Sunday, August 17, 2008
चरित्र ऐसे बनता है
राजकिशोर
दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले टॉल रोड के दो अनुभव बांटना चाहता हूं। पहला अनुभव करीब एक महीना पहले का है। हम (मैं और मेरी बेटी) दिल्ली से घर लौट रहे थे। हमारी कार का पेट्रोल अचानक चुक गया और कार बीच सड़क पर खड़ी हो गई। यह हादसा पहली बार हुआ था। इसलिए मैं नरवस हो गया। ड्राइवर मुझसे ज्यादा नरवस था। हो सकता है, भीतर ही भीतर मुझे गालियां दे रहा हो। बेटी समाधान निकालने के लिए परेशान थी। उसने थोड़ा आगे बढ़ कर एक बोर्ड से हेल्पलाइन का नंबर नोट किया । उन्हें फोन कर हमारी समस्या बताई। कुछ ही देर बाद टॉल रोड वालों की एक गाड़ी आई। उस पर बैठे कर्मचारियों में से किसी ने भी न हमें डांटा न फटकारा। उनमें से एक विनम्रता के साथ हमारे पास आया और हमारे ड्राइवर को अपने साथ ले गया। वे निकट के पेट्रोल पंप गए और वहां से एक डिब्बे में दो लीटर पेट्रोल ले आए। पेट्रोल गाड़ी में पड़ा, तो उसमें जान आ गई। अब हम मयूर विहार जा सकते थे।
गाड़ी स्टार्ट करने से पहले हमने टॉल रोड के कर्मचारियों का हार्दिक धन्यवाद किया और पूछा कि चार्ज के रूप में कितना पैसा देना है। मालूम हुआ, यह नि:शुल्क सेवा है। तबीयत खुश हो गई। मैंने सोचा, यही सड़क अगर भारत सरकार या दिल्ली नगर निगम या नोएडा प्राधिकार के प्रबंध में होती, तब भी हमारे साथ क्या ऐसा ही मृदु और सहयोगपूर्ण व्यवहार होता?
दूसरा अनुभव चार दिन पहले का है। इस सड़क का उपयोग करने की फीस भरने के दो तरीके हैं। एक तरीका नकद भुगतान का है। दूसरा तरीका यह है कि आप एक कार्ड में पहले से पैसे भरवा लें। मुझे लगा कि कार्ड वाला सिस्टम ठीक है। मेरे पास पहले का एक कार्ड था। सोचा, उसमें ही पैसे डलवा दूं। दिल्ली से हमारी तरफ आने का पुराना रास्ता है नोएडा हो कर। हाल ही में एक और रास्ता खुला है जो मयूर विहार फेज एक की ओर निकालता है। मैं इसी रास्ते का प्रयोग करता हूं।
फीस चुकाने वाली लाइन में दाखिल होने के पहले मैंने जानना चाहा कि कार्ड में पैसा कहां भरवाते हैं। गेट के पास तीन साधारण दर्जे के कर्मचारी खड़े थे। मेरा प्रश्न सुनते ही उनमें सहानुभूति की लहर दौड़ गई। एक ने बताया कि यह तो नोएडा वाले रास्ते में ही हो सकता है। मयूर विहार वाला रास्ता नया खुला है। इसलिए यहां यह इंतजाम अभी शुरू नहीं हुआ है। लेकिन जल्द ही शुरू होने वाला है। 'तब तक क्या किया जाए?' इस सवाल से जूझते हुए हम फीस की परची काटने वाले काउंटर के सामने पहुंच गए थे। एक दूसरा कर्मचारी भी वहां तक आ गया था। उसने बताया कि आप चाहें तो इस काउंटर पर चेक जमा कर सकते हैं। अगले दिन आपके कार्ड में पैसा जमा हो जाएगा और अपने कार्ड का इस्तेमाल शुरू कर सकेंगे। काउंटर क्लर्क ने हामी भरी। हमारी समस्या का हल निकल आया था। उस बार की फीस भर कर हम आगे बढ़े और अपने रास्ते आ लगे। एक बार फिर मैंने टॉल रोड के विदेशी मालिकों और उनके अधिकारियों को मन ही मन बधाई दी कि उन्होंने अपने कर्मचारियों में ग्राहकों के साथ अच्छा व्यवहार करने के संस्कार भरे हैं।
जाहिर है, इनमें से कोई भी व्यवहार अनोखा नहीं था। दिल्ली में ही ऐसे सैकड़ों संस्थान होंगे जहां ग्राहकों या आगंतुकों के साथ शिष्ट व्यवहार होता है। उनसे तमीज से बात की जाती है, उनकी समस्याओं को सहानुभूति से सुलझाया जाता है और उन्हें यह एहसास नहीं होने दिया जाता कि वे वहां किसी का समय बरबाद करने आए हैं। इनकी तुलना में ऐसे संस्थान सैकड़ों गुना ज्यादा होंगे, जहां आगंतुकों के साथ असभ्य और अशिष्ट, बल्कि बदतमीज ढंग से व्यवहार किया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि शिष्ट संस्थानों में सिर्फ विदेशी काम करते हों या उनका मालिकाना विदेशियों के ही हाथ में हो। दोनों तरह के संस्थानों में हमारे देशी भाई-बहन ही काम करते हैं। फिर उनके आचरण में यह आसमान-पाताल का फर्क क्यों ? इस फर्क के लिए कौन जिम्मेदार है?
