Saturday, July 3, 2010

माओवाद

क्योंकि यह आंदोलन नहीं, युद्ध है
राजकिशोर


अभी हाल तक मैं यह सोचता था कि माओवादी कैसे अव्यावहारिक लोग हैं जो कुछ हजार (या लाख, मगर इससे क्या फर्क पड़ता है?) लोगों के बल पर भारत सरकार से युद्ध ठाने हुए हैं? पहले की बात और थी जब हिंसक क्रांतियां सफल हो जाया करती थीं। परिवहन और संवाद के साधन बहुत तीव्र नहीं थे। राजधानी के बाहर सरकार की सत्ता सीमित थी। सैनिक क्षमता का विकास नहीं हुआ था। शस्त्रास्त्र आधुनिक नहीं थे। विमान से बम बरसाने की सुविधा नहीं थी। आज की दुनिया बहुत बदल चुकी है। आज राजसत्ता जितनी मजबूत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। इसलिए सशस्त्र विद्रोह के द्वारा किसी सरकार को उखाड़ फेंकना आज बहुत मुश्किल नहीं, बल्कि असंभव है। शायद इसी आधार पर किशन पटनायक ने एक बार कहा था कि अब सशस्त्र क्रांति तब तक संभव नहीं है जब तक सेना में विभाजन न हो जाए। सेना ही सेना को परास्त कर सकती है।

इसलिए मैंने कई लेखों में माओवादियों को यह सलाह दी कि वे एक हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। भले ही कई दफा वे अर्धसैनिक बलों और पुलिस के जवानों की सामूहिक हत्या करने में सफल हो जाएं, कुछ इलाकों पर लंबे समय तक राज करते रहें, लेकिन अंतत: तो उन्हें पराजित होना ही है। माओवादियों के पास आधुनिकतम हथियारों का जितना भी बड़ा जखीरा हो, वह भारत सरकार की सामरिक शक्ति के सामने टिकनेवाला नहीं है। अभी तक हमारी सेना अपने ही देश के नागरिकों से दो-दो हाथ करने से बचती रही है, लेकिन सेना की यह हिचकिचाहट कब तक बनी रहेगी? अगर सरकार की वर्तमान कार्य नीति विफल हो जाती है, तो उसे माओवाद-प्रभावित इलाकों में फौज उतारने से कौन रोक सकता है? इसलिए माओवादियों से मेरा निवेदन रहा है कि इस गंभीर होती हुई युद्ध स्थिति को रोकने का प्रयास उन्हें करना ही चाहिए, क्योंकि यह युद्ध जब और गहरा होगा, तब माओवादियों के साथ-साथ असंख्य आदिवासी भी मौत के घाट उतार दिए जाएंगे। माओवादियों को चाहिए कि वे हिंसक संघर्ष का आत्मघाती रास्ता छोड़ कर लोकतांत्रिक तथा अहिंसक आंदोलन शुरू करें। इसका एक बहुत बड़ा फायदा यह होगा कि यह संघर्ष अभेद्य जंगलों से निकल कर खुले में आ जाएगा और तब साधारण स्त्री-पुरुष भी इसमें हिस्सा ले सकेंगे।

यह देख कर मुझे बड़ा अचरज होता रहा है कि अनेक बुद्धिजीवी भी सार्वजनिक रूप से यह घोषणा कर रहे हैं कि वे माओवादी संघर्ष का समर्थन करते हैं। हिन्दी के अखबारों में ऐसे लेख पढ़ने को मिलते रहते हैं जिनमें सरकारी कार्रवाइयों का विरोध इस तरह से किया जाता है कि वह माओवाद के समर्थन की ओर मुड़ जाता है। इस बीच यह मुहावरा काफी लोकप्रिय हो चला है कि गरीब लोगों को सताया जाएगा, तो वे हथियार उठाने को बाध्य हो जाएंगे। यह स्थापना इसलिए हास्यास्पद लगती है कि जिनके पास खाने को रोटी और पहनने को कपड़े नहीं हैं, उनके पास अन्याय का विरोध करने के लिए महंगे हथियार कहां से आ जाएंगे? क्या राइफल, रिवॉल्वर, विस्फोटक पदार्थ, मशीनगन आदि पेड़ों की डाल पर फलने लगे हैं? दुर्भाग्य से, वीर रस के इन बौद्धिक उद्घोषकों को क्रांतिकारी मान लिया जाता है, जब कि ये बुद्धिजीवी खुद त्याग और कुरबानी का उदाहरण पेश नहीं करते और उधार के खून से अपना ललाट लाल किए रहते हैं।

