राजकिशोर
भारतीय राजनीति में तीसरा मोर्चा वह जन्नत है जिसकी हकीकत सभी को मालूम है, लेकिन दिल को बहलाने के लिए समय-समय पर जिस सुंदर अवधारणा का बेईमान उपयोग कभी बंद नहीं होता। ऐसा लगता है कि तीसरा मोर्चा कोई ईश्वर है जिसका अस्तित्व है या नहीं, पता नहीं, लेकिन जिसकी याद दुख के समय आती ही है और जिससे यह प्रार्थना की जाती है कि वह सभी वर्तमान दुखों को हर ले। या, समाजवाद की तरह तीसरा मोर्चा वह टोपी है जिससे कोई भी विफल नेता अपने नंगे सिर को ढक कर अपने ऊपर इठलाना शुरू कर देता है। अथवा, यह वह तावीज है जिसे पहने रखने पर भूत-पिशाच निकट नहीं आते और राजनीतिक यात्रा निर्विघ्न तय होती रहती है। कुल मिला कर, यह वह आदर्श है जिसे पाने की शक्ति से संपन्न होने का दावा बहुत-से दल और नेता करते हैं, लेकिन अभी तक किसी के राशिफल में इसके शामिल होने की संभावना तक नहीं देखी जा सकी है।
हमारे राजनेताओं ने जैसे दूसरी सभी चीजों की फजीहत कर रखी है और अपने आसपास एक भी पवित्र चीज नहीं रहने दी है, उसी तरह वे तीसरा मोर्चा के विचार के साथ लगातार विश्वासघात करते आए हैं। दरअसल, यह 'तीसरा' शब्द ही एक घिचपिच मामला बन चुका है। इसका मूल प्रयोग तो समाजवादी रास्ते के लिए सुरक्षित था, जिसके बारे में माना जाता था कि वह पूंजीवाद तथा साम्यवाद, दोनों व्यवस्थाओं की बर्बरताओं से हमें मुक्त कराएगा। यह पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों के बीच का रास्ता नहीं था। बीच का कोई रास्ता होता भी नहीं है। जो रास्ते जैसा दिखाई देता है, वह किसी को कहीं नहीं ले जाता। तीसरा रास्ता पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों से भिन्न एक ऐसा रास्ता था जिस पर चलते हुए मानवता अपना सुंदरतम भविष्य तय कर सकती थी। लेकिन साम्यवाद तो आजमाए जाने के बाद विफल हुआ या कह लीजिए कि साम्यवाद को जिस ढंग से आजमाया गया, वही उसे अंततः विफलता की ओर ले गया, पर समाजवाद को बिना आजमाए ही विफल मान लिया गया। यूरोप के कई देशों ने समाजवाद की ओर चलने की कोशिश की। कुछ काफी दूर तक सफल भी हुए। लेकिन चूंकि उन्होंने पूंजीवाद के मूल दर्शन को नहीं छोड़ा था, इसलिए उन्हें बाद में कल्याणकारी राज्य की अपनी परिकल्पना के साथ अनेक समझौते करने पड़े। फलस्वरूप यूरोप में अब समाजवाद चरमरा रहा है तथा पूंजीवाद के रास्ते पर चलने के लिए लालायित दिख रहा है। अमेरिका में अनुदारवादी दर्शन मानो बदले की भावना के साथ लौट आया है तथा वहां सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों में क्रूर कटौतियां हो रही हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
भारत के नेहरू युगीन आर्थिक कार्यक्रम के पीछे कुछ समाजवादी प्रेरणाएं जरूर थीं, लेकिन अधूरा या आंशिक समाजवाद पूंजीवाद से भी ज्यादा खतरनाक साबित होता है, क्योंकि वह समता और संपन्नता का युग तो ले नहीं आता, बल्कि कुछेक दशकों में विफल होते-होते पूंजीवाद या बाजारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करते हुए विदा लेने लगता है। भारत में ही नहीं, तीसरी दुनिया के सभी देशों में ऐसा हो चुका है या हो रहा है। भारत में समाजवादी आंदोलन का जन्म मानो यह चेतावनी देने के लिए ही हुआ था। यह आंदोलन कई दृष्टियों से एक प्रौढ़ आंदोलन था। साम्यवाद से आर्थिक बराबरी का सिध्दांत सीखने के साथ-साथ उसने गांधी की विरासत के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने की कोशिश की थी, जिनमें दो प्रमुख थे : अहिंसा पर जोर और