Sunday, October 7, 2007

गांधी से विश्वासघात (गांधीवाद के प्रश्न - 3)


अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस

के माय
ने

राजकिशोर

भारत सरकार 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा


दिवस के रूप में मान्यता दिलाने में सफल रही, इस

पर वे ही खुश हो सकते हैं जो गांधी को ठीक से नहीं

जानते। यह सच है कि गांधी जी आखिरी सांस तक

यही कहते रहे कि सत्य और अहिंसा, यही मेरे दो

मूल मंत्र हैं। लेकिन सत्य को निकाल दीजिए, तो

अहिंसा लुंज-पुंज हो कर रह जाएगी। महात्मा और जो

कुछ भी थे, लुंज-पुंज नहीं थे। न वे लुंज-पुंज व्यक्ति

या बिरादरी को पसंद करते थे। बल्कि उनकी शिकायत

ही यही थी कि भारत के लोगों द्वारा हथियार रखने

पर पाबंदी लगा कर अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को

नामर्द बना दिया। मर्द और नामर्द की शब्दावली आज

की नारीवादियों को पसंद नहीं आएगी। लेकिन गांधी

जी मर्द थे, मर्दवादी नहीं थे। वे तो अपनी संतानों की

मां और बाप, दोनों बनना चाहते थे। महात्मा की पौत्री

मनु गांधी की एक किताब का नाम है, बापू मेरी मां।

इसके बावजूद गांधी जी को मर्दानगी से बहुत लगाव

था। जब किसी किस्म की कायरता की निन्दा करनी

होती थी, तो वे कहते थे, यह मर्द को शोभा देने वाली

बात नहीं है। मर्दानगी से उनका अभिप्राय शायद पौरुष

से था और स्त्रियों में भी पौरुष होता है। सांख्य दर्शन

में पुरुष और प्रकृति की बात कही गई है। प्रकृति

निश्चेष्ट है और पुरुष में सक्रियता है। जाहिर है, यहां

पुरुष में स्त्री भी शामिल है। स्मरणीय है कि महात्मा

स्त्रियों को भी तेजस्वी देखना चाहते थे। इतनी तेजस्वी

कि जरूरत पड़ने पर वे अपने पति को भी ना कह

सकें।
फिर भी महात्मा को सत्य का पुजारी

नहीं, अहिंसा का पुजारी कहा गया, तो यह बिलकुल

अर्थहीन नहीं था। इसके पहले संघर्ष का एक ही अर्थ

होता था, हिंसक संघर्ष। भारत की जनता के सामने

धनुष-बाण वाले राम की तसवीर हमेशा मौजूद रही है,

जिन्होंने रावण का वध करके सीता को छुड़ाया।

रामचंद्र शुक्ल जैसे विचारक भी इस क्षात्र धर्म के

दीवाने थे। इसीलिए गांधी के संघर्ष में उनका विश्वास

नहीं था। अकबर इलाहाबादी जैसे सयाने कवि ने इस

पर विस्मय प्रगट किया था कि लड़ने चले हैं, हाथ में

तलवार भी नहीं। शायद उस समय के और भी

बहुत-से लोग ऐसा ही सोचते हों कि क्या सत्याग्रह

करने से आजादी मिल सकेगी ? लेकिन मिली और

कवि गा उठा कि दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना

ढाल, साबरमती के संत तुमने कर दिया कमाल।

अहिंसा का अर्थ ठीक से नहीं समझने वालों को इस

बात का एहसास नहीं है कि यह कमाल दीन-हीन और

निरीह अहिंसा का नहीं, बल्कि साहसी अहिंसा का था।

सच तो यह है कि हिंसक की अपेक्षा अहिंसक बनने

में अधिक साहस की जरूरत होती है। यह साहस उसी

में हो सकता है जो मानता है कि मैं सत्य के रास्ते

पर चल रहा हूं। यानी अहिंसक व्यक्ति या समूह में जो

ताकत होती है, वह सत्य की होती है। सत्य के बिना

अहिंसा आलस्य या कायरता का दूसरा नाम है।
महात्मा को अहिंसा के मुकाबले सत्य अधिक प्रिय

था, यह बात अगर आज बार-बार दुहराई नहीं जाती,

तो इसके पीछे बौद्धिक चतुराई है। यह निश्चित है कि

हिंसा और अहिंसा के बीच चुनाव करना हो, तो

गांधीवादी अहिंसा का ही चुनाव करेगा। लेकिन उससे

बड़ा सच यह है कि अन्याय सहने और हिंसा के बीच

चुनाव करना हो, तो गांधी की पसंद का आदमी वही

होगा जो हिंसा को चुनेगा। महात्मा ने किसी पर भी

अहिंसा लादना नहीं चाहा, न वे किसी भी कीमत पर

अहिंसा की वकालत करते थे। वे यह जरूर मानते थे

कि अहिंसा ही मानवता का नियम है और इसी में

विश्व का भविष्य है। आंख के बदले आंख का सिद्धांत

पूरी दुनिया को अंधा बना देगा। लेकिन हिंसा करने से

बचने के लिए अगर कोई गुलामी की जिंदगी जीता

रहता है, तो वे मानते थे कि यह नामर्दी है। अन्याय

का विरोध करो -- अहिंसा से करो तो अच्छा है, पर

हिंसा से करो तो वह भी ठीक है बनिस्बत अन्याय को

चुपचाप सहने के, महात्मा का मूल मंत्र यह था। इस

मंत्र की मूल बात को ढक कर अगर हम अहिंसा का

जाप करने बैठ जाएंगे, तो यह महात्मा के प्रति तो

अन्याय होगा ही, उससे ज्यादा अपने प्रति अन्याय

होगा। यह और बात है कि हिंसक प्रतिकार लुभावना

चाहे जितना हो, पर उससे मिलने वाली सफलता

सामयिक होती है और जीवन व्यवस्था को किसी

ऊंचाई तक नहीं ले जाती।
अहिंसा वाकई सिंहों का नहीं, बकरों का सिद्धांत है,

अगर उसके साथ अन्याय का विरोध नहीं जुड़ा हुआ

है। महात्मा के पहले अहिंसा के अधिकांश उदाहरण

कायरता के थे। वीर वह था जो युद्ध क्षेत्र में जान देने

के लिए तत्पर रहता था। कहा तो यहां तक गया कि

बरिस अठारह क्षत्री जीए, आगे जीवन को धिक्कार।

बुद्ध और महावीर की अहिंसा में व्यक्तिगत वीरता

जरूर थी, पर उसके पीछे सामाजिक न्याय का कोई

ताकतवर सिद्धांत नहीं था न उसके लिए संघर्ष का

आह्वान था। सिर्फ शिक्षा से ज्यादा बदलाव नहीं

आता। बदलाव आता है संघर्ष से। ईसा मसीह की

अहिसा में भी वीरता का तत्व था, लेकिन जहां तक

सत्ता और संपत्ति के केंद्रीकरण के विरोध का सवाल

था, इसके लिए सिर्फ प्रार्थना थी। महात्मा भी हृदय

परिवर्तन में विश्वास करते थे, पर इसके लिए वे

अनंत काल तक इंतजार करने को तैयार नहीं थे।

अगर हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा करते रहते, तो

'अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के साथ-साथ 'करो या मरो' का

नारा नहीं लगाते। इसीलिए जब महात्मा के साथ

अहिंसा को जोड़ने का आग्रह बहुत बढ़ जाता है, तो

डर लगने लगता है कि कहीं यह अहिंसा को नपुंसक

बनाने की तैयारी तो नहीं है?
संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा

दिवस का प्रस्ताव मान लिया, तो यह स्वाभाविक ही

था। संयुक्त राष्ट्र विश्व की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं

