नेता
की पोशाक
राजकिशोर
उत्तर प्रदेश को
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के उत्तराधिकारी राहुल गांधी की परीक्षा भूमि माना
जा रहा है। राहुल ने यह परीक्षा भूमि स्वयं चुनी है। वे राजनीति में नए हैं और
राजनीति करने की उनकी अपनी शैली है। विधान सभा चुनाव के परिणाम बताएँगे कि राहुल
गांधी को कितने नंबर मिलते हैं। उनके साथ ही, एक और नया राजनीतिक व्यक्तित्व इस
चुनाव में महत्वपूर्ण ढंग से उतरा है। वे हैं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम
सिंह के उत्तराधिकारी अखिलेश सिंह। बताया जा रहा है कि निकट भविष्य में वे एक
ताकतवर नेता के रूप में उभरेंगे। कहिए तो, राहुल गांधी और अखिलेश सिंह, इन दोनों
नेताओं के बीच समानता कहाँ है?
राहुल और अखिलेश, दोनों युवा हैं। दोनों
आधुनिक हैं। दोनों का पालन-पोषण एक आधुनिक वातावरण में हुआ है। सुरक्षा कारणों से
राहुल की कॉलेज की पढ़ाई ज्यादा नहीं हो पाई, पर बताया जाता है, उनकी दृष्टि में
नयापन है। दूसरी ओर, अखिलेश ऑस्ट्रेलिया में ऊँची पढ़ाई करके आए हैं। उनकी दृष्टि
में भी नयापन है, ऐसा कहा जाता है। मुलायम सिंह एक जमाने में कंप्यूटर का विरोध
करते थे। अखिलेश कंप्यूटर को आधुनिक जीवन का अनिवार्य अंग मानते हैं। दोनों युवा
नेताओं के बीच कुछ और समानताएँ भी होंगी।
यहाँ जिस समानता की चर्चा करना चाहता
हूँ, वह है उनकी पोशाक। दोनों ही सफेद खादी से बना कुरता-पाजामा पहनते हैं। यह
भारत में नेता की पोशाक है। भारतीय जीवन की तरह ही भारतीय राजनीति से भी धोती विदा
ले रही है। गांधी खुद धोती पहनते थे। उनके साथ के कुछ और नेता भी धोती पहनते थे,
जैसे राजगोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, कृपलानी आदि। लेकिन जवाहरलाल ने पैंट-शर्ट
छोड़ी तो धोती को अपनाने के बजाय पाजामा-कुरता पहनना शुरू कर दिया। लोहिया और
जयप्रकाश जैसे उस समय के युवा नेताओं ने भी कुरता-पाजामा अपनाया। नेताओं के लिए यह
नई पोशाक थी और इससे आधुनिकता झलकती थी।
स्वतंत्र
भारत में धोती बनी रही – अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, ज्योति बसु, नरसिंह राव
आदि। लेकिन नई पीढ़ी का झुकाव या तो कुरता-पाजामा की ओर था या फिर पैंट-कोट की तरफ। यह बंद गले का कोट
एक अजीब ढंग की पोशाक है। भारत के ज्यादातर मंत्री और नेता औपचारिक मौकों पर यही पोशाक पहनते हैं।
दूसरा विकल्प है खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा। यह भी सत्ता की पोशाक है। भले ही
किसी विपक्षी नेता ने इसे पहन रखा हो, पर इससे रुआब टपकता है।
मेरे
मन में सवाल उठता रहता है, राजनीति में आनेवाली युवा पीढ़ी अदबदा कर खादी के
कुर्ता-पाजामे को ही क्यों चुनती है? भारत वह नहीं रहा जो
था। भारत की राजनीति वह नहीं रही जो थी। फिर भी सत्ता की वही, एक पोशाक क्यों चल
रही है? राहुल गांधी की मजबूरी समझ में आती है।
जब गांधी जी ने कांग्रेस का नेतृत्व सँभाला, तब उन्होंने खादी को स्वाधीनता संघर्ष
का एक मुख्य प्रतीक बनाया। कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य के लिए खादी पहनना अनिवार्य
कर दिया गया। तभी से कांग्रेस की संस्कृति
में खादी की केंद्रीयता बनी हुई है। हर तरह से आधुनिक बनने को व्यग्र कांग्रेस
पोशाक के मामले में परंपराबद्ध बनी हुई है।
लेकिन अखिलेश सिंह की मजबूरी क्या है?