सादगी का आग्रह। उसने बराबरी -- आर्थिक बराबरी ही नहीं, सामाजिक बराबरी भी -- से जुड़े कई बुनियादी सवाल उठाए, जिसकी एक नापाक उपज आरक्षण की गंदी राजनीति है। लेकिन जिस बुनियादी चीज पर कभी जोर नहीं दिया गया, वह था उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण। यह कम्युनिस्ट कार्यक्रम का ही एक संस्करण था, शायद इसीलिए 'वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज' पर जोर देते रहने के बावजूद यह समाजवादियों के राजनीतिक कार्यक्रम का कोई गंभीर हिस्सा कभी नहीं बन सका। समाजवादियों को यह श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता की एक लोकतांत्रिक तोड़ खोज निकाली। लेकिन गैरकांग्रेसवाद को समाजवादी राजनीति का प्रवेश द्वार बनाने का सपना अधूरा ही रह गया, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद के दार्शनिक राममनोहर लोहिया अपने इस अभिनव प्रयोग को दूर तक ले जाने के लिए जीवित नहीं बचे। जो बचे रहे, उनमें से शायद ही किसी को समाजवादी रास्ते से कोई मतलब था। नहीं तो समाजवादी नेताओं के नाम पर हमारे पास जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह जैसी विभूतियां न होतीं, जिनमें से एक का रास्ता कॉरपोरेट सांप्रदायिकता से हो कर गुजरता है और दूसरे का रास्ता कॉरपोरेट आवारगी और मौज-मस्ती से। मेरा गंभीर प्रस्ताव है कि आज के किसी भी नेता के साथ 'समाजवादी' विशेषण का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि बच्चन जी के शब्दों में 'अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला'।
फिर भी तीसरा मोर्चा की चर्चा बंद होती दिखाई नहीं देती, तो इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, इन दो दलों से अलग अनेक दल अपने को इस मोर्चे का स्वाभाविक घटक मानते हैं। दुर्भाग्य से, इनमें असम गण परिषद, तेलुगु देशम और द्रमुक या अन्ना द्रमुक जैसे दल भी हैं जो कभी भाजपा के मोर्चे का अंग रह चुके हैं। मुलायम सिंह कभी कांग्रेस का समर्थन करते हैं तो कभी भाजपा के स्थानीय एजेंट की भूमिका निभाते हैं। कायदे से बहुजन समाज पार्टी को अपने को तीसरा मोर्चा में शामिल होने का स्वाभाविक हकदार मानना चाहिए, पर उसका नेतृत्व राजनीति के नाम पर एक ही सूत्र जानता है और वह सूत्र है, चाहे जिसके भी सहयोग से सत्ता हासिल करना। दलित राजनीति का यह घोर अवसरवाद बहुतों को दुखी किए हुए है। इस भीड़ में विश्वनाथ प्रताप सिंह थोड़ा अलग दिखाई देते हैं, हालांकि भाजपा और वांपंथ, दोनों का सहयोग एक साथ लेते हुए सत्ता में आने और बने रहने का चमत्कार उन्होंने ही दिखाया था। वह चमत्कार दुबारा आजमाया तक नहीं जा सका, इससे पता चलता है कि इसकी कुछेक दिन तक सीमित रहने वाली सफलता भारतीय राजनीति की एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति की देन थी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजनीति का राजपथ या जनपथ ही छोड़ दिया और जनवादी दिखाई पड़ने वाले कुछ मुहल्लावादी प्रयोगों तक सीमित रह गए, यह उनके लिए एक मजबूत प्रमाण है जिन्हें यह समझने के लिए प्रमाण चाहिए ही कि उनकी राजनीति में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का न कोई स्वप्न है और न दर्शन। वे वाम मार्ग के एक शिष्ट अघोरी हैं और उनका जन मोर्चा भी ऐसा ही एक अघोरी प्रयोग है, जो उत्तर प्रदेश के वर्तमान चुनाव चक्र से निकल कर अपना नाम बचाए रख सके, इसी में उसकी महानता होगी।