करता, वह राष्ट्रों का प्रतिनिधिक संगठन है। संयुक्त

राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा, यह भारत

की जनता तय नहीं करती, भारत सरकार तय करती

है। भारत सरकार के चरित्र से हम अवगत ही हैं।

इसी तरह दुनिया के अन्य देशों के लोग भी

अपनी-अपनी सरकार के चरित्र से अवगत होंगे। इस

अलग-अलग अनुभव का निचोड़ यह है कि दुनिया की

सभी सरकारें हिंसा में विश्वास करती हैं। इराक में जो

मानव हत्या हुई और हो रही है, उसके लिए जनता

नहीं, सरकारें जिम्मेदार हैं। शस्त्र उद्योग जनता के बल

पर नहीं, सरकारों के बल पर फल-फूल रहा है। ऐसा

लगता है कि दुनिया के किसी भी देश की सरकार को

अहिंसक समाज बनाने की कोई चिंता नहीं है। यही

कारण है कि निरस्त्रीकरण का आंदोलन एक

दिवास्वप्न बन कर रह गया। अभी तो परमाणु

निरस्त्रीकरण जैसी बुनियादी मांग भी दिवास्वप्न ही

प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राज्य के

सदस्य राज्य अगर अहिंसा दिवस मनाने को मंजूरी

देते हैं, तो कल्पना की जा सकती है कि वे अहिंसक

होने की मांग किससे कर रहे हैं। वे राज्यों को

अहिंसक बनने का आह्वान नहीं कर रहे हैं, जनताओं

को छागल धर्म की सीख दे रहे हैं। यह सीख किसके

गले उतरेगी?
बेशक आज की दुनिया में जितनी हिंसा है, उसका एक

बड़ा भाग आतंकवादी हिंसा का है। यह आधुनिक

सभ्यता का एक ऐसा राक्षस है जिसे मार गिराने का

मंत्र अभी तक खोजा नहीं जा सका है। आज जितने

हथियारबंद समूह विश्व भर में काम कर रहे हैं, उतने

इसके पहले शायद कभी नहीं थे। स्पष्ट है कि सभ्यता

की हिंसकता राज्यों की सीमा पार कर नागरिक जीवन

में प्रवेश कर चुकी है और वह भी लगभग उतनी ही

भयावहकता के साथ। आंकड़े पेश किए जाते हैं कि

दूसरे महायुद्ध के बाद आतंकवादी हिंसा से जितने

लोगों की मृत्यु हो चुकी है, उससे काफी कम लोग

द्वितीय महायुद्ध के दौरान सैनिक आक्रमणों से मारे

गए थे। या, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में जितनी

जिंदगियां आतंकवादी हिंसा से तबाह हुईं, उतनी

जिंदगियां तो जापान पर एटमी हमले से भी बरबाद

नहीं हुई थीं। इसलिए एक बुनियादी जीवन मूल्य के

रूप में अहिंसा पर आग्रह एक जरूरी निर्णय है।

लेकिन इससे यह सवाल खारिज नहीं हो जाता कि

अहिंसा का प्रचार करने से क्या नागरिक क्षेत्र की

हिंसा खत्म हो जाएगी?
बुनियादी सवाल शायद यह है कि हिंसा आती कहां से

है। हिंसा के स्रोत अगर हमारी जीवन व्यवस्था में ही

बिखरे हुए हैं, यदि उत्पादन का समस्त आधुनिक तंत्र

तरह-तरह की हिंसा पर टिका हुआ है, यदि परिवार

में हिंसा के बीजों को पनपने दिया जाता है, यदि

व्यक्तियों के आपसी संबंधों में अहिंसा नहीं है, तो

हिंसा के सघन विस्फोटों से छुटकारा नहीं मिल

सकता। व्यक्ति को अहिंसा की शिक्षा तो दी ही जानी

चाहिए -- घर से ले कर स्कूल-कॉलेज तक में और

विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से भी,

लेकिन यह शिक्षा तभी फलीभूत हो सकेगी जब

व्यवस्था को भी अहिंसा-प्रधान बनाया जाए। भारतीय

राज्य कितना हिंसक है, यह हम सभी अपने दैनिक

अनुभव से भी जानते हैं। पुलिस से सभ्यता की आशा

ही नहीं की जाती। सरकारी कर्मचारी आम आदमी को

भेड़-बकरी मानते हैं। नेता लोगों ने लाशों की गिनती

करना छोड़ दिया है। ऐसा तंत्र अगर अहिंसा दिवस की

घोषणा पर प्रसन्नता या संतोष जाहिर करता है, तो

शक होता है कि कहीं यह शासक वर्ग की रणनीति तो

नहीं है कि हिंसा का एकाधिकार हमारे पास ही रहने

दो -- तुम प्रजा हो, तुम्हें हिंसा शोभा नहीं देती !
हमारी समझ से महात्मा का जन्म दिवस मनाने का

सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि इसे सत्याग्रह

दिवस के रूप में मनाया जाए। हां, अहिंसा में नहीं,

सत्याग्रह में ही महात्मा की शक्ति का रहस्य छिपा

हुआ है। भारत को स्वाधीनता अहिंसा से नहीं,

सत्याग्रह से हासिल हुई थी। लोहिया ने ठीक ही कहा

था कि जब तक धरती पर अन्याय है, तब तक हिंसा

रहेगी। हिंसा का प्रयोग या तो अन्याय आरोपित करने

के लिए किया जाएगा या अन्याय का प्रतिवाद करने

के लिए। इन दोनों का विकल्प है, अहिंसक समाज की

स्थापना । इसी का दूसरा नाम है, समाजवाद।

सत्याग्रह वह माध्यम है जिसके बल पर शारीरिक रूप

से कमजोर से कमजोर आदमी भी झूठ और अन्याय

से लड़ सकता है। मानवता को महात्मा का कोई

योगदान है तो यही कि सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, समूह

भी सत्याग्रह के शक्तिशाली हथियार का इस्तेमाल कर

सकते हैं। सत्याग्रह ही अहिंसा की कुंजी है। झूठ पर

टिकी हुई सरकारें जब अहिंसा की पुजारी होने का दावा

करती हैं, तो वे अपने को कुछ और हास्यास्पद बना

लेती हैं।

Tuesday, October 2, 2007

विवाह पर कुछ विचार

विवाह की मीयाद
राजकिशोर

जर्मनी की सबसे चमक-दमक वाली नेता गैब्रील पॉली

ने अपने चुनाव घोषणापत्र में यह प्रस्ताव शामिल कर

हड़कंप मचा दिया है कि विवाह की मीयाद सात वर्ष

होनी चाहिए। सात वर्ष के बाद भी कोई युगल अपने

वैवाहिक संबंध को बनाए रखना चाहता है, तो उसे

इस संबंध की अवधि बढ़ाने की सुविधा मिलनी

चाहिए। पॉली की उम्र पचास वर्ष है। उनका दो बार

तलाक हो चुका है। तलाक के लिए जिम्मेदार कौन

था, नहीं मालूम। इसकी खोज करने की जरूरत भी

नहीं है। हमारे लिए इतना ही काफी है कि गैब्रील

पॉली को भली भांति पता है कि आजकल विवाह

टिकाऊ नहीं होते। उन्हें यह अनुभव भी है कि तलाक

का मामला कितनी बदमजगी का होता है। पहले तो

खुशी-खुशी शादी करो, फिर अदालत के चक्कर लगाते

फिरो कि योर ऑनर, हमें एक-दूसरे से बिछड़ने का

मौका दिया जाए। पॉली को लगता है कि इससे बेहतर

तो यही है कि विवाह की मीयाद शुरू में ही तय कर

दी जाए, जिसके बाद वह स्वत: भंग माना जाएगा।
जर्मनी में और यूरोप के शेष हिस्सों

में राजनेताओं और सामाजिक प्रश्नों पर विचार रखने

वाले कई लोगों ने सात वर्ष के इस प्रस्ताव की हंसी

उड़ाई है, हालांकि वे जानते हैं कि शादी के तीन-चार

वर्ष बाद ही अधिकतर जोड़े तलाकनामा लिए घूमते

नजर आते हैं। इस अतिरंजित प्रतिक्रिया से ऐसा

लगता है कि इस परंपरागत मान्यता से कि विवाह

जीवन भर का सौदा होता है, लोग अभी ऊपर नहीं उठ

पाए हैं। हां, वे यह जरूर मानते हैं कि बीच में ही

अनबन हो गई, तो संबंध विच्छेद की सुविधा होनी

चाहिए। जाहिर है, जर्मनी की इस ओजस्वी महिला

नेता ने कान को दूसरी ओर से पकड़ने की कोशिश की

है। अगर जीवन भर के लिए किया जाने वाला विवाह

बीच में ही तोड़ा जा सकता है, तो शुरू में ही उसकी

अवधि क्यों न तय कर दी जाए, ताकि पति-पत्नी

दोनों चौकन्ना रहें और एक-दूसरे के सामने अपना

सर्वोत्तम पेश करते रहें? प्रेम में हम गुलाम हो जाते हैं

और विवाह के बाद गुलाम बनाने की कोशिश करते

हैं। अपराध और दंड का यह अद्भुत रिश्ता है। होता

यह भी है कि एक बार विवाह हो जाने के बाद दोनों

दंपति एक-दूसरे की ओर से निश्चिंत हो जाते हैं और

वैवाहिक संबंध को लगातार जीवंत तथा सार्थक बनाए

रखने की जरूरत महसूस नहीं करते।
विचारणीय है कि विवाह और रक्त

संबंधों को छोड़ कर और कोई मानव संबंध जीवन भर

के लिए नहीं होता। रक्त संबंधों में हम चुनाव नहीं कर

सकते, पर विवाह एक चयन है। जब दास-दासियां

होती थीं, वे अपने पूरे जीवन के लिए होती थीं।

उनकी मुक्ति का दिन मुकर्रर नहीं किया जाता था।

अब कानूनी रूप से दास व्यवस्था कहीं नहीं है।

आजीवन कैद जरूर दी जाती है, लेकिन वह सजा है।

हम विवाह को सजा नहीं मानते। यह मां द्वारा संतान

को जन्म देने के बाद जीवन का सबसे बड़ा उत्सव है।

वैवाहिक जीवन यह उत्सव मनाते हुए ही गुजार देना

चाहिए। सबसे अच्छा विवाह वही है जो शेष जीवन

को उत्सवमय बनाए रखे और एक-दूसरे की

जिम्मेदारियों के निर्वाह में सहायक बने। जो विवाह

बीच में टूट जाते हैं, वे शायद शुरू से ही त्रुटिपूर्ण होते

हैं। जब तक त्रुटि का पता चलता है, काफी देर हो

चुकी होती है, जिससे अनावश्यक कटुता और तकलीफ

पैदा होती है। इससे बचने का एक व्यावहारिक तरीका

यह है कि विवाह को अनंत न बनाया जाए। कोई भी

चुना हुआ संबंध अनंत नहीं हो सकता और विवाह भी

एक संबंध ही है। बहुत-से लोग अपने तोते या मैने

पर गर्व करते हैं कि उसने पोस मान लिया है। इसकी

असली परीक्षा यह है कि उस तोते या मैने को पिंजरे

से निकाल कर उड़ा दिया जाए। उसके बाद देखना

चाहिए कि वह अपनी खुशी से पिंजरे में वापस

लौटता/लौटती है या नहीं। कुत्तों और घोड़ों के बारे में

जरूर सुना गया है कि उनमें से कई अपने स्वामी की

मृत्यु के बाद खाना-पीना छोड़ देते हैं और आंसू बहाते

हुए प्राण त्याग देते हैं। सती प्रथा का विरोधी होते

हुए भी मैं उस पति या पत्नी की तारीफ ही करूंगा

जिनकी जीने की इच्छा अपने जीवन साथी के गुजर

जाने के बाद खत्म हो जाती है। आदर्श स्थिति शायद

यह न हो, पर प्रेम अपने को किस-किस तरह से

व्यक्त करता है, कौन जानता है!
लेकिन प्रेम है या नहीं, यह जानना ही

सबसे मुश्किल है। अकसर वासना प्रेम की मुलायम

चादर ओढ़ कर अपने को प्रगट करती है। प्रेम निवेदन

करते समय जो याचक नजर आता है, विवाह के बाद

वह शेर हो उठता है। यहां शेर में शेरनी भी शामिल

है। आदमी को जानवर बनने से रोकने के लिए भी

मीयादी विवाह उपयोगी साबित हो सकता है। कुछ

लोग प्रेम को मीयादी बुखार मानते है। यह बुखार

उतर जाने के बाद भी जो संबंध टिका रहे, वही असली

संबंध है। बाकी सब समझौता है। मानवता जितना

आगे बढ़ आई है, उसके बाद भी उसे ं समझौते का

जीवन जीने को बाध्य क्यों करना चाहिए? कुछ

समझदार लोग कह सकते हैं कि सात वर्ष भी क्यों?

कोई जोड़ा जितने वर्षों के लिए निबद्ध होना चाहता है,

उतने ही वर्ष क्यों नहीं? यह प्रश्न भी विचारणीय है।

बहरहाल, विवाह की मीयाद जो भी तय की जाए,

उसके साथ यह शर्त जरूर लगानी चाहिए कि जिस

दंपति को कम से कम बीस साल तक साथ रहना है,

उसे ही बच्चा पैदा करने का अधिकार होगा। तलाक

का सबसे बुरा शिकार बच्चा ही होता है।
इस सिलसिले में अपने मुहल्ले की

एक कामवाली याद आती है। जिस व्यक्ति से उसका

विवाह हुआ था, वह कुपति निकला। उससे

छुट्टा-छुट्टी हो गई। उसके बाद इस युवा काम वाली

की जिंदगी में कई पुरुष आए। पर कोई नहीं टिका।

कोई पैसे ले कर भाग गया, कोई कुछ और। आजकल

वह जिस पुरुष के साथ रहती है, उससे विवाह कर

लेने की सलाह दी गई, तो होशियार काम वाली ने

कहा, ‘ विवाह कर लूंगी, तो वह मुझे नौकरानी

समझने लगेगा। अभी ही ठीक है। वह बदमाशी करेगा,

तो मैं उसे घर से निकाल दूंगी।’
आश्चर्य की बात यह कि जिस सत्य

को एक साधारण काम वाली भी, इतने कम समय में,

समझ गई है, उसे ले कर विद्वानों में इतना मतभेद

नजर आता है।

Monday, October 1, 2007

ईशनिन्दा का सवाल

कुछ शब्दों को भूल जाइए, जैसे ईशनिन्दा
राजकिशोर

भारतीय जनता पार्टी के पढ़े-लिखे लोग भी, जैसे लालकृष्ण आडवाणी, जब ईशनिन्दा जैसे शब्दों का प्रयोग हिन्दू धर्म के संदर्भ में करते हैं, तो मन उदास हो जाता है। ये लोग हमेशा इस बात पर गर्व करते हैं कि हिन्दू धर्म दुनिया भर में एक निराला धर्म है, क्योंकि इसमें लोकतंत्र और उदारता 'इन-बिल्ट' हंै। हिन्दू आदमी सहज ही विशालहृदय होता है और सभी धर्मों का सम्मान करता है। अपनी इस मान्यता के आधार पर ये नेता इस्लाम और ईसाइयत की निन्दा करने का कोई भी अवसर नहीं चूकते। विडंबना यह है कि जब मौका पड़ता है, तो इन्हीं धर्मों की कुछ अननुकरणीय आदतों का अनुकरण करने से बाज नहीं आते और इस तरह सिद्ध करते हैं कि इस्लाम और ईसाइयत कुछ मामलों में हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि हिन्दू समाज आज भी उनसे कुछ सीख सकता है।

ऐसी ही एक चीज है, ब्लेसफेमी, जिसे हिन्दी में ईशनिन्दा कहा जा रहा है। इस शब्द का हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में सही-सही अनुवाद नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह अवधारणा ही भारत में नहीं रही है। आज भी नहीं है। किसी भी गांव या शहर में आप ऐसे व्यक्तियों से आसानी से टकरा जा सकते हैं जो ईशनिन्दा में रस लेते हैं। ईशनिन्दा की ईसाई अवधारणा में सिर्फ ईश की निन्दा शामिल नहीं है, बाइबिल, ईसा मसीह, चर्च, पोप आदि की निन्दा भी शामिल है। मध्य युग के यूरोप में यह सबसे गंदा और खतरनाक शब्द बन गया था, क्योंकि ईशनिन्दा का आरोप लगा कर लाखों ऐसे पुरुष-स्त्रियों का सफाया कर दिया गया जो उस समय के चर्च से सहमत नहीं थे या जिनके बारे में ऐसी आशंका थी। यह एक तरह से यूरोपीय समाज का गृह युद्ध था, जिसमें कैथलिक धर्म सत्ता अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हर इलाके में खूनी दस्ते पैदा कर रही थी। प्रेम और करुणा की शिक्षा देने वाला, ईसा मसीह का कोमल-संवेदनशील धर्म अचानक भेड़िए की तरह खूंखार हो गया था और उछल-उछल कर तर्कशील मानवता का शिकार कर रहा था। इस्लाम में भी इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। सलमान रुश्दी की जान लेने के लिए जारी किए गए फतवों के पीछे यह भावना ही है कि उन्होंने ईशनिन्दा का अपराध किया है।
भारत में ईशनिन्दा का मामला कभी कोई मुद्दा ही नहीं बना, क्योंकि यहां न तो ईश का कोई एक ही स्वरूप मान्य है, न कोई एक धर्म पुस्तक है जिसकी शिक्षाओं पर चलने के लिए सभी को बाध्य किया जाता हो और न ही चर्च जैसा कोई अखिल भारतीय संगठन है जो लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन को नियंत्रित करता हो। यहां प्रारंभ से ही 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' और 'जतो मत ततो पथ' की मान्यता रही है। वैचारिक स्वातंत्र्य की इस परंपरा के कारण हमारे देश में ऐसे संप्रदाय भी पनपे और लोकप्रिय हुए जिनमें गॉड और अल्लाह जैसी धारणाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है। भारतीय दर्शन के कई ऐसे रूप हैं, जिनमें सृष्टि का निर्माण करने वाले परमात्मा के लिए कोई मान्यता नहीं है। चार्वाकों की एक बहुत पुरानी परंपरा है जो इस लोक को ही सत्य मानते थे तथा परलोक, स्वर्ग, नरक, पूजा-पाठ, श्राद्ध, ब्राह्मण वर्ग, जाति आदि का मजाक उड़ाया करते थे। गीता में खुद भगवान कृष्ण कहते हैं कि मेरे पास आने का कोई एक निश्चित तरीका नहीं है। बौद्ध और जैन धर्मों में ब्राह्मण मतों की लगभग सारी चीजों को नकारा गया है। बाद में भक्ति आंदोलन के दौरान तो सारी परंपरा ही उलट-पुलट दी गई। भक्त कवियों ने दशरथ-सुत को अपना राम मानने से इनकार कर दिया। उन्हें उस राम से कोई लगाव नहीं था जिसने शंबूक की हत्या की थी और सीता का परित्याग कर दिया था। वे राम के उस आकाशधर्मी व्यक्तित्व पर फिदा थे जिसकी गोद में सिर रख कर किसी भी जाति का किसी भी तरह का आदमी असीम शांति का अनुभव कर सकता था। वे लौकिक राम को नहीं, जिसकी सीमाएं थीं, अलौकिक राम को खोज रहे थे, जो असीम है और जिस पर किसी विशेष समाज या वर्ग की नैतिकता आरोपित नहीं की जा सकती।
ऐसे समाज में अगर कोई व्यक्ति यह दावा करता है कि राम ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं थे या राम के ऐतिहासिक व्यक्ति होने का कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलता, तो दूसरों के पास इसके सिवाय कोई और सभ्य विकल्प नहीं है कि वे या तो एक शालीन चुप्पी की शरण में चले जाएं या साक्ष्य और तर्क के आधार पर इस स्थापना का खंडन करें। अगर तर्क और साक्ष्य की कमी है, तो कोई भी भलामानुष यह कह कर उस व्यक्ति से झगड़ा नहीं करेगा या अदालत में उसकी पेशी नहीं कराएगा कि वह तो ईशनिन्दा कर रहा है। अगर राम को अनैतिहासिक बताना ईशनिन्दा है, तो दलित विचारकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा राम की लगातार आलोचना करना कि वे जाति प्रथा में विश्वास करते थे, कि उन्होंने ब्राह्मणों का वर्चस्व बनाए रखने के लिए पिछड़ी जाति के तपस्वी शंबूक की बिना वजह हत्या कर दी, उन्होंने निर्दोष सीता को राज्यबदर कर दिया, क्या तथाकथित ईश निन्दा के दायरे में नहीं आता? फिर अभी तक आडवाणी जैसे नेताओं ने इस संदर्भ में यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया? भाजपा ने जब मायावती के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, तब क्या उसे पता नहीं था कि मायावती को ईश निन्दा में आनंद आता है? क्या स्वयं डॉ. आंबेडकर ने ईशनिन्दा का अपराध नहीं किया थ? क्या गांधी जी भी ईशनिन्दा के अपराधी नहीं थे, क्योंकि वे अकसर कहा करते थे कि मेरा राम वह नहीं है जो अयोध्या का राजा था? नहीं सर, भारत में अगर ईशनिन्दा को अपराध की श्रेणी में डाल दिया जाएगा, तो गांधी और आंबेडकर ही नहीं, भगत सिंह जैस क्रांतिकारी सपूत भी इस कठघरे मेंं कैद हो जाएंगे। देश में इस समय वैसे ही विग्रह कम नहीं है, कृपया इसका एक और अध्याय खोलने की मेहरबानी न करें।
फतवे का मामला भी ऐसा ही है। भाजपा के एक पूर्व सांसद ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के खिलाफ एक किस्म का फतवा जारी किया और जब चारों तरफ आलोचना होने लगी, तो वे मुकर गए, मानो प्रेस हमेशा गलत रिपोर्टिंग करता हो। यह ईश निन्दा की तरह ही एक नई बीमारी है। भारत में धर्मपीठों या मान्य विद्वानों द्वारा निर्णय दिए जाते रहे हैं, व्यवस्थाएं दी जाती रही हैं, लेकिन किसी ने कोई फतवा जारी नहीं किया। यह देश फतवों से नहीं, धार्मिक चेतना और विवेक से संचालित होता रहा है। ऐसा नहीं है कि धार्मिक चेतना समय-समय पर मंद नहीं पड़ी है या विवेक कुंद नहीं पड़ा है, पर किसी के भी, वह चाहे जितना भी बड़ा हो या बड़े पद पर हो, इस दावे को स्वीकार नहीं किया गया कि सत्य उसकी मुट्ठी में कैद है। इस दृष्टि से भाजपा का दर्शन पहला ऐसा भारतीय दर्शन है जो मानता है कि हमारे सिवाय सभी गलत और झूठे हैं और हमें उनके खिलाफ भीड़वादी कार्रवाइयां करने का अधिकार है। पुरानी भाषा में इसे सांप्रदायिक उन्माद कहा जाता था, आजकल इसे फासीवाद के माध्यम से समझा जाता है। सेतु समुद्रम परियोजना पर अमल हो या नहीं हो, राम जैसे चरित्र को हिटलरी बाना पहनाने की कोशिश करना एक बीमार दिमाग का काम है।

