Friday, August 15, 2008

मेरा मन

योग : न किया है, न करूंगा
राजकिशोर



आजकल योग का बड़ा हल्ला है। ऐसे लोग भी योग के प्रचारक बन रहे हैं जिन्हें योगी नहीं कहा जा सकता। ऐसा लगता है, मानो यह एक बिजनेस ब्रांड हो गया है। सभी कहते हैं, मैं योग सिखाता हूं, पर वे खुद भी योग करते होते, तो कम से कम उनकी व्यापारिक मुद्राएं खत्म हो जातीं। वे अपने आप पर गर्व नहीं करते, विनम्रता के साथ अपना निवेदन रखते। जब मैं किसी को टेलीविजन पर योग सिखाते देखता हूं, तो मेरा खून हौले-हौले खौलने लगता है। टीवी एक व्यपारिक माध्यम है (कुछ की कोशिश है कि यह एक औद्योगिक माध्यम बन जाए)। लिंकन की मदद ली जाए, तो इसकी परिभाषा कुछ यों बनेगी - व्यापार का, व्यापार के द्वारा और व्यापार के लिए। जनता का काम मूर्ख बनना है। यह तो उसकी आदत है। अगर टीवी उसे मूर्ख न बना रहा होता, तो कोई बाबा या बॉबी उसे उलझाए रखते। अब बताओ, बालों को रेशमी और त्वचा को चिकना बनानेवाले उत्पादों के इतने विज्ञापन आते हैं कि उनमें से एक भी विज्ञापन सच्चा होता, तो बाकी सभी की दुकानें बंद हो जातीं। सभी दुकानें चल रही हैं, इसका एक ही मतलब है कि उन सभी में झूठे दावों से निकला हुआ ठगी का माल बिक रहा है। श्रीमती गीता देवी और कुमारी स्पर्धा वैसा ही दिखते रहने को अभिशप्त हैं जैसा ईश्वर ने उन्हें बनाया है।

योग से मेरी सैद्धांतिक दुश्मनी है और व्यावहारिक दुश्मनी भी। यहां मैं व्यावहारिक दुश्मनी निकाल रहा हूं। सच्चे गुरु की पहचान मैं यह मानता हूं कि वह किसी का गुरु बनने से हिचकिचाता है। शिष्य बार-बार उसके पांव पकड़ता है, तब जा कर वह पसीजता है। एक सीमा के बाद वह एडमिशन बंद कर देता है। एक पॉवर हाउस आखिर कितने गांवों को रोशन कर सकता है। सच्चा गुरु अपनी सीमाएं समझता है। वह सोचता है कि योग ने जब मुझे ही परफेक्ट नहीं बनाया, तो मेरे शिष्य को क्या बनाएगा। इसलिए बहुत संकोच के साथ वह किसी को अपना शिष्य बनाता है। इस संदर्भ में गांधी जी की याद आती है। उनका कहना था कि मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं ही अपना गुरु हूं और मैं ही अपना शिष्य। मेरे खयाल से आज का सच्चा योगी भी यह कहेगा। वह योग सिखाने के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय नहीं खोलेगा। दुकानदारी और शिक्षा में घोर अंतर्विरोध है।

जहां भी देखा, योग की यही परिभाषा मुझे मिली : योगः चित्तवृत्ति निरोधः। यानी योग का मतलब है चित्तवृत्तियों का निरोध। इस सिद्धांत में माना जाता है कि मन को शांत जल या दीपशिखा की तरह निष्कंप होना चाहिए। तभी वह आत्मा के सबसे निकट होती है। आत्मा विकाररहित होती है। विकार चित्त में पैदा होते हैं। विकार यानी प्रेम, घृणा, क्रोध, शोक, करुणा आदि। इस दृष्टि से सभी भावनाएं और विचार विकार हैं। योग का लक्ष्य इन सब चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। योग की सिद्धि इस बात में है कि व्यक्ति का मन खाली हो जाए -- उसमें न कोई भावना रहे, न विचार, न स्मृति, न राग, न विराग। जब तक ये चीजें रहेंगी, उसका चित्त क्षुब्ध रहेगा। घृणा मन को क्षुब्ध बनाती है, तो प्रेम भी। इसलिए दोनों से छुटकारा पाना आवश्यक है। योग इसमें मदद करता है।