तीसरा मोर्चा के असली अभिभावक हमारे वामपंथी दल हैं, जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विशेष स्थान है। वामपंथी भारतीय राजनीति में एक विशेष प्रकार के जंतु हैं जो पूरी तरह विलुप्त भी नहीं होते और अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के किसी मौके का इस्तेमाल भी नहीं करते। वे एक ऐसे ठहरे हुए यात्री हैं जो भूल चुका है कि वह कहां जाने के लिए निकला था। आज देश की जो परिस्थिति है, उसकी उपमा दावानल से ही दी जा सकती है। जिधर देखिए, उधर आग लगी हुई है और जन असंताष जून-जुलाई की दोपहर की तरह तप रहा है। नए बाजारवाद से जिनकी बांछें खिली हुई हैं, उस छोटे-से वर्ग को छोड़ कर शायद ही कोई तबका हो जिसे अपने भविष्य का कोआ कोना सुरक्षित नजर आ रहा हो। संगठित अपराधियों के पौ बारह हैं और इनमें तमाम तरह के कबूतरबाज शामिल हैं और जो शामिल नहीं हैं, वे शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं। तूफान में सिर्फ तिनके नहीं उड़ते, बड़े-बड़े पेड़ भी धराशायी हो जाते हैं। ऐसी दारुण परिस्थिति में वामपंथियों के पास ही वह वैचारिक दर्शन और क्रांतिकारी आचरण का सिध्दांत है जो देश की राजनीतिक संप्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का कार्यक्रम बना सकता है और उस कार्यक्रम को लागू भी कर सकता है। लेकिन आज की परिस्थिति में यह सिर्फ एक सैध्दांतिक उम्मीद है -- बल्कि यह कहिए कि एक दैन्यपूर्ण प्रार्थना, जिसके बारे में प्रार्थना करने वाला भी जानता है कि वह पूरी होने वाली नहीं है।
यही वह वास्तविकता है, जिसके कारण वामपंथी यूपीए सरकार का समर्थन करना छोड़ना भी नहीं चाहते और बार-बार यह दिखावा करते रहते हैं कि वे मजबूरी में यह समर्थन कर रहे हैं। वामपंथी चाहते तो मनमोहन सिंह की सरकार को प्रगतिशील नीतियां अपनाने के लिए बाध्य कर सकते थे। भाजपा दुबारा आ जाएगी, इस डर से कोई अपनी बुनियादी नीतियों को स्थगित नहीं कर देता। इसी तर्क से यह कहा जा सकता है कि भाजपा दुबारा न आए, इसकी रणनीति यूपीए सरकार को समर्थन देते रहना नहीं, बल्कि सच्चे तीसरे मोर्चे की तैयारी करना है। भाजपा कांग्रेस से नहीं डरती -- कांग्रेस को हरा कर ही वह सत्ता में आई थी और जिन राज्यों में आई है, इसी रहगुजर से आई है। वह दरअसल तीसरा मोर्चा से डरती है, क्योंकि इस कीटाणु का सच्चा एंटीबॉयटिक वही है। लेकिन वामपंथी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रहे हैं। लंबा इंतजार उन्हें इस लायक नहीं छोड़ेगा कि वे तीसरा मोर्चा का नेतृत्व कर सकें, जैसा कि सिंगूर और नंदीग्राम के कठोर अनुभव बताते हैं।
यहीं यह प्रश्न उठाना निर्णायक महत्व का जान पड़ता है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का सिध्दांतहीन जमावड़ा होगा या वह भारतीय राजनीति में ताजा हवाएं बहाने का वादा और जिम्मेदारी ले कर आएगा? अगर तीसरा मोर्चा को एक विशेष रंग का जमावड़ा होना है, तो ईश्वर उससे हमारी रक्षा करे। भारतीय लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे एक और मोह में पड़ें और फिर निराश तथा हताश हों। लेकिन तीसरा मोर्चा को सचमुच तीसरा मोर्चा होना है यानी एक नई राजनीतिक संस्कृति का वाहक, नैतिक, प्रतिबध्द और राजनीतिक ढांचे को सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक बनाने का अरमान रखने वाला, तो जनता के मन में कुलबुला रहा प्रश्न यह है कि इस नई राजनीति के वाहक कहां हैं? क्या दागदार हाथों, बासी नजरों, बीमार दिमागों और दूषित इरादों से कोई नई राजनीतिक धारा बहाई जा सकती है?