इस सिलसिले में हम याद कर सकते हैं कि भारतीय प्रोफेशनल अपने देश में उतने अच्छे ढंग से काम नहीं कर पाते हैं जितने अच्छे ढंग से वे विदेशों में काम कर दिखाते हैं। वहां वे बेहद अनुशासित होते हैं, जम कर काम करते हैं और उनकी प्रतिभा उत्कृष्टतम रूप में सामने आती है। जाहिर है, यह फर्क कार्य संस्कृति का फर्क है। विदेशों में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में, संयुक्त राष्ट्र की शाखा संस्थाओं की कार्य संस्कृति बेहतर है। वहां अच्छा काम करने वालों को प्रोत्साहन मिलता है, सम्मान मिलता है और उचित पारिश्रमिक भी दिया जाता है। कामचोर, दुष्ट और भ्रष्ट के लिए गुंजाइश कम से कम है। इसके विपरीत अधिकतर भारतीय संस्थानों में अधिकारियों को सामंती वातावरण में काम करना पड़ता है, गुणों के स्थान पर चापलूसी और चमचागीरी को तरजीह जी जाती है और कोई नहीं जानता कि कब उसका अपमान हो जाएगा। हमारे सरकारी कर्मचारी सबसे ज्यादा ढीठ हैं। वे मजबूर कर दिए जाने पर ही काम करते हैं और वह भी इस तरह मानों एहसान कर रहे हों। ग्राहकों के प्रति आदर भाव उच्च पूंजी के संस्थानों में ही दिखाया ताता है, आसी बात भी नहीं है। अनेक साधारण ढाबा वाले, खोमचे वाले, छोटे दुकानदार, ऑटोरिक्शा चालक भी उतने ही, बल्कि उससे ज्यादा सभ्य और शिष्ट हो सकते हैं। यहां मामला संस्कारों का है। कई बार व्यावसायिक दबाव भी होता है। क्षेत्र विशेष के लोगों का व्यवहार अलग-अलग होता है, अत: व्यवहार के निर्धारण में सामाजिक संस्कृति की भी निश्चित भूमिका है।
बहरहाल, वे भी भारतीय हैं जो बदतमीजी में छोटे-मोटे गुंडों को पीछे छोड़ सकते हैं और वे भी भारतीय ही हैं जो एक भिन्न वातावरण में शिष्टतम व्यवहार करते हैं। इससे एक संभावना बनती है कि यदि उचित प्रशिक्षण दिया जाए, राजनीतिक-सामाजिक दबाव हो और संस्कृति का स्तर ऊंचा उठाने का सचेत अभियान चलाया जाए, तो हम अपने देश में ही एक बेहतर कार्य संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं। इसमें बहुत बड़ी जिम्मेदारी मालिकों और मैनेजरों की है। ये अपने को सुधार लें तो अधिकारियों और कर्मचारियों में खुद ब खुद परिवर्तन आता जाएगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से बैंकिंग, बीमा आदि व्यवसायों में वातावरण काफी बदला है। लेकिन अभी तक ये परिवर्तन प्रतियोगिता, शिक्षा में फैलाव. वेतन में सुधार आदि के कारण स्वाभाविक रूप से आए हैं। जरूरत इस बात की है कि इसके लिए व्यवस्थित रूप से मुहिम चलाई जाए। अगर एअरलाइंस के कर्मचारी यात्रियों के साथ शिष्ट और नम्र व्यवहार कर सकते हैं, तो रेल और बस में सफर करने वालों ने क्या अपराध किया है?
Saturday, August 16, 2008
संसद में व्याख्यान
राजकिशोर
पीड़ा का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि वह व्याख्यान का विषय बन कर रह जाए। अगर समवाय विद्वानों का हो, तो इस तथ्य की उपेक्षा भी की जा सकती है, क्योंकि विद्वानों के बारे में माना जाता है कि उनका काम जानना है -- विद्या प्राप्त करना है और समाज में उसे फैलाना है। विद्वान से कार्यकर्ता होने की आशा नहीं की जाती। यह आशा राजनीति करनेवालों से की जाती है। जो राजनीति करते हैं, उनसे विद्वान होने की आशा नहीं की जाती। उनसे जन हित में निर्णय करने और उसे कार्यान्वित करने की आशा की जाती है। यही कारण है कि पहले राजा विद्वानों को मंत्री नियुक्त करता था। मंत्री को सचिव अर्थात सलाहकार कहा जाता था। लोकतंत्र में भी मंत्री होते हैं, पर वे सलाह देने का काम नहीं करते। वे सत्ता तंत्र में हिस्सेदार होते हैं। इसलिए उन्हें स्वयं सलाह की जरूरत पड़ती है। उनके लिए सचिव नियुक्त किए जाते हैं। दुर्भाग्यवश ये सचिव सरकारी नौकर होते हैं और वैसी ही सलाह देते हैं जिसकी अपेक्षा उनसे की जाती है। निर्भयता और सुरक्षा का वातावरण न होने से सच बोलने की जरूरत कोई नहीं समझता।
भारत की संसद ने 12 अगस्त को 'सामाजिक न्याय की मांगें' विषय पर पहला हिरेन मुखर्जी व्याख्यान देने के लिए अमर्त्य सेन को आमंत्रित किया, तो इससे बेहतर फैसला नहीं हो सकता था। हिरेन मुखर्जी आजकल के कम्युनिस्टों से बहुत बेहतर नेता थे। अर्मत्य सेन की एक बड़ी चिंता न्याय और उसमें भी सामाजिक न्याय रहा है। लेकिन ऐसा लगता है कि संसद को भी विचार गोष्ठी वाला रोग लग रहा है। व्याख्यान विश्वविद्यालयों, साहित्यिक सम्मेलनों, धार्मिक आयोजनों आदि के लिए माकूल चीज हैं। संसद कोई वादविवाद सभा नहीं है। वहां ईश्वर के अस्तित्व पर चर्चा नहीं होती, क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व हो या न हो, व्यवस्थाजनित कठिनाइयों के समाधान में कोई मदद नहीं मिलती। यह काम तो राजनीति का ही है। हमारा सौभाग्य है कि अर्मत्य सेन की गति राजनीतिशास्त्र में भी है -- इसलिए कि यह भी नीतिशास्त्र का एक हिस्सा है।
राजाओं के सामने सच बोलने का साहस कम लोग दिखलाते हैं। अमर्त्य सेन की खूबी यह है कि वे न केवल सच बोलते हैं, बल्कि ऐसी विनम्रता के साथ बोलते हैं कि कोई आहत न हो। अपने इस व्याख्यान में उन्होंने दो मुख्य बातें कहीं। एक यह कि देवियो और सज्जनो, हमारे देश में नीति के स्तर पर न्याय का पालन हो रहा है, पर जनता को न्याय के दर्शन नहीं हो रहे हैं। यानी आपकी नीतियां अच्छी भी हैं, तो वे फेल हैं, क्योंकि उनके परिणाम जनता तक पहुंच नहीं रहे हैं। दूसरी बात यह कि व्यापक कुपोषण, अशिक्षा, दरिद्रता आदि की जिन चुनौतियों के कारण हमारी रातों की नींद हराम हो जानी चाहिए, उनसे हमारी राजनीतिक प्रक्रिया इस कदर अप्रभावित क्यों है। न्याय के नाम पर यह मत्स्य न्याय कब तक चलता रहेगा?
