Friday, June 12, 2009

आज का मुद्दा

मार्क्सवाद के बचाव में
राजकिशोर



गिरे हुए घोड़े को पीटना न तो साहस की बात है और न बुद्धिमानी की। मार्क्सवाद की आलोचना पढ़ते समय अकसर मुझे यही मुहावरा याद आता है। सोवियत संघ में साम्यवादी व्ययस्था के भंग होने और स्वयं संघ के छिन्न-भिन्न हो जाने के बाद मार्क्सवाद दुर्गति को प्राप्त एक विचार-व्यवस्था है। उसके बाद लोगों को चीन से थोड़ी उम्मीद रह गई थी, लेकिन उसने भी सर्वग्रासी पूंजीवाद के सामने घुटने टेक दिए। साम्यवादी व्यवस्था के अन्य छोटे-मोटे केंद्रों में तानाशाही बची है, साम्यवाद गायब है। जहां तक भारत के मार्क्सवादियों का सवाल है, उन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत ही नहीं पड़ी। स्वयं उनका ऐसा कोई आग्रह नहीं था। अगर होता, तो पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार, जो व्यवहार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ही सरकार है, इतने दिनों तक टिकी नहीं रह सकती थी। केरल और त्रिपुरा पर भी यही तर्क लागू होता है। जब मार्क्सवादियों से खतरा महसूस होता था, तब केरल में उनकी पहली सरकार को कुछ ही महीनों बाद, बिना किसी लोकतांत्रिक ग्लानि के, गिरा दिया गया था। उससे हमारे मार्क्सवादियों ने यह सीख ली कि सिद्धांत और सत्ता के बीच चुनाव हो, तो सत्ता को ही चुनना चाहिए। इसके पहले उन्होंने तेलंगाना में सरकारी दमन का थोड़ा-सा अनुभव होते ही ‘क्रांति के लिए हिंसा’ का सिद्धांत त्याग दिया था।
अब नक्सलवादी समूह ही इस नीति पर टिके हुए हैं। लेकिन उनका प्रभाव चाहे जितने जिलों में बढ़ जाए, किसी को भी यह विश्वास नहीं है कि वे कभी भारत की केंद्रीय सत्ता पर या किसी राज्य पर नियंत्रण हासिल कर सकते हैं। अपने प्रभाव क्षेत्रों में भी उन्होंने कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बनाई है जिससे साम्यवाद के बुनियादी मूल्यों की झलक मिल सके। नेपाल में, सुनते हैं, कम्युनिज्म का बहुत जोर है। लेकिन हाल ही में उसके सबसे बड़े या काफी बड़े नेता प्रचंड के बारे में जो कुछ पढ़ने को मिला – कि उनकी कलाई में दो लाख रुपए की राडो घड़ी बंधी होती है, कि वे एक बहुत मंहगी कार में चलते हैं, कि उनकी कार के पीछे कारों का एक काफिला चलता है, कि उनका वजन कुछ ही समय में बीस किलोग्राम बढ़ गया है, कि वे रोज शाम को महंगी शराब पीते हैं -- उससे यह यकीन नहीं होता कि नेपाल में साम्यवादी व्यवस्था कायम हो सकती है। या, जो साम्यवादी व्यवस्था कायम होगी, वह साम्यवादी ही होगी। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों में तो कम्युनिज्म का सपना देखनेवाले भी कुछ हजार की संख्या में ही होंगे। इस तरह, दूर देखें या नजदीक साम्यवाद का कोई भविष्य नजर नहीं आता। और, यह अच्छा ही है। जिस तरह के साम्यवादों से हमारा पाला पड़ता रहा है, उसका कोई भविष्य होना मानव अधिकारों का कोई भविष्य नहीं होना है। साम्यवाद रहे या जाए, मानव अधिकारों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। कोई भी वाद मनुष्य से बड़ा नहीं है।

भारत में या शायद दुनिया भर में ही समाजवादियों और मार्क्सवादियों के बीच आपसी व्यर्थ का झगड़ा चलता रहा है। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ बहुत बड़े समाजवादी थे। लेकिन मार्क्सवादियों के साथ उनकी कभी नहीं पटी। राममनोहर लोहिया एशियाई देशों के सबसे ऊंचे समाजवादी थे, पर साम्यवाद को वे हमेशा संदेह की निगाह से देखते रहे। दूसरी ओर, मार्क्सवादी समाजवादियों पर लगातार हमला करते रहे हैं। इसकी शुरुआत मार्क्स के समय में ही हो गई थी। वे अपने समाजवाद को छोड़ कर, जो उनकी निगाह में एकमात्र वैज्ञानिक समाजवाद था, समाजवाद की बाकी विचारधाराओं को यूटोपियाई मानते थे। आज तक यह परंपरा चली आ रही है। मेरा प्रस्ताव है कि बदली हुई परिस्थिति में अब तो दोनों को ही आपसी भेदभाव का त्याग कर देना चाहिए। विश्वीकरण के परिणामस्वरूप आज दुनिया भर में समता के प्रत्येक विचार पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। आर्थिक तथा अन्य प्रकार की विषमताओं को ही मानवता के लिए वरेण्य माना जा रहा है। समता की अवधारणा किसी भी प्रकार के सामंतवाद या पूंजीवाद को स्वीकार या बर्दाश्त नहीं कर सकती।