हमारे राजनेताओं ने जैसे दूसरी सभी चीजों की फजीहत कर रखी है और अपने आसपास एक भी पवित्र चीज नहीं रहने दी है, उसी तरह वे तीसरा मोर्चा के विचार के साथ लगातार विश्वासघात करते आए हैं। दरअसल, यह 'तीसरा' शब्द ही एक घिचपिच मामला बन चुका है। इसका मूल प्रयोग तो समाजवादी रास्ते के लिए सुरक्षित था, जिसके बारे में माना जाता था कि वह पूंजीवाद तथा साम्यवाद, दोनों व्यवस्थाओं की बर्बरताओं से हमें मुक्त कराएगा। यह पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों के बीच का रास्ता नहीं था। बीच का कोई रास्ता होता भी नहीं है। जो रास्ते जैसा दिखाई देता है, वह किसी को कहीं नहीं ले जाता। तीसरा रास्ता पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों से भिन्न एक ऐसा रास्ता था जिस पर चलते हुए मानवता अपना सुंदरतम भविष्य तय कर सकती थी। लेकिन साम्यवाद तो आजमाए जाने के बाद विफल हुआ या कह लीजिए कि साम्यवाद को जिस ढंग से आजमाया गया, वही उसे अंततः विफलता की ओर ले गया, पर समाजवाद को बिना आजमाए ही विफल मान लिया गया। यूरोप के कई देशों ने समाजवाद की ओर चलने की कोशिश की। कुछ काफी दूर तक सफल भी हुए। लेकिन चूंकि उन्होंने पूंजीवाद के मूल दर्शन को नहीं छोड़ा था, इसलिए उन्हें बाद में कल्याणकारी राज्य की अपनी परिकल्पना के साथ अनेक समझौते करने पड़े। फलस्वरूप यूरोप में अब समाजवाद चरमरा रहा है तथा पूंजीवाद के रास्ते पर चलने के लिए लालायित दिख रहा है। अमेरिका में अनुदारवादी दर्शन मानो बदले की भावना के साथ लौट आया है तथा वहां सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों में क्रूर कटौतियां हो रही हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर जन स्वास्थ्य पर पड़ेगा।
भारत के नेहरू युगीन आर्थिक कार्यक्रम के पीछे कुछ समाजवादी प्रेरणाएं जरूर थीं, लेकिन अधूरा या आंशिक समाजवाद पूंजीवाद से भी ज्यादा खतरनाक साबित होता है, क्योंकि वह समता और संपन्नता का युग तो ले नहीं आता, बल्कि कुछेक दशकों में विफल होते-होते पूंजीवाद या बाजारवादी अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करते हुए विदा लेने लगता है। भारत में ही नहीं, तीसरी दुनिया के सभी देशों में ऐसा हो चुका है या हो रहा है। भारत में समाजवादी आंदोलन का जन्म मानो यह चेतावनी देने के लिए ही हुआ था। यह आंदोलन कई दृष्टियों से एक प्रौढ़ आंदोलन था। साम्यवाद से आर्थिक बराबरी का सिध्दांत सीखने के साथ-साथ उसने गांधी की विरासत के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने की कोशिश की थी, जिनमें दो प्रमुख थे : अहिंसा पर जोर और सादगी का आग्रह। उसने बराबरी -- आर्थिक बराबरी ही नहीं, सामाजिक बराबरी भी -- से जुड़े कई बुनियादी सवाल उठाए, जिसकी एक नापाक उपज आरक्षण की गंदी राजनीति है। लेकिन जिस बुनियादी चीज पर कभी जोर नहीं दिया गया, वह था उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण। यह कम्युनिस्ट कार्यक्रम का ही एक संस्करण था, शायद इसीलिए 'वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज' पर जोर देते रहने के बावजूद यह समाजवादियों के राजनीतिक कार्यक्रम का कोई गंभीर हिस्सा कभी नहीं बन सका। समाजवादियों को यह श्रेय जरूर मिलना चाहिए कि उन्होंने कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता की एक लोकतांत्रिक तोड़ खोज निकाली। लेकिन गैरकांग्रेसवाद को समाजवादी राजनीति का प्रवेश द्वार बनाने का सपना अधूरा ही रह गया, क्योंकि गैरकांग्रेसवाद के दार्शनिक राममनोहर लोहिया अपने इस अभिनव प्रयोग को दूर तक ले जाने के लिए जीवित नहीं बचे। जो बचे रहे, उनमें से शायद ही किसी को समाजवादी रास्ते से कोई मतलब था। नहीं तो समाजवादी नेताओं के नाम पर हमारे पास जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह जैसी विभूतियां न होतीं, जिनमें से एक का रास्ता कॉरपोरेट सांप्रदायिकता से हो कर गुजरता है और दूसरे का रास्ता कॉरपोरेट आवारगी और मौज-मस्ती से। मेरा गंभीर प्रस्ताव है कि आज के किसी भी नेता के साथ 'समाजवादी' विशेषण का प्रयोग बिलकुल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि बच्चन जी के शब्दों में 'अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला'।
फिर भी तीसरा मोर्चा की चर्चा बंद होती दिखाई नहीं देती, तो इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, इन दो दलों से अलग अनेक दल अपने को इस मोर्चे का स्वाभाविक घटक मानते हैं। दुर्भाग्य से, इनमें असम गण परिषद, तेलुगु देशम और द्रमुक या अन्ना द्रमुक जैसे दल भी हैं जो कभी भाजपा के मोर्चे का अंग रह चुके हैं। मुलायम सिंह कभी कांग्रेस का समर्थन करते हैं तो कभी भाजपा के स्थानीय एजेंट की भूमिका निभाते हैं। कायदे से बहुजन समाज पार्टी को अपने को तीसरा मोर्चा में शामिल होने का स्वाभाविक हकदार मानना चाहिए, पर उसका नेतृत्व राजनीति के नाम पर एक ही सूत्र जानता है और वह सूत्र है, चाहे जिसके भी सहयोग से सत्ता हासिल करना। दलित राजनीति का यह घोर अवसरवाद बहुतों को दुखी किए हुए है। इस भीड़ में विश्वनाथ प्रताप सिंह थोड़ा अलग दिखाई देते हैं, हालांकि भाजपा और वांपंथ, दोनों का सहयोग एक साथ लेते हुए सत्ता में आने और बने रहने का चमत्कार उन्होंने ही दिखाया था। वह चमत्कार दुबारा आजमाया तक नहीं जा सका, इससे पता चलता है कि इसकी कुछेक दिन तक सीमित रहने वाली सफलता भारतीय राजनीति की एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति की देन थी। बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजनीति का राजपथ या जनपथ ही छोड़ दिया और जनवादी दिखाई पड़ने वाले कुछ मुहल्लावादी प्रयोगों तक सीमित रह गए, यह उनके लिए एक मजबूत प्रमाण है जिन्हें यह समझने के लिए प्रमाण चाहिए ही कि उनकी राजनीति में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का न कोई स्वप्न है और न दर्शन। वे वाम मार्ग के एक शिष्ट अघोरी हैं और उनका जन मोर्चा भी ऐसा ही एक अघोरी प्रयोग है, जो उत्तर प्रदेश के वर्तमान चुनाव चक्र से निकल कर अपना नाम बचाए रख सके, इसी में उसकी महानता होगी।
