अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस
के मायने
राजकिशोर
भारत सरकार 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा
दिवस के रूप में मान्यता दिलाने में सफल रही, इस
पर वे ही खुश हो सकते हैं जो गांधी को ठीक से नहीं
जानते। यह सच है कि गांधी जी आखिरी सांस तक
यही कहते रहे कि सत्य और अहिंसा, यही मेरे दो
मूल मंत्र हैं। लेकिन सत्य को निकाल दीजिए, तो
अहिंसा लुंज-पुंज हो कर रह जाएगी। महात्मा और जो
कुछ भी थे, लुंज-पुंज नहीं थे। न वे लुंज-पुंज व्यक्ति
या बिरादरी को पसंद करते थे। बल्कि उनकी शिकायत
ही यही थी कि भारत के लोगों द्वारा हथियार रखने
पर पाबंदी लगा कर अंग्रेजों ने इस देश के लोगों को
नामर्द बना दिया। मर्द और नामर्द की शब्दावली आज
की नारीवादियों को पसंद नहीं आएगी। लेकिन गांधी
जी मर्द थे, मर्दवादी नहीं थे। वे तो अपनी संतानों की
मां और बाप, दोनों बनना चाहते थे। महात्मा की पौत्री
मनु गांधी की एक किताब का नाम है, बापू मेरी मां।
इसके बावजूद गांधी जी को मर्दानगी से बहुत लगाव
था। जब किसी किस्म की कायरता की निन्दा करनी
होती थी, तो वे कहते थे, यह मर्द को शोभा देने वाली
बात नहीं है। मर्दानगी से उनका अभिप्राय शायद पौरुष
से था और स्त्रियों में भी पौरुष होता है। सांख्य दर्शन
में पुरुष और प्रकृति की बात कही गई है। प्रकृति
निश्चेष्ट है और पुरुष में सक्रियता है। जाहिर है, यहां
पुरुष में स्त्री भी शामिल है। स्मरणीय है कि महात्मा
स्त्रियों को भी तेजस्वी देखना चाहते थे। इतनी तेजस्वी
कि जरूरत पड़ने पर वे अपने पति को भी ना कह
सकें।
फिर भी महात्मा को सत्य का पुजारी
नहीं, अहिंसा का पुजारी कहा गया, तो यह बिलकुल
अर्थहीन नहीं था। इसके पहले संघर्ष का एक ही अर्थ
होता था, हिंसक संघर्ष। भारत की जनता के सामने
धनुष-बाण वाले राम की तसवीर हमेशा मौजूद रही है,
जिन्होंने रावण का वध करके सीता को छुड़ाया।
रामचंद्र शुक्ल जैसे विचारक भी इस क्षात्र धर्म के
दीवाने थे। इसीलिए गांधी के संघर्ष में उनका विश्वास
नहीं था। अकबर इलाहाबादी जैसे सयाने कवि ने इस
पर विस्मय प्रगट किया था कि लड़ने चले हैं, हाथ में
तलवार भी नहीं। शायद उस समय के और भी
बहुत-से लोग ऐसा ही सोचते हों कि क्या सत्याग्रह
करने से आजादी मिल सकेगी ? लेकिन मिली और
कवि गा उठा कि दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना
ढाल, साबरमती के संत तुमने कर दिया कमाल।
अहिंसा का अर्थ ठीक से नहीं समझने वालों को इस
बात का एहसास नहीं है कि यह कमाल दीन-हीन और
निरीह अहिंसा का नहीं, बल्कि साहसी अहिंसा का था।
सच तो यह है कि हिंसक की अपेक्षा अहिंसक बनने
में अधिक साहस की जरूरत होती है। यह साहस उसी
में हो सकता है जो मानता है कि मैं सत्य के रास्ते
पर चल रहा हूं। यानी अहिंसक व्यक्ति या समूह में जो
ताकत होती है, वह सत्य की होती है। सत्य के बिना
अहिंसा आलस्य या कायरता का दूसरा नाम है।
महात्मा को अहिंसा के मुकाबले सत्य अधिक प्रिय
था, यह बात अगर आज बार-बार दुहराई नहीं जाती,
तो इसके पीछे बौद्धिक चतुराई है। यह निश्चित है कि
हिंसा और अहिंसा के बीच चुनाव करना हो, तो
गांधीवादी अहिंसा का ही चुनाव करेगा। लेकिन उससे
बड़ा सच यह है कि अन्याय सहने और हिंसा के बीच
चुनाव करना हो, तो गांधी की पसंद का आदमी वही
होगा जो हिंसा को चुनेगा। महात्मा ने किसी पर भी
अहिंसा लादना नहीं चाहा, न वे किसी भी कीमत पर
अहिंसा की वकालत करते थे। वे यह जरूर मानते थे
