Sunday, August 26, 2007

समाजवादी आंदोलन पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में


समाजवादी आंदोलन : पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में
राजकिशोर

स्वतंत्रता से पहले समाजवाद आंदोलन नहीं, एक छोटी-सी धारा थी। यह धारा कांग्रेस की व्यापक राजनीति का एक हिस्सा थी, जिसे लोहिया ने मिरची या अदरख ग्रुप की संज्ञा दी है। इस ग्रुप के सदस्यों की खूबी यह थी कि ये सभी गांधी जी के साथ थे, पर विचारों से मार्क्सवादी थे। मार्क्सवादी समूह कांग्रेस के बाहर भी थे। वे अपने को कम्युनिस्ट कहते थे। े गांधी जी के जबरदस्त आलोचक थे। कांग्रेस के भीतर और बाहर के समाजवादियों में दो मुख्य फर्क थे। कम्युनिस्ट राष्ट्रीय से ज्यादा अंतरराष्ट्र्ीय थे और अपने अंतरराष्ट्रीय अनुरोगों के चलते राष्ट्रीय हितों को बलिदान कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया। इसके भीतर कांग्रेस के भीतर के समाजवादी पहले राष्ट्रीय थे, बाद में अंतरराष्ट्रीय। दूसरी बात यह थी इनका भारत की संस्कृति, परंपरा, इतिहास आदि से लगाव था। गांधी जी के प्रभाव से इनका मिजाज आम तौर पर लोकतांत्रिक और अहिंसक था। दूसरी ओर कम्युनिस्टों के काम-काज में सैनिक कार्यशैली का असर ज्यादा दिखाई देता था। वे 'सर्वहारा की तानाशाही' स्थापित करने के लिए बेकरार थे। साथ ही, भारतीय समाज और उसकी परंपराओं के प्रति उनका दृष्टिकोण अवमानना और उपहासपूर्ण था। ये अपने को नए युग का अग्रदूत मानते थे। इस तरह, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नाम से काम कर रहा संगठन एक ओर नए जमाने के विचार -- मार्क्सवाद -- को अपनाते हुए भी उसे गांधी जी के नेतृत्व के अधीन ही विकसित करने का प्रयास कर रहा था और दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर एक दबाव ग्रुप का काम करना चाहता था। जवाहरलाल नेहरू इस ग्रुप के सर्वोच्च, पर अनौपचारिक नेता थे। अन्य महत्वपूर्ण नेता थे, राममनोहर लोहिया, यूसुफ मेहर अली, नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि। इन सब में लोहिया अकेले नेता थे, जो समाजवाद का कोई भारतीय संस्करण विकसित करने के लिए व्याकुल थे।
यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद जिसे समाजवादी आंदोलन के नाम से जाना गया, उसका सबसे ज्यादा श्रेय राममनोहर लोहिया को जाता है।लोहिया कभी भी मार्क्सवादी नहीं रहे। मार्क्स से वे प्रभावित जरूर थे। जो समाजवादी मूलतः मार्क्सवादी थे, उन्होंने स्वतंत्रता के बाद मार्क्सवाद का परित्याग कर दिया। कोई धर्म की तरफ चला गया, किसी ने विनोबा की शरण ली और जो बचे रह गए, वे क्रमशः लुंज-पुंज होते गए और अंततः किसी काम के नहीं रहे। लोहिया ने समाजवाद के चिराग को रोशन रखा और उसमें नए-नए आयाम जोड़ने का काम किया। इसलिए समाजवादी चिंतन और समाजवादी राजनीति के नाम पर उनकी ही याद आती है -- किसी और की नहीं। इसलिए स्वातंत्र्योत्तर भारत में समाजवादी आंदोलन का मतलब लोहियावादी राजनीति का विकास और पराभव ही मानना चाहिए। बाकी सभी दावे आधारहीन हैं।
लोहिया की राजनीति के कई ध्रुव थे। वे आर्थिक विषमता के विरोधी थे। भारत में ही नहीं, दुनिया के स्तर पर भी। भारत के सामाजिक ढांचे को समझने के कोशिश करते थे तथा जाति प्रथा को नष्ट करने के हिमायती थे। स्त्रियों और शूद्रों को विशेष अवसर दे कर उनकी तीव्र उन्नति करने का प्रयत्न लोहिया का विशेश एजेंडा था। लेकिन इन सबके लिए जरूरी था कि भारत से अंग्रेजी हटे तथा लोक भाषाओं के जरिए भारत की साधारण जनता को अपनी स्वाभाविक मुखरता मिले। कांग्रेस का एकछत्र शासन रहते हुए यह सब असंभव था। इसलिए कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए सक्षम रणनीति बनाना लोहिया की एक और विशेषता थी। राज्यों में तो इस वर्चस्व को अपने जीवन काल में ही तोड़ गए थे, केंद्र में यह घटना उनकी मृत्यु के लगभग एक दशक बाद हुई। लेकिन लोहिया के जीवन काल में ही केंद्र में कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ चुकी थी और कम्युनिस्टों के सहारे टिकी हुई थी।
