Saturday, March 3, 2012

विवाह में आर्थिक समता


जो पति का, वह पत्नी का भी
राजकिशोर

योजना आयोग एक ऐसा प्रस्ताव ले कर आया है जो भारत में पति-पत्नी के रिश्तों में रेडिकल परिवर्तन ला सकता है, लेकिन जो, पुरुषों की मानसिकता को देखते हुए,  कम से कम अगले बीस साल तक ठंडाघर में पड़ा रहेगा। आयोग चाहता है कि विवाह के बाद पति और पत्नी जो भी संपत्ति हासिल करें, उस पर दोनों का समान अधिकार हो। यह प्रस्ताव नया भले ही लगे, पर विवाह की अवधारणा में हमेशा मौजूद रहा है। यथार्थ तो यही है कि विवाह के बाद पति-पत्नी एक हो जाते हैं। लेकिन उनकी आर्थिक हैसियत एक नहीं हो जाती। पति राजा है तो वह राजा बना रहता है और पत्नी रंक है तो वह रंक बनी रहती है। राजा के साथ विवाह होने पर वह रानी की तरह रहने लगती है, लेकिन तभी तक जब तक राजा उस पर मेहरबान रहे। राजा के मुँह फेरते ही उसकी हालत बाँदी जैसी हो जाती है, क्योंकि राजा के खजाने पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। विवाह को जो ऊँचा स्थान सभी धर्मों और समुदायों में दिया गया है, विवाह के मंत्र जो कहते हैं, उसके साथ इस आर्थिक विषमता का कोई मेल नहीं है। परिणाम यह होता है कि विवाह होते तो  स्वर्ग में हैं, पर वैवाहिक जीवन नरक में बिताया जाता है। अगर विवाह संस्था को एक मानवीय संस्था बनाना है, तो हमें सब तरह की बराबरी पर विचार करना ही होगा।
          जिस विवाह में स्त्री और पुरुष की आर्थिक हैसियत अलग-अलग हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता। इस तरह के जो विवाह सफल दिखाई देते हैं, वे स्त्री की पराधीनता पर आधारित होते हैं। अधिकतर मामलों में चूँकि स्त्री का अपना कोई स्वतंत्र आर्थिक आधार नहीं होता, इसलिए वह अपने को पति से कई दर्जा नीचे मान कर चलती है। वह जानती है कि पति को अप्रसन्न करने के नतीजे कितने भयावह  हो सकते हैं। इस तरह विवाह के भीतर किसी तरह का लोकतंत्र नहीं रह जाता। हर मामले में पुरुष की ही मर्जी चलती है, क्योंकि पैसा उसके ही पास होता है और कुछ  खर्च करना हो तो पत्नी को उससे पैसा माँगना होता है। बहुतेरे मामलों में तो पत्नी को पता भी नहीं होता कि पति के पास कितना पैसा है। पुरुष उसे जितना बताना गवारा करे, उतना ही वह जानती है। इससे पारिवारिक जीवन में उसकी भूमिका बहुत सीमित हो जाती है। अकसर तो उसका मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, क्योंकि वह वास्तविक दुनिया की कारगुजारियों से नावाकिफ  रह जाती है।
          परिवार की आर्थिक स्थिति में किसी प्रकार की सच्ची साझेदारी के अभाव में पत्नियों का अस्तित्व तक उनके अपने हाथ में नहीं रह जाता। चूँकि उनके पास अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए पैसा नहीं होता, इसलिए वे अपनी मर्जी का इस्तेमाल करना भी भूल जाती हैं। उन्हें सबसे बड़ा डर यह होता है कि पति छोड़ देगा, तो वे कहाँ जाएँगी ? पिता के परिवार में लौटना कोई सच्चा विकल्प नहीं है। वहाँ उसका स्वागत करने के लिए शायद ही कोई उत्सुक रहता हो। इसलिए स्त्री की मजबूरी हो जाती है कि वह किसी भी शर्त पर विवाह को टूटने न दे। इस बेबसी का सारा फायदा पुरुष को मिलता है और वह परिवार के सभ्य जंगल में शेर की तरह जीवन बिताता है। इसका असर बेटे-बेटियों पर भी पड़ता है। बेटियाँ जानती हैं कि परिवार की संपत्ति में उनकी कोई कानूनी हिस्सेदारी नहीं है। विवाह के समय माता-पिता से जो मिल जाए, वही