Wednesday, March 4, 2009

भावना की राजनीति

ऐसे भी आहत होती हैं भावनाएं
राजकिशोर

यह तो शुरू से ही पता है कि भावना बुद्धि से ज्यादा मजबूत होती है। पर मैं समझता था कि लोकतंत्र, या कोई भी तंत्र, भावना के साथ-साथ बुद्धि से भी चलता है। व्यक्तिगत जीवन में भले ही भावना बुद्धि पर विजयी हो जाती हो, पर सामाजिक जीवन में बुद्धि का स्थान भावना से ऊंचा है। कारण यह है कि भावनाओं के द्वंद्व को सुलझाने का कोई वस्तुपरक तरीका नहीं है, लेकिन बुद्धि के क्षेत्र में तर्क और बहस के द्वारा किसी सुसंगत निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। कानून में भी बुद्धि को ही प्राथमिकता दी जाती है। अगर कोई अपनी प्रेमिका की बेवफाई से आहत हो कर उसकी हत्या कर देता है, तो अदालत न्याय करते समय उसकी भावनाओं पर विचार नहीं करेगी, यह देखेगी कि उसका आचरण बुद्धिसंगत था या नहीं।

देश में हम काफी लंबे समय से भावना की एक ऐसी राजनीति देख रहे हैं जिसका बुद्धि से कोई संबंध नहीं है। भावना के इसी तीव्र उभार से एक चार सौ साल पुरानी जीर्ण-शीर्ण मस्जिद गिरा दी गई। इस तरह समाज के एक वर्ग की भावना तो तृप्त हो गई, पर इससे दूसरे वर्ग की जो भावनाएं आहत हुईं, उन पर लगाने के लिए कोई मरहम अभी तक खोजा नहीं जा सका है। मामला सोलह साल से अदालत में है, पर वह भी अभी तक कोई सुकून नहीं दे पाया है। बीच में भावना की यह राजनीति कुछ मंद हो गई थी, पर इधर भावनाओं में फिर उभार आने लगा है। हाल ही में मंगलूर की एक पेयशाला में स्त्रियों के जाने से राम के कुछ स्वनियुक्त सैनिकों की भावनाएं आहत हो गईं, तो वे हाथ-पैर चलाने वहां पहुंच गए। इससे पब प्रेमियों की भावनाएं आहत हुईं और उन्होंने गुलाबी चड्ढियों का अभियान शुरू कर दिया। वास्तव में कितनी चड्ढियां भेजी गईं, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। कुछ लोगों ने पहले से ही हल्ला मचाना शुरू कर दिया था कि इस बार भी वेलेंटाइन डे मनाया गया, तो उनकी भावनाएं आहत होंगी और अपनी आहत भावनाओं को शांत करने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि इससे किस-किसकी भावनाएं आहत होंगी।

उन्हीं दिनों तर्क और भावना का एक और द्वंद्व देखने को मिला। कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन में एक लेख छपा जिसमें कहा गया था कि हम सभी स्त्री-पुरुषों का सम्मान करते हैं, पर अगर उनके विश्वास अतार्किक या अत्याचारी हों, तो हमसे यह उम्मीद न की जाए कि हम इन विश्वासों का भी सम्मान करेंगे। इस लेख में ईसाई और मुस्लिम मत की भी कुछ आलोचना की गई थी। इससे समाज के एक वर्ग की भावनाएं आहत हो गईं। स्टेट्समैन के संपादक को यह मौका देने के बजाय कि वे अपना मत के समर्थन में तथ्य और तर्क दें, उन्हें, मुद्रक और प्रकाशक के साथ-साथ, तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया। आश्चर्य यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमारे अनेक विद्वान और लेखक चित्रकार हुसेन का पक्ष तो लेते हैं, पर स्टेट्समैन के इसी मूल अधिकार की रक्षा के लिए दस-बीस सेकुलर हाथ भी नहीं उठे। इससे मेरी भावनाएं बुरी तरह आहत हुईं। मेरे मन में यह सवाल उठने लगा कि भावना वास्तव में होती भी है कि भावना के नाम पर सिर्फ कुश्तियां हो रही हैं। हमारे देश के लोग इतने ही भावनामय हैं या हो गए हैं, तो देश में इतना दुख और अन्याय क्यों है? जहां भावना को वास्तव में आहत होना चाहिए, वहां ऐसा क्यों नहीं होता? इस सिलसिले में मुझे अपनी आहत भावनाओं का खयाल आया तो आता चला गया। मेरे मन में आया कि मुझे भी अपनी आहत भावनाओं का कुछ करना चाहिए। ज्यादा कुछ नहीं कर सकता, तो उनकी सूची बना कर जनता जनार्दन के समक्ष पेश तो कर ही सकता हूं।