संसद का सेंट्रल हॉल शर्म से दुहरा हो गया होगा। क्षण भर के लिए वहां उपस्थित सभी लोग अपनी-अपनी संवेदनहीनता और व्यवस्था की निर्लज्जता पर स्तब्ध हो गए होंगे। एक अच्छा व्याख्यान कम से कम इतना तो करता ही है। वह हमें नैतिक भले ही न बनाए, पर हमारी रगों में नैतिकता की बिजली पल भर के लिए जरूर कौंध जाती है। उसके बाद क्या होता है, यह इस पर निर्भर है कि हम आदमी किस तरह के हैं, आदमी हैं भी या नहीं। अमर्त्य सेन को इतने अच्छे भाषण के लिए खूब-खूब धन्यवाद दिया गया। संसद के संचालक प्रसन्न हुए कि कार्यक्रम सफल रहा। भारत सरकार के प्रतिनिधि कृतज्ञ हुए कि उन्हें सेन के बहुमूल्य विचार सुनने के मिले। लेकिन जहां तक कार्य या कार्यक्रम का सवाल है, एक भी स्वर नहीं फूटा कि सेन महाशय, आपका आभार कि आपने हमें सोते से जगा दिया। अगले एक साल के बाद जब आप भारत आएंगे, तब पाएंगे कि आपका यह व्याख्यान व्यर्थ नहीं गया है। ऐसे ही एक अवसर पर राजा जनक ने बड़े दुख से कहा था कि लिखा न विधि वैदेहि विवाहू। वीरविहीन धरा मैं जानी।
राजा जनक की निराशा कुछ ही क्षणों के बाद दूर हो गई थी। भगवान राम ने शिव का शक्तिशाली धनुष तोड़ दिया था। लेकिन देश की उस सबसे ताकतवर सभा में एक ने भी धनुष भंग का संकल्प तक नहीं लिया। हर तरह से प्रासंगिक अमर्त्य सेन तीन घंटे में ही अप्रासंगिक हो गए। अगले दिन सुबह उठने के बाद उन्होंने अपने व्याख्यान की निरर्थकता का अनुभव किया होगा। दिल्ली में कहीं कुछ बदला नहीं था। सब कुछ यथावत चल रहा था। कुछ के लिए देश चमक रहा था और बाकी सबके लिए अंधेरे में मुरझा रहा था।
विचार की यह परिणति आंखों में आंसू भर देनेवाली है। जिस समाज में विचार की हैसियत अंगूठी की तरह हो जाती है, उस समाज में दिमाग लोमड़ी की तरह काम करने लगता है। यह मौका इस परिचित सत्य को एक बार फिर हमारे सामने उद्भासित करता है कि हमारे देश में विचारों की कमी नहीं है। कमी भावना की है। हमारी भावनाएं उधर नहीं जातीं जिधर जाने के लिए हमारे विचार कहते हैं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि हमारे पास, कम से कम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों के पास, विचारों के दो सेट हैं। एक सेट सार्वजनिक उपभोग के लिए और दूसरा सेट अपने व्यक्तिगत लक्ष्यों की पूर्ति के लिए।
जिसे वचन और कर्म की दूरी कहते हैं, वह हमारे स्वभाव का अंग है। इससे बचना असंभव है। यह दूरी सब काल में और सभी देशों में रही है। आदर्श जितना ऊंचा होता है, यह दूरी उतनी बढ़ जाती है। इसे मानव चरित्र की विवशता कहा जाना चाहिए। लेकिन जब यह दूरी जान-बूझ बढ़ाई जाती रहे, समाज के लिए खतरनाक हो उठे और देश के समग्र विकास में बाधा बनने लगे, तो इसे अपराध की श्रेणी में चाहिए। अमर्त्य सेन इसी वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों को संबोधित कर रहे थे।
Friday, August 15, 2008
मेरा मन
राजकिशोर
आजकल योग का बड़ा हल्ला है। ऐसे लोग भी योग के प्रचारक बन रहे हैं जिन्हें योगी नहीं कहा जा सकता। ऐसा लगता है, मानो यह एक बिजनेस ब्रांड हो गया है। सभी कहते हैं, मैं योग सिखाता हूं, पर वे खुद भी योग करते होते, तो कम से कम उनकी व्यापारिक मुद्राएं खत्म हो जातीं। वे अपने आप पर गर्व नहीं करते, विनम्रता के साथ अपना निवेदन रखते। जब मैं किसी को टेलीविजन पर योग सिखाते देखता हूं, तो मेरा खून हौले-हौले खौलने लगता है। टीवी एक व्यपारिक माध्यम है (कुछ की कोशिश है कि यह एक औद्योगिक माध्यम बन जाए)। लिंकन की मदद ली जाए, तो इसकी परिभाषा कुछ यों बनेगी - व्यापार का, व्यापार के द्वारा और व्यापार के लिए। जनता का काम मूर्ख बनना है। यह तो उसकी आदत है। अगर टीवी उसे मूर्ख न बना रहा होता, तो कोई बाबा या बॉबी उसे उलझाए रखते। अब बताओ, बालों को रेशमी और त्वचा को चिकना बनानेवाले उत्पादों के इतने विज्ञापन आते हैं कि उनमें से एक भी विज्ञापन सच्चा होता, तो बाकी सभी की दुकानें बंद हो जातीं। सभी दुकानें चल रही हैं, इसका एक ही मतलब है कि उन सभी में झूठे दावों से निकला हुआ ठगी का माल बिक रहा है। श्रीमती गीता देवी और कुमारी स्पर्धा वैसा ही दिखते रहने को अभिशप्त हैं जैसा ईश्वर ने उन्हें बनाया है।