Sunday, September 30, 2007

गांधीवाद के प्रश्न - 2

गांधी मेरे भीतर
राजकिशोर

महात्मा गांधी से मुझे बहुत कष्ट है। सच तो यह है

कि जितना कष्ट उनसे है, उतना किसी और से नहीं।

सोते-जागते जब भी उनकी याद आती है, आत्मा पर

असह्य बोझ-सा महसूस होता हैं। ऐसा लगता है, जैसे

मैं उस तरह जी कर जिस तरह जी रहा हूं कोई पाप

कर रहा हूं। महापुरुष और भी हैं जिनकी जीवनी पढ़

कर मैं प्रेरित हुआ हूं या जिनसे कुछ सीखा है। लेकिन

उनसे डर नहीं लगता। मसलन आंबेडकर को पढ़ कर

खुद पर नहीं, हिन्दू समाज पर ग्लानि होती है। बर्ट्रेंड

रसेल की याद आती है, तो दुख होता है कि मेरे पास

उनके जैसी जानकारी और तार्किक दिमाग क्यों नहीं

है। इसी तरह शॉ और लोहिया का विट मुझे भला

लगता है। पर इनकी निकटता से मेरी आत्मा कोई

कचोट महसूस नहीं करती। कबीर के दोहे और पद

मधुर लगते हुए भी जैसे मेरे अस्तित्व को चिढ़ाते हैं।

लेकिन मैं यह मान कर अपने को तसल्ली दे लेता हूं

कि अनन्त में धूमी रमाना मेरे बस की बात नहीं है।

मार्क्स बहुत अच्छे लगते हैं, पर उन्हें पढ़ते हुए अपने

वर्तमान जीवन को ले कर तुरंत किसी चुनौती का

एहसास नहीं होता। शोषण की यह व्यवस्था खत्म

होनी चाहिए, यह बात मन में बार-बार आती है, पर

इसके लिए मैं अकेला क्या कर सकता हूं? मध्यवर्गीय

होते हुए भी मार्क्सवादी हुआ जा सकता है, इसके

असंख्य उदाहरण चारों ओर दिखाई देते हैं। मार्क्सवादी

होना नैतिक से ज्यादा राजनीतिक परिवर्तन नजर

आता है। लेकिन इतिहास और भूगोल, दोनों स्तरों पर

गांधी मेरे यानी मेरी पीढ़ी के भारतीयों के सबसे निकट

है, इसलिए उनका दबाव सबसे ज्यादा महसूस होता

है। वैसे भी गांधी मानो कुछ और ही चीज हैं। वे

तत्काल जीवन व्यवहार में परिवर्तन की मांग करते

हैं। गांधी को छोड़ कर मुझे कोई ऐसा व्यक्तित्व

दिखाई नहीं देता जिसने ठीक उसी तरह जिया हो

जिस तरह वह सोचता था कि आदमी को जीना

चाहिए। बाकी सभी महापुरुषों में कुछ न कुछ कमी

नजर आती है। ऐसा लगता है, वे अपने लिए कम

और दूसरों के लिए ज्यादा कह रहे हैं। लेकिन गांधी?

उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही, जिस पर वे खुद

अमल नहीं कर रहे हों। जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र

नहीं है जिसके लिए उनके पास कुछ व्यावहारिक संदेश

न हो। यही मेरा सिरदर्द है। कथनी और करनी में

फर्क होने पर पहले दुख होता था, अब शर्म आती है।
कोई व्यक्ति असंभव या असंभव-सी

बात कहता है, तो उससे तर्क करने का मन करता है।

लेकिन जब गांधी कहते हैं, तो कोई भी बात असंभव

नहीं लगती। मन में खयाल आता है कि जब गांधी

जी ने इसे संभव कर दिखाया, तो मुझे मुश्किल क्यों

होनी चाहिए? उदाहरण के लिए, जब डॉक्टर ने उच्च

रक्तचाप के कारण कस्तूरबा के लिए नमक खाना बंद

कर दिया, तो वे बिफर पड़ीं। डॉक्टर के जाने के बाद

उन्होंने गांधी जी से कहा कि तुमने चीनी तो पहले से

ही छुड़वा रखी है, अब मुझे नमक भी छोड़ना पड़ेगा।

फिर खाने में स्वाद क्या रह जाएगा? चाहे जो हो, मैं

तो नमक कभी नहीं छोड़ूंगी। गांधी जी ने बहुत

समझाया। लेकिन वे नहीं मानीं। इस पर गांधी जी

कुछ देर के लिए बाहर गए और लौट कर कस्तूरबा से

बोले -- ठीक है, तुम नमक छोड़ो या नहीं, मैं साल

भर के लिए नमक छोड़ रहा हूं। अब कस्तूरबा निरस्त्र

हो गईं। पति फीकी सब्जी खाए और पत्नी की सब्जी

में नमक पड़ा हो, यह कैसे हो सकता है? सो

कस्तूरबा को भी नमक छोड़ना पड़ा। यह प्रेम की

शक्ति थी, जिसके चलते महात्मा कोई भी त्याग कर

सकता था।
जहां तक मेरा सवाल है, तभी-कभी

लगता है कि मुझमें न किसी और के प्रति प्रेम है, न

अपने आपसे कोई वास्तविक लगाव है। अन्यथा क्या

कारण है कि मैं साधारण से साधारण त्याग भी नहीं

कर पा रहा हूं? पत्नी बहुत चाहती है कि मैं सिगरेट

पीना छोड़ दूं। डॉक्टर कई बार कह चुके हैं। एक बार

तो एक डॉक्टर नाराज भी हो गए थे। मैं रोज प्रतिज्ञा

करता हूं कि कल सुबह से या यह पैकेट खत्म हो

जाने के बाद सिगरेट छोड़ दूंगा। इसके चलते सप्ताह

में दो-तीन दिन सिगरेट पीना कम हो जाता है। फिर

पुरानी बीमारी लौट आती है। मैं अपने आप पर

शर्मिन्दा होता हूं, खुद को कोसता हूं, इस बार पहले

से ज्यादा मजबूती से संकल्प करता हूं, पर तलब

उठते ही समर्पण कर देता हूं।
मिठाई खाने का मामला भी ऐसा ही

है। मुझे सात-आठ साल से मधुमेह है। मिठाई खाना

सख्त मना है। लेकिन मौका मिलते ही मिठाई पर इस

तरह टूट पड़ता हूं जैसे मुझे कोई देख न रहा हो।

त्यौहारों के मौसम में तो अति हो जाती है। इसके

लिए बार-बार पत्नी से डांट खाता हूं। अब तो बेटी भी

मुझ पर हंसती है। पर अपनी आदत नहीं छोड़ पाता।

दो हफ्ता पहले मैंने अपने एक मित्र परिवार के सामने

प्रतिज्ञा कर ली कि आज से मिठाई बंद। कई दिनों

तक इस पर टिका रहा। एक दिन पत्नी ने प्रेमवश यह

कह कर एक मिठाई खिला दी कि कभी-कभी खाने में

कोई हर्ज नहीं है। उसके बाद मानो मेरी आत्म-वर्जना

टूट गई। मैंने कई बार अपने मन से मिठाई खा ली।

गांधी जी के प्रभाव से, इसे घरवालों से छिपाया नहीं।

लेकिन नहीं छिपाने से क्या गलत सही हो जाता है?