उनका धन है और इस धन पर भी उस परिवार का कब्जा हो जाता है जहाँ वह ब्याह करके जाती है। इससे बेटियों के व्यक्तित्व में एक बेसहारापन अपने आप विकसित हो जाता है। दूसरी ओर, बेटे जानते हैं कि परिवार की संपत्ति में उन सब का बराबर हिस्सा है, इसलिए उनके व्यक्तित्व में अधिकार-चेतना होती है, जो उन्हें स्वतंत्र और स्वाभिमानी बनाती है। जिस समाज में बेटे-बेटियों का व्यक्तित्व अलग-अलग तथा परस्पर दिशाओं में विकसित होता हो, उस समाज में दांपत्य जीवन में सच्ची बराबरी कहाँ से आ सकती है, क्योंकि यही बेटे-बेटियाँ ही तो आगे चल कर पति और पत्नी की भूमिका निभाती हैं। विवाह का वर्तमान दस्तूर यह सुनिश्चित करता है कि बेटे-बेटियों को बचपन से  जो संस्कार मिलते हैं, वही आगे भी बने रहें। इस तरह मर्द मर्द ही रहता है और औरत के पास अपने औरतपन से छुटकारा पाने की कोई राह नहीं होती।
          स्पष्ट है कि पति-पत्नी  की आर्थिक हैसियत में फर्क को मामूली बात समझा जाता है, लेकिन व्यवहार में यह बात मामूली नहीं रह जाती। इसका असर पूरे सामाजिक ढाँचे पर पड़ता है। एक आधी आबादी का दूसरी आधी आबादी से रिश्ता बिगड़ा का बिगाड़ा रह जाता है। फिर भी, यह हमें यह एक स्वाभाविक स्थिति लगती है, क्योंकि हम बचपन से ही यही देखते हैं और सोचते हैं कि यह न केवल स्वाभाविक है, बल्कि आदर्श भी है। आदतें अकसर हमारी चेतना के विस्तार  में अवरोधक बन जाती हैं। कह सकते हैं कि स्त्री-पुरुष की भौतिक विषमता हमारी सबसे सबसे तगड़ी आदत है। दूसरी आदतें टूट चुकी हैं या टूट रही हैं – राजतंत्र नहीं रहा, जातियों की ऊँच-नीच को चुनौती मिल रही है, सभी को शिक्षा हासिल करने का अधिकार मिल चुका है, अछूतपन के समर्थन में कोई चूँ तक नहीं कर सकता, दलित सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश बन सकता है। लेकिन स्त्री-पुरुष को बराबरी का हक न देने की हजारों वर्ष पुरानी आदत अभी भी हमें जकड़े हुए है। इस अस्वस्थ आदत को  पारिवारिक संपत्ति में बराबरी का अधिकार जरूर धक्का पहुँचाएगा।
          सच पूछिए तो इससे पुरुष समाज को भी कम फायदा नहीं है। विशेषाधिकार आदमी को बड़ा नहीं, छोटा बनाता है। परिवार में लोकतंत्र नहीं होने से समाज में भी लोकतंत्र नहीं हो पाता। चूँकि पुरुष परिवार के भीतर आर्थिक विषमता को पालता है, इसलिए सामाजिक स्तर पर मौजूद आर्थिक विषमता को चुनौती देने की बात उसके मन में ही नहीं आती। परिवार में पुरुष और स्त्री के बीच जो असमान संबंध होता है, वह असमान संबंध समाज में पुरुषों के बीच भी कायम रहता है। पुरुषों का बड़ा हिस्सा पुरुषों के एक छोटे-से हिस्से की पत्नी की तरह जीवन बिताता है। ठीक ही माना जाता है कि स्त्री मुक्ति में पुरुष मुक्ति के तत्व भी छिपे हुए हैं। जब स्त्री अपनी दिखाई पड़नेवाली जंजीरों से आजाद हो जाएगी, तब पुरुष भी अपनी न दिखनेवाली जंजीरों से मुक्त हो सकेगा।
          लेकिन यह समस्या का पूरा हल नहीं है। पूरा हल इसलिए नहीं है कि भारत में संपत्ति है कितने परिवारों के पास? अधिकांश स्त्रियाँ अपने पुरुषों की दरिद्रता में ही साझा कर रही हैं। इसलिए योजना आयोग के इस प्रस्ताव से जो सुविधा उच्च और मध्य वर्ग को मिल जाएगी, वह गरीब परिवारों तक नहीं पहुँचेगी। इसलिए योजना बना कर बड़े पैमाने पर संपत्ति का निर्माण और उसका साझा वितरण ही नए समाज की नींव बन सकता है। व्यापक समस्याओं के आंशिक समाधान नहीं होते।   

           

No comments: