Sunday, August 10, 2008

एक लड़की ऐसी भी

मंदाकिनी

राजकिशोर

मंदाकिनी से जो एक बार मिल लेगा, वह उसे कभी भूल नहीं सकेगा। वह लड़की नहीं, किसी उपन्यास की पात्र लगती है। ऐसे पात्र जो अन्य पात्रों-कुपात्रों की भीड़ में अलग से जगमगाते हैं। कथा में उनकी भूमिका छोटी-सी होती है, पर उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा होता है कि छोटी-सी भूमिका में वह समा नहीं पाता। सीमांत पर रहते हुए भी सीमाओं की विस्तृत चौहद्दी में सांस लेनेवाले पात्रों को बौना कर देता है। मंदाकिनी ने जान-बूझ कर कभी ऐसा करना चाहा हो, यह मुझे याद नहीं। कभी यह लगा कि वह ऐसा करना चाह सकती है। लेकिन उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति में कुछ ऐसा है जो उसे सुंदर और शीलयुक्त बनाता है। इन दोनों को सात्विक निखार मिलता है उसकी प्रत्युत्पन्न मति और बौद्धिक तीक्ष्णता से। उसने मुझे कई ऐसे किस्से सुनाए थे, जब उसने अपने से बड़ों को ढेर कर दिया था। एक साहब उसके साथ मनाली की सैर करना चाहते थे। मंदाकिनी ने कहा कि दिल्ली में मेरे एक लोकल गार्डियन हैं। दिल्ली से बाहर जाने के लिए मुझे उनसे अनुमति लेनी होगी। एक दूसरे साहब उसे एक टीवी चैनल में ऐंकर बना रहे थे। मंदाकिनी ने बताया कि मैं पीएचडी खत्म करने के बाद ही कोई नौकरी करूंगी। इसके लिए मुझे कम से कम तीन साल इंतजार करना होगा। सच यह था कि तब तक उसने एमए भी नहीं किया था।

वही मंदाकिन जब पिछले महीने मिली, तो तरद्दुद में थी। इसके पहले मैंने उसी दुविधा में नहीं देखा था। परेशान होने पर भी वह नहीं चाहती थी कि किसी को उसकी परेशानी की हवा लगे। एक बार उसने कहा था कि सहानुभूति प्रगट करनेवाले और उसके लिए कुछ भी उठा रखने की कोशिश करनेवाले उसे इतने मिले थे कि अब वह उनसे कोसों दूर रहना चाहती है। उसने जिसकी भी सहानुभूति ली थी, वह कीमत वसूल करने के लिए घोड़े पर सवार हो जाता था। एक लेखक महोदय ने अपने प्रकाशक के यहां उसे प्रूफ रीडर लगवा दिया था। दस दिन के बाद ही उनका आग्रह हुआ कि दफ्तर से लौटते हुए मेरे घर जाया करना और एक घंटा मेरी किताबों के प्रूफ पढ़ दिया करना। मंदाकिनी बहुत खुश हुई कि उसे एक स्थापित लेखक के साथ काम करने का मौका मिलेगा और वह भाषा की बारीकियां सीख सकेगी। पहले दिन वह लेखक के घर गई, तो पता चला कि जिस उपन्यास के प्रूफ उसे पढ़ने हैं, वह अभी लिखा जाना है। महीना पूरा करने के बाद उसने यह नौकरी छोड़ दी। इससे मिलते-जुलते कारणों से उसे कई नौकरियां बीच में ही छोड़नी पड़ गई थीं। तब भी जब उसे पैसों की सख्त जरूरत थी।

चाय का प्याला आते ही वह खुल पड़ी। उसकी बात, जितना मुझे याद है, उसके शब्दों में ही सुनिए -- 'सर, पहली बार इतनी मुश्किल में पड़ी हूं। आप जानते ही हैं कि किसी को प्यार करना और उसके साथ घर बसाने की बात सोचना मेरे लिए कितना मुश्किल है। बचपन से ही मेरा शरीर पुरुषों की लोलुपता का कातर साक्षी रहा है। प्रतिरोध करना मैंने बहुत बाद में सीखा। तब से मैंने किसी को अपने शिष्ट होने का फायदा उठाने नहीं दिया। शायद मेरी किस्मत ही कुछ ऐसी है कि मुझे हर बिल में सांप ही दिखाई देता है। जो अपने को जितना स्त्री समर्थक दिखाता है, उससे मुझे उतना ही डर लगता है। लेकिन इस बार एक ऐसे लड़के से मेरा पाला पड़ा है, जिसकी मनुष्यता के आगे मैं हार गई। इतना सीधा और सज्जन है कि आज तक उसने मुझे छुआ तक नहीं है। सिनेमा हॉल के अंधेरे में भी। लेकिन मैं जानती हूं कि वह हर क्षण मेरे ही बारे में सोचता रहता है। एमबीए का आखिरी साल है। कल उसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। मैं कोई जवाब नहीं दे पाई। सर, आप ही बताइए, मुझे क्या करना चाहिए।'

मैं क्या बताता। इस मामले में मेरे अनुभव ऐसे हैं कि सलाह देना असंभव जान पड़ता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जो पेच हैं, उनका कोई हल नहीं है। इसलिए जो भी रास्ता पकड़ो, वह कहीं कहीं जा कर बंद हो जाता है। फिर भी, चूंकि मंदाकिनी लगातार इसरार किए जा रही थी, इसलिए हालांकि, अगर, मगर वगैरह लगाते हुए मैंने कहा,'मेरे खयाल से, तुम्हें अब सेट्ल हो जाना चाहिए। तुम भी नौकरी करती हो। एमबीए पूरा करने के बाद उसे भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी। कब तक खुद भटकती रहोगी और दूसरों के भटकाव का कारण बनती रहोगी?' इस पर मंदाकिनी ठठा कर हंस पड़ी। बोली, 'जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की सीख है कि पुरुष को जितनी देर से हो सके, शादी करनी चाहिए और स्त्री को जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लेनी चाहिए !'

एक हफ्ते बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम के समापन पर मंदाकिनी से मुलाकात हो गई। मंडी हाउस में पेड़ों की छांह-छांह चलते हुए मैंने पूछा, 'तो अंत में तुमने क्या फैसला किया?' वह बेहद संजीदा हो आई। फिर मुसकराते हुए कहा, 'मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है।' अब संजीदा होने की बारी मेरी थी। उसने मुझे भारहीन करने के लक्ष्य से कहा, 'सर, मैं उससे कहती कि चलो, शादी के बिना ही साथ रहते हैं, तो वह कतई राजी नहीं होता।'

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