गांधी मेरे भीतर
राजकिशोर
महात्मा गांधी से मुझे बहुत कष्ट है। सच तो यह है
कि जितना कष्ट उनसे है, उतना किसी और से नहीं।
सोते-जागते जब भी उनकी याद आती है, आत्मा पर
असह्य बोझ-सा महसूस होता हैं। ऐसा लगता है, जैसे
मैं उस तरह जी कर जिस तरह जी रहा हूं कोई पाप
कर रहा हूं। महापुरुष और भी हैं जिनकी जीवनी पढ़
कर मैं प्रेरित हुआ हूं या जिनसे कुछ सीखा है। लेकिन
उनसे डर नहीं लगता। मसलन आंबेडकर को पढ़ कर
खुद पर नहीं, हिन्दू समाज पर ग्लानि होती है। बर्ट्रेंड
रसेल की याद आती है, तो दुख होता है कि मेरे पास
उनके जैसी जानकारी और तार्किक दिमाग क्यों नहीं
है। इसी तरह शॉ और लोहिया का विट मुझे भला
लगता है। पर इनकी निकटता से मेरी आत्मा कोई
कचोट महसूस नहीं करती। कबीर के दोहे और पद
मधुर लगते हुए भी जैसे मेरे अस्तित्व को चिढ़ाते हैं।
लेकिन मैं यह मान कर अपने को तसल्ली दे लेता हूं
कि अनन्त में धूमी रमाना मेरे बस की बात नहीं है।
मार्क्स बहुत अच्छे लगते हैं, पर उन्हें पढ़ते हुए अपने
वर्तमान जीवन को ले कर तुरंत किसी चुनौती का
एहसास नहीं होता। शोषण की यह व्यवस्था खत्म
होनी चाहिए, यह बात मन में बार-बार आती है, पर
इसके लिए मैं अकेला क्या कर सकता हूं? मध्यवर्गीय
होते हुए भी मार्क्सवादी हुआ जा सकता है, इसके
असंख्य उदाहरण चारों ओर दिखाई देते हैं। मार्क्सवादी
होना नैतिक से ज्यादा राजनीतिक परिवर्तन नजर
आता है। लेकिन इतिहास और भूगोल, दोनों स्तरों पर
गांधी मेरे यानी मेरी पीढ़ी के भारतीयों के सबसे निकट
है, इसलिए उनका दबाव सबसे ज्यादा महसूस होता
है। वैसे भी गांधी मानो कुछ और ही चीज हैं। वे
तत्काल जीवन व्यवहार में परिवर्तन की मांग करते
हैं। गांधी को छोड़ कर मुझे कोई ऐसा व्यक्तित्व
दिखाई नहीं देता जिसने ठीक उसी तरह जिया हो
जिस तरह वह सोचता था कि आदमी को जीना
चाहिए। बाकी सभी महापुरुषों में कुछ न कुछ कमी
नजर आती है। ऐसा लगता है, वे अपने लिए कम
और दूसरों के लिए ज्यादा कह रहे हैं। लेकिन गांधी?
उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही, जिस पर वे खुद
अमल नहीं कर रहे हों। जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र
नहीं है जिसके लिए उनके पास कुछ व्यावहारिक संदेश
न हो। यही मेरा सिरदर्द है। कथनी और करनी में
फर्क होने पर पहले दुख होता था, अब शर्म आती है।
कोई व्यक्ति असंभव या असंभव-सी
बात कहता है, तो उससे तर्क करने का मन करता है।
लेकिन जब गांधी कहते हैं, तो कोई भी बात असंभव
नहीं लगती। मन में खयाल आता है कि जब गांधी
जी ने इसे संभव कर दिखाया, तो मुझे मुश्किल क्यों
होनी चाहिए? उदाहरण के लिए, जब डॉक्टर ने उच्च
रक्तचाप के कारण कस्तूरबा के लिए नमक खाना बंद
कर दिया, तो वे बिफर पड़ीं। डॉक्टर के जाने के बाद
उन्होंने गांधी जी से कहा कि तुमने चीनी तो पहले से
ही छुड़वा रखी है, अब मुझे नमक भी छोड़ना पड़ेगा।
फिर खाने में स्वाद क्या रह जाएगा? चाहे जो हो, मैं
तो नमक कभी नहीं छोड़ूंगी। गांधी जी ने बहुत
समझाया। लेकिन वे नहीं मानीं। इस पर गांधी जी
कुछ देर के लिए बाहर गए और लौट कर कस्तूरबा से
बोले -- ठीक है, तुम नमक छोड़ो या नहीं, मैं साल
भर के लिए नमक छोड़ रहा हूं। अब कस्तूरबा निरस्त्र
हो गईं। पति फीकी सब्जी खाए और पत्नी की सब्जी
में नमक पड़ा हो, यह कैसे हो सकता है? सो
कस्तूरबा को भी नमक छोड़ना पड़ा। यह प्रेम की
शक्ति थी, जिसके चलते महात्मा कोई भी त्याग कर
सकता था।
जहां तक मेरा सवाल है, तभी-कभी
लगता है कि मुझमें न किसी और के प्रति प्रेम है, न
अपने आपसे कोई वास्तविक लगाव है। अन्यथा क्या
कारण है कि मैं साधारण से साधारण त्याग भी नहीं
कर पा रहा हूं? पत्नी बहुत चाहती है कि मैं सिगरेट
पीना छोड़ दूं। डॉक्टर कई बार कह चुके हैं। एक बार
तो एक डॉक्टर नाराज भी हो गए थे। मैं रोज प्रतिज्ञा
करता हूं कि कल सुबह से या यह पैकेट खत्म हो
जाने के बाद सिगरेट छोड़ दूंगा। इसके चलते सप्ताह
में दो-तीन दिन सिगरेट पीना कम हो जाता है। फिर
पुरानी बीमारी लौट आती है। मैं अपने आप पर
शर्मिन्दा होता हूं, खुद को कोसता हूं, इस बार पहले
से ज्यादा मजबूती से संकल्प करता हूं, पर तलब
उठते ही समर्पण कर देता हूं।
मिठाई खाने का मामला भी ऐसा ही
है। मुझे सात-आठ साल से मधुमेह है। मिठाई खाना
सख्त मना है। लेकिन मौका मिलते ही मिठाई पर इस
तरह टूट पड़ता हूं जैसे मुझे कोई देख न रहा हो।
त्यौहारों के मौसम में तो अति हो जाती है। इसके
लिए बार-बार पत्नी से डांट खाता हूं। अब तो बेटी भी
मुझ पर हंसती है। पर अपनी आदत नहीं छोड़ पाता।
दो हफ्ता पहले मैंने अपने एक मित्र परिवार के सामने
प्रतिज्ञा कर ली कि आज से मिठाई बंद। कई दिनों
तक इस पर टिका रहा। एक दिन पत्नी ने प्रेमवश यह
कह कर एक मिठाई खिला दी कि कभी-कभी खाने में
कोई हर्ज नहीं है। उसके बाद मानो मेरी आत्म-वर्जना
टूट गई। मैंने कई बार अपने मन से मिठाई खा ली।
गांधी जी के प्रभाव से, इसे घरवालों से छिपाया नहीं।
लेकिन नहीं छिपाने से क्या गलत सही हो जाता है?
फिर मैं यह दावा कैसे कर सकता हूं कि गांधी से मुझे
बहुत प्रेरणा मिलती है? क्या खाक प्रेरणा मिलती है,
अगर मैं छोटी-ठोटी बातों में भी दृढ़ नहीं रह पा रहा
हूं? मैं जानता हूं कि सिगरेट न पीने और मिठाई न
खाने के लिए गांधी जैसे महात्मा से प्रेरणा लेने की
कोई जरूरत नहीं है। यह काम तो ऐसा कोई भी
व्यक्ति कर सकता है, जिसमें थोड़ा-सा संयम हो। अगर
मैं यह मामूली-सा संयम नहीं पाल पा रहा हूं, तो मेरे
लिए धिक्कार ही धिक्कार है! मैं किस मुंह से गांधी
को पढ़ता हूं और किस मुंह से लिखता हूं कि आज
अगर कहीं रास्ता है, तो वह गांधी के आस-पास है !
यह जरूर है कि गांधी जी की
मानसिक संगत में रहते हुए मैं अपनी कई बुराइयों से
मुक्त होने की दिशा में बढ़ा हूं। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि
अब बहुत कम सताते हैं। जब मैं सुनता हूं कि अमुक
दो लाख पा रहा है या तमुक विदेश जा रहा है या
फमुक ने शानदार गाड़ी ले ली है, तो मन बिलकुल
नहीं कचोटता। दूसरों की सहायता करने में आनंद
आने लगा है। अपने बारे में कम, समाज के बारे में
ज्यादा सोचता हूं। भाषा में अहिंसा को साधने की
कोशिश कर रहा हूं। दूसरों पर कम हंसता हूं, अपने
पर ज्यादा। लेकिन यह सब राजमहल में चूड़ा खाने
जैसा लगता है। यह व्यथा हमेशा सताती रहती है कि
इन मामूली परिवर्तनों से क्या होने वाला है? अगर
गांधी कभी स्वप्न में मुझसे रिपोर्ट मांगें, तो मैं क्या
जवाब दूंगा?