क्षमा करें, मैं इस जीवन दर्शन को अपनाना नहीं चाहता। मेरी आस्था मुक्ति में नहीं, कर्म मैं है। जिस दिन मेरी चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाएगा, मैं उसे अपनी आत्मकथा का काला दिन मानूंगा। वह दिन मेरे लिए चित्त की मृत्यु का दिन होगा। योग अगर इस मृत्यु का उत्सव है, तो इस उत्सव में भाग लेने से मैं इनकार करता हूं। मैं जीवन को पूरी तरह जीना चाहता हूं। मैं प्रेम करना चाहता हूं, मैं प्रेम पाना चाहता हूं, मैं श्रद्धा करना चाहता हूं, आदर करना चाहता हूं, आदर पाना चाहता हूं। मैं अपनी स्मृति का नाश करना नहीं जानता। मैं याद रखना चाहता हूं कि कौन मेरा मित्र है, कौन मेरा हितैषी है, कौन मेरे मां-बाप थे, कौन मेरे भाई-भतीजे-भतीजियां हैं, कौन मेरा पड़ोसी है, किसके-किसके प्रति मेरी कृतज्ञता है। मैं अपनी चेतना को कोरी स्लेट नहीं बनना चाहता। मैं चाहता हूं कि उस पर खूबसूरत इबारतें अंकित होती रहें।

मैं क्या नहीं चाहता? मैं किताब पढ़ना चाहता हूं। मैं किताब लिखना चाहता हूं। मैं नृत्य देखना और संगीत सुनना चाहता हूं। मैं स्त्री सौंदर्य पर मुग्ध होना चाहता हूं। मैं धरती की यात्रा करना चाहता हूं। मैं पहाड़ देखना चाहता हूं, समुद्र देखना चाहता हूं, तरह-तरह की नदियां देखना चाहता हूं। मैं तरह-तरह के मनुष्य और समाज देखना चाहता हूं। मैं कवियों, दार्शनिकों और पागल लोगों के साथ बैठना चाहता हूं। मैं अपने देश और दुनिया का इतिहास जानना चाहता हूं। मैं इनके घटना प्रवाह में हस्तक्षेप करना चाहता हूं। मैं राजनीति करना चाहता हूं। समाज की सेवा करना चाहता हूं। मैं मृत्यु के समय गालिब की यह पंक्ति दुहराना चाहता हूं कि बहुत निकले मेरे अरमान मेरे, फिर भी कम निकले।

यह सब कैसे होगा, अगर मेरा चित्त शून्य हो जाए? योग का एकमात्र लक्ष्य यही है। यह लक्ष्य उस दौर में अच्छा लगता होगा जब जीवन में समस्याएं ही समस्याएं थीं। चारों और गरीबी थी, बीमारी थी, दुख था, पीड़ा थी। जिंदगी तब भी खूबसूरत थी, पर इस खूबसूरती का स्वाद कम ही लोग ले पाते थे। इसलिए सभी देशों में ऐसे दर्शनों का विकास हुआ जो इस दुनिया में रमने के खिलाफ थे। उनकी कल्पना ने यह मिथक गढ़ा कि इस जीवन के बाद का जीवन उत्तम होगा। इस संसार को छोड़ो, उस संसार की साधना करो। चूंकि यह संसार छोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए इसकी ओर से आंख मूंद लो। चित्त का निरोध करो।

माफ कीजिए, यह मेरा आदर्श नहीं हो सकता। मेरे लिए जिंदगी खूबसूरत है। इसीलिए मैंने योग नहीं किया और इसीलिए मैं योग करूंगा भी नहीं।







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2 comments:

Anonymous said...

फिर जरा समझाइये कि योग अमेरिका जैसे देश में, जहाँ के लोगों की आकांक्षाएँ आपके जैसी ही हैं, योग इतना लोकप्रिय क्यों है? वहाँ ये दुविधा क्यों नहीं?

Anil Kumar said...

माफ़ी दीजियेगा, मैं इस लेख को लेख समझकर टिपण्णी कर रहा हूँ, कटाक्ष समझकर नहीं. योग को बिना जांचे परखे आप कुछ नहीं कह सकते. हाँ सैद्धांतिक तौर पर मैं आपसे सहमत हूँ, लेकिन कृपया एक बार योग १ महीने तक करके तो देखें. किसी गुरु-वुरु के पास जाने की ज़रूरत नहीं है, आप किताबों से प्रेम करते हैं, योग पर भी किताबें लिखी गयीं हैं. यदि १ महीने करके पसंद न आए तो छोड़ दीजिये! विज्ञानं यही कहता है, की बिना एक्सपेरिमेंट किए आप कुछ नहीं कह सकते! :)