Thursday, July 8, 2010

वर्धा में बारिश
राजकिशोर

चारों ओर हरा-भरा हो और निरंतर वर्षा हो रही हो, यह दृश्य मैंने ज्यादा नहीं देखा है – वैसे दुनिया को मैंने देखा ही कितना है – लेकिन जो भी दृश्य देखे हैं, वे किसी प्रेम कथा की तरह मन पर अंकित हैं। पहाड़ों पर बारिश का अपना आनंद है और हरे-भरे मैदान में बूंदों की थाप का अपना सुख। कोलकाता में खूब बारिश होती थी और वहां के वातावरण में वर्षा के दिन जितने असुविधाजनक होते हैं, उसकी तुलना के लिए मेरे पास कोई समानांतर अनुभव नहीं है। शायद गांवों में इसी तरह जीवन कीचड़ में लिथड़ जाता हो। फिर भी कोलकाता का जो मौसम मन में रमा हुआ है, वह वर्षा का मौसम ही है। दिल्ली में तो बारिश होती ही नहीं है। जब होती है, तो उसका भी कुछ खुमार होता है, पर इस महान शहर में ऐसा दृश्य मुझे अभी तक देखने को नहीं मिला कि दूर-दूर तक घास और पेड़-पौधों की हरीतिमा फैली हुई हो और वायुमंडल में बूंदों की थपथपाहट गूंज रही हो।
भला हो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का, जिसने मुझे एक लेखक के तौर पर अपने यहां रहने के लिए निमंत्रित किया। बड़े लेखक शायद विमान से ही यात्रा करते हैं, पर रेलगाड़ी से सफर करने का रोमांस मेरे मन में बचपन से है और आगे भी बने रहनेवाला है। विमान से वर्धा आनेवाले उस मनोरम दृश्यावली के लुत्फ से वंचित रह जाते होंगे जो इटारसी से थोड़ी ही दूरी के बाद रेल की खिड़की से दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। आबादी अच्छी और मकान उपयोगी हैं, पर वे हमें प्राकृतिक सुषमा से दूर भी रखते हैं। प्रकृति और बसाहट के सुंदर संगम से ही जीवन में निखार आ सकता है। सेवाग्राम पहुंचा, जहां पहले गांधी जी का आश्रम था और अब उनके नाम पर विश्वविद्यालय है, तो मन और खिल उठा। पिछली बार जब यहां आया था, तो गर्मी का मौसम था। चिलचिलाती धूप और उच्च तापमान से मैं खुद जितना परेशान था, उससे अधिक परेशान इस प्रश्न से था कि गांधी जी यहां कैसे रहते होंगे। शायद महापुरुष जैसे मन के स्तर पर सम रहने की कोशिश करते हैं, वैसे ही वे बाहरी कठिनाइयों में भी अविचलित रहते हैं। इस बार जब मैंने विश्वविद्यालय का पर्यावरण देखा, तो गर्मी का कष्ट भूल गया। गांधी जी के बारे में कहा जा सकता है कि वे अपने आपमें एक विश्वविद्यालय थे। उनके नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय की कृतार्थता इसी में है कि वह विश्व भर में गांधी चेतना का सबसे उत्कृष्ट केंद्र बनने का प्रयास करे।
यह आकांक्षा यहां के मौजूदा परिवेश को देख कर पैदा हो रही है। आंखों को और उनसे जुड़े मानसिक जगत को हरीतिमा और वर्षा क्यों भली लगती है? इसके जैविक कारण होंगे, पर ऐतिहासिक या कहिए प्रगैतिहासिक कारण भी हैं। हमारे दूरस्थ पूर्वजों ने कई लाख वर्ष ऐसे ही वातावरण में बिताए होंगे। हमारा सामूहिक अवचेतन उन्हीं स्मृतियों को अपने गुह्य कक्ष में संजोए हुए हैं। जल ही जीवन है, कहा तो गया है, पर स्वयं जल में कितना जीवन है, मुझे पता नहीं। लेकिन वे पेड़-पौधे, जिन पर वर्षा के बादल अमृत की वर्षा करते हैं, जीवन से भरपूर हैं। दरअसल, ये पेड़-पौधे ही हमारे असली पूर्वज हैं, क्योंकि यह सचल सृष्टि उन्हीं की कोख से पैदा हुई है। कभी-कभी रेगिस्तान में भी धुआंधार बारिश होती होगी और न होती हो, तो हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि रेत के समुंदर पर जब बूंदों की बौछार होती होगी, तब किस तरह का दृश्य बनता होगा। वर्षा अपने आपमें मनोहर है, पर जब उसका संगम धरती पर फैले हुए हरे-भरे जीवन से होता है, तो वह और मनोहर हो जाती है।
ऐसी हरित वर्षा मैंने पहली बार विश्व भारती, शांति निकेतन में देखी थी। तब से वह दृश्य मेरी आंखों में टंगा हुआ है। ईमान से कहता हूं, वर्धा की हरित वर्षा उससे कई गुना सौंदर्यवती है। विश्व भारती की हरीतिमा में संस्कृति का भारी नियोग है। पर वर्धा में विश्वविद्यालय बन जाने के बावजूद उसे अपने ममतामय वलय में बांधे रखनेवाला सौंदर्य वन्य है। इसे आप संस्कृतिहीनता नहीं कह सकते, यह प्रकृति की अपनी संस्कृति है, जिसका अपना आंतरिक अनुशासन और लय है। महात्मा जी इसी लय के उपासक थे और मानव व्यवस्था में उसके लिए उचित जगह बनाना चाहते थे। इस कसूर के लिए उन्हें पिछड़ा, प्रतिगामी, इतिहास-विरोधी आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। लेकिन पर्यावरण के संकट के मौजूदा दौर में गांधी के अलावा और किसकी याद आती है? वर्धा विश्वविद्यालय की जो खूबी मेरे मन को मोह रही है, वह है प्रकृति के ऊबड़-खाबड़ सौंदर्य के बीच सुरुचिपूर्ण स्थापत्य और आधुनिक सुविधाओं से युक्त संस्कृति का एक भव्य केंद्र। 000