।।।
सादगी एक गुण है, पर गांधी जी के विचार से यह
आवश्यकता भी है। जिस देश के लोग सादगी से नहीं
रह सकते, वहां कोई भी अर्थव्यवस्था काम नहीं कर
सकती। सादगी से लगाव न होने का मतलब है, भीतर
कहीं लालच कुलांचें भर रहा है और लालच, सच में,
सभी बुराइयों की जड़ है। फिर, सादगी का संबंध
सौंदर्य बोध से भी है। रचाया हुआ सौंदर्य नजरों को
भाता है, लेकिन हमेशा नहीं। जब इस सुंदरता की
व्यक्तिगत और सामाजिक लागत की याद आती है, तो
यह कुरूप नजर आने लगती है। सादगी सुघड़ता ही
नहीं, शक्ति भी है। सिद्धांत के तौर पर और उससे भी
ज्यादा आदतवश सादगी का पालन करनेवाला आदमी
भय पर सहज ही काबू पा लेता है। उसकी निर्भयता
ज्यादा टिकाऊ होती है। गांधी जी को जहां तक समझ
पाया हूं, सादगी जीवन का एक केंद्रीय सूत्र है। जिसने
सादगी की भावना खो दी या अर्जित ही नहीं की,
उससे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। वह दिन-रात
कामनाओं के भंवर में गोते खाता रहेगा। जो लोग
सामाजिक जीवन जीते हैं, उनके लिए तो सादगी से
रहना और भी जरूरी है।
इस मोर्चे पर मैं अपने को दिवालिया
तो नहीं पाता, पर बहुत मजबूत भी नहीं पाता। जब
तक मैं दिल्ली नहीं आया था, मेरे जीवन में काफी
सादगी थी। इसका एक कारण यह था कि मेरी
आमदनी कम थी। एक कारण, एकमात्र कारण नहीं,
क्योंकि किशोरावस्था के कुछ जिज्ञासु और लालच-सने
दिनों को छोड़ कर विचलन, विलासिता या फिजूलखर्ची
के लिए कोई तड़प मैंने अपने भीतर नहीं पाई। इसी
कारण मैं न पद की होड़ में पड़ा न पैसा कमाने की
वासना मुझे जकड़ सकी। दिल्ली आने के कई वर्षों
तक कलकत्ता का यह प्रभाव मेरे भीतर अक्षत रहा।
लेकिन अब पाता हूं कि मैं कई प्रकार की अनावश्यक
सुविधाओं के मकड़जाल में घिर गया हूं। निजी कार
के बिना भी अच्छी तरह आना-जाना किया जा सकता
है, यह अच्छी तरह जानते हुए भी ऐसा लगता है कि
काफी दिनों तक उससे छुटकारा नहीं है। व्यक्तिगत
जीवन में एअरकंडीशनिंग का विरोधी मैं अब भी हूं,
पर उसका मोह छोड़ा नहीं जाता। कपड़ों तथा निजी
उपभोग सामग्री पर पर खर्च बहुत कम किया जा
सकता है, पर यह भी मात्र कार्य-सूची का अंग बन
कर रह गया है। थैेले, कलम, स्टेशनरी आदि पर मैं
जो पैसे फूंक देता हूं, उससे कई उपयोगी काम किए
जा सकते है। मेरी एक बड़ी समस्या समय की बरबादी
है। मैं जितने ज्यादा घंटे सोता हूं, उसे ले कर
अपराध भावना हमेशा बनी रहती है। इसका एकमात्र
सकारात्मक पहलू यह है कि उतने घंटे कोई गलत
काम करने से बचा रहता हूं। आलसी आदमी न पाप
कर सकता है, न पुण्य। सादगी अगर एक बुनियादी
मूल्य है, तो यह नींद, आराम, सुख, गति सभी चीजों
पर लागू होता है। दरअसल, यह मूल्य किसी भी क्षेत्र
में अतिवाद के खिलाफ एक कारगर तावीज है। पिछले
कुछ वर्षों में मैंने अपने कई अतिवादों से मुक्ति पाने
की कोशिश की है और कुछ में थोड़ी-बहुत सफलता भी
पाई है, पर दिन में बीसियों बार यह दिखाई पड़
जाता है कि मुझे अभी दूर, बहुत दूर जाना है।
।।।
गांधी जी के सेक्स संबंधी विचारों से मैं कभी सहमत
नहीं हो पाया। उन्होंने जैसा यौन जीवन जिया, उसकी
मैं आलोचना नहीं करता। यह उनकी मान्यताओं का
एक मूलभूत हिस्सा था। संयम के उनके प्रयोगों को ले
कर, जिन्हें नासमझी के कारण सेक्स के प्रयोग कहा
जाता है, मुझमें उत्सुकता जरूर है, पर मैं उन
प्रयोगों का निरादर नहीं करता। मैं जानता हूं कि
महात्मा के ज्ञान और अनुभव के सामने हम लोग
उनके पैरों की धूल भी नहीं हैं, इसलिए उन पर शक
करने की बात भी मन में नहीं आती। लेकिन ब्रह्मचर्य
को वे जीवन में जितना केंद्रीय स्थान देते थे, वह मुझे
एक असंभव मांग लगती है। गांधी जी ने स्वयं लिखा
है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद चार बार उनका
मन, जिसे साधने के लिए उन्हें अपने ऊपर जबरदस्त
नियंत्रण बनाए रखना पड़ता था, वासना से विचलित
हुआ। हो सकता है, गिनती करने में उनसे कुछ भूल
भी हुई हो।
मैं इस विषय में अपने को ले कर
किसी भी तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं हूं।
मुझे अपनी कमजोरियों का पता है। इनके कारण मुझे
काफी दुख उठाना पड़ा है। मेरी पत्नी सहज ही
क्षमाशील नहीं होती, तो मेरी गृहस्थी टूट सकती थी।
यह सच है कि विवाह के बाद मैंने कोई मर्यादा नहीं
तोड़ी। लेकिन दोस्ती की प्रगाढ़ता में काफी दूर तक
बहा। अब मुझे लगता है कि यह ठीक नहीं था,
क्योंकि इरादे में भले ही कोई मलिनता न रही हो, पर
व्यवहार के स्तर पर गोपनीयता तो थी ही। किसी भी
स्त्री या पुरुष का अन्य पुरुषों या स्त्रियों से जो भी
संबंध बने, उसमें गोपनीयता का कोई तत्व नहीं होना
चाहिए, नहीं तो तूफान पैदा हो सकता है। संबंधों में
वास्तविक खुलापन तभी आ सकता है जब जीवन में
भी खुलापन हो। यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि
दैहिक संबंध हुए या नहीं। वासना की शुरुआत कल्पना
से होती है। वहां संयम खो देने पर आगे का रास्ता
और रपटीला हो जाता है। यह रपटीलापन मेरे लिए
कम दुख का कारण नहीं है।
अपनी इसी पृष्ठभूमि के कारण और
जमाने के हालात देखते हुए, जहां कदम-कदम पर,
अखबार में, टीवी पर, रेडियो पर, पोस्टरों और होर्डिंगों
में कामुकता को जगाने और बढ़ाने वाला वातावरण
बनाया जा रहा है, दिनों-दिन पवित्रतावाद की तरफ
मेरा वैचारिक झुकाव बढ़ रहा है। मुझे लगता है कि
यह फ्रायड को याद रखने का सही समय नहीं है।
फ्रायड पर पूंजीपतियों ने कब्जा कर लिया है। वे उसके
बहाने से हमारा आत्मिक विनाश करने पर तुले हुए
हैं। इस चुनौती के सामने अतिरेकी तो नहीं, पर
संतुलित पवित्रतावाद निश्चय ही एक कारगर औजार
का काम कर सकता है। जब हम अन्य दृष्टियों से भी
स्वस्थ समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होंगे, तब
नर-नारी संबंधों को भी उदार और जानदार बनाने के
कार्यक्रम पर अमल किया जा सकता है। अन्य मामलों
में संरक्षणशील रहते हुए सिर्फ एक मामले में
क्रांतिकारी इच्छाओं का जोर मारना प्रतिक्रियावाद का
ही एक रूप है। इसीलिए जिस यौन क्रांति का पहले मैं
समर्थन करता था, उसके पीछे, भारत की वर्तमान
परिस्थिति में, मुझे देहवाद का ज्वार नजर आता है।
यौन क्रांति सामाजिक क्रांति का एक बहुत छोटा-सा
हिस्सा है।
अपनी इस दृष्टि के लिए मैं गांधी जी
का ऋणी हूं। इस पर मैं स्वयं कितना अमल कर
पाता हूं, यह मेरे लिए हमेशा परीक्षा में बैठने की तरह
उद्विग्नतापूर्ण होता है।
।।।
लेकिन मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? क्या मैं गांधी
जी की 'आत्मकथा' की नकल करना चाहता हूं? क्या
मैं सार्वजनिक रूप से अपनी कमियों की चर्चा कर
किसी प्रकार की महानता का दावा कर रहा हूं? अगर
ऐसा है, तो मुझसे बढ़ कर नीच कोई और नहीं हो
सकता।
दरअसल, गांधी को जानने की प्रक्रिया
अपने भीतर से ही शुरू होती है। वे लगातार
आत्मपरीक्षण के 'मोड' में रहते थे। यह कुछ-कुछ
लेखक होने की नियति की तरह है, जो निर्द्वंद्व हो कर
कुछ भी भोग नहीं सकता। भोक्ता होने के साथ-साथ
वह दर्शक और आलोचक भी होता है। कायदे से हर
आदमी को ऐसा ही जीवन जीना चाहिए। इसी रास्ते
से सत्य से साक्षात्कार होता है या हो सकता है। पहले
मैं गांधी के प्रसंग में जो कुछ लिखता था, वह एक
प्रकार से सामाजिक चर्चा थी, जिसका आत्मानुभव से
कुछ भी लेना-देना नहीं था। वह महज विचार था।
लेकिन गांधी जी कोई विचारक नहीं थे। वे विचारशील
जरूर थे और मैं दावा कर सकता हूं कि अच्छा जीवन
जीने के लिए यह काफी होता है। गांधी जी की
विचारशीलता ही उन्हें कर्तव्य की प्रयोगशीलता का
रास्ता दिखाती थी। उन्होंने अपने जीवन को 'सत्य के
प्रयोग' माना है। सत्य की दिशा में पहला कदम सच
बोलना है। उसके बाद ही सत्य के गहनतर रूपों से
मुठभेड़ होती है। इसीलिए मैं इस साहस के मूल्य को
मैं समझ पाया हूं कि मुझे अपने जीवन को ज्यादा से
ज्यादा पारदर्शी बनाना चाहिए। यह नोट इसी दिशा में
एक छोटा-सा कदम है।
गांधी जी के अनुसार, सत्य जीवन की
प्रयोगशाला में ही मिलता है। आंखें बंद कर ध्यानस्थ
होना ऋषियों के लिए जरूरी होगा, हमारे लिए
वांछनीय यह है कि हम अपनी सक्रियताओं में ही
सत्य का संधान करें। व्यक्ति और समाज के लिए सही
रास्ता क्या है, यह जानने के लिए गांधी जी ने अपने
व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक-राजनीतिक जीवन
में तरह-तरह के प्रयोग किए। इनमें से कुछ सफल
हुए, कुछ नहीं। अपनी विफलताओं का जितना मार्मिक
वर्णन खुद गांधी जी कर गए हैं, कोई और क्या
करेगा। फिर भी वे निश्चेष्ट कभी नहीं हुए। इसीलिए
मुझे अगर गांधीवाद अच्छा लगता है, तो मैं अपनी
इस परख को व्यक्तिगत और सामाजिक प्रयोगों के
माध्यम से ही सत्यापित कर सकता हूं।
जाहिर है, यह चुनौती बहुत ही भारी
है। इसके बारे में सोचते ही मन कांपने लगता है और
पैर लड़खड़ाने लगते हैं। लेकिन यह कोई असंभव
चुनौती नहीं लगती। इस चुनौती का सामना करने में
मैं बिलकुल विफल रहा, तो यही साबित होगा कि मैं
कमजोर, कायर और ढोंगी हूं। लेकिन तब भी मैं यही
कहूंगा कि मैं चलने में असमर्थ रहा तो क्या, सत्य
का रास्ता यही है, यही है, यही है। आमीन।
Sunday, September 30, 2007
भगत सिंह और हम - 2
भगत सिंह को कैसे याद करें
राजकिशोर
राजकिशोर
पुजारी देवता के अनुसार नहीं चलता, वह अपने
अनुसार चलता है। श्रद्धांजलि अर्पित करते समय हम
महापुरुष के निकटतम जाने की कोशिश नहीं करते,
उसे ही अपने निकटतम ले आते हैं। यह मानव
व्यवहार की दुख भरी ट्रेजेडी है। श्रद्धा बढ़ती जाती है,
