Saturday, May 10, 2008

माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही

जिनका गुनहगार हूं मैं
राजकिशोर


दुनिया भर में जिस व्यक्ति का मैं सबसे ज्यादा गुनहगार हूं, वह है मेरी मां। जिस स्त्री ने मेरे सारे नखरे उठाए, जिसने मुझे सबसे ज्यादा भरोसा दिया, जिसने मुझसे कभी कोई शिकायत नहीं की, उसे मैंने कोई सुख नहीं दिया। दुख शायद कई दिए। अब जब वह नहीं है, मेरा हृदय उसके लिए जार-जार रोता है।

लगभग साल भर से अकसर रात को सपने के वक्त या सपने में मेरी मां, मेरे पिता, मेरी भौजी, मेरे बड़े भाई किसी न किसी दृश्य में मेरे सामने आ उपस्थित होते हैं। बड़े भाई की मृत्यु पिछले साल ही हुई। वे मेरे पूर्व पारिवारिक जीवन की एकमात्र जीवित कड़ी थे। शायद उनकी मृत्यु के बाद से ही पुराने पारिवारिक दृश्य बार-बार मेरी स्मृति में या मेरे स्वप्न जगत में मुझे घेर ले रहे हैं। उस समय न कोई विषाद होता है, न कोई आनंद। बस मैं उस दृश्यावली का सामान्य अंग बना अपने अतीत को जीता रहता हूं। लेकिन आंख खुलने पर या वर्तमान में लौटने पर मुझे अपनी मां और पिता दोनों की बहुत याद आती है । यह ग्लानि घेर लेती है कि मैंने उनके साथ बहुत अन्याय किया। खासकर मां के साथ, जिसने मुझे अपने ढंग से बहुत प्यार दिया।

परिश्रमी तो मेरे पिता भी थे, पर मां के मेहनती होने को मैं अधिक गाढ़ी स्याही से रेखांकित करना चाहता हूं। हमारे समुदाय में स्त्रियों का मुख्य काम होता है खाना बनाना, कपड़े धोना और घर को साफ-सुथरा रखना। शुरू में यह सब करते हुए मैंने अपनी मां को कभी नहीं देखा, क्योंकि जब मैंने होश संभाला, मेरी ममतामयी भौजी घर का चार्ज ले चुकी थीं। मां मेरे और मेरे छोटे भाई और बहन के कपड़े जरूर धो देती थी। लेकिन बाद में जब पारिवारिक कलह के कारण मेरे बड़े भाई ने अपनी अलग इकाई बना ली, तो मां ने गजब जीवट का परिचय दिया। वह हम सबके लिए खाना बनाती थी, कपड़े भी धोती थी और दुकानदारी में पिताजी के साथ सहयोग भी करती थी। एक पल के लिए भी बेकार बैठना उसे गवारा नहीं था।

मैं उन दिनों आधुनिक साहित्य पढ़-पढ़ कर ऐसा उल्लू का पट्ठा हो चुका था कि एक छोटी-सी बात पर नाराज हो कर मैंने घर छोड़ दिया और अलग अकेले रहने लगा। वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलेगा जब करीब ग्यारह बजे अपने दो-चार कपड़े और कुछ किताबें एक छोटे-से सूटकेस में भर कर मैं घर छोड़ रहा था। पिताजी देख रहे थे, मां देख रही थी, पर किसी ने भी मुझे नहीं रोका। यह दुख अभी तक सालता है। वैसे तो थोड़ा बड़ा होते ही मुझे यह एहसास होने लगा था कि मेरा कोई नहीं है, पर उस घटना के बाद इसका फैसला भी हो गया।

दरअसल, मुझे न तो पिता पसंद थे, न मां। वे दोनों बहुत ही साधारण भारतीय थे। उन्हें न तो बच्चों से लाड़-प्यार करना आता था और न उनकी देखभाल करना। घर-द्वार सजाने में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी। कपड़े फट जाने पर सिल-सिल कर पहने जाते थे -- जब तक वे एकदम खत्म न हो जाएं। गरीबी थी, पर उससे ज्यादा मानसिक गरीबी थी। एक तरह से मैं अपने आप ही पला, जैसे सड़क पर पैदा हो जानेवाले पिल्ले पल जाते हैं या मोटरगाड़ियों के रास्ते के किनारे के पौधे पेड़ होते जाते हैं। इसीलिए मेरे मानसिक ढांचे में काफी खुरदरापन है। प्रेम पाने की इच्छा है, प्रेम देने की इच्छा है, भावुकता भी है, लेकिन कुछ अक्खड़पन, कुछ लापरवाही, कुछ व्यंग्यात्मकता और कुछ गुस्सा भी है। आज मैं इस बात की सच्चाई को अच्छी तरह समझता हूं कि जिसे बचपन में दुलार नहीं मिला, उसका व्यक्तित्व जीवन भर के लिए कुंठित हो जाता है। मैं बहुत मुस्तैदी से इस कुंठाग्रस्तता से लड़ता हूं, फिर भी पार नहीं पाता।