क्या बताऊं, सुबह उठते ही मेरी भावनाओं के आहत होने का सिलसिला शुरू हो जाता है। दिन की पहली चाय के साथ अखबारों का बंडल जब बिस्तर पर धमाक से गिरता है, तो तुरंत खयाल आता है कि सुबह-सवेरे मेरे घर के दरवाजे पर अखबार पहुंचाने के लिए लिए कितने लोगों को रात भर काम करना पड़ा होगा। सबसे ज्यादा अफसोस होता है अपने हॉकर पर। वह बेचारा चार-पांच बजे तड़के उठा होगा, अखबारों के वितरण केंद्र पर गया होगा, वहां से अखबार उठाए होंगे और अपनी साइकिल पर रख कर उन्हें घर-घर पहुंचाया होगा। यहां तक कि उसे साप्ताहिक अवकाश भी नहीं मिलता, जिसे दुनिया भर में मजदूरों का मूल अधिकार माना जाता है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि अखबार सुबह के बजाय शाम को छपें और बंटें? रविवार को तो अखबारवालों को भी छुट्टी मनानी चाहिए। अखबार पुलिस, दमकल और अस्पताल की तरह कोई अत्यंत आवश्यक सेवा नहीं है जिसके बिना कुछ बिगड़ जाएगा।

अखबार पढ़ने लगता हूं, तो कम से कम दो चीजें मुझे आहत करती हैं। पहली चीज हत्या और आत्महत्या के समाचार हैं। सभी हत्याओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन ऐसी हत्या-निरोधक संस्कृति तो बनाई ही जा सकती है जिसमें रोज इतनी मारकाट न हो। आत्महत्याओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे व्यक्ति की नहीं, समाज की विफलता के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। व्यवस्था को सुधार कर ये आत्महत्याएं भी रोकी जा सकती हैं। जो दूसरी चीज मेरी भावनाओं को आहत करती है, वह है देशी-विदेशी सुंदरियों की सुरुचिहीन तसवीरें। यह सोच कर मेरी आंखों में आंसू आ जाते हैं कि भगवान द्वारा दिए गए सौंदर्य के अद्भुत उपहार का कैसा भोंडा इस्तेमाल करने के लिए इन्हें प्रेरित और विवश किया जा रहा है। मेरी बेटी को अगर इस रूप में अपने को पेश करना पड़ गया, तो मुझे बहुत पछतावा होगा कि वह पैदा ही क्यों हुई।

जब तैयार हो कर काम पर निकलता हूं, तो मेरी भावनाओं का आहत होना फिर शुरू हो जाता है। जब अपनी सोसायटी के सफाईकर्ता पर नजर उठती है, तो शर्मशार हो जाता हूं। वह दिन भर घर-घर से कूड़ा-कचरा जमा करता है, सोसायटी की सीढ़ियों और सड़कों को झाड़ू से बुहारता है और बदले में उसे महीने में तीन-चार हजार भी नहीं मिलते। यही दुर्दशा चौकीदारों की है, जो सोसायटी में रहनेवाले परिवारों की सुरक्षा का खयाल रखते हैं, पर उनके जीवन में किसी तरह की सुरक्षा नहीं है। यहां तक कि उनकी नौकरी भी स्थायी नहीं है। सोसायटी से बाहर आने पर गली में कई ऐसे बच्चे मिलते हैं जिन्हें देख कर कुपोषण की राष्ट्रीय समस्या का ध्यान आता है। कुछ ऐसे बच्चे भी दिखाई देते हैं, जिन्हें उस समय स्कूल में होना चाहिए था। वे कामवालियां भी दिखाई देती हैं जो एक ही दिन में कई घरों की साफ-सफाई, चौका-बरतन आदि करती हैं और हमारा जीवन आसान बनाती हैं, फिर भी जिन्हें देख कर लगता नहीं है कि इससे होनेवाली आमदनी से उनके परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता होगा।