Saturday, July 3, 2010

माओवाद

क्योंकि यह आंदोलन नहीं, युद्ध है
राजकिशोर


अभी हाल तक मैं यह सोचता था कि माओवादी कैसे अव्यावहारिक लोग हैं जो कुछ हजार (या लाख, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है?) लोगों के बल पर भारत सरकार से युद्ध ठाने हुए हैं? पहले की बात और थी जब हिंसक क्रांतियां सफल हो जाया करती थीं। परिवहन और संवाद के साधन बहुत तीव्र नहीं थे। राजधानी के बाहर सरकार की सत्ता सीमित थी। सैनिक क्षमता का विकास नहीं हुआ था। शस्त्रास्त्र आधुनिक नहीं थे। विमान से बम बरसाने की सुविधा नहीं थी। आज की दुनिया बहुत बदल चुकी है। आज राजसत्ता जितनी मजबूत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। इसलिए सशस्त्र विद्रोह के द्वारा किसी सरकार को उखाड़ फेंकना आज बहुत मुश्किल नहीं, बल्कि असंभव है। शायद इसी आधार पर किशन पटनायक ने एक बार कहा था कि अब सशस्त्र क्रांति तब तक संभव नहीं है जब तक सेना में विभाजन न हो जाए। सेना ही सेना को परास्त कर सकती है।

इसलिए मैंने कई लेखों में माओवादियों को यह सलाह दी कि वे एक हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। भले ही कई दफा वे अर्धसैनिक बलों और पुलिस के जवानों की सामूहिक हत्या करने में सफल हो जाएं, कुछ इलाकों पर लंबे समय तक राज करते रहें, लेकिन अंतत: तो उन्हें पराजित होना ही है। माओवादियों के पास आधुनिकतम हथियारों का जितना भी बड़ा जखीरा हो, वह भारत सरकार की सामरिक शक्ति के सामने टिकनेवाला नहीं है। अभी तक हमारी सेना अपने ही देश के नागरिकों से दो-दो हाथ करने से बचती रही है, लेकिन सेना की यह हिचकिचाहट कब तक बनी रहेगी? अगर सरकार की वर्तमान कार्य नीति विफल हो जाती है, तो उसे माओवाद-प्रभावित इलाकों में फौज उतारने से कौन रोक सकता है? इसलिए माओवादियों से मेरा निवेदन रहा है कि इस गंभीर होती हुई युद्ध स्थिति को रोकने का प्रयास उन्हें करना ही चाहिए, क्योंकि यह युद्ध जब और गहरा होगा, तब माओवादियों के साथ-साथ असंख्य आदिवासी भी मौत के घाट उतार दिए जाएंगे। माओवादियों को चाहिए कि वे हिंसक संघर्ष का आत्मघाती रास्ता छोड़ कर लोकतांत्रिक तथा अहिंसक आंदोलन शुरू करें। इसका एक बहुत बड़ा फायदा यह होगा कि यह संघर्ष अभेद्य जंगलों से निकल कर खुले में आ जाएगा और तब साधारण स्त्री-पुरुष भी इसमें हिस्सा ले सकेंगे।