दरअसल, मेरे कॉलेज जाने तक मेरे शेष परिवार और मेरे बीच एक भयानक खाई उभर आई थी। मैं पढ़ते-लिखते हुए मध्यवर्गीय जीवन के सपने देख रहा था और इसमें मेरे माता-पिता की कोई भूमिका नहीं थी। मैं एक नई भाषा सीख रहा था और वे भाषा और संस्कृति की दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे। वे न अखबार पढ़ते थे न रेडियो सुनते थे। मां पिता की तुलना में और भी पिछड़ी हुई थी। इस तरह के तथ्य मध्यवर्गीय चाहतों वाले मेरे मन में हीन भावना भरते थे। जब से उसे देखने की मुझे याद है, वह बूढ़ी ही थी और स्त्रीत्व की कोई चमक उसमें नहीं थी। शुरू में उसके प्रति मेरे मन में बहुत चाव था। जब चांद से लाए हुए पत्थर के टुकड़ों में से एक टुकड़े का प्रदर्शन कोलकाता में किया जा रहा था, मैं उसे अपने साथ वह टुकड़ा दिखाने ले गया था। लेकिन धीरे-धीरे मैं उससे उदासीन होने लगा, हालांकि वह अपने ढंग से मेरी चिंता करती रही। मैं जब घर के पास एक छोटा-सा कमरा ले कर रहने लगा, तो उसने ग्वाले से कह कर मेरे लिए रोज एक पाव दूध का इंतजाम कर दिया था।

विवाह होने के बाद मुझमें थोड़ी पारिवारिकता आई। मैंने दो कमरों का एक फ्लैट लिया और उसमें रहने के लिए मां-पिता और छोटे भाई-बहन को आमंत्रित किया। वे कुछ दिन कितने सुंदर थे। लेकिन एक बार पिताजी द्वारा एक मामूली-सी घटना के बाद, जो हिन्दू परिवारों के लिए सामान्य-सी बात है, पर उन दिनों मेरे सिर पर लोहिया सवार होने के कारण मैंने उन्हें कहला दिया कि जब तक वे मेरी पत्नी से माफी नहीं मांगते, अब वे मेरे घर में खाना नहीं खा सकते। माफी मांगना मेरे घरेलू परिवेश में एक सर्वथा नई बात थी, जिसका अर्थ समझ या समझा पाना भी मुश्किल था। सो पिताजी अलग हो गए। उनके साथ ही दूसरे सदस्य भी उनके साथ हो लिए। मैंने उस समय मुक्ति की सांस ली थी, पर अब लगता है कि वह मेरी हृदयहीनता थी। जवानी में आदमी बहुत-से ऐसे काम करता है जिनके अनुपयुक्त होने का पछतावा बाद में होता है जब प्रौढ़ता आती है। ऐसे कितने ही पछतावे मेरे सीने में दफन हैं। कभी-कभी वे कब्र से निकलते हैं और रुला देते हैं।

