Wednesday, June 10, 2009

राजनीति में फुरसत

गैर-मंत्री सांसदों के अगले पांच साल
राजकिशोर


केंद्र में सरकार गठन का काम पूरा हो गया। मंत्रियों ने अपने-अपने विभाग की जिम्मेदारी संभाल ली है। अभी वे अपने-अपने कमरों की साज-सजावट पर ध्यान दे रहे हैं। आशा है, इसके बाद विभागीय जिम्मेदारियों के निर्वाह का नंबर आएगा। जो पांच साल तक मंत्री बने रहेंगे, उनके पास काम ही काम रहेगा। जो करेंगे, उनकी वाहवाही होगी। जो नहीं करेंगे, वे पछताएंगे। इस बार के चुनाव से साफ हो गया है कि अब मतदाता आंख मूंद कर वोट नहीं देता। उसकी प्रतिबद्धता पार्टी या व्यक्ति के प्रति नहीं, बल्कि परफॉर्मेंस के प्रति है। करोगे तो पाओगे, नहीं तो जाओगे।

लेकिन सभी सत्ताधारी सांसद मंत्री नहीं बन सकते। उनकी एक-चौथाई संख्या भी मंत्री नहीं बन सकती। फिर बाकी सांसद क्या करेंगे? बेशक इनमें से कुछ की सांगठनिक जिम्मेदारियां होंगी। कुछ की व्यस्तता अन्य प्रकार की हो सकती है, जैसे पार्टी का छात्र या मजदूर संगठन संभालना। लेकिन अन्य सांसद पांच वर्ष का यह लंबा समय किस तरह बिताएंगे? क्या वे पर्यटन पर निकल जाएंगे या तीर्थयात्रा करेंगे? क्या वे तरह-तरह की दलाली में लग जाएंगे जो आजकल राजनीतिकारों का एक प्रिय पेशा बन चुका है?

सांसदों को एक काम सरकार ने दिया हुआ है। वह है हर साल दो करोड़ रुपए खर्च करना। इसे स्थानीय क्षेत्र विकास कोष या एमपी फंड कहते हैं। पिछली लोक सभा के रिकॉर्ड देखा जाए, तो शायद ही किसी सांसद ने पांच साल में पूरे दस करोड़ रुपए खर्च किए। किसी-किसी ने तो पंद्रह-बीस प्रतिशत रकम ही खर्च की। यानी जो रुपया लौट गया, वह जनता का काम में लग सकता था, पर नहीं लगा। किसी गरीब देश में यह जन द्रोह से कम नहीं है। जनता का पैसा, जनता के लिए दिया गया पैसा सिर्फ इसलिए जनता के काम नहीं आ सका, क्योंकि बीच में एक निठल्ला सांसद था। आशा है, इस बार ऐसे निठल्ले सांसदों की संख्या में कमी आएगी या उनका निठल्लापन कम होगा।

लेकिन साल भर में दो करोड़ रुपयों के प्रोजेक्ट बनाना और जिला प्रशासन के माध्यम से उन्हें लागू कराना कोई इतना बड़ा काम नहीं है जो सांसद महोदय को दिन भर में कम से कम आठ घंटे व्यस्त रख सके। इसके लिए तो दिन भर में एक घंटा भी जरूरत से बहुत ज्यादा है। फिर बाकी बचे हुए घंटों का क्या होगा?

यह सवाल अकसर हमारे सांसदों के सामने अपनी प्रश्नवाचकता के साथ उपस्थित नहीं होता, तो इसका एक बड़ा कारण हमारी संसदीय राजनीति का चरित्र है। इस राजनीति का मुख्य लक्ष्य है मंत्री बनना और पार्टी के किसी महत्वपूर्ण पद पर काबिज होना। इसके अलावा किसी के पास कोई काम नहीं होता। न पार्टी उन्हें कोई काम सौंपती है, न वे अपने लिए कोई काम निकाल पाते हैं। पांच वर्ष की इस निष्क्रियता से सांसद तथा पार्टी और जनसाधारण के बीच कोई संपर्क सूत्र बन नहीं पाता। इसीलिए यह मुहावरा रूढ़ हो चुका है कि चुनाव का मौसम आया, तो नेताजी अपने चुनाव क्षेत्र में दिखाई पड़ने लगे। बाकी समय तो वे गधे की सींग की तरह गायब रहते हैं।