दुख की बात यह है कि समाजवादी शायद इस प्रकार के गंठबंधन या संयुक्त मोर्चा को स्वीकार भी कर लें, मार्क्सवादी ऐसा नहीं होने देंगे। वे एक ऐसी श्रेष्ठता ग्रंथि से पीड़ित रहते हैं जो उन्हें किसी भी वैचारिक समुदाय में अलग-थलग बनाए रखती है। वे सोचते हैं कि दुनिया की आधी बुद्धि उनके पास है और बाकी आधी में दूसरों का साझा है। या शायद, वे ही बुद्धिमान और नि:स्वार्थ हैं और बाकी सब मूर्ख और निहित स्वार्थवाले हैं। सभी पंडितों ने कहा है कि ज्ञानी को विनम्र होना चाहिए – विद्या ददाति विनयं। मेरा खयाल है, आधुनिक विद्वान भी इससे असहमत नहीं होंगे। वे जान गए हैं कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती और कोई भी ज्ञान संदिग्ध हो सकता हैै। मेरा ज्ञान ही अंतिम तथा परम वैज्ञानिक है, यह भ्रम मार्क्स तथा उनके साथियों को भी था। लेकिन वे क्षम्य हैं, क्योंकि वे अभियानी या आंदोलनी लोग थे और सभी अभियानियों और आंदोलनी लोगों में ऐसा ही तगड़ा आत्मविश्वास होता है। यहां तक कि यह महात्मा गांधी और गांधीवादियों में भी पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इसके कारण दुनिया की अपार क्षति हुई है। ज्ञानियों में एक ही राह का पथिक होने की समझदारी और सहयोगिता होनी चाहिए।

लेकिन सिंगूर या नन्दीग्राम के कारण जो नए मार्क्सवाद की तलाश पर जोर दे रहे हैं, उन्हें अपने आग्रह पर पुनर्विचार करना चाहिए। नंदीग्राम में जो दिखाई पड़ रहा है, क्या वह मार्क्सवाद ही है? कौन-सा मार्क्सवादी दल या शासन सिंगूर की जमीन किसी उद्योगपति को उपहार में दे सकता है? ध्यान देने की बात है कि भारत के ही अनेक मार्क्सवादियों और मार्क्सवादी संगठनों ने सीपीएम के इस आचरण की घोर निंदा की है। इस सिलसिले में अशोक मित्र का लेख एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। लेकिन सिंगूर और नंदीग्राम के बाद जिन मार्क्सवादियों की आंख खुली है, वे या तो बहुत भोले लोग हैं या फिर छंटे हुए बदमाश हैं। सच यह है कि सीपीएम ने सत्ता का उपयोग (उपभोग) करते हुए एक भी काम ऐसा नहीं किया है, जिससे मार्क्सवादी अंत:करण को थोड़ा भी तोष मिल सके। मार्क्सवाद के नाम पर ज्यादातर समझौतापरस्ती दिखाई गई है या तानाशाही के प्रयास हुए हैं। इसीलिए लाल झंडा अब न्याय या आशा का प्रतीक नहीं रह गया है। फिर भी लाल झंडे के प्रति मजदूर वर्ग की श्रद्धा काफी हद तक कायम है, तो इसका कारण वे बुनियादी प्रतिबद्धताएं हैं जिनका वह प्रतीक बन चुका है। सूरज के डूब जाने के बाद भी उसकी आभा काफी समय तक बनी रहती है।

लेकिन यह पाप किसका है? पुजारी और भक्त अगर मदमत्त और व्यभिचारी हो गए है, तो क्या इसके लिए देवता को ही दोषी ठहराया जाएगा? क्या गांधीवाद के ऑफिशियल उत्तराधिकारियों में गांधी के तेज का कोई चिह्न दिखाई पड़ता है? क्या जवाहरलाल को भी गांधीवादी मानना पड़ेगा, जिनकी नीतियों ने राष्ट्रीय बरबादी का श्रीगणेश किया? क्या इस सब की जिम्मेदारी महात्मा के खाते में ही डाली जाएगी? आज मुलायम सिंह और जार्ज फर्नांडिस को जिन निकृष्ट चीजों का सशक्त प्रतीक माना जाता है, उनके लिए लोहिया को ही गिरफ्तार किया जाएगा? हम यहां सामान्य पतन की बात नहीं कर रहे हैं जो किसी भी महापुरुष या श्रेष्ठ विचार के उत्तराधिकारियों या अनुयायियों में देखा जाता है। आकाश से गिरा हुआ जल धरती पर आ कर कुछ मटमैला हो ही जाता है। पर अद्वैतवाद को माननेवाला समुदाय जातिवादी या अछूतवादी हो जाए या महावीर के पुजारियों को सिर्फ उनके धन से जाना जाए या बैद्ध धर्म को माननेवाले देश भौतिकवाद के कीचड़ में डूबे हुए पाए जाएं, तो यह सामान्य पतन नहीं, विशेष पतन है। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री को इसी श्रेणी में रखने का लोभ होता है, लेकिन यह एक सामान्य और लालची महिला की महत्वाकाक्षाओं की संक्षिप्त कथा है, यह बड़े से बड़ा दलितवादी भी जानता है। वैसे भी, हमें अपनी निगाह व्यक्तियों पर नहीं, प्रवृत्तियों और प्रक्रियाओं पर केंद्रित रखनी चाहिए। इसी में आनंद है। व्यक्ति हमेशा इतिहास के औजार नहीं होते, वे अपने स्वभाव और इच्छाओं के भी शिकार होते हैं। यह बात लेनिन, स्टालिन, माओ और कास्त्रो पर भी लागू होती है।