योग से मेरी सैद्धांतिक दुश्मनी है और व्यावहारिक दुश्मनी भी। यहां मैं व्यावहारिक दुश्मनी निकाल रहा हूं। सच्चे गुरु की पहचान मैं यह मानता हूं कि वह किसी का गुरु बनने से हिचकिचाता है। शिष्य बार-बार उसके पांव पकड़ता है, तब जा कर वह पसीजता है। एक सीमा के बाद वह एडमिशन बंद कर देता है। एक पॉवर हाउस आखिर कितने गांवों को रोशन कर सकता है। सच्चा गुरु अपनी सीमाएं समझता है। वह सोचता है कि योग ने जब मुझे ही परफेक्ट नहीं बनाया, तो मेरे शिष्य को क्या बनाएगा। इसलिए बहुत संकोच के साथ वह किसी को अपना शिष्य बनाता है। इस संदर्भ में गांधी जी की याद आती है। उनका कहना था कि मेरा कोई शिष्य नहीं है। मैं ही अपना गुरु हूं और मैं ही अपना शिष्य। मेरे खयाल से आज का सच्चा योगी भी यह कहेगा। वह योग सिखाने के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय नहीं खोलेगा। दुकानदारी और शिक्षा में घोर अंतर्विरोध है।
जहां भी देखा, योग की यही परिभाषा मुझे मिली : योगः चित्तवृत्ति निरोधः। यानी योग का मतलब है चित्तवृत्तियों का निरोध। इस सिद्धांत में माना जाता है कि मन को शांत जल या दीपशिखा की तरह निष्कंप होना चाहिए। तभी वह आत्मा के सबसे निकट होती है। आत्मा विकाररहित होती है। विकार चित्त में पैदा होते हैं। विकार यानी प्रेम, घृणा, क्रोध, शोक, करुणा आदि। इस दृष्टि से सभी भावनाएं और विचार विकार हैं। योग का लक्ष्य इन सब चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। योग की सिद्धि इस बात में है कि व्यक्ति का मन खाली हो जाए -- उसमें न कोई भावना रहे, न विचार, न स्मृति, न राग, न विराग। जब तक ये चीजें रहेंगी, उसका चित्त क्षुब्ध रहेगा। घृणा मन को क्षुब्ध बनाती है, तो प्रेम भी। इसलिए दोनों से छुटकारा पाना आवश्यक है। योग इसमें मदद करता है।
क्षमा करें, मैं इस जीवन दर्शन को अपनाना नहीं चाहता। मेरी आस्था मुक्ति में नहीं, कर्म मैं है। जिस दिन मेरी चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाएगा, मैं उसे अपनी आत्मकथा का काला दिन मानूंगा। वह दिन मेरे लिए चित्त की मृत्यु का दिन होगा। योग अगर इस मृत्यु का उत्सव है, तो इस उत्सव में भाग लेने से मैं इनकार करता हूं। मैं जीवन को पूरी तरह जीना चाहता हूं। मैं प्रेम करना चाहता हूं, मैं प्रेम पाना चाहता हूं, मैं श्रद्धा करना चाहता हूं, आदर करना चाहता हूं, आदर पाना चाहता हूं। मैं अपनी स्मृति का नाश करना नहीं जानता। मैं याद रखना चाहता हूं कि कौन मेरा मित्र है, कौन मेरा हितैषी है, कौन मेरे मां-बाप थे, कौन मेरे भाई-भतीजे-भतीजियां हैं, कौन मेरा पड़ोसी है, किसके-किसके प्रति मेरी कृतज्ञता है। मैं अपनी चेतना को कोरी स्लेट नहीं बनना चाहता। मैं चाहता हूं कि उस पर खूबसूरत इबारतें अंकित होती रहें।
मैं क्या नहीं चाहता? मैं किताब पढ़ना चाहता हूं। मैं किताब लिखना चाहता हूं। मैं नृत्य देखना और संगीत सुनना चाहता हूं। मैं स्त्री सौंदर्य पर मुग्ध होना चाहता हूं। मैं धरती की यात्रा करना चाहता हूं। मैं पहाड़ देखना चाहता हूं, समुद्र देखना चाहता हूं, तरह-तरह की नदियां देखना चाहता हूं। मैं तरह-तरह के मनुष्य और समाज देखना चाहता हूं। मैं कवियों, दार्शनिकों और पागल लोगों के साथ बैठना चाहता हूं। मैं अपने देश और दुनिया का इतिहास जानना चाहता हूं। मैं इनके घटना प्रवाह में हस्तक्षेप करना चाहता हूं। मैं राजनीति करना चाहता हूं। समाज की सेवा करना चाहता हूं। मैं मृत्यु के समय गालिब की यह पंक्ति दुहराना चाहता हूं कि बहुत निकले मेरे अरमान मेरे, फिर भी कम निकले।