पर उसका सारतत्व क्षीण होता जाता है। देवता
गाजे-बाजे के साथ आता है और अपने भक्तों को वैसा
ही छोड़ जाता है जैसे वे थे। यही कारण है कि दुनिया
भर में धर्म प्रवर्तकों और महापुरुषों को श्रद्धांजलि
अर्पित करने के इतने कार्यक्रम होते हैं, फिर भी
दुनिया बदलती नहीं है। बल्कि सारे धूम-धड़ाके के
बाद वह और ज्यादा धूमिल और खोखली नजर आती
है, जैसे नाटक खत्म हो जाने के बाद रंगशाला का
सन्नाटा भांय-भांय करने लगता है।
भारत की केंद्रीय सत्ता ने भगत सिंह
की सौवीं जयन्ती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने
का जो तरीका चुना, वह उसकी अकड़ का परिचायक
है। भगत सिंह अगर कोई बड़े उद्योगपति होते और
भारत सरकार उनकी याद में सिक्का जारी करती, तो
बात समझ में आ सकती थी। सभी जानते हैं कि
शहीदे-आजम को सिक्कों से कोई लगाव नहीं था।
बल्कि वे उस व्ववस्था का विनाश करने के हिमायती
थे जिसकी नींव सिक्कों पर खड़ी है। भगत सिंह को
सिर्फ आजादी के लिए संघर्ष से जोड़ कर देखना ठीक
नहीं है। यह उनका बहुत ही अधूरा मूल्यांकन है।
शुरुआती दौर में बेशक भारत को आजाद कराने की
तड़प उन्हें बेचैन किए हुए थी, पर जैसे-जैसे उनमें
परिपक्वता आने लगी -- जितनी जल्दी और जितनी
तेजी से उनमें परिपक्वता आई, वह विलक्षण है --
उन्हें यह प्रतीति होने लगी कि आर्थिक आजादी के
बिना राजनीतिक आजादी का कोई मतलब नहीं है।
दिलचस्प यह है कि यही बात स्वतंत्रता संघर्ष के एक
और नायक महात्मा गांधी भी कह रहे थे। बीसवीं
शताब्दी की शुरुआत से दुनिया भर में औपनिवेशिक
शासन से मुक्ति की लड़ाइयां चल रही थीं। यह
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की विलक्षणता है कि उसमें
राजनीतिक मुक्ति पर जितना जोर था, उससे कहीं
अधिक जोर आर्थिक और सामाजिक मुक्ति पर था।
इस संदर्भ में कांग्रेस के भीतर रह कर राजनीतिक
संघर्ष कर रहे जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण,
आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर
अली आदि के लक्ष्य और भगत सिंह, चंद्रशेखर
आजाद, वोहरा, सुखदेव आदि के लक्ष्य में कोई अंतर
नहीं था। दोनों वर्गों के नेता समाजवादी व्यवस्था में
ही भारत का भविष्य देखते थे। हमारा वह भविष्य
कहां गया? इसकी जांच किए बिना भगत सिंह या
किसी भी स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि देने का कोई
मतलब नहीं है।
लेकिन इस मतलब से किसको मतलब
है? भगत सिंह की पवित्र स्मृति में सिक्का जारी
करने वाली सरकार वही है, जो रिजर्व बैंक द्वारा जारी
किए जाने वाले नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर
छापती आई है। गांधी जी का जन्म बनिया जाति में
जरूर हुआ था, पर वे बनियागीरी की व्यवस्था के
मामूली शत्रु नहीं थे। उनकी मनपसंद अर्थव्यवस्था
विकेंद्रीकरण पर आधारित थी, जिसमें प्रत्येक गांव
और शहर अपनी जरूरत की प्राय: सभी चीजें अपने
स्तर पर पैदा करेगा। ऐसी व्यवस्था पूंजीवाद और
खुले बाजार पर आधारित हो ही नहीं सकती। इसलिए
गांधी जी के आदर्शों की याद दिलाने के लिए प्रत्येक
नोट पर चरखे की तसवीर उकेरी जाती, तो यह ज्यादा
उपयुक्त होता। सरकार की नजर में मैल होने के
परिणामस्वरूप हम पाते हैं कि जिस चरखे की खोज
के कारण गांधी जी महात्मा बन सके, उस चरखे को
तो विदा कर दिया गया, उसकी जगह सरकारी मुद्रा
पर स्वयं महात्मा को बैठा दिया गया मानो महात्मा
अपने चरखे से बड़े हों। यह किसी धनुर्धर से उसका
तीर-धनुष छीन कर उसे फूलों की माला पहनाना है।
अपनी इसी मुद्रा-प्रियता के कारण मनमोहन सिंह ने
भगत सिंह की याद में सरकारी सिक्का जारी करना
आवश्यक समझा। क्या यह भगत सिंह जैसी विभूति
को सिक्कों से तौलने की तरह नहीं है? लेकिन
पूंजीवाद की खुली वकालत करने वाली सरकार भगत
सिंह को और दे ही क्या सकती थी?
साधु ही साधु को पहचानता है।
क्रांतिकारी ही क्रांतिकारी को समझ सकता है। इसलिए
यह सर्वथा उचित था कि माले और उस जैसे संगठनों
ने दिल्ली में साम्राज्यवाद - विरोधी मोर्चा निकाल कर
शहीदे-आजम को याद किया। भगत सिंह में जो आग
थी, उसे चिनगारियों की ही आहुति दी जा सकती है।
लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह आग विषमता
और अन्याय को भस्म करने के लिए थी, न कि आम
आदमी या सत्ता के निचले पायदान के प्रतिनिधियों को
भूनने के लिए। भगत सिंह को अकसर क्रांतिकारी
हिंसा का प्रतीक मान लिया जाता है। शुरू में वे इस
राह पर कुछ दूर तक चले भी थे। पर बहुत जल्द
उन्हें इस सत्य का एहसास हो गया कि जिस संघर्ष
में आम लोगों को बड़े पैमाने पर शामिल किया जाना
है, वह हिंसा पर आधारित हो ही नहीं सकता।
आजकल भगत सिंह के इस वक्तव्य को खूब उद्धृत
किया जाने लगा है -- ' मैं घोषणा करता हूं कि मैं
आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के
आरंभिक दिनों को छोड़ कर शायद कभी नहीं था।
और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल
नहीं कर सकते।' एक दूसरी जगह भगत सिंह और
साफ-साफ कहते हैं, 'अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा
क्रांतिकारी इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं
कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों
से नहीं हो सकती, बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फुटित
और विकसित होना चाहिए।' इसके बावजूद हम पाते
हैं कि अपने को क्रांतिकारी मानने वाले बहुत-से
संगठन हिंसा की आग में खुद जल रहे हैं और दूसरों
को जला रहे हैं। नक्सलवादी हिंसा में आज तक
हजारों निर्दोष लोगों की जान जा चुकी है। शायद ही
कोई ऐसा हफ्ता बीतता होगा जिसके दौरान कुछ
निरीह लोग तथाकथित क्रांति की वेदी पर बलि न
चढ़ाए जाते हों। इसके द्वारा हिंसा की आग में जल रहे
हमारे ये बेचैन नौजवान अखिल भारतीय क्रांति को
नजदीक ला रहे हैं या दूर धकेल रहे हैं? मुझे यकीन
है कि यह हिंसा इसीलिए संभव हो पा रही है कि
भारतीय राज्य ने इसे बरदाश्त करने की नीति बनाई
हुई है, क्योंकि क्रांतिकारी आतंकवाद की छाया में देश
के अत्यंत पिछड़े इलाके ही हैं और हत्या साधारण
लोगों की ही जाती है। अन्यथा भारतीय राज्य में
इतनी शक्ति जरूर है कि वह नक्सलवाद का सफाया
कर सके। सभी जगह कश्मीर जैसी स्थितियां नहीं हैं।
भगत सिंह से जिन्हें सचमुच प्रेम है, उन्हें विचार
करना चाहिए कि अगर शहीदे-आजम को सिक्कों से
तौलना जायज नहीं है, तो उनकी स्मृति के इर्द-गिर्द
बारूद की दुर्गंध फैलाना भी उनके साथ न्याय करना
नहीं है।
अनुसार चलता है। श्रद्धांजलि अर्पित करते समय हम
महापुरुष के निकटतम जाने की कोशिश नहीं करते,
उसे ही अपने निकटतम ले आते हैं। यह मानव
व्यवहार की दुख भरी ट्रेजेडी है। श्रद्धा बढ़ती जाती है,
पर उसका सारतत्व क्षीण होता जाता है। देवता
गाजे-बाजे के साथ आता है और अपने भक्तों को वैसा
ही छोड़ जाता है जैसे वे थे। यही कारण है कि दुनिया
भर में धर्म प्रवर्तकों और महापुरुषों को श्रद्धांजलि
अर्पित करने के इतने कार्यक्रम होते हैं, फिर भी
दुनिया बदलती नहीं है। बल्कि सारे धूम-धड़ाके के
बाद वह और ज्यादा धूमिल और खोखली नजर आती
है, जैसे नाटक खत्म हो जाने के बाद रंगशाला का
सन्नाटा भांय-भांय करने लगता है।
भारत की केंद्रीय सत्ता ने भगत सिंह
की सौवीं जयन्ती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने
का जो तरीका चुना, वह उसकी अकड़ का परिचायक
है। भगत सिंह अगर कोई बड़े उद्योगपति होते और
भारत सरकार उनकी याद में सिक्का जारी करती, तो
बात समझ में आ सकती थी। सभी जानते हैं कि
शहीदे-आजम को सिक्कों से कोई लगाव नहीं था।
बल्कि वे उस व्ववस्था का विनाश करने के हिमायती
थे जिसकी नींव सिक्कों पर खड़ी है। भगत सिंह को
सिर्फ आजादी के लिए संघर्ष से जोड़ कर देखना ठीक
नहीं है। यह उनका बहुत ही अधूरा मूल्यांकन है।
शुरुआती दौर में बेशक भारत को आजाद कराने की
तड़प उन्हें बेचैन किए हुए थी, पर जैसे-जैसे उनमें
परिपक्वता आने लगी -- जितनी जल्दी और जितनी
तेजी से उनमें परिपक्वता आई, वह विलक्षण है --
उन्हें यह प्रतीति होने लगी कि आर्थिक आजादी के
बिना राजनीतिक आजादी का कोई मतलब नहीं है।
दिलचस्प यह है कि यही बात स्वतंत्रता संघर्ष के एक
और नायक महात्मा गांधी भी कह रहे थे। बीसवीं
शताब्दी की शुरुआत से दुनिया भर में औपनिवेशिक
शासन से मुक्ति की लड़ाइयां चल रही थीं। यह
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की विलक्षणता है कि उसमें
राजनीतिक मुक्ति पर जितना जोर था, उससे कहीं
अधिक जोर आर्थिक और सामाजिक मुक्ति पर था।
इस संदर्भ में कांग्रेस के भीतर रह कर राजनीतिक
संघर्ष कर रहे जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण,
आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर
अली आदि के लक्ष्य और भगत सिंह, चंद्रशेखर
आजाद, वोहरा, सुखदेव आदि के लक्ष्य में कोई अंतर
नहीं था। दोनों वर्गों के नेता समाजवादी व्यवस्था में
ही भारत का भविष्य देखते थे। हमारा वह भविष्य
कहां गया? इसकी जांच किए बिना भगत सिंह या
किसी भी स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि देने का कोई
मतलब नहीं है।
लेकिन इस मतलब से किसको मतलब
है? भगत सिंह की पवित्र स्मृति में सिक्का जारी
करने वाली सरकार वही है, जो रिजर्व बैंक द्वारा जारी
किए जाने वाले नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर
छापती आई है। गांधी जी का जन्म बनिया जाति में
जरूर हुआ था, पर वे बनियागीरी की व्यवस्था के