सच यह भी है कि पुजारी अगर होशियार हुआ, तो वह अपने देवता की भी परिशुद्धि कर सकता है। राम के भक्त के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि वह अपनी पत्नी को अपहरणकर्ताओं के हाथ से छुड़ाने के बाद उसे अपने घर से निर्वासित कर दे। कृष्ण का भक्त यह कभी नहीं चाहेगा कि उसके मुहल्ले में उसकी छवि बहुगामिता या विवाहिताओं के साथ रासलीला रचानेवाले व्यक्ति की बने। शिवभक्त यह दावा कर सकता है कि भूत-प्रेत में उसका कतई विश्वास नहीं है। आज की राधा आज के कृष्ण से कहेगी कि हे मनमोहन, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन मुझे दांपत्य मूल्यों की रक्षा करनी है, इसलिए हम दूर-दूर रहें, यही उचित है। मार्क्सवाद के प्रैक्टिशनर न केवल ऐसा करने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने मार्क्सवाद के मूल गुणों का भी त्याग कर दिया, इसीलिए उन्हें लात-घूंसों से दो-चार होना पड़ रहा है। लेकिन मार्क्सवादियों की सारी बुराइयां मार्क्सवाद का ही परिणाम है, ऐसा मानना परिपक्वता का चिह्न नहीं है। मार्क्सवाद के अलावा इस समय और कौन-सी व्यवस्थित विचारधारा है जो शोषित-उत्पीड़ित लोगों के बारे में सततता के साथ सोचती है?
मार्क्स की बहुत-सी भविष्यवाणियां गलत साबित हो गईं, इससे उसका सारा अवदान व्यर्थ नहीं हो गया। पूंजीवाद के मर्म और शोषण की प्रक्रिया को समझने के लिए हर किसी को मार्क्स के पास जाना पड़ता है। इतिहास की बहुत-सी व्याख्या मार्क्सवादी तरीकों का इस्तेमाल किए बिना संभव नहीं है। और भी कई क्षेत्रों में मार्क्स तथा मार्क्सवाद की विशिष्ट भूमिका है। इसलिए जरूरत नए मार्क्सवाद को खोजने की नहीं, पुराने मार्क्सवाद को ही अद्यतन बनाने की है। यह काम मार्क्स की मृत्यु के तत्काल बाद ही शुरू हो जाना चाहिए था। कुछ हद तक यह हुआ भी है, लेकिन राजनीतिक दलों ने पूरी कोशिश की है कि उन्हें इसकी भनक न लगने पाए। वे मार्क्स के कूपमंडूक अनुयायी इसलिए हैं कि कुएं का जल ही उन्हें रास आता है। लघुमानव जो ठहरे। इसलिए उनसे पहली मांग तो यह होनी चाहिए कि वे ओरिजनल मार्क्स का आविष्कार करें। यह मार्क्स उन्हें कभी यह सलाह नहीं देगा कि वे किसानों पर गोली चलाएं। मार्क्स मानते थे कि किसानों का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन यह तो गांधी भी जानते थे। इसीलिए उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि किसानों को साल में छह महीने काम करना चाहिए और छह महीने निकम्मा बने रहना चाहिए। गांधी की सलाह थी कि किसानी के साथ घरेलू उद्योग-धंधों को जोड़ना चाहिए। यही बात मशीनरी, उद्योगवाद आदि पर लागू होती है। सच्चा मार्क्सवादी हर चीज के मर्म में जाने का प्रयास करेगा और औद्योगिक संस्कृति में बुराई ही बुराई दिखती है, तो वह उसे प्लेग की तरह की बीमारी समझेगा। वह मानव अधिकारों का भी सम्मान करेगा और कहेगा कि इन अधिकारों का अधिकाधिक विस्तार ही समाजवाद है। इस तरह के आग्रह तभी संभव हैं जब पुराने मार्क्सवाद की बुनियादी आस्थाओं को स्वीकार करके चला जाए।

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