यह देख कर मुझे बड़ा अचरज होता रहा है कि अनेक बुद्धिजीवी भी सार्वजनिक रूप से यह घोषणा कर रहे हैं कि वे माओवादी संघर्ष का समर्थन करते हैं। हिन्दी के अखबारों में ऐसे लेख पढ़ने को मिलते रहते हैं जिनमें सरकारी कार्रवाइयों का विरोध इस तरह से किया जाता है कि वह माओवाद के समर्थन की ओर मुड़ जाता है। इस बीच यह मुहावरा काफी लोकप्रिय हो चला है कि गरीब लोगों को सताया जाएगा, तो वे हथियार उठाने को बाध्य हो जाएंगे। यह स्थापना इसलिए हास्यास्पद लगती है कि जिनके पास खाने को रोटी और पहनने को कपड़े नहीं हैं, उनके पास अन्याय का विरोध करने के लिए महंगे हथियार कहां से आ जाएंगे? क्या राइफल, रिवॉल्वर, विस्फोटक पदार्थ, मशीनगन आदि पेड़ों की डाल पर फलने लगे हैं? दुर्भाग्य से, वीर रस के इन बौद्धिक उद्घोषकों को क्रांतिकारी मान लिया जाता है, जब कि ये बुद्धिजीवी खुद त्याग और कुरबानी का उदाहरण पेश नहीं करते और उधार के खून से अपना ललाट लाल किए रहते हैं।

भारत का माओवादी साहित्य, जो बहुत ज्यादा नहीं है, पढ़ने के बाद मेरा निष्कर्ष यह बन रहा है कि यह माओवाद कोई आंदोलन नहीं, यह तो युद्ध है। आंदोलन होता, तो उसे अधिक से अधिक लोगों तक फैलाने की कोशिश होती। उसका एक मांग पत्र होता। आंदोलन के लोग चुनाव लड़ कर संसद और विधान सभाओं में जाते तथा वहां पूरी गंभीरता के साथ जन हित के मुद्दे उठाते। आंदोलन फैलता जाता, तो उसके प्रतिनिधि संसद या विधान सभा में अपनी संख्या के बल पर सरकार बनाने की भी कोशिश करते। उनका अपना चुनाव घोषणा पत्र होता, जिससे लोग अनुमान लगा सकते कि माओवादियों की सरकार बनेगी, तो वह क्या-क्या करेगी और क्या-क्या नहीं करेगी।

लेकिन माओवाद के साथ ऐसा नहीं है। देश भर में माओवाद का इतना हल्ला है, लेकिन किसी को पता नहीं कि माओवादी सत्ता में आ गए, तो उसके शासन का स्वरूप क्या होगा। नागरिकों के कौन-कौन-से अधिकार छीन लिए जाएंगे और उन्हें कौन-कौन-से नए अधिकार प्रदान किए जाएंगे। खेती और उद्योगीकरण के प्रति माओवादी सरकार का नजरिया क्या होगा। देश के वर्तमान संविधान में क्या-क्या परिवर्तन किए जाएंगे। वर्तमान व्यवस्था की कमियों और निष्ठुरताओं से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार का कार्यक्रम हमें रत्ती भर भी नहीं मालूम। ऐसे में हम किस आधार पर तय करें कि हमें उनका समर्थन करना चाहिए या नहीं?