यह सब कैसे होगा, अगर मेरा चित्त शून्य हो जाए? योग का एकमात्र लक्ष्य यही है। यह लक्ष्य उस दौर में अच्छा लगता होगा जब जीवन में समस्याएं ही समस्याएं थीं। चारों और गरीबी थी, बीमारी थी, दुख था, पीड़ा थी। जिंदगी तब भी खूबसूरत थी, पर इस खूबसूरती का स्वाद कम ही लोग ले पाते थे। इसलिए सभी देशों में ऐसे दर्शनों का विकास हुआ जो इस दुनिया में रमने के खिलाफ थे। उनकी कल्पना ने यह मिथक गढ़ा कि इस जीवन के बाद का जीवन उत्तम होगा। इस संसार को छोड़ो, उस संसार की साधना करो। चूंकि यह संसार छोड़ा नहीं जा सकता, इसलिए इसकी ओर से आंख मूंद लो। चित्त का निरोध करो।
माफ कीजिए, यह मेरा आदर्श नहीं हो सकता। मेरे लिए जिंदगी खूबसूरत है। इसीलिए मैंने योग नहीं किया और इसीलिए मैं योग करूंगा भी नहीं।
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एक व्यक्तित्व
बाबू
राजकिशोर
उस दिन ऑफिस देर से पहुंचा था, पर अपने केबिन का दरवाजा खोलते ही मन खिल उठा। सामने की एक कुरसी पर बैठा बाबू बीड़ी फूंक रहा था। उसका हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था, लेकिन इससे उसका व्यक्तित्व और निखर आया था। बाल घने हो गए थे। दाढ़ी-मूंछ बढ़ी हुई थी। उनके बीच उसके तराशे हुए पतले होठों पर हलकी-सी, शाश्वत किस्म की मुसकान थी। चेहरे पर पहले वाली बेचैनी नहीं, एक नई किस्म की शांति थी। यह हमारा बाबू था, जो करीब पांच साल पहले अचानक दिल्ली छोड़ कर पता नहीं कहां लापता हो गया था।
उस दिन बाबू दिन भर मेरे साथ रहा। हम लोग तरह-तरह की बातें करते रहे। रात को मैंने उसे जम कर शराब पिलाई। फिर उसे एक ईसाई परिवार के यहां ले जा कर छोड़ दिया, जहां वह ठहरा हुआ था। अगले दिन उसे रात की रेल से झारखंड लौट जाना था। पांच साल से वह वहीं के एक गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ रह रहा था। बाबू के शब्दों में, 'बड़े मौज में हूं। चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जिनके यहां रहता हूं, उनका कुछ कामकाज कर देता हूं। उनके बच्चों को पढ़ा देता हूं। गांव के लोगों का भी कुछ छोटा-मोटा काम कर देता हूं। रात को ढेर-सी शराब पी कर सो जाता हूं। कभी-कभी दिन में भी एकाध गिलास ले लेता हूं।' मैं उससे कहता रहा कि बाबू, तुम अपनी प्रतिभा और ज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहे हो, अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हो, दूसरों को भी गलत रास्ता दिखा रहे हो, पर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह धीमे-धीमे हंसता रहा। जब मेरा उपदेश पूरा हो गया, तो वह बोला, 'सर, यहां प्रतिभा और ज्ञान की जरूरत किसे है? पहले में सार्थकता में खुशी खोज रहा था। अब खुशी में ही सार्थकता देख रहा हूं।'
बाबू से मिल कर जितना आनंद आया था, उससे बिछड़ते हुए उतना ही विषाद हो रहा था। काश, मैं उसके लिए कुछ कर पाता। लेकिन इतनी बड़ी दिल्ली जिसके लिए कुछ नहीं कर पाई, उसके लिए मैं क्या कर सकता था।
बाबू से मेरी मुलाकात नौ-दस साल पहले दिल्ली में ही हुई थी। लगा था कि रामविलास शर्मा या नामवर सिंह को उनकी युवावस्था में देख रहा हूं। उन दिनों वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था। उसके शोध का विषय था -- आधुनिक हिन्दी साहित्य में गृहस्थ रस। जब कोई उसे छेड़ता, तो वह कम से कम आधा घंटे तक गृहस्थ रस की अवधारणाा पर बोलता रहता। उसका कहना था कि यह श्रृंगार रस से भिन्न है, क्योंकि श्रृगार रस में प्रेम प्रेम के लिए होता है, गृहस्थ रस में प्रेम जीने के लिए होता है। बाबू कभी-कभी अखबारों में लिखता भी था। हर लेख नए ढंग का और बेहद पठनीय। उसका कहना था कि वह लेक्चरर बनेगा और सिर्फ पढ़ेगा-लिखेगा, किसी लंद-फंद में नहीं पड़ेगा।