भारत का माओवादी साहित्य, जो बहुत ज्यादा नहीं है, पढ़ने के बाद मेरा निष्कर्ष यह बन रहा है कि यह माओवाद कोई आंदोलन नहीं, यह तो युद्ध है। आंदोलन होता, तो उसे अधिक से अधिक लोगों तक फैलाने की कोशिश होती। उसका एक मांग पत्र होता। आंदोलन के लोग चुनाव लड़ कर संसद और विधान सभाओं में जाते तथा वहां पूरी गंभीरता के साथ जन हित के मुद्दे उठाते। आंदोलन फैलता जाता, तो उसके प्रतिनिधि संसद या विधान सभा में अपनी संख्या के बल पर सरकार बनाने की भी कोशिश करते। उनका अपना चुनाव घोषणा पत्र होता, जिससे लोग अनुमान लगा सकते कि माओवादियों की सरकार बनेगी, तो वह क्या-क्या करेगी और क्या-क्या नहीं करेगी।

लेकिन माओवाद के साथ ऐसा नहीं है। देश भर में माओवाद का इतना हल्ला है, लेकिन किसी को पता नहीं कि माओवादी सत्ता में आ गए, तो उसके शासन का स्वरूप क्या होगा। नागरिकों के कौन-कौन-से अधिकार छीन लिए जाएंगे और उन्हें कौन-कौन-से नए अधिकार प्रदान किए जाएंगे। खेती और उद्योगीकरण के प्रति माओवादी सरकार का नजरिया क्या होगा। देश के वर्तमान संविधान में क्या-क्या परिवर्तन किए जाएंगे। वर्तमान व्यवस्था की कमियों और निष्ठुरताओं से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। लेकिन माओवादियों की सरकार का कार्यक्रम हमें रत्ती भर भी नहीं मालूम। ऐसे में हम किस आधार पर तय करें कि हमें उनका समर्थन करना चाहिए या नहीं?

माओवादियों को यह सब स्पष्ट करने की जरूरत इसलिए दिखाई नहीं देती कि वे कोई आंदोलन नहीं चला रहे, बल्कि युद्ध लड़ रहे हैं। युद्ध में एक उन्माद होता है। इस उन्माद में सारा ध्यान शत्रु पर होता है। किसी भी कीमत पर उसे पराजित करना है, चाहे उसका या हमारा कितना भी खून बह जाए। युद्ध की मनस्थिति में संवेदना का चरित्र बदल जाता है। जितना ज्यादा खून बहता है, उन्माद उतना ही गहरा होता जाता है। युद्ध की एक और विशेषता होती है। इसमें जीत-हार की संभावना नहीं देखी जाती। युद्ध को जारी रखना है, उसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े। जीतेंगे, तो बहुत अच्छा। राज करेंगे। हारेंगे, तब भी कोई बात नहीं। अपने मूल्यों के लिए मर मिटेंगे। कहना न होगा कि यह वही मनस्थिति है जो जिहादियों में पाई जाती है। यहां मुझे गलत न समझा जाए। मैं माओवादियों को जिहादी या आतंकवादी बताने की गुस्ताखी नहीं कर रहा हूं। सिर्फ उनकी मनस्थिति को समझने की कोशिश कर रहा हूं।

एक तरफ, सरकार युद्ध जारी किए हुए है और महायुद्ध की तैयारी कर रही है। दूसरी तरफ, माओवादी भी युद्ध की मानसिकता में हैं। इस माहौल में बुद्धि और तर्क की बात किससे की जाए? कौन सुनेगा?

03 जुलाई 2010

1 comment:

Santosh Rai said...

बहुत दिन पहले जब नक्सली हिंसा इतनी ज्यादा नहीं बढ़ी थी-बिहार के किसी जिले में एक नक्सली पकड़ा गया था। किसी पत्रकार के सवाल के जवाब देने के क्रम में उसने कहा था-"सरकार और पुलिस दोनों ही गरीबों को परेशान करतीं हैं। ऊंचे ओहदे और पैसे वाले अपराधियों का न तो सरकार कुछ बिगाड़ पाती है और न पुलिस। गरीबों को झूठे मामलों में फंसाकर उन्हें परेशान किया जाता है।"- उसने और भी बातें कहीं। मैं उसकी बातों से पूरी तरह सहमत नजर आ रहा था। यह सच है कि आज भी गरीब और असमर्थ लोगों को परेशान किया जाता है। तरह-तरह के झूठे मामलों में फंसाया जाता है।
इससे दो चीजें निकलकर सामने आती हैं पहली ये कि ऐसे गरीब या तो टूटकर बिखर जाते हैं या कहीं से संभावना दिखने के बाद अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार का प्रतिकार करते हैं। मैं माओवादी हिंसा को आंदोलन कहने के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि देश के विकास का लाभ हर किसी को मिले। किसी के साथ अन्याय, अत्याचार न हो। यह जब तक सुनिश्चित नहीं होगा माओवादी हिंसा किसी न किसी रूप में समाज में बनी रहेगी। अभी तो उनकी सीधी टक्कर सीआरपीएफ और पुलिस से है लेकिन जब वो दिल्ली पहुंचेंगे वे नेता भी मारे जाएंगे जो समाज की कुव्यवस्था के जिम्मेदार हैं।