Saturday, March 3, 2012

विपक्ष की भूमिका पर


प. बंगाल के वामपंथी चुप क्यों हैं
राजकिशोर

आजकल यह प्रश्न मुझे परेशान किए हुए है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी चुप क्यों है?  एक लंबे समय तक लगातार सत्ता में रहने के बाद मिली चुनावी पराजय से उन्हें साँप सूँघ गया हो, तो यह बहुत ही स्वाभाविक घटना है। दरअसल, किसी भी राजनीतिक दल को बहुत दिनों तक न तो सत्ता में रहना चाहिए और न ही विपक्ष में। दोनों ही हालात में उसके चरित्र में विकृति आ जाती है। आत्मनिरीक्षण की क्षमता (जो वैसे भी नेताओं और राजनीतिक संगठनों में कम होती है) तो खत्म हो ही जाती है और वे सत्ता में रहे तो राजा की तरह और विपक्ष में रहे तो बागी की तरह आचरण करने लगते हैं। इसलिए सीपीएम और उनके साथी दल पश्चिम बंगाल में अगर अच्छा काम कर रहे थे, तब भी उन्हें एक छोटा-सा ब्रेक मिलना चाहिए था। मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि कोई भी अच्छी पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रह जाती है, तो उसे स्वेच्छा से पाँच वर्ष के लिए सत्ता में आने से इनकार कर देना चाहिए, ताकि वह एक स्वाभाविक संगठन बनी रह सके। इसलिए प. बंगाल में कम्युनिस्टों की हार को मैं उनके लिए टॉनिक समझता हूँ।
          लेकिन ऐसा लगता है कि जिसके लिए सत्ता या सत्ता की उम्मीद ही एकमात्र टॉनिक हो चुकी है, वे सत्ता के इंटरवल का रचनात्मक इस्तेमाल करने में असमर्थ हो जाते हैं। हार से अगर प. बंगाल के वामपंथियों को सचमुच साँप सूँघ गया था, तो एक-दो महीने के बाद तो उन्हें होश में आ जाना चाहिए था और वामपंथी को जो शोभा देता है या उससे जिसकी अपेक्षा की जाती है, वैसा कामकाज शुरू कर देना चाहिए था। क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई बड़ी भूल हो तो वे धरना, जुलूस, हड़ताल वगैरह की तैयारी करें? क्या विरोध करने के अलावा विरोधी दल का कोई और काम नहीं होता?
          हमारे देश की राजनीति में प्रतिपक्ष की भूमिका को ले कर कई मूर्खतापूर्ण भ्रांतियाँ जड़ जमा चुकी हैं। पश्चिमी देशों में अगर विरोधी दल आम तौर पर निष्क्रिय रहते हैं या उनकी सक्रियता संसद में ही दिखाई पड़ती है, तो इसका कारण है। उन समाजों में यह मान लिया गया है कि राजनीतिक दलों के लिए समाज के स्तर पर कुछ खास करने को रह नहीं गया है। जो भी करना है, सत्ता में जा कर करना है या सत्ता पक्ष की नीतियों का विरोध करके या उन्हें विफल बता कर या बना कर करना है। लेकिन भारत तो अभी भी एक बनता हुआ देश है। इसे एक अच्छा, कुशल और रहने लायक देश बनाने के लिए हम सभी को बहुत कुछ करना पड़ेगा।  बेशक कुछ मामलों में स्थितियाँ सुधर रही हैं, लेकिन बहुत-से मामलों में स्थितियाँ बिगड़ भी रही हैं। इसलिए सत्ता में रहते हुए और तब भी जब सत्ता छिन चुकी हो, राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए काफी कुछ करणीय बचा रह जाता है।
इस सिलसिले में गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम की बरबस याद आती है। कांग्रेस का मुख्य काम स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था। लेकिन जब सत्याग्रह या असहयोग आंदोलन नहीं चल रहा होता था, तो कांग्रेस के कार्यकर्ता तरह-तरह के रचनात्मक कार्यक्रमों में जुटे रहते थे। जैसे खादी का प्रचार-प्रसार करना, सामाजिक कुप्रथाओं के विरुद्ध काम करना, शराब की दुकानों पर पिकेटिंग करना, गाँव या नगर की सफाई में हाथ बँटाना, अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी का प्रचार करना, गो सेवा, लघु उद्योगों की स्थापना इत्यादि। बल्कि गांधी जी तो अकसर कहा करते थे कि रचनात्मक कार्य मुझे स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से भी ज्यादा प्रिय है। वे मानते थे कि भारत के लोग यदि सजग, विवेकवान और आत्मनिर्भर हो जाएँ तो स्वाधीनता अपने आप आ जाएगी – उसके लिए अलग से कुछ करना नहीं होगा।