पर लेक्चरर बनाने वालों को वह पसंद नहीं आया। एक तो उसके नाम से यह स्पष्ट नहीं होता था कि उसकी जाति क्या है। रेकॉर्ड में उसका नाम था, श्यामल कांति। वह किसी को अपनी जाति बताता भी नहीं था। दूसरे, यह भी स्पष्ट नहीं था कि वह यूपी का है या बिहार का। तीसरे, उसने किसी को गॉडफादर नहीं बनाया था। उसे विश्वास था कि उसकी योग्यता ही उसे लेक्चरर बनाएगी। जब तीन साल तक इंतजार करने के बाद किसी भी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय ने उसे नहीं पूछा, तो वह पत्रकारिता में चला आया। कुछ दिनों तक बड़े उत्साह में रहा, फिर चिड़चिड़ा होने लगा। हर दूसरे दिन बॉस से उसका झगड़ा हो जाता था। झगड़ा वह शुरू नहीं करता था। उसके बॉस उसके काम की सराहना भी करते थे। लेकिन उसके अधिकारियों को उसके जैसे सुयोग्य व्यक्ति का आॉफिस में होना ही खलता था। वह जिस अखबार में भी काम करता, अपने साथियों में बहुत लोकप्रिय हो जाता था। बॉस की इज्जत उनके पद से होती थी, बाबू की इज्ज्त उसकी योग्यता और गुणों से। सो हर तीसरे महीने वह एक नए दफ्तर में दिखाई देता।
अखबार छोड़ कर जब वह एक टीवी चैनल में गया, तो उसने वहां कमाल ही कर दिया। दूसरे महीने की तनख्वाह ले कर वह अपने हेड के पास गया और बोला -- इतने पैसे मुझसे हजम नहीं होंगे। मैं नौ घंटे की ड्यूटी में काम ही क्या करता हूं। पांच-सात छोटी-छोटी खबरें बना देता हूं। इसके लिए दस हजार काफी हैं। बाकी पैसे आप लौटा लीजिए। ऐसी ही अजीबोगरीब हरकतों के कारण वह टीवी की दुनिया में टिक नहीं सका। बाद में सुना, कहीं अनुवाद का काम कर रहा है। फिर मालूम हुआ, किसी एनजीओ में लग गया है। उसके बाद तो वह अदृश्य ही हो गया।
यह जान कर तसल्ली हुई कि अब वह परेशान नहीं है, बल्कि सुख से है। सुख ठीक-ठीक क्या होता है, मैं नहीं जानता। पर इतना जरूर है कि अगर मेरे बस में होता, तो मैं भी उसके साथ चल देता। रात को जी भर कर शराब पीने के बाद चांदनी तले धर्म, नैतिकता, जीवन, ब्रह्मांड, आदि विषयों पर बातें करने से ज्यादा मजेदार और क्या हो सकता है !
सुंदरता की कुरूपता
राजकिशोर
दिल्ली में रहनेवाला कोई भी हिन्दी लेखक दिल्ली से खुश नहीं रहा। मेरी पढ़ाई कम है, इसलिए इस समय तीन ही लेखक याद आ रहे हैं। पहले हैं, रामधारी सिंह दिनकर। दिल्ली ने उन्हें मंत्री पद छोड़ कर सब कुछ दिया। अपने संस्मरणों में उन्होंने कई जगह अफसोस जताया है कि वे किस तरह शिक्षा मंत्री बनते-बनते रह गए। मेरे अपने अनुमान से. उनके मंत्री न बन पाने का जो भी कारण रहा हो, शिक्षा मंत्री न बन पाने का यह कारण जरूर रहा होगा कि उन दिनों किसी हिन्दी भाषी को यह पद नहीं दिया जाता था। पता नहीं डर किससे था -- हिन्दीवालों से, जो जवाहरलाल नेहरू को शायद धोतीप्रसाद लगते थे, या गैर-हिन्दी भाषियों से, जिनसे भारत के पहले प्रधानमंत्री का लगाव कुछ ज्यादा ही था। बहरहाल, दिल्ली से दिनकर को घोर सैद्धांतिक असंतोष था। उनकी एक बहुत अच्छी कविता है -- भारत का यह रेशमी नगर। इसमें उन्होंने दिल्ली के रेशमी चरित्र पर बहुविधि प्रकाश डाला है -- दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी /दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है/प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला/दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है। दिल्ली की यह सुषमा दिनकर को आक्रांत करती थी। उन्हें लगता था कि 'कुछ नई आधियां' इस जादू को तोड़ कर रहेंगी। उनकी भविष्यवाणी थी -- ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर/इस राग-रंग की पूरा बर्बादी होगी/जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा/तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।
ऐसा लगता है कि तीसरी दुनिया के गरीब देशों का राशिफल कवि और दार्शनिक नहीं लिखते। सो श्रीकांत वर्मा तक आते-आते दिल्ली का चरित्र 'मगध' जैसा हो गया। श्रीकांत जी ने अपने मगध का चित्रण एक ऐसे राज्य के रूप में किया है, जहां वैभव के साथ कुचक्र है तो सत्ता के साथ विचारों की कमी। इसे उस दिल्ली का पतन काल कहा जा सकता है, जिससे आकर्षित हो कर श्रीकांत वर्मा मध्य प्रदेश के एक छोटे-से शहर से यहां आए थे। दिल्ली ने उन्हें भी खूब दिया। जितना दिया, उससे कहीं ज्यादा उन्होंने वसूल कर लिया। आखिर कांग्रेस में थे वे। जब दिल्ली कवि से नाराज हो गई, तो कवि ने बगावत कर दी और अंतिम दिनों की अपनी कविताओं में दिल्ली का सारा हाल खोल कर लिख दिया।