मामूली शत्रु नहीं थे। उनकी मनपसंद अर्थव्यवस्था
विकेंद्रीकरण पर आधारित थी, जिसमें प्रत्येक गांव
और शहर अपनी जरूरत की प्राय: सभी चीजें अपने
स्तर पर पैदा करेगा। ऐसी व्यवस्था पूंजीवाद और
खुले बाजार पर आधारित हो ही नहीं सकती। इसलिए
गांधी जी के आदर्शों की याद दिलाने के लिए प्रत्येक
नोट पर चरखे की तसवीर उकेरी जाती, तो यह ज्यादा
उपयुक्त होता। सरकार की नजर में मैल होने के
परिणामस्वरूप हम पाते हैं कि जिस चरखे की खोज
के कारण गांधी जी महात्मा बन सके, उस चरखे को
तो विदा कर दिया गया, उसकी जगह सरकारी मुद्रा
पर स्वयं महात्मा को बैठा दिया गया मानो महात्मा
अपने चरखे से बड़े हों। यह किसी धनुर्धर से उसका
तीर-धनुष छीन कर उसे फूलों की माला पहनाना है।
अपनी इसी मुद्रा-प्रियता के कारण मनमोहन सिंह ने
भगत सिंह की याद में सरकारी सिक्का जारी करना
आवश्यक समझा। क्या यह भगत सिंह जैसी विभूति
को सिक्कों से तौलने की तरह नहीं है? लेकिन
पूंजीवाद की खुली वकालत करने वाली सरकार भगत
सिंह को और दे ही क्या सकती थी?
साधु ही साधु को पहचानता है।
क्रांतिकारी ही क्रांतिकारी को समझ सकता है। इसलिए
यह सर्वथा उचित था कि माले और उस जैसे संगठनों
ने दिल्ली में साम्राज्यवाद - विरोधी मोर्चा निकाल कर
शहीदे-आजम को याद किया। भगत सिंह में जो आग
थी, उसे चिनगारियों की ही आहुति दी जा सकती है।
लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह आग विषमता
और अन्याय को भस्म करने के लिए थी, न कि आम
आदमी या सत्ता के निचले पायदान के प्रतिनिधियों को
भूनने के लिए। भगत सिंह को अकसर क्रांतिकारी
हिंसा का प्रतीक मान लिया जाता है। शुरू में वे इस
राह पर कुछ दूर तक चले भी थे। पर बहुत जल्द
उन्हें इस सत्य का एहसास हो गया कि जिस संघर्ष
में आम लोगों को बड़े पैमाने पर शामिल किया जाना
है, वह हिंसा पर आधारित हो ही नहीं सकता।
आजकल भगत सिंह के इस वक्तव्य को खूब उद्धृत
किया जाने लगा है -- ' मैं घोषणा करता हूं कि मैं
आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के
आरंभिक दिनों को छोड़ कर शायद कभी नहीं था।
और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल
नहीं कर सकते।' एक दूसरी जगह भगत सिंह और
साफ-साफ कहते हैं, 'अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा
क्रांतिकारी इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं
कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों
से नहीं हो सकती, बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फुटित
और विकसित होना चाहिए।' इसके बावजूद हम पाते
हैं कि अपने को क्रांतिकारी मानने वाले बहुत-से
संगठन हिंसा की आग में खुद जल रहे हैं और दूसरों
को जला रहे हैं। नक्सलवादी हिंसा में आज तक
हजारों निर्दोष लोगों की जान जा चुकी है। शायद ही
कोई ऐसा हफ्ता बीतता होगा जिसके दौरान कुछ
निरीह लोग तथाकथित क्रांति की वेदी पर बलि न
चढ़ाए जाते हों। इसके द्वारा हिंसा की आग में जल रहे
हमारे ये बेचैन नौजवान अखिल भारतीय क्रांति को
नजदीक ला रहे हैं या दूर धकेल रहे हैं? मुझे यकीन
है कि यह हिंसा इसीलिए संभव हो पा रही है कि
भारतीय राज्य ने इसे बरदाश्त करने की नीति बनाई
हुई है, क्योंकि क्रांतिकारी आतंकवाद की छाया में देश
के अत्यंत पिछड़े इलाके ही हैं और हत्या साधारण
लोगों की ही जाती है। अन्यथा भारतीय राज्य में
इतनी शक्ति जरूर है कि वह नक्सलवाद का सफाया
कर सके। सभी जगह कश्मीर जैसी स्थितियां नहीं हैं।
भगत सिंह से जिन्हें सचमुच प्रेम है, उन्हें विचार
करना चाहिए कि अगर शहीदे-आजम को सिक्कों से
तौलना जायज नहीं है, तो उनकी स्मृति के इर्द-गिर्द
बारूद की दुर्गंध फैलाना भी उनके साथ न्याय करना
नहीं है।
Wednesday, September 26, 2007
क्रांति के लिए आह्वान
आइए, 1857 को दुहराने की तैयारी करें
राजकिशोर
राजकिशोर
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं जयंती पर हमें क्या करना चाहिए? ऐसे मौकों पर आम तौर पर जो कार्यक्रम होते हैं, वे हो रहे हैं और आगे साल भर होते रहेंगे। श्री प्रभाष जोशी जैसे संजीदा और भावुक लोगों को लग रहा है कि ये कार्यक्रम और बेहतर, व्यवस्थित तथा अर्थगर्भित ढंग से हो सकते हैं, पर इसकी पहल करने वाला न कोई दल दिखाई दे रहा है, न कोई सरकार। उनकी शिकायत बहुत सही है और उसकी सुनवाई होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश में, जहां से उस महान युध्द का बिगुल बजा था, पिछले दो महीनों से चुनाव का वातावरण है। सभी नेता और दल एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैं। चुनाव प्रचार इतना जानदार कभी नहीं था जितना इस बार देखा गया। इनमें से एक पार्टी अपने को समाजवादी बताती है। दूसरी का दावा है कि वह बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती है। एक तीसरी पार्टी तो अपने को 1857 के योध्दाओं का वारिस ही बताती है। लेकिन चुनाव अभियान के दौरान इनमें से किसी ने भी 1857 के साहस और मुद्दों का प्रेरक जिक्र नहीं किया। यहां उन वामपंथी और दलित-स्त्रीवादियों का जिक्र करने का अवकाश नहीं है जो बहुत सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि 1857 की लड़ाई भारत के दूरगामी हितों के खिलाफ थी और यह बहुत अच्छा हुआ कि वह विफल हो गई। जाहिर है, इस वर्ग के चिंतकों और लेखकों और एक्टिविस्टों को मनाना होगा तो वे इस पहले स्वतंत्रता संग्राम की विफलता का समारोह मनाएंगे।
लेकिन जिनकी नजर में स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है, वे 1857 के संदेश को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? उन्हें तो कुछ न कुछ करना ही होगा, नहीं तो वे इतिहास और अपना समय, दोनों के प्रति अन्याय कर रहे होंगे। अपने समय के साथ न्याय करने के लिए इतिहास के साथ न्याय करना जरूरी है, जैसे इतिहास के प्रति जो सच्चा होगा, वह अपने समय की चुनौतियों से विमुख नहीं हो सकता। इतिहास की सीख यही है कि मनुष्य दो ही तरह के काम कर रहा होता है : या तो वह क्रांति के लिए काम कर रहा होता है या फिर क्रांति के विरुध्द काम कर रहा होता है। 1857 में भी ऐसे लोग कम नहीं थे जिन्होंने क्रांति के विरुध्द काम करने का विकल्प चुना था। नहीं तो मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश की इतनी बड़ी आबादी पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं कर पाते। उनके उत्तराधिकारियों को उसके नब्बे साल बाद भारत से बोरिया-बिस्तर उठा कर चल देने का निर्णय करना पड़ा, इसके पीछे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस आदि क्रांतिकारियों का सतत और गंभीर काम था। क्रांतिकारियों की सभी धाराओं की याद करने और उनके प्रति सिर झुकाने का बाद, यह कहा जा सकता है कि भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम मुख्यत: अहिंसक था। भगत सिंह को अधिक दिनों तक जीने का मौका मिलता, तो वे भी एक विशाल अहिंसक संघर्ष ही संगठित करते, जिसकी जरूरत के बारे में उन्होंने अपने दस्तावेजों में बार-बार जिक्र किया है। इस तरह, हमारे पास संघर्ष के हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के अनुभव हैं और हम विवेक के आधार पर चुन सकते हैं कि आज कौन-सा रास्ता हमारे लिए श्रेयस्कर होगा।
सवाल सिर्फ रास्ते और विधि का ही है। वरना आज 1857 की क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कोई ईमानदार मतभेद हो ही नहीं सकता। वह संग्राम विदेशी गुलामी के विरुध्द छेड़ा गया था। यानी स्वतंत्रता के पक्ष में था। उन दिनों स्वतंत्रता की परिभाषा, कम से कम भारत में, काफी सीमित थी। यूरोप में मेरी वोल्सटोनेक्राफ्ट 1792 में 'ए विंडिकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वीमेन' नामक पुस्तक लिख चुकी थीं और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1859 में 'ऑन लिबर्टी' नामक अपना प्रसिध्द ग्रंथ लिखा। इन दोनों ही पुस्तकों में स्वतंत्रता को बहुत ही व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया था। हमारे लिए यह अवसर दूसरे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान आया, जब भगत सिंह ने स्वतंत्रता को समाजवादी व्यवस्था के रूप में और महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज के रूप में परिभाषित किया। आज स्वतंत्रता का अध्ययन बहुत विस्तृत हो चुका है और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान उसके दायरे को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। इसलिए 1857 में जिसे आजादी कहा गया, वह आज पर्याप्त नहीं है। उस आजादी में लोकतंत्र तक नहीं था। आज हमें जो आजादी चाहिए, उसमें लोकतंत्र, समाजवाद, ग्राम स्वराज, जाति-मुक्त समाज आदि बहुत कुछ शामिल है। 1857 के सेनानी स्वतंत्रता को अपना जन्मसिध्द अधिकार (इस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग नहीं किया; बाद में बाल गंगाधर तिलक ने इस खूबसूरत जुमले का आविष्कार किया, जो हमारे हृदय में अमिट रूप से अंकित है) को मानते थे , जिसे पाने की हसरत में लाखों लोगों को जान की कुरबानी देनी पड़ी। गांधी और भगत सिंह के संघर्ष में भी लाखों लोग शहीद हुए। लेकिन आज भी हम अपने काबिल पुरखों के सपनों के समाज से बहुत दूर हैं। सरकारी नीतियों में हाल में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इसी तरह बरदाश्त किए जाते रहे, तो वह समाज हमसे और दूरतर होता जाएगा। इसलिए, भारतवासी होने के नाते, यह हमारा एक भूला हुआ ऐतिहासिक कर्तव्य है कि हम एक वास्तविक रूप से स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करें। कर्तव्य होने के नाते यह हमारा अधिकार भी है और अपने इस मूलभूत, जन्मसिध्द अधिकार का प्रयोग करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। जो रोकने की कोशिश करेगा, वह भारतीय संविधान के साथ बेवफाई कर रहा होगा। इसी तरह, जो इस अपने इस अधिकार का विधिसम्मत रूप से उपयोग कर रहे होंगे, वे भारतीय संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे होंगे। संविधान के अनुच्छेद 51क का आदेश भी है कि ' भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह -- (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती से अधिक पवित्र मौका क्या हो सकता है जब संविधान में बताए हुए अपने इस 'मूल कर्तव्य' का पालन करने के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रांतिकारी जिहाद छेड़ दें? यह हमारे मूल अधिकारों में एक है।
इस क्रांति की तैयारी कौन-से आदर्श पाने के लिए होगी? यह निर्धारित करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से, स्वयं हमारे संविधान में ही इसका जोरदार उल्लेख किया हुआ है। मैं यहां सिर्फ दो अनुच्छेदों को उध्दृत करूंगा। अनुच्छेद 38 का निर्देश है कि '(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा'। अनुच्छेद 39 'राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व' इस प्रकार बताता है : 'राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ) पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु याशक्ति के अनुकूल न हो; (च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।'
यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे साभ भी हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अध्याय का दर्जा दिया गया है। लेकिन नागरिकों का पर्याप्त दबाव न पड़ने के कारण इस मूल अधिकार को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नागरिक चाहें तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को (संविधान का भाग 4) लागू कराने के लिए आंदोलन जरूर कर सकते हैं। संविधान न्यायपालिका की शक्ति की सीमाओं को जानता है। इसलिए वह उन्हें असंभव दिखाई पड़ने वाले कामों का जिम्मा नहीं देता। लेकिन नागरिक समाज की शक्ति असीमित होती है। वह राजाओं और सामंतों की व्यवस्था को खत्म कर सकता है, वह अन्याय और असमानता के सभी रूपों को नष्ट कर सकता है, वह प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन बिताने की परिस्थितियों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकता है। यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हमारी न्यायपालिका भले ही आज इस स्थिति में न हो कि वह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए सरकार को बाध्य कर सके, लेकिन अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे आते हैं, तो वह इन साहसी लोगों की सहायता ही करेगी -- उन्हें राज्य के कोप से और अन्याय तथा विशमता को बरकरार रखने की इच्छा और शक्ति रखने वाली शक्तियों के कोप और दमन से बचाएगा। आखिर हमारी न्यायपालिका इसी संविधान की कोख से पैदा हुई है और उसका काम इस संविधान की रक्षा करना ही है।
अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना तथा हर इलाके में जोरदार आंदोलन छेड़ देना। यह काम कठिन है, पर असंभव बिलकुल नहीं है। इसके लिए फिलहाल कोई राजनीतिक दल बनाने की जरूरत नहीं है। 'भारत सेवक संघ' या ऐसे ही किसी विनीत नाम से गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर आदि स्तरों पर संगठन बनाने चाहिए तथा उन्हें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर विभिन्न सूत्रों में पिरोना चाहिए। कार्यक्रम की शुरुआत इस प्रकार के अभियानों से की जा सकती है -- (1) हम अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग नहीं चलने देंगे, क्योंकि भारत में अंग्रेजी शोषण और विषमता की भाषा है। (2) हमारी टोलियां इस दृष्टि से स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों की सतत निगरानी करेंगी कि वहां नियमों के अनुसार काम होता है या नहीं। गुप्त रूप से किए जाने वाले भुगतानों को असंभव कर दिया जाएगा और इस तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाएगा कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही न रह जाए। (3) सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों -- बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी आदि -- को नियमानुसार चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। (4) जहां राशन कार्ड बनाए जाते हैं, नागरिक पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी आदि के परमिट जारी किए जाते हैं, उन सभी कार्यालयों की सख्त निगरानी की जाएगी और उचित ढंग से काम करवाया जाएगा। (5) नागरिकों की प्रशासनिक समस्याओं, जैसे बिजली-पानी के कनेक्शन पाने में देर या धींगामुश्ती, को सुलझाने के लिए सहायता समूह होंगे। (6) महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। (7) सभी वेश्यालय बंद कराए जाएंगे। आदि-आदि। बाद में और भी रेडिकल कदम उठाए जाएंगे, जैसे सिगरेट-बीड़ी आदि के कारखानों को बंद कराना, विभिन्न उत्पादकों से हिसाब लेना कि उनकी लागत क्या पड़ती है और वे ग्राहक से कितना वसूल कर रहे हैं, मजदूरों को उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं दी जा रही हैं या नहीं। ये सभी विधि-सम्मत काम हैं और ऐसा करते हम सरकार तथा समाज की मदद ही कर रहे होंगे। जब सार्वजनिक सेवा का यह कार्यक्रम व्यापक रूप से फैल जाएगा, तब राजनीतिक दल भी बनाए जा सकते हैं और संसद तथा विधान सभाओं की सहायतों से कानूनों में ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हों जो संविधान के उच्छ आदर्शों के अनुसार जीने और व्यवस्था को चलाने में सहायता कर सकें।
निश्चय ही, ये सारे कां मजेदार, आनंदपूर्ण और हमारी बुनियादी न्याय भावना को संतुष्ट करने वाले हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों की व्यवस्था में उल्लेखनीय फर्क आएगा। फिर देर करने की क्या बात है? आइए, हम अपने-अपने इलाके में इसकी शुरुआत करने के लिए जुटें और काम शुरू कर दें। जो ईश्वर को मानते हैं, वे आश्वस्त रह सकते हैं कि वह उनकी सहायता जरूर करेगा। जो नास्तिक हैं, उनके पास इतिहास का बल होगा। 1857 की लड़ाई करने की पहल कुछ ऐसी ही भावना से पैदा हुई होगी। 000
लेकिन जिनकी नजर में स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है, वे 1857 के संदेश को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? उन्हें तो कुछ न कुछ करना ही होगा, नहीं तो वे इतिहास और अपना समय, दोनों के प्रति अन्याय कर रहे होंगे। अपने समय के साथ न्याय करने के लिए इतिहास के साथ न्याय करना जरूरी है, जैसे इतिहास के प्रति जो सच्चा होगा, वह अपने समय की चुनौतियों से विमुख नहीं हो सकता। इतिहास की सीख यही है कि मनुष्य दो ही तरह के काम कर रहा होता है : या तो वह क्रांति के लिए काम कर रहा होता है या फिर क्रांति के विरुध्द काम कर रहा होता है। 1857 में भी ऐसे लोग कम नहीं थे जिन्होंने क्रांति के विरुध्द काम करने का विकल्प चुना था। नहीं तो मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश की इतनी बड़ी आबादी पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं कर पाते। उनके उत्तराधिकारियों को उसके नब्बे साल बाद भारत से बोरिया-बिस्तर उठा कर चल देने का निर्णय करना पड़ा, इसके पीछे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस आदि क्रांतिकारियों का सतत और गंभीर काम था। क्रांतिकारियों की सभी धाराओं की याद करने और उनके प्रति सिर झुकाने का बाद, यह कहा जा सकता है कि भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम मुख्यत: अहिंसक था। भगत सिंह को अधिक दिनों तक जीने का मौका मिलता, तो वे भी एक विशाल अहिंसक संघर्ष ही संगठित करते, जिसकी जरूरत के बारे में उन्होंने अपने दस्तावेजों में बार-बार जिक्र किया है। इस तरह, हमारे पास संघर्ष के हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के अनुभव हैं और हम विवेक के आधार पर चुन सकते हैं कि आज कौन-सा रास्ता हमारे लिए श्रेयस्कर होगा।