फिर मैं यह दावा कैसे कर सकता हूं कि गांधी से मुझे

बहुत प्रेरणा मिलती है? क्या खाक प्रेरणा मिलती है,

अगर मैं छोटी-ठोटी बातों में भी दृढ़ नहीं रह पा रहा

हूं? मैं जानता हूं कि सिगरेट न पीने और मिठाई न

खाने के लिए गांधी जैसे महात्मा से प्रेरणा लेने की

कोई जरूरत नहीं है। यह काम तो ऐसा कोई भी

व्यक्ति कर सकता है, जिसमें थोड़ा-सा संयम हो। अगर

मैं यह मामूली-सा संयम नहीं पाल पा रहा हूं, तो मेरे

लिए धिक्कार ही धिक्कार है! मैं किस मुंह से गांधी

को पढ़ता हूं और किस मुंह से लिखता हूं कि आज

अगर कहीं रास्ता है, तो वह गांधी के आस-पास है !
यह जरूर है कि गांधी जी की

मानसिक संगत में रहते हुए मैं अपनी कई बुराइयों से

मुक्त होने की दिशा में बढ़ा हूं। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि

अब बहुत कम सताते हैं। जब मैं सुनता हूं कि अमुक

दो लाख पा रहा है या तमुक विदेश जा रहा है या

फमुक ने शानदार गाड़ी ले ली है, तो मन बिलकुल

नहीं कचोटता। दूसरों की सहायता करने में आनंद

आने लगा है। अपने बारे में कम, समाज के बारे में

ज्यादा सोचता हूं। भाषा में अहिंसा को साधने की

कोशिश कर रहा हूं। दूसरों पर कम हंसता हूं, अपने

पर ज्यादा। लेकिन यह सब राजमहल में चूड़ा खाने

जैसा लगता है। यह व्यथा हमेशा सताती रहती है कि

इन मामूली परिवर्तनों से क्या होने वाला है? अगर

गांधी कभी स्वप्न में मुझसे रिपोर्ट मांगें, तो मैं क्या

जवाब दूंगा?
।।।
सादगी एक गुण है, पर गांधी जी के विचार से यह

आवश्यकता भी है। जिस देश के लोग सादगी से नहीं

रह सकते, वहां कोई भी अर्थव्यवस्था काम नहीं कर

सकती। सादगी से लगाव न होने का मतलब है, भीतर

कहीं लालच कुलांचें भर रहा है और लालच, सच में,

सभी बुराइयों की जड़ है। फिर, सादगी का संबंध

सौंदर्य बोध से भी है। रचाया हुआ सौंदर्य नजरों को

भाता है, लेकिन हमेशा नहीं। जब इस सुंदरता की

व्यक्तिगत और सामाजिक लागत की याद आती है, तो

यह कुरूप नजर आने लगती है। सादगी सुघड़ता ही

नहीं, शक्ति भी है। सिद्धांत के तौर पर और उससे भी

ज्यादा आदतवश सादगी का पालन करनेवाला आदमी

भय पर सहज ही काबू पा लेता है। उसकी निर्भयता

ज्यादा टिकाऊ होती है। गांधी जी को जहां तक समझ

पाया हूं, सादगी जीवन का एक केंद्रीय सूत्र है। जिसने

सादगी की भावना खो दी या अर्जित ही नहीं की,

उससे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। वह दिन-रात

कामनाओं के भंवर में गोते खाता रहेगा। जो लोग

सामाजिक जीवन जीते हैं, उनके लिए तो सादगी से

रहना और भी जरूरी है।
इस मोर्चे पर मैं अपने को दिवालिया

तो नहीं पाता, पर बहुत मजबूत भी नहीं पाता। जब

तक मैं दिल्ली नहीं आया था, मेरे जीवन में काफी

सादगी थी। इसका एक कारण यह था कि मेरी

आमदनी कम थी। एक कारण, एकमात्र कारण नहीं,

क्योंकि किशोरावस्था के कुछ जिज्ञासु और लालच-सने

दिनों को छोड़ कर विचलन, विलासिता या फिजूलखर्ची

के लिए कोई तड़प मैंने अपने भीतर नहीं पाई। इसी

कारण मैं न पद की होड़ में पड़ा न पैसा कमाने की

वासना मुझे जकड़ सकी। दिल्ली आने के कई वर्षों

तक कलकत्ता का यह प्रभाव मेरे भीतर अक्षत रहा।

लेकिन अब पाता हूं कि मैं कई प्रकार की अनावश्यक

सुविधाओं के मकड़जाल में घिर गया हूं। निजी कार

के बिना भी अच्छी तरह आना-जाना किया जा सकता

है, यह अच्छी तरह जानते हुए भी ऐसा लगता है कि

काफी दिनों तक उससे छुटकारा नहीं है। व्यक्तिगत

जीवन में एअरकंडीशनिंग का विरोधी मैं अब भी हूं,

पर उसका मोह छोड़ा नहीं जाता। कपड़ों तथा निजी

उपभोग सामग्री पर पर खर्च बहुत कम किया जा

सकता है, पर यह भी मात्र कार्य-सूची का अंग बन

कर रह गया है। थैेले, कलम, स्टेशनरी आदि पर मैं

जो पैसे फूंक देता हूं, उससे कई उपयोगी काम किए

जा सकते है। मेरी एक बड़ी समस्या समय की बरबादी

है। मैं जितने ज्यादा घंटे सोता हूं, उसे ले कर

अपराध भावना हमेशा बनी रहती है। इसका एकमात्र

सकारात्मक पहलू यह है कि उतने घंटे कोई गलत

काम करने से बचा रहता हूं। आलसी आदमी न पाप

कर सकता है, न पुण्य। सादगी अगर एक बुनियादी

मूल्य है, तो यह नींद, आराम, सुख, गति सभी चीजों

पर लागू होता है। दरअसल, यह मूल्य किसी भी क्षेत्र

में अतिवाद के खिलाफ एक कारगर तावीज है। पिछले

कुछ वर्षों में मैंने अपने कई अतिवादों से मुक्ति पाने

की कोशिश की है और कुछ में थोड़ी-बहुत सफलता भी

पाई है, पर दिन में बीसियों बार यह दिखाई पड़

जाता है कि मुझे अभी दूर, बहुत दूर जाना है।
।।।
गांधी जी के सेक्स संबंधी विचारों से मैं कभी सहमत