रघुवीर सहाय में दिनकर की उदात्तता और श्रीकांत की तुर्शी, दोनों की झांकी दिखाई पड़ती है। वे दिल्ली में रहते हुए 'धर्मयुग' में 'दिल्ली मेरा परदेस' कॉलम लिखते थे। इस स्तंभ में छपी सामग्री इसी नाम की एक किताब में संकलित है। इस शीर्षक से ही आप समझ सकते हैं कि एक कवि की जगह के रूप में दिल्ली को सहाय जी ने सबसे सटीक ढंग से समझा था। दिल्ली वाकई सभी का परदेस है। यहां की ज्यादातर आबादी उनकी है जो बाहर से आए हैं। दिल्ली पर कभी मुसलमानों का प्रभुत्व रहा होगा। वह खत्म हो गया। फिर पंजाबी हावी हुए। अब वे भी अल्पसंख्यक हैं। लेकिन दिल्ली को रघुवीर सहाय ने अपना परदेस बताया, तो वह एक बड़े अर्थ में था। इस मायने में दिल्ली सभी संवेदनशील लोगों के लिए परदेस है। लेकिन परदेस होते हुए भी यह इतनी मोहक है कि कोई अपने देस नहीं जाना चाहता। बड़े से बड़े कलावादी और बड़े से बड़ा प्रगतिशील, सभी यहीं से देश को दिशा दे रहे हैं। कवियों, लेखको और पत्रकारों की दिल्ली-अभिमुखता इतनी बढ़ गई है कि कुछ दिनों के बाद यह कहावत आम हो जाएगी -- जो जा न सका दिल्ली, उसकी उड़ेगी खिल्ली।
दिनकर के शब्दों में मैं भी कह सकता हूं कि 'मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूं।' लेकिन मैं यहां यह नहीं लिखना चाहता कि दिल्ली से मुझे क्या मिला और क्या नहीं मिला। बताना मैं यह चाहता हूं कि दिल्ली आजकल 'मेरे लिए' बड़ी तेजी से संवर रही है। जिधर से भी गुजरो, एक सुंदर-सा बोर्ड बताता है, इतनी हरियाली और कहां है मेरी दिल्ली के सिवा, मेरी दिल्ली संवर रही है, दिल्ली मेट्रो मेरी शान, कितनी खुशहाल है मेरी दिल्ली, मेरी दिल्ली कितनी साफ-सुथरी है आदि-आदि। यह सिर्फ विज्ञापन नहीं है, दिल्ली को वाकई सजाया-संवारा जा रहा है। पता नहीं कितने फ्लाईओवर बन गए है तथा कितने और बनाए जाएंगे। दिल्ली मेट्रो का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है। हवाई अड्डे को नया रूप मिलेगा। रेलवे स्टेशनों का पुनर्निर्माण किया जा रहा है। सड़कों को चौड़ा और सुचिक्कन बनाया जा रहा है। एयरकंडीशंड बसें चलने लग गई हैं। सभी जानते हैं, इस सबकी वजह क्या है। सन 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमंडलीय खेल जो होनेवाले हैं! किसी उपन्यास में पढ़ा था कि जिस दिन नवाब साहब आनेवाले होते हैं, उस दिन लखनऊ की सबसे खूबसूरत तवायफ कितनी बेताबी से अपना श्रंृगार करने लगती है और उसके रईसखाने को सजाने-संवारने में कितनी जद्दो-जहद की जाती है।
दिल्ली में कभी तवायफें अच्छी संख्या में रहती होंगी। दिल्ली ने तय किया है कि अब वह खुद तवायफ बनेगी। उसके इस सजने-संवरने में कोई सौंदर्य चेतना नहीं है। शील के बिना सौंदर्य कहां! जब भी मैं दिल्ली में कोई नई चमचमाती चीज देखता हूं, मेरी आंखें शर्म से झुक जाती हैं। मुझे लगता है, करोड़ों पुरुषों और स्त्रियों को आधे अनाज और आधे कपड़ों में रख कर यह मुटल्ली अब कुछ ज्यादा ही इतराने की तैयारी में है।
Sunday, August 10, 2008
एक लड़की ऐसी भी
मंदाकिनी
राजकिशोर
मंदाकिनी से जो एक बार मिल लेगा, वह उसे कभी भूल नहीं सकेगा। वह लड़की नहीं, किसी उपन्यास की पात्र लगती है। ऐसे पात्र जो अन्य पात्रों-कुपात्रों की भीड़ में अलग से जगमगाते हैं। कथा में उनकी भूमिका छोटी-सी होती है, पर उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा होता है कि छोटी-सी भूमिका में वह समा नहीं पाता। सीमांत पर रहते हुए भी सीमाओं की विस्तृत चौहद्दी में सांस लेनेवाले पात्रों को बौना कर देता है। मंदाकिनी ने जान-बूझ कर कभी ऐसा करना चाहा हो, यह मुझे याद नहीं। न कभी यह लगा कि वह ऐसा करना चाह सकती है। लेकिन उसकी संपूर्ण अभिव्यक्ति में कुछ ऐसा है जो उसे सुंदर और शीलयुक्त बनाता है। इन दोनों को सात्विक निखार मिलता है उसकी प्रत्युत्पन्न मति और बौद्धिक तीक्ष्णता से। उसने मुझे कई ऐसे किस्से सुनाए थे, जब उसने अपने से बड़ों को ढेर कर दिया था। एक साहब उसके साथ मनाली की सैर करना चाहते थे। मंदाकिनी ने कहा कि दिल्ली में मेरे एक लोकल गार्डियन हैं। दिल्ली से बाहर जाने के लिए मुझे उनसे अनुमति लेनी होगी। एक दूसरे साहब उसे एक टीवी चैनल में ऐंकर बना रहे थे। मंदाकिनी ने बताया कि मैं पीएचडी खत्म करने के बाद ही कोई नौकरी करूंगी। इसके लिए मुझे कम से कम तीन साल इंतजार करना होगा। सच यह था कि तब तक उसने एमए भी नहीं किया था।