माओवादियों को यह सब स्पष्ट करने की जरूरत इसलिए दिखाई नहीं देती कि वे कोई आंदोलन नहीं चला रहे, बल्कि युद्ध लड़ रहे हैं। युद्ध में एक उन्माद होता है। इस उन्माद में सारा ध्यान शत्रु पर होता है। किसी भी कीमत पर उसे पराजित करना है, चाहे उसका या हमारा कितना भी खून बह जाए। युद्ध की मनस्थिति में संवेदना का चरित्र बदल जाता है। जितना ज्यादा खून बहता है, उन्माद उतना ही गहरा होता जाता है। युद्ध की एक और विशेषता होती है। इसमें जीत-हार की संभावना नहीं देखी जाती। युद्ध को जारी रखना है, उसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। जीतेंगे, तो बहुत अच्छा। राज करेंगे। हारेंगे, तब भी कोई बात नहीं। अपने मूल्यों के लिए मर मिटेंगे। कहना न होगा कि यह वही मनस्थिति है जो जिहादियों में पाई जाती है। यहां मुझे गलत न समझा जाए। मैं माओवादियों को जिहादी या आतंकवादी बताने की गुस्ताखी नहीं कर रहा हूं। सिर्फ उनकी मनस्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।

एक तरफ, सरकार युद्ध जारी किए हुए है और महायुद्ध की तैयारी कर रही है। दूसरी तरफ, माओवादी भी युद्ध की मानसिकता में हैं। इस माहौल में बुद्धि और तर्क की बात किससे की जाए? कौन सुनेगा?

03 जुलाई 2010

Thursday, July 1, 2010

दुर्घटना या विफलता ?

सिस्टम फेल्योर
राजकिशोर


एक सौ पचास साल की होने जा रही कांग्रेस पार्टी के सामान्य ज्ञान का स्तर देख कर न ताज्जुब होता है न हंसी आती है। इस पार्टी ने हमेशा बड़े सवालों के छोटे जवाब दिए हैं या चुप्पी साध रखी है। उदाहरण के लिए, कांग्रेस नेतृत्व ने देश को यह बताना कभी जरूरी नहीं समझा कि उसने भारत विभाजन के प्रस्ताव को क्यों स्वीकार कर लिया था। पंचवर्षीय योजनाओं का प्रारूप बनाते समय कभी यह बात साफ नहीं की गई कि कितने समय में सभी बच्चों को शिक्षा और सभी नागरिकों को चिकित्सा की सुविधा देने का लक्ष्य है। इंदिरा गांधी ने कभी देश से यह शेयर नहीं किया कि इमरजेंसी लगाना क्यों जरूरी हो गया था, न ही यह स्पष्ट किया कि क्यों अकाल तख्त पर सैनिक कार्रवाई किए बिना कोई चारा रह गया था। बोफोर्स कांड के बाद उस समय के प्रधानमंत्री ने, जो शक के घेरे में सबसे ज्यादा थे, संसद में जा कर कहा कि मैं कसम खा कर कहता हूं कि इस घोटाले में मेरा या मेरे परिवार के किसी भी सदस्य का हाथ नहीं है। तब से बीस वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है और कांग्रेस यह बताने में असमर्थ है कि राजीव गांधी और उनके परिवार के सदस्यों का हाथ नहीं था तो किसका हाथ था।

अब कांग्रेस का एक प्रवक्ता कह रहा है कि वारेन एंडरसन के भारत से सुरक्षित भाग जाने के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है - यह तो सिस्टम का फेल्योर था। मुझे पता नहीं कि यह प्रवक्ता कितना पढ़ा-लिखा है। मुझे यह भी पता नहीं कि वह सिस्टम के बारे में कितना जानता है। यह मैं अवश्य कह सकता हूं कि वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ही एक नायाब उक्ति को दुहरा रहा था। जब हजारों करोड़ रुपयों का प्रतिभूति घोटाला हुआ था, तब मनमोहन सिंह ने, जो उस समय वित्त मंत्री थे, बहुत सोचने-विचारने के बाद देश को यह सूचित किया था कि इस घोटाले के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है, यह तो सिस्टम का फेल्योर था। इसी तर्क से क्या एंडरसन यह दावा नहीं कर सकता कि भोपाल गैस कांड भी सिस्टम फेल्योर का एक उदाहरण था -- उसके लिए किसी एक को सजा नहीं दी जा सकती? भारतीय अभियुक्तों को दो वर्ष के कारावास की सजा, जिसके पीछे सर्वोच्च न्यायालय का एक अजीब-सा निर्देश था, के बारे में भी यह टिप्पणी की जा सकती है कि इसके लिए किसी एक जज या न्यायालय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता - यह तो न्यायपालिका के टोटल सिस्टम का फेल्योर था।

