Thursday, August 23, 2007

परमाणु करार और वामपंथ:

और कोई मुद्दा नहीं मिला?

राजकिशोर

यह आश्चर्य की बात है कि अपनी आधी उम्र पूरी कर लेने के बाद यूपीए की सरकार पहली बार अस्थिर हुई है और मध्यावधि चुनाव की संभावना की चर्चा होने लगी है, तो मुद्दा भारत के भीतर का नहीं है, बाहर का है। यदि ऐसा ही परमाणु करार भारत और रूस या चीन के बीच हुआ होता, तो क्या तब भी हमारे वामपंथी इस तरह उछल-कूद मना रहे होते? क्या तब भी वे कह रहे होते कि भारत की संप्रभुता का हनन हुआ है? ऐसा लगता है कि मामला परमाणु करार का उतना नहीं है जितना अमेरिका से यह करार होने का है। वामपंथी व्याख्या के अनुसार अमेरिका दुनिया का एकमात्र खलनायक है, वह विश्व साम्राज्यवाद का कर्णधार है, भूमंडलीकरण का सबसे उत्साही समर्थक है, इसलिए उसके साथ इतना महत्वपूर्ण करार कैसे किया जा सकता है? ऐसा लगता है कि यह व्यावहारिक से अधिक सैध्दांतिक विरोध है। चूंकि अमेरिका-विरोध वामपंथ का केंद्रीय मुद्दा रहा है, इसलिए वह इस बारे में कोई समझौता नहीं करना चाहता। लेकिन इस एकांतिक विरोध से हमें अमेरिका के बारे में कम, वामपंथी संकीर्णता के बारे में ज्यादा पता लगता है।

अगर अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर यह सरकार गिरी, तो मानना पड़ेगा कि भारत का वामपंथ दिमागी रूप से फुल दिवालिया हो चुका है। अमेरिका की गलत नीतियों का विरोध करना हम सभी का कर्तव्य है। लेकिन इसलिए नहीं कि वे अमेरिका की नीतियां है, बल्कि इसलिए कि वे गलत नीतियां हैं। लेकिन वामपंथी चाहते हैं कि अमेरिका से कोई रिश्ता ही न रखा जाए। यह अंधविरोध है, जिसके आधार पर कोई संगत दुनिया नहीं बनाई जा सकती। फिर भी वामपंथ या कोई भी पंथ अपनी राजनीतिक समझ और नीतियों के अनुसार चलने को स्वतंत्र है। वह यूपीए के समक्ष अपनी बात रख सकता है। पर वह किसी को बाध्य नहीं कर सकता कि उसे भी वामपंथी समझ के आधार पर चलना पड़ेगा। जहां तक समर्थन की कीमत का सवाल है, तो यह कीमत हर कोई मांगता है। लेकिन यह कीमत क्या होनी चाहिए? अगर यूपीए सरकार वामपंथ के समर्थन पर टिकी हुई है, तो इस समर्थन की ऐसी कीमत मांगनी चाहिए जिससे भारत की आम जनता का कुछ फायदा हो। सिर्फ एक परंपरागत जिद के आधार पर सरकार को अस्थिर करने का कोई कारण नहीं है। यह उचित कीमत वसूल करने का मामला नहीं, ब्लैकमेलिंग है।