सड़क पर आने के बाद दाएं-बाएं कचरे के ढेर मेरी भावनाओं को आहत करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि पूरे शहर के लिए एक ही दिल्ली नगर निगम है, पर कुछ इलाकों की सड़कें साफ-सुथरी होती हैं और कुछ इलाकों की सड़कें टूटी-फूटी और गंदी। यह भेदभाव क्यों? फिर मिलती हैं सिगरेट और गुटके की एक के बाद एक चार दुकानें। इन्हें देखते ही गुस्सा आ जाता है कि हमारा स्वास्थ्य मंत्री अपना काम क्यों नहीं कर रहा है। वह सिगरेट और गुटकों के कारखाने बंद नहीं करा सकता, जो उसका संबैधानिक दायित्व है, तो कम से कम इतना तो कर ही सकता है कि इन जहरीले पदार्थों की दो दुकानों के बीच कम से कम एक किलोमीटर का फासला रखवाए। दफ्तर जाने के लिए ऑटोरिक्शा लेने की कोशिश करता हूं, तो पांच में से चार ड्राइवर मीटर पर चलने से इनकार कर देते हैं। कानून की इस खुली अवहेलना पर मेरी भावनाएं बुरी तरह आहत होती हैं। तब तो होती ही हैं जब मैं देखता हूं कि पांच-पांच, छह-छह लाख की बड़ी-बड़ी गाड़ियों में लोग अकेले भागे जा रहे हैं और उनसे दो या तीन गुना बड़े आकार की बसों में सौ-सौ आदमी-औरतें ठुंसे हुए हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब सड़क पर हफ्तों से नहाने के अवसर से वंचित, दीन-हीन चहरे कुछ बेचते हुए या सीधे भीख मांगते हुए न दिखाई पड़ते हों। फुटपाथ पर लेटी हुई ऐसी मानव आकृतियां भी दिखाई देती रहती हैं जिनका अहस्ताक्षरित बयान यह है कि इस दुनिया में हमारे लिए कोई जगह नहीं है।

क्या-क्या बयान करूं। रास्ते में कई आलीशान होटल पड़ते हैं। इनके एक कमरे का एक दिन का किराया आठ-दस हजार रुपए है। यह याद आता है, तो मेरा खून खौलने लगता है। तॉल्सतॉय ने अपनी एक कहानी के जरिए पूछा था, आदमी को कितनी जमीन छाहिए? इन स्वर्ग-तुल्य होटलों को देख कर मेरे मन में प्रश्न उठता है, आदमी को पराए शहर में ठहरने के लिए कितनी सुख-सुविधाएं चाहिए? मेरा बस चले, तो इन होटलों को रातों-रात गिरा कर इनकी जगह छोटी-छोटी धर्मशालाएं बनावा दूं, जहां पचास रुपए में एक छोटा-सा कमरा मिल सके। रास्ते में एक सरकारी अस्पताल भी पड़ता है। उसमें दाखिल रोगियों के हालात की कल्पना कर मन अधीर हो जाता है। कभी-कभी दफ्तर जाने का रास्ता रास्ता कुछ देर के लिए बंद कर दिया जाता है, क्योंकि कोई वीआइपी गुजर रहा होता है।