बाद में मां से मेरा संपर्क बहुत कम रहा। एक बार जब वह बीमार पड़ी, मैं उसे अपने घर ले आया और उसका इलाज कराया। एक बार जब वह गांव में मेरे मामा के साथ रह रही थी, 'रविवार' के लिए किसी रिपोर्टिंग के सिलसिले में मेरा उत्तर प्रदेश जाना हुआ और मैं जा कर उससे मिल आया। मां को लकवा मार गया था। कुछ घंटे उसके साथ बैठ कर चलने को हुआ, तो मैंने उसकी मुट्ठी में दो सौ रुपए रख दिए था। वैसा आनंद न उसके पहले मिला था. न उसके बाद मिला। कोलकाता में जब उसे हृदयाघात हुआ, यह मैं ही था जिसके प्रयास से उसे अस्पताल में भरती कराया गया। अस्पताल में उसकी सुश्रूषा के लिए मैंने एक नर्स रख दी थी। उन दिनों मेरी पत्नी ने भी मां की बहुत सेवा की। यह मेरे लिए चिरंतन अफसोस की बात रहेगी कि जिस दिन उसका देहांत हुआ, मेरे दफ्तर, आनंद बाजार पत्रिका समूह, में अचानक हड़ताल हो गई थी और मैं दफ्तर के लिए घर से निकला, तो दोस्तों-सहकर्मियों के साथ गप-शप करते हुए काफी समय बीत गया और मैं देर रात गए घर लौटा। उन दिनों मोबााइल नहीं था, नहीं तो इतनी बडा अघटन नहीं होता कि मैं मां के शवदाह में शामिल न हो सका। यह सारा दायित्व मेरी पत्नी ने लगभग अकेले संभाला।

जब से मैं भारत के हिन्दी प्रदेश में आधुनिकता की सीमाएं समझने लगा, तभी से मेरी पिछली गलतियां बुरी तरह मुझे हांट कर रही हैं। मैं परिवार में एकमात्र उच्च शिक्षित लड़का था। मुझे संयुक्त परिवार को ढहने से रोकने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। मुझे अपने मां-बाप की, खासकर बूढ़ी मां की, सेवा और मदद करनी चाहिए थी। लेकिन यह मैंने नहीं किया। उन दिनों मेरी जो आमदनी थी, वह खुद मेरे लिए ही काफी नहीं थी। लेकिन यह मुख्य कारण नहीं था। मां से मेरा मन उचट चुका था। मैं उसकी दुनिया से निकल आया था और अपनी दुनिया में पूरी तरह रम चुका था। मुझे यह याद भी नहीं रहता था कि मेरी कोई मां भी है। उसे शायद याद आता रहता हो, पर वह क्या कर सकती थी? अगर कुछ कर सकती होती, तब भी उसने नहीं किया। लेकिन इसमें सारा दोष मैं अपना ही मानता हूं (अब मानता हूं; उन दिनों दोष की बात दिमाग में भी नहीं आती थी)। यह एक ऐसा पाप था, जिसकी कोई माफी नहीं है। मैं माफी मांगना भी नहीं चाहता -- मांगूं भी तो किससे। मैं अपने हृदयस्थल में अपने उस पाप को ढोना चाहता हूं, ताकि उसके अनुताप की रोशनी में अपने सत्यों का लगातार संशोधन और परिमार्जन कर सकूं।

मुझे इस बात का एहसास है कि मेरे साथ जो बीती है, वह सिर्फ मेरी कहानी नहीं है। वह लाखों (शायद करोड़ांें) लोगों की बदबूदार कहानी है। निम्न वर्ग या निम्न-मध्य वर्ग से आनेवाले नौजवान जब थोड़ी-बहुत सफलता अर्जित कर लेते हैं, तो उनके पुराने पारिवारिक रिश्ते धूमिल होने लगते हैं। इनमें सबसे ज्यादा उपेक्षा मां की होती है। वह सिर्फ देती ही देती जाती है, पाती कुछ नहीं है। यहां तक कि कृतज्ञता का स्वीकार भी नहीं। मैं मां को ले कर भावुकता का वह वातावरण नहीं बनाना चाहता जो हिन्दी कविता में एक दशक से बना हुआ है (इसके पहले यह दर्जा पिता को मिला हुआ था)। लेकिन मां-बेटे या मां-बेटी का रिश्ता एक अद्भुत और अनन्य रिश्ता है। इस रिश्ते का सम्मान करना जो नहीं सीख पाया, वह थोड़ा कम आदमी है। मेरी मां जैसी भी रही हो, 'साकेत' में मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति मेरे सीने में खुदी हुई है कि माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही। मैं कुपुत्र साबित हुआ, मेरा यह दुख कोई भी चीज कम नहीं कर सकती। उसका प्रायश्चित यही है, अगर कोई प्रायश्चित हो सकता है, कि मैं एक ऐसी संस्कृति की रचना करने में अपने को होम कर दूं जिसमें मां का स्थान जीवन के शीर्ष पर होता है।

जो अपनी मां को प्यार नहीं कर पाया, वह दुनिया में किसी और को प्यार कर सकेगा, इसमें गहरा संदेह है।

6 comments:

Udan Tashtari said...