सवाल सिर्फ रास्ते और विधि का ही है। वरना आज 1857 की क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कोई ईमानदार मतभेद हो ही नहीं सकता। वह संग्राम विदेशी गुलामी के विरुध्द छेड़ा गया था। यानी स्वतंत्रता के पक्ष में था। उन दिनों स्वतंत्रता की परिभाषा, कम से कम भारत में, काफी सीमित थी। यूरोप में मेरी वोल्सटोनेक्राफ्ट 1792 में 'ए विंडिकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वीमेन' नामक पुस्तक लिख चुकी थीं और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1859 में 'ऑन लिबर्टी' नामक अपना प्रसिध्द ग्रंथ लिखा। इन दोनों ही पुस्तकों में स्वतंत्रता को बहुत ही व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया था। हमारे लिए यह अवसर दूसरे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान आया, जब भगत सिंह ने स्वतंत्रता को समाजवादी व्यवस्था के रूप में और महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज के रूप में परिभाषित किया। आज स्वतंत्रता का अध्ययन बहुत विस्तृत हो चुका है और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान उसके दायरे को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। इसलिए 1857 में जिसे आजादी कहा गया, वह आज पर्याप्त नहीं है। उस आजादी में लोकतंत्र तक नहीं था। आज हमें जो आजादी चाहिए, उसमें लोकतंत्र, समाजवाद, ग्राम स्वराज, जाति-मुक्त समाज आदि बहुत कुछ शामिल है। 1857 के सेनानी स्वतंत्रता को अपना जन्मसिध्द अधिकार (इस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग नहीं किया; बाद में बाल गंगाधर तिलक ने इस खूबसूरत जुमले का आविष्कार किया, जो हमारे हृदय में अमिट रूप से अंकित है) को मानते थे , जिसे पाने की हसरत में लाखों लोगों को जान की कुरबानी देनी पड़ी। गांधी और भगत सिंह के संघर्ष में भी लाखों लोग शहीद हुए। लेकिन आज भी हम अपने काबिल पुरखों के सपनों के समाज से बहुत दूर हैं। सरकारी नीतियों में हाल में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इसी तरह बरदाश्त किए जाते रहे, तो वह समाज हमसे और दूरतर होता जाएगा। इसलिए, भारतवासी होने के नाते, यह हमारा एक भूला हुआ ऐतिहासिक कर्तव्य है कि हम एक वास्तविक रूप से स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करें। कर्तव्य होने के नाते यह हमारा अधिकार भी है और अपने इस मूलभूत, जन्मसिध्द अधिकार का प्रयोग करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। जो रोकने की कोशिश करेगा, वह भारतीय संविधान के साथ बेवफाई कर रहा होगा। इसी तरह, जो इस अपने इस अधिकार का विधिसम्मत रूप से उपयोग कर रहे होंगे, वे भारतीय संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे होंगे। संविधान के अनुच्छेद 51क का आदेश भी है कि ' भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह -- (क) संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे; (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती से अधिक पवित्र मौका क्या हो सकता है जब संविधान में बताए हुए अपने इस 'मूल कर्तव्य' का पालन करने के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रांतिकारी जिहाद छेड़ दें? यह हमारे मूल अधिकारों में एक है।
इस क्रांति की तैयारी कौन-से आदर्श पाने के लिए होगी? यह निर्धारित करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सौभाग्य से, स्वयं हमारे संविधान में ही इसका जोरदार उल्लेख किया हुआ है। मैं यहां सिर्फ दो अनुच्छेदों को उध्दृत करूंगा। अनुच्छेद 38 का निर्देश है कि '(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा'। अनुच्छेद 39 'राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व' इस प्रकार बताता है : 'राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से --- (क) पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो; (घ) पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (ड.) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में न जाना पड़े जो उनका आयु याशक्ति के अनुकूल न हो; (च) बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।'
यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे साभ भी हुआ है। ऐसे ही एक प्रयत्न के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अध्याय का दर्जा दिया गया है। लेकिन नागरिकों का पर्याप्त दबाव न पड़ने के कारण इस मूल अधिकार को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नागरिक चाहें तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को (संविधान का भाग 4) लागू कराने के लिए आंदोलन जरूर कर सकते हैं। संविधान न्यायपालिका की शक्ति की सीमाओं को जानता है। इसलिए वह उन्हें असंभव दिखाई पड़ने वाले कामों का जिम्मा नहीं देता। लेकिन नागरिक समाज की शक्ति असीमित होती है। वह राजाओं और सामंतों की व्यवस्था को खत्म कर सकता है, वह अन्याय और असमानता के सभी रूपों को नष्ट कर सकता है, वह प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन बिताने की परिस्थितियों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकता है। यह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हमारी न्यायपालिका भले ही आज इस स्थिति में न हो कि वह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए सरकार को बाध्य कर सके, लेकिन अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे आते हैं, तो वह इन साहसी लोगों की सहायता ही करेगी -- उन्हें राज्य के कोप से और अन्याय तथा विशमता को बरकरार रखने की इच्छा और शक्ति रखने वाली शक्तियों के कोप और दमन से बचाएगा। आखिर हमारी न्यायपालिका इसी संविधान की कोख से पैदा हुई है और उसका काम इस संविधान की रक्षा करना ही है।
अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना तथा हर इलाके में जोरदार आंदोलन छेड़ देना। यह काम कठिन है, पर असंभव बिलकुल नहीं है। इसके लिए फिलहाल कोई राजनीतिक दल बनाने की जरूरत नहीं है। 'भारत सेवक संघ' या ऐसे ही किसी विनीत नाम से गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर आदि स्तरों पर संगठन बनाने चाहिए तथा उन्हें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर विभिन्न सूत्रों में पिरोना चाहिए। कार्यक्रम की शुरुआत इस प्रकार के अभियानों से की जा सकती है -- (1) हम अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग नहीं चलने देंगे, क्योंकि भारत में अंग्रेजी शोषण और विषमता की भाषा है। (2) हमारी टोलियां इस दृष्टि से स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों की सतत निगरानी करेंगी कि वहां नियमों के अनुसार काम होता है या नहीं। गुप्त रूप से किए जाने वाले भुगतानों को असंभव कर दिया जाएगा और इस तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाएगा कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही न रह जाए। (3) सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों -- बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी आदि -- को नियमानुसार चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। (4) जहां राशन कार्ड बनाए जाते हैं, नागरिक पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी आदि के परमिट जारी किए जाते हैं, उन सभी कार्यालयों की सख्त निगरानी की जाएगी और उचित ढंग से काम करवाया जाएगा। (5) नागरिकों की प्रशासनिक समस्याओं, जैसे बिजली-पानी के कनेक्शन पाने में देर या धींगामुश्ती, को सुलझाने के लिए सहायता समूह होंगे। (6) महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। (7) सभी वेश्यालय बंद कराए जाएंगे। आदि-आदि। बाद में और भी रेडिकल कदम उठाए जाएंगे, जैसे सिगरेट-बीड़ी आदि के कारखानों को बंद कराना, विभिन्न उत्पादकों से हिसाब लेना कि उनकी लागत क्या पड़ती है और वे ग्राहक से कितना वसूल कर रहे हैं, मजदूरों को उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं दी जा रही हैं या नहीं। ये सभी विधि-सम्मत काम हैं और ऐसा करते हम सरकार तथा समाज की मदद ही कर रहे होंगे। जब सार्वजनिक सेवा का यह कार्यक्रम व्यापक रूप से फैल जाएगा, तब राजनीतिक दल भी बनाए जा सकते हैं और संसद तथा विधान सभाओं की सहायतों से कानूनों में ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हों जो संविधान के उच्छ आदर्शों के अनुसार जीने और व्यवस्था को चलाने में सहायता कर सकें।
निश्चय ही, ये सारे कां मजेदार, आनंदपूर्ण और हमारी बुनियादी न्याय भावना को संतुष्ट करने वाले हैं। इनसे व्यक्ति और समाज दोनों की व्यवस्था में उल्लेखनीय फर्क आएगा। फिर देर करने की क्या बात है? आइए, हम अपने-अपने इलाके में इसकी शुरुआत करने के लिए जुटें और काम शुरू कर दें। जो ईश्वर को मानते हैं, वे आश्वस्त रह सकते हैं कि वह उनकी सहायता जरूर करेगा। जो नास्तिक हैं, उनके पास इतिहास का बल होगा। 1857 की लड़ाई करने की पहल कुछ ऐसी ही भावना से पैदा हुई होगी। 000
Monday, September 24, 2007
तीसरा मोर्चा उर्फ ...http://www.blogger.com/img/gl.align.full.gif
तीसरा मोर्चा आए तो कहां से
राजकिशोर
राजकिशोर
भारतीय राजनीति में तीसरा मोर्चा वह जन्नत है जिसकी हकीकत सभी को मालूम है, लेकिन दिल को बहलाने के लिए समय-समय पर जिस सुंदर अवधारणा का बेईमान उपयोग कभी बंद नहीं होता। ऐसा लगता है कि तीसरा मोर्चा कोई ईश्वर है जिसका अस्तित्व है या नहीं, पता नहीं, लेकिन जिसकी याद दुख के समय आती ही है और जिससे यह प्रार्थना की जाती है कि वह सभी वर्तमान दुखों को हर ले। या, समाजवाद की तरह तीसरा मोर्चा वह टोपी है जिससे कोई भी विफल नेता अपने नंगे सिर को ढक कर अपने ऊपर इठलाना शुरू कर देता है। अथवा, यह वह तावीज है जिसे पहने रखने पर भूत-पिशाच निकट नहीं आते और राजनीतिक यात्रा निर्विघ्न तय होती रहती है। कुल मिला कर, यह वह आदर्श है जिसे पाने की शक्ति से संपन्न होने का दावा बहुत-से दल और नेता करते हैं, लेकिन अभी तक किसी के राशिफल में इसके शामिल होने की संभावना तक नहीं देखी जा सकी है।