कि अहिंसा ही मानवता का नियम है और इसी में
विश्व का भविष्य है। आंख के बदले आंख का सिद्धांत
पूरी दुनिया को अंधा बना देगा। लेकिन हिंसा करने से
बचने के लिए अगर कोई गुलामी की जिंदगी जीता
रहता है, तो वे मानते थे कि यह नामर्दी है। अन्याय
का विरोध करो -- अहिंसा से करो तो अच्छा है, पर
हिंसा से करो तो वह भी ठीक है बनिस्बत अन्याय को
चुपचाप सहने के, महात्मा का मूल मंत्र यह था। इस
मंत्र की मूल बात को ढक कर अगर हम अहिंसा का
जाप करने बैठ जाएंगे, तो यह महात्मा के प्रति तो
अन्याय होगा ही, उससे ज्यादा अपने प्रति अन्याय
होगा। यह और बात है कि हिंसक प्रतिकार लुभावना
चाहे जितना हो, पर उससे मिलने वाली सफलता
सामयिक होती है और जीवन व्यवस्था को किसी
ऊंचाई तक नहीं ले जाती।
अहिंसा वाकई सिंहों का नहीं, बकरों का सिद्धांत है,
अगर उसके साथ अन्याय का विरोध नहीं जुड़ा हुआ
है। महात्मा के पहले अहिंसा के अधिकांश उदाहरण
कायरता के थे। वीर वह था जो युद्ध क्षेत्र में जान देने
के लिए तत्पर रहता था। कहा तो यहां तक गया कि
बरिस अठारह क्षत्री जीए, आगे जीवन को धिक्कार।
बुद्ध और महावीर की अहिंसा में व्यक्तिगत वीरता
जरूर थी, पर उसके पीछे सामाजिक न्याय का कोई
ताकतवर सिद्धांत नहीं था न उसके लिए संघर्ष का
आह्वान था। सिर्फ शिक्षा से ज्यादा बदलाव नहीं
आता। बदलाव आता है संघर्ष से। ईसा मसीह की
अहिसा में भी वीरता का तत्व था, लेकिन जहां तक
सत्ता और संपत्ति के केंद्रीकरण के विरोध का सवाल
था, इसके लिए सिर्फ प्रार्थना थी। महात्मा भी हृदय
परिवर्तन में विश्वास करते थे, पर इसके लिए वे
अनंत काल तक इंतजार करने को तैयार नहीं थे।
अगर हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा करते रहते, तो
'अंग्रेजो, भारत छोड़ो' के साथ-साथ 'करो या मरो' का
नारा नहीं लगाते। इसीलिए जब महात्मा के साथ
अहिंसा को जोड़ने का आग्रह बहुत बढ़ जाता है, तो
डर लगने लगता है कि कहीं यह अहिंसा को नपुंसक
बनाने की तैयारी तो नहीं है?
संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा
दिवस का प्रस्ताव मान लिया, तो यह स्वाभाविक ही
था। संयुक्त राष्ट्र विश्व की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं
करता, वह राष्ट्रों का प्रतिनिधिक संगठन है। संयुक्त
राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा, यह भारत
की जनता तय नहीं करती, भारत सरकार तय करती
है। भारत सरकार के चरित्र से हम अवगत ही हैं।
इसी तरह दुनिया के अन्य देशों के लोग भी
अपनी-अपनी सरकार के चरित्र से अवगत होंगे। इस
अलग-अलग अनुभव का निचोड़ यह है कि दुनिया की
सभी सरकारें हिंसा में विश्वास करती हैं। इराक में जो
मानव हत्या हुई और हो रही है, उसके लिए जनता
नहीं, सरकारें जिम्मेदार हैं। शस्त्र उद्योग जनता के बल
पर नहीं, सरकारों के बल पर फल-फूल रहा है। ऐसा
लगता है कि दुनिया के किसी भी देश की सरकार को
अहिंसक समाज बनाने की कोई चिंता नहीं है। यही
कारण है कि निरस्त्रीकरण का आंदोलन एक
दिवास्वप्न बन कर रह गया। अभी तो परमाणु
निरस्त्रीकरण जैसी बुनियादी मांग भी दिवास्वप्न ही
प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राज्य के
सदस्य राज्य अगर अहिंसा दिवस मनाने को मंजूरी
देते हैं, तो कल्पना की जा सकती है कि वे अहिंसक
होने की मांग किससे कर रहे हैं। वे राज्यों को
अहिंसक बनने का आह्वान नहीं कर रहे हैं, जनताओं
को छागल धर्म की सीख दे रहे हैं। यह सीख किसके
गले उतरेगी?