नहीं हो पाया। उन्होंने जैसा यौन जीवन जिया, उसकी

मैं आलोचना नहीं करता। यह उनकी मान्यताओं का

एक मूलभूत हिस्सा था। संयम के उनके प्रयोगों को ले

कर, जिन्हें नासमझी के कारण सेक्स के प्रयोग कहा

जाता है, मुझमें उत्सुकता जरूर है, पर मैं उन

प्रयोगों का निरादर नहीं करता। मैं जानता हूं कि

महात्मा के ज्ञान और अनुभव के सामने हम लोग

उनके पैरों की धूल भी नहीं हैं, इसलिए उन पर शक

करने की बात भी मन में नहीं आती। लेकिन ब्रह्मचर्य

को वे जीवन में जितना केंद्रीय स्थान देते थे, वह मुझे

एक असंभव मांग लगती है। गांधी जी ने स्वयं लिखा

है कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के बाद चार बार उनका

मन, जिसे साधने के लिए उन्हें अपने ऊपर जबरदस्त

नियंत्रण बनाए रखना पड़ता था, वासना से विचलित

हुआ। हो सकता है, गिनती करने में उनसे कुछ भूल

भी हुई हो।
मैं इस विषय में अपने को ले कर

किसी भी तरह का दावा करने की स्थिति में नहीं हूं।

मुझे अपनी कमजोरियों का पता है। इनके कारण मुझे

काफी दुख उठाना पड़ा है। मेरी पत्नी सहज ही

क्षमाशील नहीं होती, तो मेरी गृहस्थी टूट सकती थी।

यह सच है कि विवाह के बाद मैंने कोई मर्यादा नहीं

तोड़ी। लेकिन दोस्ती की प्रगाढ़ता में काफी दूर तक

बहा। अब मुझे लगता है कि यह ठीक नहीं था,

क्योंकि इरादे में भले ही कोई मलिनता न रही हो, पर

व्यवहार के स्तर पर गोपनीयता तो थी ही। किसी भी

स्त्री या पुरुष का अन्य पुरुषों या स्त्रियों से जो भी

संबंध बने, उसमें गोपनीयता का कोई तत्व नहीं होना

चाहिए, नहीं तो तूफान पैदा हो सकता है। संबंधों में

वास्तविक खुलापन तभी आ सकता है जब जीवन में

भी खुलापन हो। यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि

दैहिक संबंध हुए या नहीं। वासना की शुरुआत कल्पना

से होती है। वहां संयम खो देने पर आगे का रास्ता

और रपटीला हो जाता है। यह रपटीलापन मेरे लिए

कम दुख का कारण नहीं है।
अपनी इसी पृष्ठभूमि के कारण और

जमाने के हालात देखते हुए, जहां कदम-कदम पर,

अखबार में, टीवी पर, रेडियो पर, पोस्टरों और होर्डिंगों

में कामुकता को जगाने और बढ़ाने वाला वातावरण

बनाया जा रहा है, दिनों-दिन पवित्रतावाद की तरफ

मेरा वैचारिक झुकाव बढ़ रहा है। मुझे लगता है कि

यह फ्रायड को याद रखने का सही समय नहीं है।

फ्रायड पर पूंजीपतियों ने कब्जा कर लिया है। वे उसके

बहाने से हमारा आत्मिक विनाश करने पर तुले हुए

हैं। इस चुनौती के सामने अतिरेकी तो नहीं, पर

संतुलित पवित्रतावाद निश्चय ही एक कारगर औजार

का काम कर सकता है। जब हम अन्य दृष्टियों से भी

स्वस्थ समाज बनाने की दिशा में अग्रसर होंगे, तब

नर-नारी संबंधों को भी उदार और जानदार बनाने के

कार्यक्रम पर अमल किया जा सकता है। अन्य मामलों

में संरक्षणशील रहते हुए सिर्फ एक मामले में

क्रांतिकारी इच्छाओं का जोर मारना प्रतिक्रियावाद का

ही एक रूप है। इसीलिए जिस यौन क्रांति का पहले मैं

समर्थन करता था, उसके पीछे, भारत की वर्तमान

परिस्थिति में, मुझे देहवाद का ज्वार नजर आता है।

यौन क्रांति सामाजिक क्रांति का एक बहुत छोटा-सा

हिस्सा है।
अपनी इस दृष्टि के लिए मैं गांधी जी

का ऋणी हूं। इस पर मैं स्वयं कितना अमल कर

पाता हूं, यह मेरे लिए हमेशा परीक्षा में बैठने की तरह

उद्विग्नतापूर्ण होता है।


।।।
लेकिन मैं यह सब क्यों लिख रहा हूं? क्या मैं गांधी

जी की 'आत्मकथा' की नकल करना चाहता हूं? क्या

मैं सार्वजनिक रूप से अपनी कमियों की चर्चा कर

किसी प्रकार की महानता का दावा कर रहा हूं? अगर

ऐसा है, तो मुझसे बढ़ कर नीच कोई और नहीं हो

सकता।
दरअसल, गांधी को जानने की प्रक्रिया

अपने भीतर से ही शुरू होती है। वे लगातार

आत्मपरीक्षण के 'मोड' में रहते थे। यह कुछ-कुछ

लेखक होने की नियति की तरह है, जो निर्द्वंद्व हो कर

कुछ भी भोग नहीं सकता। भोक्ता होने के साथ-साथ

वह दर्शक और आलोचक भी होता है। कायदे से हर

आदमी को ऐसा ही जीवन जीना चाहिए। इसी रास्ते

से सत्य से साक्षात्कार होता है या हो सकता है। पहले

मैं गांधी के प्रसंग में जो कुछ लिखता था, वह एक

प्रकार से सामाजिक चर्चा थी, जिसका आत्मानुभव से

कुछ भी लेना-देना नहीं था। वह महज विचार था।

लेकिन गांधी जी कोई विचारक नहीं थे। वे विचारशील

जरूर थे और मैं दावा कर सकता हूं कि अच्छा जीवन

जीने के लिए यह काफी होता है। गांधी जी की

विचारशीलता ही उन्हें कर्तव्य की प्रयोगशीलता का

रास्ता दिखाती थी। उन्होंने अपने जीवन को 'सत्य के

प्रयोग' माना है। सत्य की दिशा में पहला कदम सच

बोलना है। उसके बाद ही सत्य के गहनतर रूपों से

मुठभेड़ होती है। इसीलिए मैं इस साहस के मूल्य को

मैं समझ पाया हूं कि मुझे अपने जीवन को ज्यादा से

ज्यादा पारदर्शी बनाना चाहिए। यह नोट इसी दिशा में

एक छोटा-सा कदम है।
गांधी जी के अनुसार, सत्य जीवन की

प्रयोगशाला में ही मिलता है। आंखें बंद कर ध्यानस्थ

होना ऋषियों के लिए जरूरी होगा, हमारे लिए

वांछनीय यह है कि हम अपनी सक्रियताओं में ही

सत्य का संधान करें। व्यक्ति और समाज के लिए सही

रास्ता क्या है, यह जानने के लिए गांधी जी ने अपने

व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक-राजनीतिक जीवन

में तरह-तरह के प्रयोग किए। इनमें से कुछ सफल

हुए, कुछ नहीं। अपनी विफलताओं का जितना मार्मिक

वर्णन खुद गांधी जी कर गए हैं, कोई और क्या

करेगा। फिर भी वे निश्चेष्ट कभी नहीं हुए। इसीलिए

मुझे अगर गांधीवाद अच्छा लगता है, तो मैं अपनी

इस परख को व्यक्तिगत और सामाजिक प्रयोगों के

माध्यम से ही सत्यापित कर सकता हूं।
जाहिर है, यह चुनौती बहुत ही भारी

है। इसके बारे में सोचते ही मन कांपने लगता है और

पैर लड़खड़ाने लगते हैं। लेकिन यह कोई असंभव

चुनौती नहीं लगती। इस चुनौती का सामना करने में

मैं बिलकुल विफल रहा, तो यही साबित होगा कि मैं

कमजोर, कायर और ढोंगी हूं। लेकिन तब भी मैं यही

कहूंगा कि मैं चलने में असमर्थ रहा तो क्या, सत्य

का रास्ता यही है, यही है, यही है। आमीन।

भगत सिंह और हम - 2

भगत सिंह को कैसे याद करें
राजकिशोर

पुजारी देवता के अनुसार नहीं चलता, वह अपने

अनुसार चलता है। श्रद्धांजलि अर्पित करते समय हम

महापुरुष के निकटतम जाने की कोशिश नहीं करते,

उसे ही अपने निकटतम ले आते हैं। यह मानव

व्यवहार की दुख भरी ट्रेजेडी है। श्रद्धा बढ़ती जाती है,

पर उसका सारतत्व क्षीण होता जाता है। देवता

गाजे-बाजे के साथ आता है और अपने भक्तों को वैसा

ही छोड़ जाता है जैसे वे थे। यही कारण है कि दुनिया

भर में धर्म प्रवर्तकों और महापुरुषों को श्रद्धांजलि

अर्पित करने के इतने कार्यक्रम होते हैं, फिर भी

दुनिया बदलती नहीं है। बल्कि सारे धूम-धड़ाके के

बाद वह और ज्यादा धूमिल और खोखली नजर आती

है, जैसे नाटक खत्म हो जाने के बाद रंगशाला का

सन्नाटा भांय-भांय करने लगता है।
भारत की केंद्रीय सत्ता ने भगत सिंह

की सौवीं जयन्ती के अवसर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने

का जो तरीका चुना, वह उसकी अकड़ का परिचायक

है। भगत सिंह अगर कोई बड़े उद्योगपति होते और

भारत सरकार उनकी याद में सिक्का जारी करती, तो

बात समझ में आ सकती थी। सभी जानते हैं कि

शहीदे-आजम को सिक्कों से कोई लगाव नहीं था।

बल्कि वे उस व्ववस्था का विनाश करने के हिमायती

थे जिसकी नींव सिक्कों पर खड़ी है। भगत सिंह को

सिर्फ आजादी के लिए संघर्ष से जोड़ कर देखना ठीक

नहीं है। यह उनका बहुत ही अधूरा मूल्यांकन है।

शुरुआती दौर में बेशक भारत को आजाद कराने की

तड़प उन्हें बेचैन किए हुए थी, पर जैसे-जैसे उनमें

परिपक्वता आने लगी -- जितनी जल्दी और जितनी

तेजी से उनमें परिपक्वता आई, वह विलक्षण है --

उन्हें यह प्रतीति होने लगी कि आर्थिक आजादी के

बिना राजनीतिक आजादी का कोई मतलब नहीं है।

दिलचस्प यह है कि यही बात स्वतंत्रता संघर्ष के एक

और नायक महात्मा गांधी भी कह रहे थे। बीसवीं

शताब्दी की शुरुआत से दुनिया भर में औपनिवेशिक

शासन से मुक्ति की लड़ाइयां चल रही थीं। यह

भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की विलक्षणता है कि उसमें

राजनीतिक मुक्ति पर जितना जोर था, उससे कहीं

अधिक जोर आर्थिक और सामाजिक मुक्ति पर था।

इस संदर्भ में कांग्रेस के भीतर रह कर राजनीतिक

संघर्ष कर रहे जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण,

आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर

अली आदि के लक्ष्य और भगत सिंह, चंद्रशेखर

आजाद, वोहरा, सुखदेव आदि के लक्ष्य में कोई अंतर