हमारे राजनेताओं ने जैसे दूसरी सभी चीजों की फजीहत कर रखी है और अपने आसपास एक भी पवित्र चीज नहीं रहने दी है, उसी तरह वे तीसरा मोर्चा के विचार के साथ लगातार विश्वासघात करते आए हैं। दरअसल, यह 'तीसरा' शब्द ही एक घिचपिच मामला बन चुका है। इसका मूल प्रयोग तो समाजवादी रास्ते के लिए सुरक्षित था, जिसके बारे में माना जाता था कि वह पूंजीवाद तथा साम्यवाद, दोनों व्यवस्थाओं की बर्बरताओं से हमें मुक्त कराएगा। यह पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों के बीच का रास्ता नहीं था। बीच का कोई रास्ता होता भी नहीं है। जो रास्ते जैसा दिखाई देता है, वह किसी को कहीं नहीं ले जाता। तीसरा रास्ता पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों से भिन्न एक ऐसा रास्ता था जिस पर चलते हुए मानवता अपना सुंदरतम भविष्य तय कर सकती थी। लेकिन साम्यवाद तो आजमाए जाने के बाद विफल हुआ या कह लीजिए कि साम्यवाद को जिस ढंग से आजमाया गया, वही उसे अंततः विफलता की ओर ले गया, पर समाजवाद को बिना आजमाए ही विफल मान लिया गया। यूरोप के कई देशों ने समाजवाद की ओर चलने की कोशिश की। कुछ काफी दूर तक सफल भी हुए। लेकिन चूंकि उन्होंने पूंजीवाद के मूल दर्शन को नहीं छोड़ा था, इसलिए उन्हें बाद में कल्याणकारी राज्य की अपनी परिकल्पना के साथ अनेक समझौते करने पड़े। फलस्वरूप यूरोप में अब समाजवाद चरमरा रहा है तथा पूंजीवाद के रास्ते पर चलने के लिए लालायित दिख रहा है। अमेरिका में अनुदारवादी दर्शन मानो बदले की भावना के साथ लौट आया है तथा वहां सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों में क्रूर कटौतियां हो रही हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
भारत के नेहरू युगीन आर्थिक कार्यक्रम के पीछे कुछ समाजवादी प्रेरणाएं जरूर थीं, लेकिन अधूरा या आंशिक समाजवाद पूंजीवाद से भी ज्यादा खतरनाक साबित होता है, क्योंकि वह समता और संपन्नता का युग तो ले नहीं आता, बल्कि कुछेक दशकों में विफल होते-होते पूंजीवाद या बाजारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करते हुए विदा लेने लगता है। भारत में ही नहीं, तीसरी दुनिया के सभी देशों में ऐसा हो चुका है या हो रहा है। भारत में समाजवादी आंदोलन का जन्म मानो यह चेतावनी देने के लिए ही हुआ था। यह आंदोलन कई दृष्टियों से एक प्रौढ़ आंदोलन था। साम्यवाद से आर्थिक बराबरी का सिध्दांत सीखने के साथ-साथ उसने गांधी की विरासत के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने की कोशिश की थी, जिनमें दो प्रमुख थे : अहिंसा पर जोर और सादगी का आग्रह। उसने बराबरी -- आर्थिक बराबरी ही नहीं, सामाजिक बराबरी भी -- से जुड़े कई बुनियादी सवाल उठाए, जिसकी एक नापाक उपज आरक्षण की गंदी राजनीति है। लेकिन जिस बुनियादी चीज पर कभी जोर नहीं दिया गया, वह था उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण। यह कम्युनिस्ट कार्यक्रम का ही एक संस्करण था, शायद इसीलिए 'वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज' पर जोर देते रहने के बावजूद यह समाजवादियों के राजनीतिक कार्यक्रम का कोई गंभीर हिस्सा कभी नहीं बन सका। समाजवादियों को यह श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता की एक लोकतांत्रिक तोड़ खोज निकाली। लेकिन गैरकांग्रेसवाद को समाजवादी राजनीति का प्रवेश द्वार बनाने का सपना अधूरा ही रह गया, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद के दार्शनिक राममनोहर लोहिया अपने इस अभिनव प्रयोग को दूर तक ले जाने के लिए जीवित नहीं बचे। जो बचे रहे, उनमें से शायद ही किसी को समाजवादी रास्ते से कोई मतलब था। नहीं तो समाजवादी नेताओं के नाम पर हमारे पास जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह जैसी विभूतियां न होतीं, जिनमें से एक का रास्ता कॉरपोरेट सांप्रदायिकता से हो कर गुजरता है और दूसरे का रास्ता कॉरपोरेट आवारगी और मौज-मस्ती से। मेरा गंभीर प्रस्ताव है कि आज के किसी भी नेता के साथ 'समाजवादी' विशेषण का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि बच्चन जी के शब्दों में 'अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला'।
फिर भी तीसरा मोर्चा की चर्चा बंद होती दिखाई नहीं देती, तो इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, इन दो दलों से अलग अनेक दल अपने को इस मोर्चे का स्वाभाविक घटक मानते हैं। दुर्भाग्य से, इनमें असम गण परिषद, तेलुगु देशम और द्रमुक या अन्ना द्रमुक जैसे दल भी हैं जो कभी भाजपा के मोर्चे का अंग रह चुके हैं। मुलायम सिंह कभी कांग्रेस का समर्थन करते हैं तो कभी भाजपा के स्थानीय एजेंट की भूमिका निभाते हैं। कायदे से बहुजन समाज पार्टी को अपने को तीसरा मोर्चा में शामिल होने का स्वाभाविक हकदार मानना चाहिए, पर उसका नेतृत्व राजनीति के नाम पर एक ही सूत्र जानता है और वह सूत्र है, चाहे जिसके भी सहयोग से सत्ता हासिल करना। दलित राजनीति का यह घोर अवसरवाद बहुतों को दुखी किए हुए है। इस भीड़ में विश्वनाथ प्रताप सिंह थोड़ा अलग दिखाई देते हैं, हालांकि भाजपा और वांपंथ, दोनों का सहयोग एक साथ लेते हुए सत्ता में आने और बने रहने का चमत्कार उन्होंने ही दिखाया था। वह चमत्कार दुबारा आजमाया तक नहीं जा सका, इससे पता चलता है कि इसकी कुछेक दिन तक सीमित रहने वाली सफलता भारतीय राजनीति की एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति की देन थी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजनीति का राजपथ या जनपथ ही छोड़ दिया और जनवादी दिखाई पड़ने वाले कुछ मुहल्लावादी प्रयोगों तक सीमित रह गए, यह उनके लिए एक मजबूत प्रमाण है जिन्हें यह समझने के लिए प्रमाण चाहिए ही कि उनकी राजनीति में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का न कोई स्वप्न है और न दर्शन। वे वाम मार्ग के एक शिष्ट अघोरी हैं और उनका जन मोर्चा भी ऐसा ही एक अघोरी प्रयोग है, जो उत्तर प्रदेश के वर्तमान चुनाव चक्र से निकल कर अपना नाम बचाए रख सके, इसी में उसकी महानता होगी।
तीसरा मोर्चा के असली अभिभावक हमारे वामपंथी दल हैं, जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विशेष स्थान है। वामपंथी भारतीय राजनीति में एक विशेष प्रकार के जंतु हैं जो पूरी तरह विलुप्त भी नहीं होते और अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के किसी मौके का इस्तेमाल भी नहीं करते। वे एक ऐसे ठहरे हुए यात्री हैं जो भूल चुका है कि वह कहां जाने के लिए निकला था। आज देश की जो परिस्थिति है, उसकी उपमा दावानल से ही दी जा सकती है। जिधर देखिए, उधर आग लगी हुई है और जन असंताष जून-जुलाई की दोपहर की तरह तप रहा है। नए बाजारवाद से जिनकी बांछें खिली हुई हैं, उस छोटे-से वर्ग को छोड़ कर शायद ही कोई तबका हो जिसे अपने भविष्य का कोआ कोना सुरक्षित नजर आ रहा हो। संगठित अपराधियों के पौ बारह हैं और इनमें तमाम तरह के कबूतरबाज शामिल हैं और जो शामिल नहीं हैं, वे शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं। तूफान में सिर्फ तिनके नहीं उड़ते, बड़े-बड़े पेड़ भी धराशायी हो जाते हैं। ऐसी दारुण परिस्थिति में वामपंथियों के पास ही वह वैचारिक दर्शन और क्रांतिकारी आचरण का सिध्दांत है जो देश की राजनीतिक संप्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का कार्यक्रम बना सकता है और उस कार्यक्रम को लागू भी कर सकता है। लेकिन आज की परिस्थिति में यह सिर्फ एक सैध्दांतिक उम्मीद है -- बल्कि यह कहिए कि एक दैन्यपूर्ण प्रार्थना, जिसके बारे में प्रार्थना करने वाला भी जानता है कि वह पूरी होने वाली नहीं है।
यही वह वास्तविकता है, जिसके कारण वामपंथी यूपीए सरकार का समर्थन करना छोड़ना भी नहीं चाहते और बार-बार यह दिखावा करते रहते हैं कि वे मजबूरी में यह समर्थन कर रहे हैं। वामपंथी चाहते तो मनमोहन सिंह की सरकार को प्रगतिशील नीतियां अपनाने के लिए बाध्य कर सकते थे। भाजपा दुबारा आ जाएगी, इस डर से कोई अपनी बुनियादी नीतियों को स्थगित नहीं कर देता। इसी तर्क से यह कहा जा सकता है कि भाजपा दुबारा न आए, इसकी रणनीति यूपीए सरकार को समर्थन देते रहना नहीं, बल्कि सच्चे तीसरे मोर्चे की तैयारी करना है। भाजपा कांग्रेस से नहीं डरती -- कांग्रेस को हरा कर ही वह सत्ता में आई थी और जिन राज्यों में आई है, इसी रहगुजर से आई है। वह दरअसल तीसरा मोर्चा से डरती है, क्योंकि इस कीटाणु का सच्चा एंटीबॉयटिक वही है। लेकिन वामपंथी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रहे हैं। लंबा इंतजार उन्हें इस लायक नहीं छोड़ेगा कि वे तीसरा मोर्चा का नेतृत्व कर सकें, जैसा कि सिंगूर और नंदीग्राम के कठोर अनुभव बताते हैं।
यहीं यह प्रश्न उठाना निर्णायक महत्व का जान पड़ता है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का सिध्दांतहीन जमावड़ा होगा या वह भारतीय राजनीति में ताजा हवाएं बहाने का वादा और जिम्मेदारी ले कर आएगा? अगर तीसरा मोर्चा को एक विशेष रंग का जमावड़ा होना है, तो ईश्वर उससे हमारी रक्षा करे। भारतीय लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे एक और मोह में पड़ें और फिर निराश तथा हताश हों। लेकिन तीसरा मोर्चा को सचमुच तीसरा मोर्चा होना है यानी एक नई राजनीतिक संस्कृति का वाहक, नैतिक, प्रतिबध्द और राजनीतिक ढांचे को सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक बनाने का अरमान रखने वाला, तो जनता के मन में कुलबुला रहा प्रश्न यह है कि इस नई राजनीति के वाहक कहां हैं? क्या दागदार हाथों, बासी नजरों, बीमार दिमागों और दूषित इरादों से कोई नई राजनीतिक धारा बहाई जा सकती है?