बेशक आज की दुनिया में जितनी हिंसा है, उसका एक
बड़ा भाग आतंकवादी हिंसा का है। यह आधुनिक
सभ्यता का एक ऐसा राक्षस है जिसे मार गिराने का
मंत्र अभी तक खोजा नहीं जा सका है। आज जितने
हथियारबंद समूह विश्व भर में काम कर रहे हैं, उतने
इसके पहले शायद कभी नहीं थे। स्पष्ट है कि सभ्यता
की हिंसकता राज्यों की सीमा पार कर नागरिक जीवन
में प्रवेश कर चुकी है और वह भी लगभग उतनी ही
भयावहकता के साथ। आंकड़े पेश किए जाते हैं कि
दूसरे महायुद्ध के बाद आतंकवादी हिंसा से जितने
लोगों की मृत्यु हो चुकी है, उससे काफी कम लोग
द्वितीय महायुद्ध के दौरान सैनिक आक्रमणों से मारे
गए थे। या, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में जितनी
जिंदगियां आतंकवादी हिंसा से तबाह हुईं, उतनी
जिंदगियां तो जापान पर एटमी हमले से भी बरबाद
नहीं हुई थीं। इसलिए एक बुनियादी जीवन मूल्य के
रूप में अहिंसा पर आग्रह एक जरूरी निर्णय है।
लेकिन इससे यह सवाल खारिज नहीं हो जाता कि
अहिंसा का प्रचार करने से क्या नागरिक क्षेत्र की
हिंसा खत्म हो जाएगी?
बुनियादी सवाल शायद यह है कि हिंसा आती कहां से
है। हिंसा के स्रोत अगर हमारी जीवन व्यवस्था में ही
बिखरे हुए हैं, यदि उत्पादन का समस्त आधुनिक तंत्र
तरह-तरह की हिंसा पर टिका हुआ है, यदि परिवार
में हिंसा के बीजों को पनपने दिया जाता है, यदि
व्यक्तियों के आपसी संबंधों में अहिंसा नहीं है, तो
हिंसा के सघन विस्फोटों से छुटकारा नहीं मिल
सकता। व्यक्ति को अहिंसा की शिक्षा तो दी ही जानी
चाहिए -- घर से ले कर स्कूल-कॉलेज तक में और
विभिन्न सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से भी,
लेकिन यह शिक्षा तभी फलीभूत हो सकेगी जब
व्यवस्था को भी अहिंसा-प्रधान बनाया जाए। भारतीय
राज्य कितना हिंसक है, यह हम सभी अपने दैनिक
अनुभव से भी जानते हैं। पुलिस से सभ्यता की आशा
ही नहीं की जाती। सरकारी कर्मचारी आम आदमी को
भेड़-बकरी मानते हैं। नेता लोगों ने लाशों की गिनती
करना छोड़ दिया है। ऐसा तंत्र अगर अहिंसा दिवस की
घोषणा पर प्रसन्नता या संतोष जाहिर करता है, तो
शक होता है कि कहीं यह शासक वर्ग की रणनीति तो
नहीं है कि हिंसा का एकाधिकार हमारे पास ही रहने
दो -- तुम प्रजा हो, तुम्हें हिंसा शोभा नहीं देती !
हमारी समझ से महात्मा का जन्म दिवस मनाने का
सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि इसे सत्याग्रह
दिवस के रूप में मनाया जाए। हां, अहिंसा में नहीं,
सत्याग्रह में ही महात्मा की शक्ति का रहस्य छिपा
हुआ है। भारत को स्वाधीनता अहिंसा से नहीं,
सत्याग्रह से हासिल हुई थी। लोहिया ने ठीक ही कहा
था कि जब तक धरती पर अन्याय है, तब तक हिंसा
रहेगी। हिंसा का प्रयोग या तो अन्याय आरोपित करने
के लिए किया जाएगा या अन्याय का प्रतिवाद करने
के लिए। इन दोनों का विकल्प है, अहिंसक समाज की
स्थापना । इसी का दूसरा नाम है, समाजवाद।
सत्याग्रह वह माध्यम है जिसके बल पर शारीरिक रूप
से कमजोर से कमजोर आदमी भी झूठ और अन्याय
से लड़ सकता है। मानवता को महात्मा का कोई
योगदान है तो यही कि सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, समूह
भी सत्याग्रह के शक्तिशाली हथियार का इस्तेमाल कर
सकते हैं। सत्याग्रह ही अहिंसा की कुंजी है। झूठ पर
टिकी हुई सरकारें जब अहिंसा की पुजारी होने का दावा
करती हैं, तो वे अपने को कुछ और हास्यास्पद बना
लेती हैं।