तीसरा मोर्चा के असली अभिभावक हमारे वामपंथी दल हैं, जिनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का विशेष स्थान है। वामपंथी भारतीय राजनीति में एक विशेष प्रकार के जंतु हैं जो पूरी तरह विलुप्त भी नहीं होते और अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाने के किसी मौके का इस्तेमाल भी नहीं करते। वे एक ऐसे ठहरे हुए यात्री हैं जो भूल चुका है कि वह कहां जाने के लिए निकला था। आज देश की जो परिस्थिति है, उसकी उपमा दावानल से ही दी जा सकती है। जिधर देखिए, उधर आग लगी हुई है और जन असंताष जून-जुलाई की दोपहर की तरह तप रहा है। नए बाजारवाद से जिनकी बांछें खिली हुई हैं, उस छोटे-से वर्ग को छोड़ कर शायद ही कोई तबका हो जिसे अपने भविष्य का कोआ कोना सुरक्षित नजर आ रहा हो। संगठित अपराधियों के पौ बारह हैं और इनमें तमाम तरह के कबूतरबाज शामिल हैं और जो शामिल नहीं हैं, वे शामिल होने की तैयारी कर रहे हैं। तूफान में सिर्फ तिनके नहीं उड़ते, बड़े-बड़े पेड़ भी धराशायी हो जाते हैं। ऐसी दारुण परिस्थिति में वामपंथियों के पास ही वह वैचारिक दर्शन और क्रांतिकारी आचरण का सिध्दांत है जो देश की राजनीतिक संप्रभुता और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने का कार्यक्रम बना सकता है और उस कार्यक्रम को लागू भी कर सकता है। लेकिन आज की परिस्थिति में यह सिर्फ एक सैध्दांतिक उम्मीद है -- बल्कि यह कहिए कि एक दैन्यपूर्ण प्रार्थना, जिसके बारे में प्रार्थना करने वाला भी जानता है कि वह पूरी होने वाली नहीं है।
यही वह वास्तविकता है, जिसके कारण वामपंथी यूपीए सरकार का समर्थन करना छोड़ना भी नहीं चाहते और बार-बार यह दिखावा करते रहते हैं कि वे मजबूरी में यह समर्थन कर रहे हैं। वामपंथी चाहते तो मनमोहन सिंह की सरकार को प्रगतिशील नीतियां अपनाने के लिए बाध्य कर सकते थे। भाजपा दुबारा आ जाएगी, इस डर से कोई अपनी बुनियादी नीतियों को स्थगित नहीं कर देता। इसी तर्क से यह कहा जा सकता है कि भाजपा दुबारा न आए, इसकी रणनीति यूपीए सरकार को समर्थन देते रहना नहीं, बल्कि सच्चे तीसरे मोर्चे की तैयारी करना है। भाजपा कांग्रेस से नहीं डरती -- कांग्रेस को हरा कर ही वह सत्ता में आई थी और जिन राज्यों में आई है, इसी रहगुजर से आई है। वह दरअसल तीसरा मोर्चा से डरती है, क्योंकि इस कीटाणु का सच्चा एंटीबॉयटिक वही है। लेकिन वामपंथी पता नहीं किस चीज का इंतजार कर रहे हैं। लंबा इंतजार उन्हें इस लायक नहीं छोड़ेगा कि वे तीसरा मोर्चा का नेतृत्व कर सकें, जैसा कि सिंगूर और नंदीग्राम के कठोर अनुभव बताते हैं।
यहीं यह प्रश्न उठाना निर्णायक महत्व का जान पड़ता है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का सिध्दांतहीन जमावड़ा होगा या वह भारतीय राजनीति में ताजा हवाएं बहाने का वादा और जिम्मेदारी ले कर आएगा? अगर तीसरा मोर्चा को एक विशेष रंग का जमावड़ा होना है, तो ईश्वर उससे हमारी रक्षा करे। भारतीय लोगों के पास इतना समय नहीं है कि वे एक और मोह में पड़ें और फिर निराश तथा हताश हों। लेकिन तीसरा मोर्चा को सचमुच तीसरा मोर्चा होना है यानी एक नई राजनीतिक संस्कृति का वाहक, नैतिक, प्रतिबध्द और राजनीतिक ढांचे को सभी स्तरों पर लोकतांत्रिक बनाने का अरमान रखने वाला, तो जनता के मन में कुलबुला रहा प्रश्न यह है कि इस नई राजनीति के वाहक कहां हैं? क्या दागदार हाथों, बासी नजरों, बीमार दिमागों और दूषित इरादों से कोई नई राजनीतिक धारा बहाई जा सकती है?
1 comment:
yahin bane rahiye us bheed se alag.
Aap sooraj ki tarah se chamak rahe hain.
Yuoon hi likhte chaliye. Bahut zabardast likha hai.
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