हमारे राजनेताओं ने जैसे दूसरी सभी चीजों की फजीहत कर रखी है और अपने आसपास एक भी पवित्र चीज नहीं रहने दी है, उसी तरह वे तीसरा मोर्चा के विचार के साथ लगातार विश्वासघात करते आए हैं। दरअसल, यह 'तीसरा' शब्द ही एक घिचपिच मामला बन चुका है। इसका मूल प्रयोग तो समाजवादी रास्ते के लिए सुरक्षित था, जिसके बारे में माना जाता था कि वह पूंजीवाद तथा साम्यवाद, दोनों व्यवस्थाओं की बर्बरताओं से हमें मुक्त कराएगा। यह पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों के बीच का रास्ता नहीं था। बीच का कोई रास्ता होता भी नहीं है। जो रास्ते जैसा दिखाई देता है, वह किसी को कहीं नहीं ले जाता। तीसरा रास्ता पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों से भिन्न एक ऐसा रास्ता था जिस पर चलते हुए मानवता अपना सुंदरतम भविष्य तय कर सकती थी। लेकिन साम्यवाद तो आजमाए जाने के बाद विफल हुआ या कह लीजिए कि साम्यवाद को जिस ढंग से आजमाया गया, वही उसे अंततः विफलता की ओर ले गया, पर समाजवाद को बिना आजमाए ही विफल मान लिया गया। यूरोप के कई देशों ने समाजवाद की ओर चलने की कोशिश की। कुछ काफी दूर तक सफल भी हुए। लेकिन चूंकि उन्होंने पूंजीवाद के मूल दर्शन को नहीं छोड़ा था, इसलिए उन्हें बाद में कल्याणकारी राज्य की अपनी परिकल्पना के साथ अनेक समझौते करने पड़े। फलस्वरूप यूरोप में अब समाजवाद चरमरा रहा है तथा पूंजीवाद के रास्ते पर चलने के लिए लालायित दिख रहा है। अमेरिका में अनुदारवादी दर्शन मानो बदले की भावना के साथ लौट आया है तथा वहां सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों में क्रूर कटौतियां हो रही हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
भारत के नेहरू युगीन आर्थिक कार्यक्रम के पीछे कुछ समाजवादी प्रेरणाएं जरूर थीं, लेकिन अधूरा या आंशिक समाजवाद पूंजीवाद से भी ज्यादा खतरनाक साबित होता है, क्योंकि वह समता और संपन्नता का युग तो ले नहीं आता, बल्कि कुछेक दशकों में विफल होते-होते पूंजीवाद या बाजारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करते हुए विदा लेने लगता है। भारत में ही नहीं, तीसरी दुनिया के सभी देशों में ऐसा हो चुका है या हो रहा है। भारत में समाजवादी आंदोलन का जन्म मानो यह चेतावनी देने के लिए ही हुआ था। यह आंदोलन कई दृष्टियों से एक प्रौढ़ आंदोलन था। साम्यवाद से आर्थिक बराबरी का सिध्दांत सीखने के साथ-साथ उसने गांधी की विरासत के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने की कोशिश की थी, जिनमें दो प्रमुख थे : अहिंसा पर जोर और सादगी का आग्रह। उसने बराबरी -- आर्थिक बराबरी ही नहीं, सामाजिक बराबरी भी -- से जुड़े कई बुनियादी सवाल उठाए, जिसकी एक नापाक उपज आरक्षण की गंदी राजनीति है। लेकिन जिस बुनियादी चीज पर कभी जोर नहीं दिया गया, वह था उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण। यह कम्युनिस्ट कार्यक्रम का ही एक संस्करण था, शायद इसीलिए 'वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज' पर जोर देते रहने के बावजूद यह समाजवादियों के राजनीतिक कार्यक्रम का कोई गंभीर हिस्सा कभी नहीं बन सका। समाजवादियों को यह श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता की एक लोकतांत्रिक तोड़ खोज निकाली। लेकिन गैरकांग्रेसवाद को समाजवादी राजनीति का प्रवेश द्वार बनाने का सपना अधूरा ही रह गया, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद के दार्शनिक राममनोहर लोहिया अपने इस अभिनव प्रयोग को दूर तक ले जाने के लिए जीवित नहीं बचे। जो बचे रहे, उनमें से शायद ही किसी को समाजवादी रास्ते से कोई मतलब था। नहीं तो समाजवादी नेताओं के नाम पर हमारे पास जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह जैसी विभूतियां न होतीं, जिनमें से एक का रास्ता कॉरपोरेट सांप्रदायिकता से हो कर गुजरता है और दूसरे का रास्ता कॉरपोरेट आवारगी और मौज-मस्ती से। मेरा गंभीर प्रस्ताव है कि आज के किसी भी नेता के साथ 'समाजवादी' विशेषण का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि बच्चन जी के शब्दों में 'अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला'।
फिर भी तीसरा मोर्चा की चर्चा बंद होती दिखाई नहीं देती, तो इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, इन दो दलों से अलग अनेक दल अपने को इस मोर्चे का स्वाभाविक घटक मानते हैं। दुर्भाग्य से, इनमें असम गण परिषद, तेलुगु देशम और द्रमुक या अन्ना द्रमुक जैसे दल भी हैं जो कभी भाजपा के मोर्चे का अंग रह चुके हैं। मुलायम सिंह कभी कांग्रेस का समर्थन करते हैं तो कभी भाजपा के स्थानीय एजेंट की भूमिका निभाते हैं। कायदे से बहुजन समाज पार्टी को अपने को तीसरा मोर्चा में शामिल होने का स्वाभाविक हकदार मानना चाहिए, पर उसका नेतृत्व राजनीति के नाम पर एक ही सूत्र जानता है और वह सूत्र है, चाहे जिसके भी सहयोग से सत्ता हासिल करना। दलित राजनीति का यह घोर अवसरवाद बहुतों को दुखी किए हुए है। इस भीड़ में विश्वनाथ प्रताप सिंह थोड़ा अलग दिखाई देते हैं, हालांकि भाजपा और वांपंथ, दोनों का सहयोग एक साथ लेते हुए सत्ता में आने और बने रहने का चमत्कार उन्होंने ही दिखाया था। वह चमत्कार दुबारा आजमाया तक नहीं जा सका, इससे पता चलता है कि इसकी कुछेक दिन तक सीमित रहने वाली सफलता भारतीय राजनीति की एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति की देन थी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजनीति का राजपथ या जनपथ ही छोड़ दिया और जनवादी दिखाई पड़ने वाले कुछ मुहल्लावादी प्रयोगों तक सीमित रह गए, यह उनके लिए एक मजबूत प्रमाण है जिन्हें यह समझने के लिए प्रमाण चाहिए ही कि उनकी राजनीति में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का न कोई स्वप्न है और न दर्शन। वे वाम मार्ग के एक शिष्ट अघोरी हैं और उनका जन मोर्चा भी ऐसा ही एक अघोरी प्रयोग है, जो उत्तर प्रदेश के वर्तमान चुनाव चक्र से निकल कर अपना नाम बचाए रख सके, इसी में उसकी महानता होगी।
तीसरा मोर्चा के असली अभिभावक हमारे वामपंथी दल हैं, जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विशेष स्थान है। वामपंथी भारतीय राजनीति में एक विशेष प्रकार के जंतु हैं जो पूरी तरह विलुप्त भी नहीं होते और अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के किसी मौके का इस्तेमाल भी नहीं करते। वे एक ऐसे ठहरे हुए यात्री हैं जो भूल चुका है कि वह कहां जाने के लिए निकला था। आज देश की जो परिस्थिति है, उसकी उपमा दावानल से ही दी जा सकती है। जिधर देखिए, उधर आग लगी हुई है और जन असंताष जून-जुलाई की दोपहर की तरह तप रहा है। नए बाजारवाद से जिनकी बांछें खिली हुई हैं, उस छोटे-से वर्ग को छोड़ कर शायद ही कोई तबका हो जिसे अपने भविष्य का कोआ कोना सुरक्षित नजर आ रहा हो। संगठित अपराधियों के पौ बारह हैं और इनमें तमाम तरह के कबूतरबाज शामिल हैं और जो शामिल नहीं हैं, वे शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं। तूफान में सिर्फ तिनके नहीं उड़ते, बड़े-बड़े पेड़ भी धराशायी हो जाते हैं। ऐसी दारुण परिस्थिति में वामपंथियों के पास ही वह वैचारिक दर्शन और क्रांतिकारी आचरण का सिध्दांत है जो देश की राजनीतिक संप्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का कार्यक्रम बना सकता है और उस कार्यक्रम को लागू भी कर सकता है। लेकिन आज की परिस्थिति में यह सिर्फ एक सैध्दांतिक उम्मीद है -- बल्कि यह कहिए कि एक दैन्यपूर्ण प्रार्थना, जिसके बारे में प्रार्थना करने वाला भी जानता है कि वह पूरी होने वाली नहीं है।
यही वह वास्तविकता है, जिसके कारण वामपंथी यूपीए सरकार का समर्थन करना छोड़ना भी नहीं चाहते और बार-बार यह दिखावा करते रहते हैं कि वे मजबूरी में यह समर्थन कर रहे हैं। वामपंथी चाहते तो मनमोहन सिंह की सरकार को प्रगतिशील नीतियां अपनाने के लिए बाध्य कर सकते थे। भाजपा दुबारा आ जाएगी, इस डर से कोई अपनी बुनियादी नीतियों को स्थगित नहीं कर देता। इसी तर्क से यह कहा जा सकता है कि भाजपा दुबारा न आए, इसकी रणनीति यूपीए सरकार को समर्थन देते रहना नहीं, बल्कि सच्चे तीसरे मोर्चे की तैयारी करना है। भाजपा कांग्रेस से नहीं डरती -- कांग्रेस को हरा कर ही वह सत्ता में आई थी और जिन राज्यों में आई है, इसी रहगुजर से आई है। वह दरअसल तीसरा मोर्चा से डरती है, क्योंकि इस कीटाणु का सच्चा एंटीबॉयटिक वही है। लेकिन वामपंथी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रहे हैं। लंबा इंतजार उन्हें इस लायक नहीं छोड़ेगा कि वे तीसरा मोर्चा का नेतृत्व कर सकें, जैसा कि सिंगूर और नंदीग्राम के कठोर अनुभव बताते हैं।
यहीं यह प्रश्न उठाना निर्णायक महत्व का जान पड़ता है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का सिध्दांतहीन जमावड़ा होगा या वह भारतीय राजनीति में ताजा हवाएं बहाने का वादा और जिम्मेदारी ले कर आएगा? अगर तीसरा मोर्चा को एक विशेष रंग का जमावड़ा होना है, तो ईश्वर उससे हमारी रक्षा करे। भारतीय लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे एक और मोह में पड़ें और फिर निराश तथा हताश हों। लेकिन तीसरा मोर्चा को सचमुच तीसरा मोर्चा होना है यानी एक नई राजनीतिक संस्कृति का वाहक, नैतिक, प्रतिबध्द और राजनीतिक ढांचे को सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक बनाने का अरमान रखने वाला, तो जनता के मन में कुलबुला रहा प्रश्न यह है कि इस नई राजनीति के वाहक कहां हैं? क्या दागदार हाथों, बासी नजरों, बीमार दिमागों और दूषित इरादों से कोई नई राजनीतिक धारा बहाई जा सकती है?
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