बेहतर होता कि मुद्दे ये उठाए जाते कि भारत को परमाणु ऊर्जा की टेक्नोलॉजी के विकास की ओर इतना ध्यान देना चाहिए या नहीं? भारत ने अपनी सुरक्षा आवश्यकताओं भर परमाणु बम बना लिए हैं और परमाणु बम बनाने की क्षमता अर्जित कर ली है, इतना ही हमारे लिए काफी होना चाहिए। जैसा कि इस करार से भी स्पष्ट है, अमेरिका भारत की सहायता परमाणु संहार की शक्ति बढ़ाने के लिए नहीं देने जा रहा है। अमेरिका या कोई भी अन्य देश नहीं चाहेगा कि भारत की परमाणु शक्ति बढ़े। वस्तुत: हमें इसकी जरूरत भी नहीं है। यह तर्क बहुत ही बोदा है कि अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हमें परमाणु ऊर्जा के विकास पर ध्यान देना चाहिए। ठीक है, यह सहज भाव से हो जाए, तो अच्छा है। लेकिन अगर कोई यह समझता है कि हमारे परमाणु संयंत्र गांव-गांव में बिजली पहुंचाने में मदद करेंगे, तो वह मूर्खों के स्वर्ग में रह रहा है, जहां तथ्यों और आंकड़ों का कोई मूल्य नहीं होता। परमाणु बिजली सबसे मंहगी बिजली मानी जाती है। वह जितने संसाधन पैदा करती है, उससे अधिक संसाधन खुद खा जाती है। भारत कोई ऐसा अमीर नहीं हो गया है कि वह बड़े पैमाने पर परमाणु बिजली पैदा कर सके। न भारत के बिजली उपभोक्ता इतने संपन्न हैं कि वे उसकी वाजिब कीमत अदा कर सकें। फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के लिए, जो काफी अमीर हैं और जिनकी आबादी कम है, बिजली पैदा करने की यह टेक्नोलॉजी उपयुक्त हो सकती है, पर भारत, चीन, ब्राजील, मेक्सिको आदि बड़े देशों के लिए यह विनाशकारी रास्ता है। इसके लोभ और फैशन में हमें नहीं पड़ना चाहिए।

लेकिन वामपंथ और भाजपा के दिमाग इन बुनियादी प्रश्नों की तरफ नहीं जा रहे हैं, क्योंकि उनकी चिंता यह है ही नहीं कि भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जा सकता है। भाजपा चाहती है कि हमारी परमाणु शक्ति बढ़े। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में ही भारत ने दूसरा परमाणु परीक्षण किया था। कहा जा सकता है कि मनमोहन सिंह की सरकार उसी रास्ते पर चल रही है। वामपंथियों ने इस दूसरे परमाणु परीक्षण का उस समय विरोध किया था। अतएव उन्हें यह तो शोभा देता है कि वे इस परमाणु नीति का विरोध करें, जो वे नहीं कर रहे हैं, लेकिन भारत-अमेरिका करार का इतना उग्र विरोध कर वे इस परमाणु नीति को बनाए रखने पर ही जोर दे रहे हैं। वे यह मानते हैं कि भारत को परमाणु ईंधन पाने की कोशिश करनी चाहिए। यह ईंधन किसी भी अन्य देश से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन अमेरिका से नहीं।क्या इस प्रकार के लंगड़े तर्क से भारत की जनता को कायल किया जा सकता है?

भारत परमाणु नि:शस्त्रीकरण का समर्थक रहा है। उसने हमेशा पूर्ण नि:शस्त्रीकरण का पक्ष लिया है। लेकिन इस दिशा में कोई ठोस काम किया गया हो, ऐसा नहीं लगता। सच तो यह है कि जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत में यह इच्छाशक्ति ही नहीं रही कि वह विश्व का नेतृत्व करे। सवाल यह है कि जिस देश के नेता खुद अपने देश का नेतृत्व नहीं कर पा रहे हैं, वे विश्व का नेतृत्व कैसे करेंगे? इसी तरह दुनिया का लाल खेमा भी साम्राज्यवाद - विरोध के अपने अभियान को सफलता के साथ नहीं चला सका। इसलिए भारत के कम्युनिस्टों को इस समय चाहिए कि वे भारत को मजबूत बनाने का काम करें। यूपीए सरकार और देश के सामने एक वैकल्पिक कार्यक्रम रखें। एक मजबूत देश बनने के बाद ही भारत अमेरिकी दबावों का सामना कर सकेगा। जहां तक करारों और संधियों का सवाल है, वे तो कभी भी बदले या त्यागे जा सकते हैं।

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