अपने समय के उग्रतम राष्ट्रवादी होते हुए भी लोहिया में कमाल की विश्वदृष्टि थी। उन्होंने एशियाई एकता की पहल की और इसके लिए हुए कई सम्मेलनों में हिस्सा लिया। विश्व राजनीति में वे तीसरे कैंप के पक्षधर थे, जिसका एक फूहड़ संस्करण गुटनिरपेक्ष आंदोलन के रूप में प्रगट हुआ। संयुक्त राष्ट्र का पुनर्गठन, अंतरराष्ट्रीय जमीदारी का खात्मा, विश्व भर में आय की विषमता का खात्मा, रंगभेद की समाप्ति, मानव अधिकारों का प्रतिष्ठा, दुनिया में कहीं भी आने-जाने और बसने की आजादी आदि उनके प्रिय विषय थे। यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि वे एक नई सभ्यता की खोज कर रहे थे। यह उनका दुर्भाग्य था कि उन्होंने भारत में यह काम करने की कोशिश की जो अभी अपनी सभ्यता सं ऊबा नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि मौजूदा समय में कोई भारतीय मेधा ही यह काम कर सकती थी। पश्चिमी सभ्यता कुछ ज्यादा ही आत्ममुग्ध है।
जहां तक समाजवादी राजनीति का सवाल है, उसका मूल्यांकन करना बहुत कठिन है, क्योंकि लोहिया के पास जो विराट दृष्टि थी, उसका वहन करने योग्य नेताओं और कार्यकर्ताओं का निर्माण एक बहुत भारी काम था। फिर भी लोहिया ने यह असंभव काम कर दिखाया, यद्यपि कुछ हद तक ही। आज भी, जब लोहिया का निधन हुए चालीस साल होने जा रहे हैं, उनके व्यक्तिगत प्रशंसक और भक्त काफी बड़ी संख्या में हैं। सच तो यह है कि गांधी के बाद लोहिया के ही शिष्य सबसे ज्यादा बने। इनमें सभी तरह के लोग थे - मधु लिमए जैसे विद्वान, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे संगठक, राजनारायण और मनीराम बागड़ी जैसे उपद्रवी, लाडली मोहन निगम जैसे भावुक, ओमप्रकाश दीपक जैसे चरित्रवान और अध्यवसायी,
दिनेश दासगुप्त जैसे निष्ठावान और त्यागी, मामा बालेश्वर दयाल जैसे कर्मयोगी, कर्पूरी ठाकुर जैसे जन नेता, किशन पटनायक जैसे विचारक आदि। दुख की बात यह है कि इनमें से कोई भी, लोहिया की मृत्यु के बाद, उनके उत्तराधिकार को आगे बढ़ाने की बात तो दूर, बचाने लायक भी साबित नहीं हुआ। सिर्फ किशन पटनायन ने समाजवादी आंदोलन को जारी रखने का काम किया, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपना एक अलग समूह बना लिया। अंत में स्थिति यह आ गई कि लोहिया और किशन पटनायक के बीच कोई निरंतरता देखना कठिन हो गया। इस तरह, एक शानदार जूलूस एक विक्षिप्त शवयात्रा में तब्दील हो गया। अब तो इस शवयात्रा के पथिक भी कम होते जा रहे हैं। क्या लोहिया जल्द ही भुला दिए जाएंगे?
फिर भी समाजवादी राजनीति को इस बात का श्रेय है कि उसने भारत की राजनीति और समाज में जितने मौलिक मुद्दे उठाए, उतने किसी और आंदोलन, दल या नेता ने नहीं। जाति को राजनीति के केंद्र में लाने के लिए अकसर समाजवादियों को कोसा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि समाजवाद की जाति राजनीति वह नहीं थी जो बाद की ाजनीति में देखी गई। जैसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने साम्यवाद की राजनीति का बारह बजा रखा है, वैसे ही लोहिया के अयोग्य शिष्यों ने समाजवाद की जाति दृष्टि को बहबाद कर दिया। समाजवादियों की एक आलोचना यह है कि उन्होंने 1967 में जनसंघ के साथ हाथ मिला कर उसे विश्वसनीयता प्रदान की या उसकी साख बनाई। बाद की घटनाओं को देखते हुए यह आलोचना कुछ हद तर बैध जान पड़ती है, लेकिन कुछ ही हद तक, क्योंकि 1967 तक जनसंघ का चेहरा इस कदर खूनी नहीं था और इससे भी बड़ी बात यह कि लोहिया के सामने उस समय सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस की एकछत्रता को नष्ट करना था। लोहिया के आलोचक भूल जाते हैं कि 1967 के गैरकांग्रेसवाद के प्रयोग में सीपीआई भी शामिल थी और सीपीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह की मित्र रही है जिन्होंने भाजपा के समर्थन से अपनी सरकार बनाई और चलाई।
समाजवादी आंदोलन आज नहीं है। लेकिन समाजवादी समाज की इच्छा मजबूत हुई है। आज अन्याय का उससे ज्यादा प्रतिरोध हो रहा है जितना लोहिया के जीवन काल में होता था। अन्याय के विविध प्रकारों की समझ भी बढ़ी है। दलित, स्त्रयां, आदिवासी, किसान आदि समूह न्याय के लिए व्यग्र हैं। नक्सलवाद बढ़ा है जो इस बात का चिह्न है कि गरीब और पिछड़े लोग सम्मानजनक जीवन बिताने के लिए कुछ भी करने और सहने को तैयार हैं। मेरे खयाल से, यह सर्वश्रेष्ठ माहौल है जब समाजवादी आंदोलन को पुनर्जीवित करने का गंभीर प्रयास किया जा सकता है। 000

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