Friday, January 28, 2011

विनायक सेन के समर्थन में

राजद्रोह बनाम देशद्रोह

राजकिशोर

बिनायक सेन को राजद्रोह के लिए उम्रकैद की सजा दी गई है। इसके औचित्य पर काफी बहस हुई है और आगे भी होती रहेगी। इस बहस में जो बात उभर कर आ रही है, वह यह है कि देशद्रोह और राजद्रोह एक नहीं हैं। रायपुर की जिस अदालत ने सेन को उम्रकैद की सजा सुनाई है, उसने भी छत्तीसगढ़ राज्य के इस आरोप को निरस्त कर दिया है कि बिनायक सेन ने भारतीय राज्य के विरुद्ध युद्ध छेड़ा है या इसमें मदद की है। इससे यह साबित होता है कि बिनायक सेन और चाहे जो हों, पर वे देशद्रोही नहीं हैं। लेकिन अदालत ने यह माना है कि वे राजद्रोह के अपराधी हैं।

राजद्रोह क्या है? हमारे कानून में इसकी परिभाषा यह है कि वह व्यक्ति राजद्रोह का अपराधी है जो देश में विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध असंतोष या अस्नेह की भावना फैला रहा हो। बिनायक सेन सरकार के विरुद्ध असंतोष या आक्रोश फैला रहे थे, इसलिए वे राजद्रोही हैं। इस निष्कर्ष को पचा पाना मुश्किल है। सच तो यह है कि जब भारत में आजाद और संप्रभु सरकार की स्थापना हुई, तभी से सरकार के विरुद्ध असंतोष की भावना का इजहार किया जा रहा है। स्वयं महात्मा गांधी नई सरकार से असंतुष्ट थे। नई-नई बनी सरकार की आलोचना करना वे नहीं चाहते थे, जो उनके अपने ही शिष्यों द्वारा ही चलाई जा रही थी। फिर भी उन्होंने तरह-तरह से अपना असंतोष प्रगट किया। पाकिस्तान को उसका 55 लाख रुपया दिलवाने के लिए तो वे अनशन पर ही बैठ गए। कम्युनिस्ट तो इसे आजादी भी मानने को तैयार नहीं थे। उनका कहना था कि नेहरू की सरकार पूँजीपतियों की सरकार है। जब तक भारत आर्थिक दृष्टि से आजाद नहीं होता, तब तक सिर्फ राजनीतिक आजादी का कोई मूल्य नहीं है। हिंदूवादी भी इस सरकार के कटु आलोचक थे, क्योंकि इससे हिन्दू राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त नहीं हो रहा था।

क्या ये सभी राजद्रोही थे?

बिहार आंदोलन के दिनों में जयप्रकाश नारायण पर यह आरोप लगाया जाता था कि वे सीआइए के एजेंट हैं और लोकतांत्रिक विधि से चुनी गई सरकारों को बरख्वास्त कराना चाहते हैं। बाद में इतिहास ने साबित किया कि जयप्रकाश ही सही थे, उनके आलोचक नहीं। आज जयप्रकाश को इंदिरा गांधी से बड़ा व्यक्तित्व माना जाता है। क्या जयप्रकाश राजद्रोही थे? सरकारी परिभाषा के अनुसार उन्हें राजद्रोही साबित करना बेहद आसान था। जयप्रकाश की इस सलाह से बहुत-से लोग चौंके भी थे कि अगर किसी राजकीय कर्मचारी को कोई ऐसा आदेश मिले जो संविधान या कानून के विरोध में है, तो कर्मचारी का कर्तव्य है कि वह उसका पालन न करे। यह स्थापना अतिवादी लग सकती है, पर इसमें दम है। कोई भी कर्मचारी सरकार का कर्मचारी नहीं होता, वह राज्य का कर्मचारी होता है। सरकार भी राज्य का ही एक अंग है। उसे कार्यपालिका कहा जाता है। राज्य के अन्य दो महत्वपूर्ण अंग हैं विधायिका और न्यायपालिका। विधायिका और न्यायपालिका के आदेश कार्यपालिका के आदेश से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसलिए जब कार्यपालिका का आदेश विधायका और न्यायपालिका के आदेश से मेल न खाता हो, तब राजकीय कर्मचारी अगर उसकी अवज्ञा करता है, तो वह सजा का नहीं, बधाई का पात्र है। अगर यह मान्यता स्वीकार कर ली जाती है, तो सभी सरकारें सचेत हो जाएँगी और वे जन विरोधी आदेश कम से कम देंगी। प्रश्न यह है, क्या इस प्रकार की अवज्ञा को राजद्रोह कहेंगे?

अगर सरकार के विरुद्ध अस्नेह फैलाना राजद्रोह की सीमा में आता है, तो समझ में नहीं आता कि विपक्ष और स्वतंत्र प्रेस की जरूरत क्या है। इनका तो काम ही सरकार के गलत कामों की आलोचना करना है। प्रेस से अगर यह आजादी छीन ली गई, तो उसका व्यक्तित्व क्या रह जाएगा? जहाँ तक विपक्ष का सवाल है, उसके नेता समय-समय पर राष्ट्रपति के पास जाते रहते हैं और सरकार को बरख्वास्त करने की माँग करते रहते हैं। क्या यह राजद्रोह है? विपक्ष विधि द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाता है। इस प्रस्ताव में कहा जाता है कि सरकार ने संसद का विश्वास खो दिया है, इसलिए उसे इस्तीफा दे देना चाहिए। क्या इसे भी राजद्रोह कहा जाएगा?

हमें यह समझने में पता नहीं कितना समय लगेगा कि सरकार और राज्य एक नहीं हैं और सरकार तथा देश एक नहीं हैं। सरकारें आती-जाती रहती हैं, राज्य बना रहता है। देश की सत्ता राज्य से भी बढ़ कर है। राज्य संविधान, कानून और फौज से चलता है, जबकि देश एक भावना है, जिसके मूल में राष्ट्रीयता का भाव होता है। माओवादी भी यह नहीं कहते कि हम एक देश के रूप में भारत का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। वे यह भी नहीं कहते कि हम सत्ता में आएँगे, तो भारतीय राज्य को विघटित कर देंगे। माओवादी सरकार की सत्ता को अपने हाथ में लेना चाहते हैं। विपक्ष के सभी दल ऐसा ही चाहते हैं। माओवादी इस आधार पर इनसे अलग हैं कि वे हिंसा के द्वारा देश की राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। यह जरूर आपत्तिजनक है, क्योंकि हिंसा के बल पर राज्य की सत्ता पर कब्जा करने की नीति से न राज्य रह जाएगा न देश। उच्छृखलता और हिंसावाद किसी भी देश के अस्तित्व के लिए सतत खतरा हैं।

कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि राजद्रोह देशभक्ति के लिए आवश्यक हो जाए। महात्मा गांधी महान देशभक्त थे। पर उन्हें राजद्रोह के अपराध में सजा दी गई थी। बाल गंगाधर तिलक को भी राजद्रोह के मुकदमे का सामना करना पड़ा था। क्या स्वतंत्र भारत में लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी नहीं हो सकते? बल्कि आज तो उनकी ज्यादा जरूरत है। जो अन्यायी और शोषणकारी व्यवस्था का विरोध करता है, उसे देशभक्त माना जाना चाहिए। उसे राजद्रोही वही कहेगा जो देश को सरकार का पर्याय मानता है। 000

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