सिस्टम फेल्योर एक बहुत ही गंभीर मामला है। इसका मतलब यह है कि पूरा सिस्टम नाकारा हो चुका है और उसका कोई भी हिस्सा अपना काम ठीक से नहीं कर रहा है। वारेन एंडरसन के मामले में हम पाते हैं कि उसे बचाने के लिए पूरा सिस्टम कितनी सक्रियता से काम कर रहा था। एंडरसन को पता था कि अगर वह भोपाल में यूनियन कारबाइड के कारखाने के आसपास भी फटका, तो जनता उसकी बोटी-बोटी नोच डालेगी। इसीलिए उसने भारत सरकार से यह आश्वासन मांगा कि उसे सुरक्षित वापस आने दिया जाएगा। कायदे से सरकारी प्रतिनिधि को कहना चाहिए था कि आपकी सुरक्षा की गारंटी हम नहीं ले सकते, बल्कि आपको यहां गिरफ्तार किया जा सकता है। लेकिन सिस्टम उलटी तरह से काम कर रहा था। एंडरसन भोपाल आया, उसे गिरफ्तार किया गया, पर उसका पासपोर्ट जब्त नहीं किया गया, कुछ ही घंटों में अदालत ने उसे जमानत दे दी - बिना यह शर्त लगाए कि वह अदालत की अनुमति के बिना भारत नहीं छोड़ेगा और राज्य सरकार ने दामाद की तरह खातिर करते हुए उसे दिल्ली पहुंचा दिया, जहां से वह अपने देश अमेरिका भाग निकला।

क्या यह सिस्टम फेल्योर था? या सिस्टम की अति सक्रियता थी? सिस्टम में अगर कोई दम नहीं रह गया था, वह पूरी तरह से चरमरा चुका था, तो किसी न किसी बिंदु पर एंडर्सन का सुरक्षा चक्र टूट जाना चाहिए था। या एंडर्सन को सुरक्षित वापस जाने देने के लिए मुख्यमंत्री से सचिव तक विभिन्न व्यक्तियों को दस-बीस करोड़ की रिश्वत वसूल कर लेनी चाहिए थी। आम नागरिक की स्थिति यह है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को पुलिस के कब्जे से छुड़ाने के लिए दो-चार हजार खर्च करना पड़ जाता है। यह तो एक महादोषी का मामला था, जिसके सावधानी से काम न करने के परिणामस्वरूप बीस हजार लोगों की जान चली गई थी। फिर इसे सिस्टम फेल्योर का नाम कैसे दिया जा सकता है?

जो सिस्टम एंडरसन की सुरक्षा के लिए इतना तत्पर और चुस्त था, वह अभी तक भोपाल के गैस पीड़ितों को न तो उचित मुआवजा दे पाया है न ही उनका पुनर्वास कर पाया है। यहां तक कि यूनियन कार्बाइड के कारखाने में जमा संदूषक रासायनिक कचरे को भी नहीं हटा पाया है। क्या यह सिस्टम फेल्योर है? कोई भी देख सकता है कि यह सिस्टम की क्रूरता है। सिस्टम को एक व्यक्ति की इतनी चिंता थी कि उसे खरोंच तक नहीं लगनी चाहिए, क्योंकि वह अमीर अमेरिका का अमीर नागरिक था, पर इसकी कोई परवाह नहीं रही है कि गैस कांड के पीड़ित लोगों का समुचित इलाज कराया जाए और उन्हें न्याय के लिए दर-दर भटकना न पड़े, क्योंकि ये निर्धन, असहाय लोग हैं और इनका जीना-मरना बराबर है। यानी सिस्टम पूरी तरह से सजग है कि किसी पीड़ित व्यक्ति को न्याय न मिलने पाए। राजीव गांधी के जमाने से ही कोशिश की जा रही है कि उद्योगपतियों और व्यवसायियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए वन विनडो प्रणाली हो यानी एक ही दफ्तर में उनकी सारी जरूरतें पूरी हो जाएं। क्या ऐसा ही विनडो गैस पीड़ितों के लिए नहीं खोला जा सकता?

हमारा सिस्टम फेल है -- लेकिन सिर्फ गरीबों के मामलों में। अमीरों के मामले में वह बहुत ही कुशल और तेज है। 000

01 जुलाई 2010