जो अपनी मां को प्यार नहीं कर पाया, वह दुनिया में किसी और को प्यार कर सकेगा, इसमें गहरा संदेह है।

--इस बात में कोई संदेह नहीं. पूरी तरह सहमत.

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आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
यह एक अभियान है. इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
(उड़न तश्तरी)

सुबोध said...

कुछ कहने के लिए शब्द नहीं है

मिथिलेश श्रीवास्तव said...

वाकई, कहने के लिए शब्द नहीं हैं। बस, अपनी मां भी याद आ गई.

अवनीश said...

राजकिशोर जी को चरण स्पर्श आज बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग पढ़ पाया हूँ, कारन यह है की कम के बोझ तले इतना दब जाते हैं की फिर से कंप्युटर की तरफ़ देखने की इच्छा ही नही होती। आपसे मुलाकात हुए भी एक अरसा हो गया है। पता नही आपको याद है या नही लेकिन पिछले साल अगुस्त में जब आप हम लोंगो को पढ़ाने साल आई आई एम् सी आते थे तो क्लास में खूब बहस हुआ करती थी.आज आपकी नई पोस्ट पढ़के मुझे अपनी गलती भी समझ मे आ गई। लेकिन ये गलती मैं माँ से नही कर रहा हूँ,माँ से उसी वक्त विलग हो गया था जब से हॉस्टल मे रहने लगा था। अभी हाल ही मे मेरी शादी हुई है। पत्नी अभी घर पर ही रहती है। मैं जब ऑफिस चला जाता हूँ तो वो बेचारी परेशां हो जाती है। यहाँ दिल्ली में उसका कोई दोस्त भी नही है। अकेले बैठे बैठे वो जब बोर हो जाती है तो कभी कभी रोने लगती है। मैं सोचता हूँ की जिस लडकी से मिले जुमा जुमा अभी चार दिन नही हुए हैं, वो अगर इतना विरह करती है तो उस माँ का उस समय क्या हाल हुआ होगा जब उसने अपने बेटे को हॉस्टल मे छोडा होगा। कोशिश कर रहा हूँ की मैं अपनी गलती जल्दी ही सुधर लूँ , कल जाने क्या हो?

अवनीश said...

राजकिशोर जी को चरण स्पर्श आज बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग पढ़ पाया हूँ, कारन यह है की कम के बोझ तले इतना दब जाते हैं की फिर से कंप्युटर की तरफ़ देखने की इच्छा ही नही होती। आपसे मुलाकात हुए भी एक अरसा हो गया है। पता नही आपको याद है या नही लेकिन पिछले साल अगुस्त में जब आप हम लोंगो को पढ़ाने साल आई आई एम् सी आते थे तो क्लास में खूब बहस हुआ करती थी.आज आपकी नई पोस्ट पढ़के मुझे अपनी गलती भी समझ मे आ गई। लेकिन ये गलती मैं माँ से नही कर रहा हूँ,माँ से उसी वक्त विलग हो गया था जब से हॉस्टल मे रहने लगा था। अभी हाल ही मे मेरी शादी हुई है। पत्नी अभी घर पर ही रहती है। मैं जब ऑफिस चला जाता हूँ तो वो बेचारी परेशां हो जाती है। यहाँ दिल्ली में उसका कोई दोस्त भी नही है। अकेले बैठे बैठे वो जब बोर हो जाती है तो कभी कभी रोने लगती है। मैं सोचता हूँ की जिस लडकी से मिले जुमा जुमा अभी चार दिन नही हुए हैं, वो अगर इतना विरह करती है तो उस माँ का उस समय क्या हाल हुआ होगा जब उसने अपने बेटे को हॉस्टल मे छोडा होगा। कोशिश कर रहा हूँ की मैं अपनी गलती जल्दी ही सुधर लूँ , कल जाने क्या हो?

राहुल यादव said...

kabhi kabhi sochta hoon main ladki hota to shayad 21-24 saal tak to apne mata pita ke sath to rah pata, palhe padai fir job ne dooroya kayam rakhi hai.. sochta hoon to bahut dard hota hai jab mata pita ko sahi se samjhne ki , unhe kuch khushiya dene ke kaabil huaa hoon to unse door hoon... par kiya karoon,,,,, shayad jindgi ese hi katti ho..pata nhi..?
rahul..