Thursday, June 11, 2009

वह एक व्यक्तित्व

रामजी
राजकिशोर


बिहार के उस छोटे-से कस्बे में रामजी से मुलाकात क्या हुई, मेरी जिंदगी में तूफान आ गया। मैं एक छोटी-सी बैठक के लिए वहां गया हुआ था। आयोजक मारुति आठ सौ के एक वृद्ध और बीमार संस्करण में ले जा रहे थे। तभी मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे एक पांव की चप्पल बहुत ढीली है। वैसे तो चप्पल की कसी हुई गिरफ्त से मुक्ति के बाद उस पांव को उस सुख का अनुभव हो रहा था जो किसी पिंजरे के पक्षी को अनंत आकाश में वापसी से मिलता है, पर समस्या यह थी कि कार से उतरने के बाद बैठक की जगह तक घिसटते हुए जाना पड़ेगा। सो फुटपाथ पर एक जूता-चप्पल ठीक करने वाले को देख कर गाड़ी रुकवाई और अपनी सिलाई खुली चप्पल को उसके हवाले कर दाएं-बाएं नजर घुमाने लगा।
सड़क (उसे सड़क कहना अपने भीतर की सारी उदारता को उड़ेल देना है) के इस पार मुआयना पूरा कर लेने के बाद उस पार नजर दौड़ाई तो एक आकृति को धुंधली नजर से देख कर मन एक ही छलांग में चालीस साल पीछे भाग चला। कहीं यह वही रामजी तो नहीं है जो मेरे साथ एमए तक पढ़ा था? हम पढ़ाकुओं और लद्धड़ों के बीच वह एक अलग ही जीव था। पढ़ाई-लिखाई में जितना प्रखर उतना ही लोकप्रिय। वह हर किसी का और हर कोई उसका चहेता था। खासकर चपरासियों, चाय की दुकानवालों, मजदूरों आदि से उसकी खूब पटती थी। एक बार उसके घर गया था, तो वह मुहल्ले के सारों बच्चों के साथ खेल रहा था। रामजी न केवल हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता, बल्कि उसे दुनिया भर की इतनी जानकारियां थीं कि हम दोस्तों में से हरएक चकित रह जाता। एक बार वह इस ब्रह्मांड की विराटता का वर्णन करने लगा जो हम सकते में आ गए। हम अपनी नजर में पहले चूहे, फिर मक्खी और आखिर में भालू के एक बाल से भी नीचे आ गिरे। वह गाता बहुत अच्छा था और फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था।
जब तक मेरी चप्पल मेरे पांव को कस कर दबाए रखने योग्य बन गई, मैं नंगे पांव रामजी से मिल आया। हां, यह वही था - अपनी मस्त हंसी, समझदार भाव भंगिमा और आवयविक फुर्ती के साथ। दर्जी की दुकान में कपड़ा सिल रहा था। मैंने उससे कहा कि बैठक पूरी होने के बाद मैं आता हूं। एक दराज से एक सफेद रूमाल निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए वह बोला - जेब में रख लो, पसीना पोंछने के काम आएगा।
रामजी का रूमाल वाकई काम आया। बैठक इतनी बेहूदा थी कि मुझे अपने आने पर पछतावा होने लगा। लग रहा था कि देश में अब स्वस्थ चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं है। सो बैठक खत्म होने की घोषणा होते ही ऐसा महसूस हुआ जैसा किसी बच्चे को उस वक्त महसूस होता है जब किसी बौड़म और सख्त ट्यूटर के जाने का समय हो जाता है। लंच यह बता कर छोड़ दिया कि मुझे एक मित्र के साथ खाना खाना है।
दोपहर के दो बज चुके थे। रामजी ने पास के ‘पवित्र हिन्दू होटल’ से दो थालियां मंगवाईं और हम खाते-खाते बात करने लगे। मेरे बारे में उसे थोड़ा-बहुत मालूम था। उसकी रामकहानी सुनते हुए मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि हंसी या रोऊं। रामजी के ही शब्दों में, ‘राज, पढ़ाई से मेरा मन तब एकदम उचट गया जब मुझे पीएचडी के लिए इस तरह के विषय सुझाए जाने लगे -- रामचरितमानस के पात्रों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, कामायनी में शैव दर्शन का स्वरूप, प्रयोगवाद के सांस्कृतिक आयाम...। मैंने सोचा, इससे बेहतर है चाय की दुकान खोल कर बैठ जाना। फिर डॉक्टरेट करके होगा भी क्या? लेक्चरर बन जाऊंगा और भविष्य के लेक्चरर पैदा करूंगा। यह तो किसी प्रजाति की निरंतरता बनाए रखने का पेशा है। स्कॉलरशिप मिलने का पूरा चांस था, पर मुझे लगा, यह खेत मेरे लिए नहीं है। असली खेती यानी किसानी इससे बेहतर है। पर इसके लिए खेत चाहिए था। सो मैंने दर्जीगीरी सीखी और यहां आ कर जम गया।’
आगे का किस्सा यों है, ‘राज, तुमसे कोई तुलना नहीं है, पर बहुत मौज में हूं। यहां हम दो दर्जी हैं। बारी-बारी से काम करते हैं। एक दिन उसकी, दूसरे दिन मेरी छुट्टी। वह शायरी करता है। मैं अखबार और किताबें, जो भी मिल जाती हैं, पढ़ता हूं, संगीत सुनता हूं, बीस-पचीस घरों में आता-जाता हूं और जब कुछ भी अच्छा नहीं लगता, तो सो जाता हूं।’
‘और शादी?’ मेरी इस जिज्ञासा पर वह ठठा कर हंस पड़ा। बोला, ‘शादी वह करे जिसमें थोड़े-से सुख के बदले अपार दुख सहने की क्षमता हो।’
रामजी से हाथ मिला कर विदा लेने के बाद से मैं सुख-दुख की परिभाषा तय करने में मशगूल हूं। 000

1 comment:

arun prakash said...

जमीर की आवाज सुनने की यह सजा
यथार्थ चित्रण के लिए साधुवाद