दफ्तर पहुंचता हूं, तो भावनाएं शांत नहीं होतीं। वरन उनके आहत होने के कई और कारण निकल आते हैं। सबसे पहले निगाह पड़ती है सुरक्षा गार्ड पर। दफ्तर के भीतर काम करनेवाले हम लोगों की ड्यूटी सात-आठ घंटे की होती है, पर गार्ड की ड्यूटी बारह घंटे की होती है। हमें साल में तरह-तरह की छुट्टी मिलती है, पर उसके लिए हफ्ते में एक छुट्टी छोड़ कर कोई और छुट्टी नहीं है। उसकी तनखा हम सबसे कम है -- बत्तीस सौ रुपए। दफ्तर में कुछ लोगों को पांच हजार रुपए महीना मिलता है, तो कुछ को पचास हजार। क्या उनकी योग्यताओं में इतना ज्यादा अंतर है? अगर सचमुच ऐसा है, तो बाकी लोगों को अपनी योग्यता बढ़ाने का अवसर क्यों नहीं मिलता? जब वे कम उम्र के थे, उस समय उन्हें यह अवसर क्यों नहीं मिला?

शाम को घर लौटता हूं, तो जगह-जगह जाम मिलता है। गाड़ियां ज्यादा हैं, सड़कें कम। क्या यही वह शहरी जीवन है जिसका स्वप्न हमारे वास्तुकारों ने देखा होगा? समझ में नहीं आता कि इस शहर को कौन चला रहा है या कोई चला भी रहा है या नहीं? समय बरबाद होने का खयाल आते ही भावनाएं मुरझाने लगती हैं। लौटने के रास्ते में एक वेश्यालय पड़ता है। फुटपाथ पर हमारी दर्जनों मां-बहनें अपनी अस्मत का सौदा करने के लिए इंतजार करती मिलती हैं। उनकी ओर देखा नहीं जाता। उनके बारे में सोचा तक नहीं जाता। दस साल से यही सिलसिला चला आता है। दिल्ली राज्य की मुख्यमंत्री एक महिला हैं। देश की सबसे बड़ी पार्टी की अध्यक्ष एक महिला है। भारत की राष्ट्रपति एक महिला हैं। तीनों दिल्ली में ही रहती हैं। क्या उन्हें अभागी औरतों के इस टोले के बारे में कुछ भी नहीं पता? क्या उनके चर और अनुचर उन्हें कुछ भी नहीं बताते? या, वे इस तरह की खबरें सुनना ही नहीं चाहते? यह सिद्धांत ठीक नहीं है कि औरतों की दुर्दशा को समाप्त करने के लिए औरतों को ही सक्रिय होना चाहिए। मर्दों की आंखों में भी शर्म दिखाई पड़नी चाहिए और उनकी भुजाएं भी फड़फड़ानी चाहिए। यह सब सोचते हुए घर पहुंचता हूं और चाय पी चुकने के बाद टीवी खोलता हूं, तो भावनाएं एक बार फिर आहत होने लगती हैं। सोते समय यही प्रश्न दिमाग में मंडराता रहता है कि इस बेईमान, बदमाश, अपराधी, फूहड़ और विज्ञापनी दुनिया में रहने के लिए हमें कौन बाध्य कर रहा है? 000

2 comments:

Unknown said...