नहीं था। दोनों वर्गों के नेता समाजवादी व्यवस्था में

ही भारत का भविष्य देखते थे। हमारा वह भविष्य

कहां गया? इसकी जांच किए बिना भगत सिंह या

किसी भी स्वतंत्रता सेनानी को श्रद्धांजलि देने का कोई

मतलब नहीं है।
लेकिन इस मतलब से किसको मतलब

है? भगत सिंह की पवित्र स्मृति में सिक्का जारी

करने वाली सरकार वही है, जो रिजर्व बैंक द्वारा जारी

किए जाने वाले नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर

छापती आई है। गांधी जी का जन्म बनिया जाति में

जरूर हुआ था, पर वे बनियागीरी की व्यवस्था के

मामूली शत्रु नहीं थे। उनकी मनपसंद अर्थव्यवस्था

विकेंद्रीकरण पर आधारित थी, जिसमें प्रत्येक गांव

और शहर अपनी जरूरत की प्राय: सभी चीजें अपने

स्तर पर पैदा करेगा। ऐसी व्यवस्था पूंजीवाद और

खुले बाजार पर आधारित हो ही नहीं सकती। इसलिए

गांधी जी के आदर्शों की याद दिलाने के लिए प्रत्येक

नोट पर चरखे की तसवीर उकेरी जाती, तो यह ज्यादा

उपयुक्त होता। सरकार की नजर में मैल होने के

परिणामस्वरूप हम पाते हैं कि जिस चरखे की खोज

के कारण गांधी जी महात्मा बन सके, उस चरखे को

तो विदा कर दिया गया, उसकी जगह सरकारी मुद्रा

पर स्वयं महात्मा को बैठा दिया गया मानो महात्मा

अपने चरखे से बड़े हों। यह किसी धनुर्धर से उसका

तीर-धनुष छीन कर उसे फूलों की माला पहनाना है।

अपनी इसी मुद्रा-प्रियता के कारण मनमोहन सिंह ने

भगत सिंह की याद में सरकारी सिक्का जारी करना

आवश्यक समझा। क्या यह भगत सिंह जैसी विभूति

को सिक्कों से तौलने की तरह नहीं है? लेकिन

पूंजीवाद की खुली वकालत करने वाली सरकार भगत

सिंह को और दे ही क्या सकती थी?
साधु ही साधु को पहचानता है।

क्रांतिकारी ही क्रांतिकारी को समझ सकता है। इसलिए

यह सर्वथा उचित था कि माले और उस जैसे संगठनों

ने दिल्ली में साम्राज्यवाद - विरोधी मोर्चा निकाल कर

शहीदे-आजम को याद किया। भगत सिंह में जो आग

थी, उसे चिनगारियों की ही आहुति दी जा सकती है।

लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह आग विषमता

और अन्याय को भस्म करने के लिए थी, न कि आम

आदमी या सत्ता के निचले पायदान के प्रतिनिधियों को

भूनने के लिए। भगत सिंह को अकसर क्रांतिकारी

हिंसा का प्रतीक मान लिया जाता है। शुरू में वे इस

राह पर कुछ दूर तक चले भी थे। पर बहुत जल्द

उन्हें इस सत्य का एहसास हो गया कि जिस संघर्ष

में आम लोगों को बड़े पैमाने पर शामिल किया जाना

है, वह हिंसा पर आधारित हो ही नहीं सकता।

आजकल भगत सिंह के इस वक्तव्य को खूब उद्धृत

किया जाने लगा है -- ' मैं घोषणा करता हूं कि मैं

आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के

आरंभिक दिनों को छोड़ कर शायद कभी नहीं था।

और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल

नहीं कर सकते।' एक दूसरी जगह भगत सिंह और

साफ-साफ कहते हैं, 'अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा

क्रांतिकारी इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं

कि समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक उपायों

से नहीं हो सकती, बल्कि उसे अंदर से ही प्रस्फुटित

और विकसित होना चाहिए।' इसके बावजूद हम पाते

हैं कि अपने को क्रांतिकारी मानने वाले बहुत-से

संगठन हिंसा की आग में खुद जल रहे हैं और दूसरों

को जला रहे हैं। नक्सलवादी हिंसा में आज तक

हजारों निर्दोष लोगों की जान जा चुकी है। शायद ही

कोई ऐसा हफ्ता बीतता होगा जिसके दौरान कुछ

निरीह लोग तथाकथित क्रांति की वेदी पर बलि न

चढ़ाए जाते हों। इसके द्वारा हिंसा की आग में जल रहे

हमारे ये बेचैन नौजवान अखिल भारतीय क्रांति को

नजदीक ला रहे हैं या दूर धकेल रहे हैं? मुझे यकीन

है कि यह हिंसा इसीलिए संभव हो पा रही है कि

भारतीय राज्य ने इसे बरदाश्त करने की नीति बनाई

हुई है, क्योंकि क्रांतिकारी आतंकवाद की छाया में देश

के अत्यंत पिछड़े इलाके ही हैं और हत्या साधारण

लोगों की ही जाती है। अन्यथा भारतीय राज्य में

इतनी शक्ति जरूर है कि वह नक्सलवाद का सफाया

कर सके। सभी जगह कश्मीर जैसी स्थितियां नहीं हैं।

भगत सिंह से जिन्हें सचमुच प्रेम है, उन्हें विचार

करना चाहिए कि अगर शहीदे-आजम को सिक्कों से

तौलना जायज नहीं है, तो उनकी स्मृति के इर्द-गिर्द

बारूद की दुर्गंध फैलाना भी उनके साथ न्याय करना

नहीं है।



Wednesday, September 26, 2007

क्रांति के लिए आह्वान

आइए, 1857 को दुहराने की तैयारी करे
राजकिशोर

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं जयंती पर हमें क्या करना चाहिए? ऐसे मौकों पर आम तौर पर जो कार्यक्रम होते हैं, वे हो रहे हैं और आगे साल भर होते रहेंगेश्री प्रभाष जोशी जैसे संजीदा और भावुक लोगों को लग रहा है कि ये कार्यक्रम और बेहतर, व्यवस्थित तथा अर्थगर्भित ढंग से हो सकते हैं, पर इसकी पहल करने वाला कोई दल दिखाई दे रहा है, कोई सरकारउनकी शिकायत बहुत सही है और उसकी सुनवाई होनी चाहिएउत्तर प्रदेश में, जहां से उस महान युध्द का बिगुल बजा था, पिछले दो महीनों से चुनाव का वातावरण हैसभी नेता और दल एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैंचुनाव प्रचार इतना जानदार कभी नहीं था जितना इस बार देखा गयाइनमें से एक पार्टी अपने को समाजवादी बताती हैदूसरी का दावा है कि वह बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती हैएक तीसरी पार्टी तो अपने को 1857 के योध्दाओं का वारिस ही बताती हैलेकिन चुनाव अभियान के दौरान इनमें से किसी ने भी 1857 के साहस और मुद्दों का प्रेरक जिक्र नहीं कियायहां उन वामपंथी और दलित-स्त्रीवादियों का जिक्र करने का अवकाश नहीं है जो बहुत सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि 1857 की लड़ाई भारत के दूरगामी हितों के खिलाफ थी और यह बहुत अच्छा हुआ कि वह विफल हो गईजाहिर है, इस वर्ग के चिंतकों और लेखकों और एक्टिविस्टों को मनाना होगा तो वे इस पहले स्वतंत्रता संग्राम की विफलता का समारोह मनाएंगे
लेकिन जिनकी नजर में स्वतंत्रता सबसे बड़ा मूल्य है, वे 1857 के संदेश को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं? उन्हें तो कुछ कुछ करना ही होगा, नहीं तो वे इतिहास और अपना समय, दोनों के प्रति अन्याय कर रहे होंगेअपने समय के साथ न्याय करने के लिए इतिहास के साथ न्याय करना जरूरी है, जैसे इतिहास के प्रति जो सच्चा होगा, वह अपने समय की चुनौतियों से विमुख नहीं हो सकताइतिहास की सीख यही है कि मनुष्य दो ही तरह के काम कर रहा होता है : या तो वह क्रांति के लिए काम कर रहा होता है या फिर क्रांति के विरुध्द काम कर रहा होता है। 1857 में भी ऐसे लोग कम नहीं थे जिन्होंने क्रांति के विरुध्द काम करने का विकल्प चुना थानहीं तो मुट्ठी भर अंग्रेज इतने बड़े देश की इतनी बड़ी आबादी पर इतनी आसानी से कब्जा नहीं कर पातेउनके उत्तराधिकारियों को उसके नब्बे साल बाद भारत से बोरिया-बिस्तर उठा कर चल देने का निर्णय करना पड़ा, इसके पीछे महात्मा गांधी, भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस आदि क्रांतिकारियों का सतत और गंभीर काम थाक्रांतिकारियों की सभी धाराओं की याद करने और उनके प्रति सिर झुकाने का बाद, यह कहा जा सकता है कि भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम मुख्यत: अहिंसक थाभगत सिंह को अधिक दिनों तक जीने का मौका मिलता, तो वे भी एक विशाल अहिंसक संघर्ष ही संगठित करते, जिसकी जरूरत के बारे में उन्होंने अपने दस्तावेजों में बार-बार जिक्र किया हैइस तरह, हमारे पास संघर्ष के हिंसक और अहिंसक, दोनों प्रकार के अनुभव हैं और हम विवेक के आधार पर चुन सकते हैं कि आज कौन-सा रास्ता हमारे लिए श्रेयस्कर होगा