          हमारे वामपंथी गांधी जी को तो कुछ समझते ही नहीं हैं। लेकिन अगर वे अपना और देश का भला चाहते हैं, तो कम से कम इस मामले में वे गांधी जी से बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपनी हार पर वामपंथियों की मुख्य टिप्पणी यह थी कि हम इसलिए हारे, क्योंकि हम जनसाधारण से कट गए थे। अगर यह उन्होंने सिर्फ दूसरों को सुनाने के लिए नहीं कही थी, तो उन्हें जनसाधारण से जुड़ने के लिए अब पूरे पाँच वर्ष का मौका मिला है। इस अवधि का उपयोग वे अपनी-अपनी पार्टियों को सुधारने के लिए तथा राज्य की जनता में आधुनिक एवं प्रगतिशील चेतना भरने तथा उनके दुख-कष्ट दूर करने के लिए बखूबी कर सकते हैं।
          मेरे खयाल से, कम्युनिस्टों का पहला काम अपने को कम्युनिस्ट बनाने का है। हालत यह है कि कम्युनिस्ट हैं, लेकिन उनके विचारों या आचरण में उनके कम्युनिस्ट होने की कोई झलक दिखाई नहीं पड़ती। मेरा तो पक्का खयाल है, जो नेता या कार्यकर्ता 1977 के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों में आए हैं, वे ठीक से जानते भी नहीं कि साम्यवाद क्या है, उसकी मूल स्थापनाएँ क्या हैं तथा  किसी साम्यवादी को किस तरह का जीवन बिताना चाहिए। सत्ता के झोंकों  ने कम्युनिस्ट आदर्शों को कूड़े के ढेर पर फेंक दिया है। इसलिए कम्युनिस्ट पार्टियों को पाँच वर्ष की इस अवधि का उपयोग सबसे पहले अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को झाड़ने-पोंछने में करना चाहिए। बाकायदा अध्ययन कक्षाएँ चलाई जाएँ और समय-समय पर शिविर लगाए जाएँ, जैसा 1977 के पहले होता था। इस प्रक्रिया में दो बातें अपने आप होंगी – बेईमान और भ्रष्ट तत्वों की छँटाई और नए आदर्शवादी लोगों, खासकर युवाओं, की भरती।  जब तक यह नहीं होता, कम्युनिस्ट पार्टियों में नई जान नहीं आ सकती।
          लेकिन यह काम तब तक भली भाँति नहीं हो सकता जब तक कम्युनिस्ट या वामपंथी दलों के लोग जनसाधारण के दुख-कष्ट को दूर करने के लिए सक्रिय नहीं होते। जनसाधारण से जुड़ने का मतलब सिर्फ जन आंदोलन की शुरुआत करना नहीं है। यह भी उतना ही जरूरी और अहम काम है कि निरक्षरों को पढ़ाइए, समाज में प्रगतिशील चेतना का संचार कीजिए, अंधविश्वासों और रूढ़ियों से लड़िए, जहाँ-जहाँ शोषण और अत्याचार हो रहा है, वहाँ-वहाँ संगठन बनाइए और शोषितों तथा अत्याचार के शिकार लोगों को मुक्ति दिलाइए। गुंडागर्दी से लड़िए और नागरिक जीवन में निर्भयता लाइए। स्कूलों, अस्पतालों, कारखानों, दुकानों, जेलों की स्थितियों को मानवीय बनाने के लिए संघर्ष कीजिए। इस रीति-नीति पर चल कर ही आप लोग अपने को बेहतर राजनीति-कर्मी बना सकते हैं और जनता का प्रेम तथा विश्वास जीत सकते हैं। मेरा मानना है, साम्यवाद अभी भी संभावना है। अगर किसी ने उसे मरणांतक चोट पहुँचाई है तो वे साम्यवादी ही हैं। अब साम्यवादी ही संजीवनी रस की खोज कर सकते हैं और साम्यवाद को नया जीवन दे सकते हैं।  

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