मेरा विनम्र सुझाव है कि यह सूरत अब बदलनी चाहिए। लोक सभा चुनाव के पहले तक लोगों में राजनीतिकारों के प्रति गुस्सा ही गुस्सा था। सभी को लग रहा था कि हम इस विलासी और निकम्मी फौज को बेवजह पाल रहे हैं। ये किसी काम के नहीं रहे। यहां तक कि ये नागरिकों के जान-माल की रक्षा भी नहीं कर सकते। आतंकवाद के सामने इनकी घिग्घी बंध जाती है। आज के समय में, खासकर विकासशील देशों में, राजनीति ही हर चीज की धुरी है। अगर राजनीति में घुन लग चुका है, तो सार्वजनिक जीवन का कोई भी कोना स्वस्थ नहीं रह सकता। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार दुबारा बनने पर ऐसा लगता है कि देश में कुछ उत्साह का संचार हुआ है। लोग उम्मीद करने लगे हैं कि अब राजनीति की भूमिका में कुछ सकारात्मक बदलाव आएगा। सरकार ज्यादा मुस्तैदी से काम करेगी। विकास के नए-नए कार्यक्रम बनेंगे और उन पर चुस्ती से अमल होगा। उत्साह के इस माहौल को हमारे गैर-मंत्री सांसद चाहें तो और मजबूत कर सकते हैं।

किसी भी लोक सभा क्षेत्र में बहुत सारे काम होते हैं। एक बड़ा काम यह निगरानी करना है कि सरकारी योजनाओं पर ठीक से अमल हो रहा है या नहीं। काम की गुणवत्ता के मानकों का पालन हो रहा है या नहीं। कार्य पालन में किसी तरह का भ्रष्टाचार तो नहीं है। यह काम कोई भी सांसद अकेले नहीं कर सकता। इसके लिए उसे स्थानीय स्तर पर जन संगठन बनाना होगा। इसमें स्थानीय विधायकों का भी सहयोग लिया जा सकता है। दूसरा काम है जनसाधारण की शिकायतों का निराकरण। लोग सरकार के महकमों में अपनी शिकायत या दरख्वास्त जमा करते हैं और ये बरसों लटके रहते हैं। इसका निवारण करने में सांसद की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में ऐसे दस-बारह केंद्र खोले जाने चाहिए जहां लोग अपनी शिकायतों और दरख्वास्तों की फोटो कॉपी जमा कर सकें। यह सांसद के चुनाव क्षेत्रीय कार्यालय का कर्तव्य होगा कि वह संबंधित विभागों से बात कर इन शिकायतों और दरख्वास्तों का निराकरण कराए। सिर्फ इतने से जमीनी स्तर पर जबरदस्त परिवर्तन आ सकता है। अभी सरकार और अफसरशाही होते हुए भी लोग अपने को अनाथ और असहाय महसूस करते हैं। एक कर्तव्यनिष्ठ और सक्रिय सांसद जनता के भरोसेमंद अभिभावक का काम कर सकता है।

इसी तरह, सांसद अपने क्षेत्र में कई प्रकार की सामाजिक पहलों की शुरुआत कर सकता है। सभी काम सरकारी स्तर पर नहीं हो सकते। समाज को भी पहल करनी होती है। प्रौढ़ शिक्षा के केंद्रों का सुचारु संचालन, स्कूलों-कॉलेजों-अस्पतालों के काम-काज की निगरानी, स्वास्थ्य केंद्रों में लापरवाही के आलम को दूर करना, राशन सिस्टम को चुस्त, दुरुस्त और भ्रष्टाचार-मुक्त करना, पुलिस को मनमानी न करने देना, स्थानीय परिवहन को सुव्यस्थित करना, न्यूनतम मजदूरी के कानून का पालन करना -- इस तरह के दर्जनों काम हैं जो सांसद के नेतृत्व में स्थानीय जन की सक्रियता से ही संभव हैं। ये सभी काम ऐसे हैं जिनमें न हर्रे लगना है न फिटकरी, पर रंग हमेशा चोखा आना है। इसी तरह सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का काम स्थानीय पहल से ही हो सकता है।

इसके लिए आवश्यक है सांसद में यह महत्वाकांक्षा जगना कि उसका चुनाव क्षेत्र किसी भी अर्थ में अविकसित नहीं रहेगा। लोग जागरूक और सक्रिय होंगे। प्रशासन की आम बुराइयां खत्म हो जाएंगी। कहना न होगा कि ये कोई क्रांतिकारी या रेडिकल काम नहीं हैं। ये सभी बहुत मामूली काम हैं जो नेतृत्व के अभाव में प्रतीक्षित पड़े रहते हैं। सांसद लोग नेता भी कहलाते हैं। हमारी शुभकामना है कि उनमें नेतृत्व की तरंग पैदा हो और वे अपने मतदाताओं से जुड़ें। अगर वे ऐसा करते हैं, तो उन्हें पांच साल बाद चीख-चीख कर यह कहना नहीं होगा कि हमें वोट दो। इसकी जगह उनका काम बोलेगा।

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