बेशक समाजवादी कांग्रेस से ही निकले थे। वे कांग्रेस से नफरत करते थे, पर गांधी जी
से प्यार करते थे। उन्होंने गांधी जी से बहुत कुछ लिया भी, जैसे सादगी का
अर्थशास्त्र, अहिंसा में विश्वास और सत्याग्रह। वे भी खादी का कुरता-पाजामा ही
पहनते थे। लेकिन समाजवादी परिवारों की नई पीढ़ी के सामने ऐसी कोई विवशता नहीं है।
सादगी की संस्कृति में उसका विश्वास नहीं है। अहिंसा के प्रति भी वह हृदय से
प्रतिबद्ध नहीं है। वह नए जमाने के चाल-चलन को अपनाए हुए है। खादी के
प्रचार-प्रसार में भी उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर खादी के कुरता-पाजामे के
प्रति उसका आकर्षण क्यों बना हुआ है? क्या वह राजनीति के
लिए नए मुहावरों की तलाश नहीं कर सकती? अगर माध्यम ही संदेश
है, तो संदेश तो लगातार बदल रहा है, फिर भी माध्यम में परिवर्तन क्यों नहीं आता?
धोती में समस्या है। वही समस्या साड़ी
में है। वे आधुनिक समय की पोशाक नहीं हो सकतीं। वैसे, गुंजाइश दोनों में है। धोती
को गांधी जी की शैली में और साड़ी को महाराष्ट्रीय ढंग से, जिसमें लाँग निकाली
जाती है, पहना जाए तो साइकिल, मोटरवाली या बना मोटरवाली, बाइक चलाते समय कोई
दिक्कत होगी न बस में सफर करते हुए। लेकिन सार्वजनिक जीवन में यह शैली अपनाने के
लिए कौन तैयार होगा? इसीलिए पैंट-शर्ट का चलन बढ़ता जा रहा
है, जो पोशाक की दुनिया में यूरोप की देन है।
भारत में तो आधुनिकता के साथ इसका रिश्ता
एकदम पक्का हो चुका है। निवेदन है कि कुरता-पाजामा शैली और उपयोगिता के मामले में
पैंट-शर्ट से किसी भी दृष्टि से पीछे नहीं है। इनकी सिलाई आसान है और सिलवाई भी कम
लगती है। फिर यह पैंट-शर्ट से
प्रतिद्वंद्विता क्यों नहीं कर सकती?
राहुल
गांधी और अखिलेश सिंह को खादी के कुरता-पाजामे में देख कर बहुत प्रसन्नता होती,
अगर वे खादी और कुरता-पाजामे का प्रचार-प्रसार कर रहे होते। लेकिन खादी या
उसका अर्थशास्त्र इन दोनों में से किसी को
भी पसंद नहीं है। तो फिर खादी का दिखावा क्यों?
मैं तो कहूँगा, खादी की पोशाक आज के नेता के साथ विद्रूप ही करती है, क्योंकि खादी
के साथ गांधी युग की यादें जुड़ी हुई हैं। इसी तरह, इन दोनों में से कोई भी युवा
नेता कुरता-पाजामे का ब्रांड राजदूत नहीं बनना चाहता। सो होता यह है कि नेता तो
कुरता-पाजामे में या पैंट-बंद गले के कोट
में दिखाई देता है और उसे चारों तरफ से घेरे हुए अधिकारी पैंट-शर्ट-टाई में। क्या
यह दृश्य हास्यास्पद नहीं है? लेकिन जब राजनीति के
हर धरातल पर द्वैध है, तो पोशाक ही इसका अपवाद कैसे हो सकती है?
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