन प्रश्न

बलात्कार का हरजाना
राजकिशोर

बलात्कार के हरजाने पर श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी और सुश्री मायावती के बीच जो कर्कश विवाद हुआ, वह चाहे कितना ही दुर्भाग्यपूर्ण हो, पर एक वास्तविक मुद्दे को सामने लाता है। कैसे? यह स्पष्ट करने के लिए मैं एक छोटी-सी कहानी सुनाना चाहता हूं। संभव है, यह एक लतीफा ही हो, पर है बहुत मानीखेज। एक अमीर आदमी ने किसी व्यक्ति पर जूता चला दिया था। उस पर अदालत में मुकदमा चला। जज ने जूता फेंकने वाले पर सौ रुपए का जुर्माना किया। इस पर उस अमीर आदमी ने अदालत में दो सौ रुपए जमा कर दिए और शिकायतकर्ता को वहीं खड़े-खड़े एक जूता और रसीद किया। फर्ज कीजिए कि जज ने अगर उसे हफ्ते भर जेल की सजा सुनाई होती, तब भी क्या उस धनी व्यक्ति ने शिकायतकर्ता को एक और जूता लगाया होता और अदालत से प्रार्थना की होती कि अब आप मुझे दो हफ्ते की जेल दे दीजिए?

हमारे देश में बलात्कार, सामूहिक हत्या, दुर्घटना आदि के बाद सरकार द्वारा रुपया बांटने की जो नई परंपरा शुरू हुई है, वह गरीब या दुर्घटनाग्रस्त लोगों में पैसे बांट कर अपना अपराधबोध कम करने और पीड़ितों के कष्ट को कम करने का तावीज बन कर रह गया है। दिल्ली में सिखों की सामूहिक हत्या के बाद भी पीड़ित परिवारवालों के लिए कुछ सुविधाओं की घोषणा की गई थी। लेकिन इससे उनके मन की आग शांत नहीं हुई है। हर साल उनकी ओर से जुलूस-धरने का आयोजन होता है कि हमें न्याय दो। पैसा देना न्याय नहीं है। यह आंसू पोंछना भी नहीं है। यह किसी की जुबान को खामोश करने के लिए उसे चांदी के जूते से मारना है।

पैसा लेना भी न्याय नहीं है। इंडियन पीनल कोड की बहुत-सी धाराओं में लिखा हुआ है कि इस अपराध के लिए कारावास या जुर्माना या दोमों से दंडित किया जाएगा। यहां तक कि बलात्कार, हत्या करने की चेष्टा, राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले लांछन, पूजा स्थल पर किए गए अपराध, मानहानि, अश्लील कार्य और गाने तथा ऐसे दर्जनों अपराधों के लिए भी कैद के अलावा या उसके साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान है। यह कानून सन 1860 में बनाया गया था। इस पर सामंती न्याय प्रणाली की मनहूस छाया है। सामंती दौर में राजा जिससे कुपित हो जाता था, उसकी सारी संपत्ति जब्त कर लेता था, ताकि वह दर-दर का भिखारी हो जाए। ब्रिटिश भारत में और स्वतंत्र भारत में दंडित व्यक्ति से धन छीनने पर यह सामंती आग्रह बना रहा। अरे भाई, किसी ने अपराध किया है तो उसे सजा दो, उसके पैसे क्यों छीन रहे हो? राजाओं और सामंतों का पैसे के लिए लालच समझ में आता है। लूटपाट करने के लिए वे कहां से कहां पहुंच जाते थे। उपनिवेशवादियों ने भी ऐसा ही किया। पर स्वतंत्र और लोकतांत्रिक भारत अपराधी से पैसे क्यों वसूल करता है?

जुर्माना लेने के पीछे जो भावना है, वही भावना आर्थिक हरजाना देने के पीछे है। किसी कारवाले ने धक्का दे कर मुझे गिरा दिया और फिर मेरी मुट्ठी में पांच सौ रुपए रख कर चल दिया। क्या इसे ही इनसाफ कहते हैं? ज्यादा संभावना यह है कि अदालत भी कारवाले को यही सजा देगी। यह कुछ ऐसी ही बात है कि एक भाई किसी लड़की के साथ बलात्कार करे और दूसरा भाई उसकी मुट्टी में कुछ नोट रखने के लिए वहां पहुंच जाए। यह शर्म की बात है कि अनुसूचित जातियों से संबंधित एक कानून में अनेक अपराधों के लिए सरकार द्वारा पैसा देने का प्रावधान है। यह गरीबी का अपमान है। कोई भी स्वाभिमानी आदमी ऐसे रुपए को छूना भी पसंद नहीं करेगा। जो रुपया दुनिया में अधिकांश अपराधों का जन्मदाता है, उसे ही अपराध-मुक्ति का औजार कैसे बनाया जा सकता है? हरजाना देने का मुद्दा तब बनता है जब अपराध के परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष की कमाने की क्षमता प्रभावित हो रही है। किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने के बाद उसकी पत्नी, बच्चों तथा अन्य प्रभावित परिवारियों को आर्थिक सुरक्षा देना न्याय व्यवस्था तथा राज्य व्यवस्था दोनों का कर्तव्य है। दूसरी ओर, बलात्कार की वेदना और उससे जुड़े कलंक का कोई हरजाना नहीं हो सकता।

पुस्तकालय में किताब देर से लौटाना, देर से दफ्तर आना, गलत जगह गाड़ी पार्क कर देना – ऐसी छोटी-मोटी गड़बड़ियों के लिए जुर्माना ठीक है। इसका लक्ष्य होता है ऐसी चीजों को निरुत्साहित करना। लेकिन जिस हरकत से किसी को या सभी को नुकसान पहुंचता है या नुकसान पहुंच सकता है, उसके लिए तो कारावास ही उचित दंड है। दिल्ली में कानून द्वारा निर्धारित स्पीड से ज्यादा तेज गाड़ी चलाने की सजा पांच सौ रुपए या ऐसा ही कुछ है। यह न्याय व्यवस्था सड़क पर चलनेवालों का अपमान है। जिस कृत्य से एक की या कइयों की जान जा सकती है, उसके लिए तो कुछ दिनों के लिए जेल की मेहमानी ही उचित पुरस्कार है। जब बलात्कार या ऐसे किसी अपराध अथवा दुर्घटना के लिए सरकार पीड़ितों में पैसा बांटती है, तो वह दरअसल अपने पर ही जुर्माना ठोंकती है। कायदे से सराकार को अपने को दंड़ित करना चाहिए यानी जिस सरकारी कर्मचारी की गफलत से ऐसा हुआ है, उसके खिलाफ मुकदमा चलाना चाहिए। यह एक मुश्किल काम है, क्योंकि हर सरकार अपने कर्मचारियों का बचाव करने की कोशिश करती है। इससे आसान है जनता के खजाने से थोड़ी रकम निकाल कर पीड़ित को दे देना। यह रकम अगर मंत्रियों और अफसरों की जेब से वसूल की जाती, तब भी कोई बात थी। 000