वाह राजकि’ाोर जी! आप यह सब इतने भोलेपन से लिख रहे हैं जैसे आप नें यह सब पहली बार देखा हो! आप तो राजकुमार सिद्धार्थ की याद दिलाते हैं। मगर सिद्धार्थ ने जब जाना कि इस धरा पर सब तरफ दुख ही दुख है तो वे विचलित हो उठे। घर’-बार छोड़ कर दुख से मुक्ति की खोज में निकल पड़े थे। मगर आप ? आप इस दुख को इतने भोलेपन से देखने और दिखाने के बहाने से कहना क्या चाहते हैं ? क्या यह भावना का प्र’न है? क्या इसके कारणों और निराकरणों का विचार अभी खोजा बाकी हैं? क्या अब तक का सारा सोचा विचारा गया सत्ता’-विमर्’ा इतना व्यर्थ हो चुका है कि अब हमें एक बार फिर किसी अवोध सिद्धार्थ वाली मनोद’ाा में Wिफर से सोचने की प्रकिzया में लौटना पडे+गा ? मुझे लगता है कि जिन सवालों के राजनीतिक और वर्गीय परिप्रेक्ष्य पहले ही जाने ओैर पहचाने जा चुके हैं, उन्हें ऐसी भावुक भंगिमाओं में फिWर से सरल भावुकता के धरातल पर निहायत मानवीय दया’-भाव के दायरों में ला कर विचार का मुद~दा बनाने का जो एक नया भाववाद सामने लाया जा रहा है, उसके निहितार्थेां को समझना मु’िकल नहीं है। मु’िक्ल है तो यह कि आप भी इस भावुकता को अपना रहे हैं। यदि आप मानते हैं कि किसी समस्या का समाधान वाzzैद्धिक धरातल पर ही हो सकता है तो क्या यह सही नहीं है कि जो प्र’न अंतत: राजनीतिक और सत्तामूलक अभिप्रायों से संदर्भित है, उसे इतना सरल बनाना सत्ता की राजनीति करने जैसा ही है? आप जैसे दयावानों के साथ खतरा यह है कि इन प्र’नों का राजनीतिक समाधान खोजने की प्रकिzयाओं के बरक्स कुछ आध्यात्मिक किस्म की मानवतावादी सुधारवादी भावुकताओं का वातावरण बनाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि पूंजवीवादी समाजों को ऐसे दयावानों की बड़ी जरूरत होता है।

Unknown said...

ह राजकि’ाोर जी! आप यह सब इतने भोलेपन से लिख रहे हैं जैसे आप नें यह सब पहली बार देखा हो! आप तो राजकुमार सिद्धार्थ की याद दिलाते हैं। मगर सिद्धार्थ ने जब जाना कि इस धरा पर सब तरफ दुख ही दुख है तो वे विचलित हो उठे। घर’-बार छोड़ कर दुख से मुक्ति की खोज में निकल पड़े थे। मगर आप ? आप इस दुख को इतने भोलेपन से देखने और दिखाने के बहाने से कहना क्या चाहते हैं ? क्या यह भावना का प्र’न है? क्या इसके कारणों और निराकरणों का विचार अभी खोजा बाकी हैं? क्या अब तक का सारा सोचा विचारा गया सत्ता’-विमर्’ा इतना व्यर्थ हो चुका है कि अब हमें एक बार फिर किसी अवोध सिद्धार्थ वाली मनोद’ाा में Wिफर से सोचने की प्रकिzया में लौटना पडे+गा ? मुझे लगता है कि जिन सवालों के राजनीतिक और वर्गीय परिप्रेक्ष्य पहले ही जाने ओैर पहचाने जा चुके हैं, उन्हें ऐसी भावुक भंगिमाओं में फिWर से सरल भावुकता के धरातल पर निहायत मानवीय दया’-भाव के दायरों में ला कर विचार का मुद~दा बनाने का जो एक नया भाववाद सामने लाया जा रहा है, उसके निहितार्थेां को समझना मु’िकल नहीं है। मु’िक्ल है तो यह कि आप भी इस भावुकता को अपना रहे हैं। यदि आप मानते हैं कि किसी समस्या का समाधान वाzzैद्धिक धरातल पर ही हो सकता है तो क्या यह सही नहीं है कि जो प्र’न अंतत: राजनीतिक और सत्तामूलक अभिप्रायों से संदर्भित है, उसे इतना सरल बनाना सत्ता की राजनीति करने जैसा ही है? आप जैसे दयावानों के साथ खतरा यह है कि इन प्र’नों का राजनीतिक समाधान खोजने की प्रकिzयाओं के बरक्स कुछ आध्यात्मिक किस्म की मानवतावादी सुधारवादी भावुकताओं का वातावरण बनाते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि पूंजवीवादी समाजों को ऐसे दयावानों की बड़ी जरूरत होता है।