वही मंदाकिन जब पिछले महीने मिली, तो तरद्दुद में थी। इसके पहले मैंने उसी दुविधा में नहीं देखा था। परेशान होने पर भी वह नहीं चाहती थी कि किसी को उसकी परेशानी की हवा लगे। एक बार उसने कहा था कि सहानुभूति प्रगट करनेवाले और उसके लिए कुछ भी उठा न रखने की कोशिश करनेवाले उसे इतने मिले थे कि अब वह उनसे कोसों दूर रहना चाहती है। उसने जिसकी भी सहानुभूति ली थी, वह कीमत वसूल करने के लिए घोड़े पर सवार हो जाता था। एक लेखक महोदय ने अपने प्रकाशक के यहां उसे प्रूफ रीडर लगवा दिया था। दस दिन के बाद ही उनका आग्रह हुआ कि दफ्तर से लौटते हुए मेरे घर आ जाया करना और एक घंटा मेरी किताबों के प्रूफ पढ़ दिया करना। मंदाकिनी बहुत खुश हुई कि उसे एक स्थापित लेखक के साथ काम करने का मौका मिलेगा और वह भाषा की बारीकियां सीख सकेगी। पहले दिन वह लेखक के घर गई, तो पता चला कि जिस उपन्यास के प्रूफ उसे पढ़ने हैं, वह अभी लिखा जाना है। महीना पूरा करने के बाद उसने यह नौकरी छोड़ दी। इससे मिलते-जुलते कारणों से उसे कई नौकरियां बीच में ही छोड़नी पड़ गई थीं। तब भी जब उसे पैसों की सख्त जरूरत थी।
चाय का प्याला आते ही वह खुल पड़ी। उसकी बात, जितना मुझे याद है, उसके शब्दों में ही सुनिए -- 'सर, पहली बार इतनी मुश्किल में पड़ी हूं। आप जानते ही हैं कि किसी को प्यार करना और उसके साथ घर बसाने की बात सोचना मेरे लिए कितना मुश्किल है। बचपन से ही मेरा शरीर पुरुषों की लोलुपता का कातर साक्षी रहा है। प्रतिरोध करना मैंने बहुत बाद में सीखा। तब से मैंने किसी को अपने शिष्ट होने का फायदा उठाने नहीं दिया। शायद मेरी किस्मत ही कुछ ऐसी है कि मुझे हर बिल में सांप ही दिखाई देता है। जो अपने को जितना स्त्री समर्थक दिखाता है, उससे मुझे उतना ही डर लगता है। लेकिन इस बार एक ऐसे लड़के से मेरा पाला पड़ा है, जिसकी मनुष्यता के आगे मैं हार गई। इतना सीधा और सज्जन है कि आज तक उसने मुझे छुआ तक नहीं है। सिनेमा हॉल के अंधेरे में भी। लेकिन मैं जानती हूं कि वह हर क्षण मेरे ही बारे में सोचता रहता है। एमबीए का आखिरी साल है। कल उसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं। मैं कोई जवाब नहीं दे पाई। सर, आप ही बताइए, मुझे क्या करना चाहिए।'
मैं क्या बताता। इस मामले में मेरे अनुभव ऐसे हैं कि सलाह देना असंभव जान पड़ता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जो पेच हैं, उनका कोई हल नहीं है। इसलिए जो भी रास्ता पकड़ो, वह कहीं न कहीं जा कर बंद हो जाता है। फिर भी, चूंकि मंदाकिनी लगातार इसरार किए जा रही थी, इसलिए हालांकि, अगर, मगर वगैरह लगाते हुए मैंने कहा,'मेरे खयाल से, तुम्हें अब सेट्ल हो जाना चाहिए। तुम भी नौकरी करती हो। एमबीए पूरा करने के बाद उसे भी अच्छी नौकरी मिल जाएगी। कब तक खुद भटकती रहोगी और दूसरों के भटकाव का कारण बनती रहोगी?' इस पर मंदाकिनी ठठा कर हंस पड़ी। बोली, 'जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की सीख है कि पुरुष को जितनी देर से हो सके, शादी करनी चाहिए और स्त्री को जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लेनी चाहिए !'
एक हफ्ते बाद एक साहित्यिक कार्यक्रम के समापन पर मंदाकिनी से मुलाकात हो गई। मंडी हाउस में पेड़ों की छांह-छांह चलते हुए मैंने पूछा, 'तो अंत में तुमने क्या फैसला किया?' वह बेहद संजीदा हो आई। फिर मुसकराते हुए कहा, 'मैंने उससे कह दिया कि मेरी शादी हो चुकी है।' अब संजीदा होने की बारी मेरी थी। उसने मुझे भारहीन करने के लक्ष्य से कहा, 'सर, मैं उससे कहती कि चलो, शादी के बिना ही साथ रहते हैं, तो वह कतई राजी नहीं होता।'