सवाल सिर्फ रास्ते और विधि का ही हैवरना आज 1857 की क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस पर कोई ईमानदार मतभेद हो ही नहीं सकतावह संग्राम विदेशी गुलामी के विरुध्द छेड़ा गया थायानी स्वतंत्रता के पक्ष में थाउन दिनों स्वतंत्रता की परिभाषा, कम से कम भारत में, काफी सीमित थीयूरोप में मेरी वोल्सटोनेक्राफ्ट 1792 में ' विंडिकेशन ऑफ दी राइट्स ऑफ वीमेन' नामक पुस्तक लिख चुकी थीं और जॉन स्टुअर्ट मिल ने 1859 में 'ऑन लिबर्टी' नामक अपना प्रसिध्द ग्रंथ लिखाइन दोनों ही पुस्तकों में स्वतंत्रता को बहुत ही व्यापक तौर पर परिभाषित किया गया थाहमारे लिए यह अवसर दूसरे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान आया, जब भगत सिंह ने स्वतंत्रता को समाजवादी व्यवस्था के रूप में और महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज के रूप में परिभाषित कियाआज स्वतंत्रता का अध्ययन बहुत विस्तृत हो चुका है और अमर्त्य सेन जैसे विद्वान उसके दायरे को लगातार बढ़ाते जा रहे हैंइसलिए 1857 में जिसे आजादी कहा गया, वह आज पर्याप्त नहीं हैउस आजादी में लोकतंत्र तक नहीं थाआज हमें जो आजादी चाहिए, उसमें लोकतंत्र, समाजवाद, ग्राम स्वराज, जाति-मुक्त समाज आदि बहुत कुछ शामिल है। 1857 के सेनानी स्वतंत्रता को अपना जन्मसिध्द अधिकार (इस शब्दावली का उन्होंने प्रयोग नहीं किया; बाद में बाल गंगाधर तिलक ने इस खूबसूरत जुमले का आविष्कार किया, जो हमारे हृदय में अमिट रूप से अंकित है) को मानते थे , जिसे पाने की हसरत में लाखों लोगों को जान की कुरबानी देनी पड़ीगांधी और भगत सिंह के संघर्ष में भी लाखों लोग शहीद हुएलेकिन आज भी हम अपने काबिल पुरखों के सपनों के समाज से बहुत दूर हैंसरकारी नीतियों में हाल में जो परिवर्तन हुए हैं, वे इसी तरह बरदाश्त किए जाते रहे, तो वह समाज हमसे और दूरतर होता जाएगाइसलिए, भारतवासी होने के नाते, यह हमारा एक भूला हुआ ऐतिहासिक कर्तव्य है कि हम एक वास्तविक रूप से स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज के लिए संघर्ष करेंकर्तव्य होने के नाते यह हमारा अधिकार भी है और अपने इस मूलभूत, जन्मसिध्द अधिकार का प्रयोग करने से हमें कोई रोक नहीं सकताजो रोकने की कोशिश करेगा, वह भारतीय संविधान के साथ बेवफाई कर रहा होगाइसी तरह, जो इस अपने इस अधिकार का विधिसम्मत रूप से उपयोग कर रहे होंगे, वे भारतीय संविधान के प्रति सम्मान प्रदर्शित कर रहे होंगेसंविधान के अनुच्छेद 51 का आदेश भी है कि ' भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह -- () संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे; () स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे। 1857 की डेढ़ सौवीं जयन्ती से अधिक पवित्र मौका क्या हो सकता है जब संविधान में बताए हुए अपने इस 'मूल कर्तव्य' का पालन करने के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रांतिकारी जिहाद छेड़ दें? यह हमारे मूल अधिकारों में एक है
इस क्रांति की तैयारी कौन-से आदर्श पाने के लिए होगी? यह निर्धारित करने के लिए हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं हैसौभाग्य से, स्वयं हमारे संविधान में ही इसका जोरदार उल्लेख किया हुआ हैमैं यहां सिर्फ दो अनुच्छेदों को उध्दृत करूंगाअनुच्छेद 38 का निर्देश है कि '(1) राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे, भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृध्दि का प्रयास करेगा। (2) राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और केवल व्यष्टियों (व्यक्तियों) के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा'। अनुच्छेद 39 'राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व' इस प्रकार बताता है : 'राज्य अपनी नीति का, विशिष्टतया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से --- () पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; () समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; () आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण हो; () पुरुष और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो; (.) पुरुष और स्त्री कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश हो कर नागरिकों को ऐसे रोजगारों में जाना पड़े जो उनका आयु याशक्ति के अनुकूल हो; () बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जाए और बालकों और अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।'
यह सही है कि भारतीय राज्य को इन नीति निदेशक तत्वों की डगर पर चलने को बाध्य करने के लिए न्यायालय की शरण में नहीं जाया जा सकता, हालांकि कुछ मामलों में ऐसा किया गया है और इससे साभ भी हुआ हैऐसे ही एक प्रयत्न के फलस्वरूप शिक्षा पाने के बच्चों के अधिकार को मूल अध्याय का दर्जा दिया गया हैलेकिन नागरिकों का पर्याप्त दबाव पड़ने के कारण इस मूल अधिकार को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया जा सका हैइससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नागरिक चाहें तो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को (संविधान का भाग 4) लागू कराने के लिए आंदोलन जरूर कर सकते हैंसंविधान न्यायपालिका की शक्ति की सीमाओं को जानता हैइसलिए वह उन्हें असंभव दिखाई पड़ने वाले कामों का जिम्मा नहीं देतालेकिन नागरिक समाज की शक्ति असीमित होती हैवह राजाओं और सामंतों की व्यवस्था को खत्म कर सकता है, वह अन्याय और असमानता के सभी रूपों को नष्ट कर सकता है, वह प्रत्येक नागरिक को गरिमा के साथ जीवन बिताने की परिस्थितियों को हासिल करने के लिए संघर्ष कर सकता हैयह बात यकीन के साथ कही जा सकती है कि हमारी न्यायपालिका भले ही आज इस स्थिति में हो कि वह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का पालन करने के लिए सरकार को बाध्य कर सके, लेकिन अगर नागरिक संगठित और समूहबध्द रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए आगे आते हैं, तो वह इन साहसी लोगों की सहायता ही करेगी -- उन्हें राज्य के कोप से और अन्याय तथा विशमता को बरकरार रखने की इच्छा और शक्ति रखने वाली शक्तियों के कोप और दमन से बचाएगाआखिर हमारी न्यायपालिका इसी संविधान की कोख से पैदा हुई है और उसका काम इस संविधान की रक्षा करना ही है
अब रह जाता है उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने का कार्यक्रम बनाना, इसके लिए लोगों को, खासकर नौजवानों को, प्रेरित और संगठित करना तथा हर इलाके में जोरदार आंदोलन छेड़ देनायह काम कठिन है, पर असंभव बिलकुल नहीं हैइसके लिए फिलहाल कोई राजनीतिक दल बनाने की जरूरत नहीं है। 'भारत सेवक संघ' या ऐसे ही किसी विनीत नाम से गांव, मुहल्ला, कस्बा, शहर आदि स्तरों पर संगठन बनाने चाहिए तथा उन्हें राज्य और राष्ट्र के स्तर पर विभिन्न सूत्रों में पिरोना चाहिएकार्यक्रम की शुरुआत इस प्रकार के अभियानों से की जा सकती है -- (1) हम अंग्रेजी का सार्वजनिक प्रयोग नहीं चलने देंगे, क्योंकि भारत में अंग्रेजी शोषण और विषमता की भाषा है। (2) हमारी टोलियां इस दृष्टि से स्कूलों, अस्पतालों और पुलिस थानों की सतत निगरानी करेंगी कि वहां नियमों के अनुसार काम होता है या नहींगुप्त रूप से किए जाने वाले भुगतानों को असंभव कर दिया जाएगा और इस तरह काम करने के लिए बाध्य किया जाएगा कि भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही रह जाए। (3) सार्वजनिक परिवहन के सभी साधनों -- बस, ऑटोरिक्शा, टैक्सी आदि -- को नियमानुसार चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। (4) जहां राशन कार्ड बनाए जाते हैं, नागरिक पहचान पत्र जारी किए जाते हैं, ऑटोरिक्शा, बस, टैक्सी आदि के परमिट जारी किए जाते हैं, उन सभी कार्यालयों की सख्त निगरानी की जाएगी और उचित ढंग से काम करवाया जाएगा। (5) नागरिकों की प्रशासनिक समस्याओं, जैसे बिजली-पानी के कनेक्शन पाने में देर या धींगामुश्ती, को सुलझाने के लिए सहायता समूह होंगे। (6) महिलाओं के सम्मान और गरिमा की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे। (7) सभी वेश्यालय बंद कराए जाएंगेआदि-आदिबाद में और भी रेडिकल कदम उठाए जाएंगे, जैसे सिगरेट-बीड़ी आदि के कारखानों को बंद कराना, विभिन्न उत्पादकों से हिसाब लेना कि उनकी लागत क्या पड़ती है और वे ग्राहक से कितना वसूल कर रहे हैं, मजदूरों को उचित मजदूरी और आवश्यक सुविधाएं दी जा रही हैं या नहींये सभी विधि-सम्मत काम हैं और ऐसा करते हम सरकार तथा समाज की मदद ही कर रहे होंगेजब सार्वजनिक सेवा का यह कार्यक्रम व्यापक रूप से फैल जाएगा, तब राजनीतिक दल भी बनाए जा सकते हैं और संसद तथा विधान सभाओं की सहायतों से कानूनों में ऐसे परिवर्तन किए जा सकते हों जो संविधान के उच्छ आदर्शों के अनुसार जीने और व्यवस्था को चलाने में सहायता कर सकें
निश्चय ही, ये सारे कां मजेदार, आनंदपूर्ण और हमारी बुनियादी न्याय भावना को संतुष्ट करने वाले हैंइनसे व्यक्ति और समाज दोनों की व्यवस्था में उल्लेखनीय फर्क आएगाफिर देर करने की क्या बात है? आइए, हम अपने-अपने इलाके में इसकी शुरुआत करने के लिए जुटें और काम शुरू कर देंजो ईश्वर को मानते हैं, वे आश्वस्त रह सकते हैं कि वह उनकी सहायता जरूर करेगाजो नास्तिक हैं, उनके पास इतिहास का बल होगा। 1857 की लड़ाई करने की पहल कुछ ऐसी ही भावना से पैदा हुई होगी। 000