Sunday, May 4, 2008

नेपाल में परिवर्तन


आशा और निराशा के बीच
राजकिशोर


नेपाल में परिवर्तन को महान और ऐतिहासिक मान लेना विवाद से परे नहीं है। कायदे से वहां राजशाही बहुत पहले ही खत्म हो जानी चाहिए थी। भारतीय महादेश में यह घटना उन्नीसवीं शताब्दी में ही संपन्न हो चुकी थी। बीसवीं शताब्दी के मध्य में उसने उपनिवेशवाद से मुक्ति पाई। यह नेपाल का सौभाग्य था कि उसे उपनिवेशवादी शोषण और दमन नहीं देखना पड़ा। दरअसल, वहां का राजा स्वयं उपनिवेशवादी था। उसने नेपाल को अपना उपनिवेश बनाए रखा और उसका विकास नहीं होने दिया। बेशक नेपाल में राजशाही की समाप्ति में नेपाली कांग्रेस और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी की निर्णायक भूमिका रही है, किन्तु इसमें स्वयं राजशाही के चारित्रिक पतन की भूमिका नगण्य नहीं है। राजपरिवार के षड्यंत्रपूर्ण वातावरण तथा हत्या-प्रतिहत्या के दौर ने नेपाल की राजशाही को उस बिन्दु पर पहुंचा दिया था जहां वह अपने ही बोझ से लड़खड़ा रही थी। इस गिरती हुई दीवार को सिर्फ कुछ धक्कों की जरूरत थी। इससे यह सबक मिलता है कि कोई भी संस्था तब तक ही चल सकती है जब तक उसे जन समर्थन मिलता रहे। इस दृष्टि से भूटान की राजशाही ज्यादा दृष्टि-संपन्न प्रतीत होती है। समय की मांग को देखते हुए वह खुद अपने आपको समेट रही है।

नेपाल की स्थिति से आशा की जो लहर फैलती हुई प्रतीत हो रही है, उस भ्रम का कारण माओवाद नाम की संज्ञा है। यह खुशी की बात है कि माओवादियों ने संसदीय राजनीति को अपना लिया है, लेकिन इससे उनकी पार्टी भी लोकतांत्रिक हो उठी है, यह दूर की कौड़ी है। जब स्वयं माओ जे दुंग लोकतांत्रिक नहीं थे और उन्होंने अपने देश में जो राजनीतिक व्यवस्था कायम की वह भी लोकतांत्रिक नहीं है और आज भी वह लोकतांत्रिक होने का साहस नहीं दिखा पा रही है, तो नेपाल के माओवाद में लोकतंत्र की संभावना कहां से आ कर बैठ गई है? माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किसी सैनिक तंत्र की तरह रहा है और यही ढांचा आज भी मौजूद है। मेरा खयाल है कि नेपाल का नया और लोकतांत्रिक संविधान बनाने के पहले माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को अपना लोकतांत्रिक संविधान बना लेना चाहिए। नहीं तो दो प्रकार के समानांतर निजाम चलते रहेंगे। देश में लोकतंत्र होगा और देश की सबसे बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी में लोकतंत्र नहीं होगा। इस पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता प्रचंड नेपाल में राष्ट्रपति प्रणाली लागू करना चाहते हैं, इसका संकेत खतरनाक भी हो सकता है। एशियाई समाजों में तानाशाही को स्वीकार करने की अद्भुत क्षमता है।

राजशाही और सामंतशाही से मुक्त होने पर नेपाल का आर्थिक विकास होगा, इसमें कोई शक नहीं है। किन्तु वह विकास कैसा होगा? माओवादी नेता प्रचंड ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आह्वान किया है कि वे नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश करें। ऐसा होने की संभावना ज्यादा नहीं है, क्योंकि चीन अभी भी विदेशी निवेश का प्यासा है और वहां इसके लिए इंफ्रास्ट्रकचर भी मौजूद है। अगर विदेशी कंपनियां नेपाल का आर्थिक कौमार्य तोड़ने के लिए आती भी हैं, तो वे एक छोटे-से हिस्से को ही अमीर बनाएंगी। अभी ही काठमांडू चंद्रमा के सामनेवाले हिस्से की तरह चमक रहा है और बाकी नेपाल चंद्रमा के पिछले हिस्से की तरह है, जहां सतत अंधेरा मौजूद होता है। काठमांडू का ऐश्वर्य और बढ़ा, तो शेष नेपाल का अंधेरा और घना हो जाएगा। चीन में पूंजीवादी विकास का वातावरण बनने के पूर्व वहां समता पर आधारित एक खास आर्थिक-सामाजिक ढांचा बन चुका था। शिक्षा का प्रसार, बिजली और सड़क निर्माण, दूरसंचार के साधन -- किसी भी देश में यह स्थानीय ढांचा न होने पर विदेशी कंपनिया भी वहां पांव रखने से हिचकती हैं। वे ठूंठे पेड़ों पर नहीं, फलदार शाखाओं पर बैठती हैं। इस मामले में नेपाल उन्हें कितना आकर्षित कर सकता है? इसके बजाय नेपाल को अगर खेतिहर, पशुपालक और लघु उद्योंगों के देश के रूप में विकसित करने की योजना बनाई जाती, तो विकास तेजी से होता और उसका चरित्र लोकतांत्रिक हो सकता था। लेकिन आजकल सादगी किसे पसंद आती है?

इसीलिए नेपाल में परिवर्तन से आशा की जो वापसी हुई दिखाई देती है, उसके फलवती होने के बारे में संदेह होता है। इस महादेश में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से कई बार आशा का संचार हुआ है और हर बार निराशा झेलनी पड़ी है। भारत को अगर अगुआ के रूप में देखे, तो क्या हम उस तरह का समाज बना पाए हैं या बना रहे हैं जिसका स्वप्न स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देखा गया था? क्या स्वयं जवाहरलाल ऐसा ही भारत बनाना चाहते थे? अगर पेड़ की पहचान फल से होती है, तो माफ कीजिए, हम स्वतंत्रता के बाद के भारत निर्माताओं के काम से संतुष्ट नहीं हैं। हमने 1977 का दौर भी देखा जब देश भर में एक नई आशा का संचार हुआ था। उसका अंतिम नतीजा यह निकला कि संपूर्ण राजनीति ही निरर्थक हो गई। उसके बाद राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी आशा बंधाई, पर वही ढाक के तीन पात। निराश का यह सिलसिला अभी तक थमा नहीं है। बगल के बांग्लादेश ने खून की राह पर चल कर आजादी हासिल की। देशबंधु मुजीबुर्रहमान ने एक नए बांगलादेश की नींव रखने की उम्मीद बंधाई, किन्तु उनका सोने का देश आज किस स्थिति में है? पाकिस्तान की राजनीति में भुट्टो परिवार का उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी, पर उसका भी नतीजा क्या निकला? खुशहाल श्रीलंका अभी तक अपने गृह युद्ध से उबर नहीं सका है।

ऐसा लगता है कि दक्षिण एशिया के साथ कोई मूलभूत समस्या है। पूर्वी एशिया ने इसी दौर में जबरदस्त प्रगति की है। उस प्रगति के साथ कई विकृतियां भी जुड़ी हुई है, फिर भी उसकी चमकदार उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता। चीन एक महाशक्ति बन चुका है। जापान बिना शोर मचाए दुनिया के बड़े औद्योगिक देशों की श्रेणी में आ गया है। यूरोप और अमेरिका में उसकी तूती बोल रही है। कोरिया और वियतनाम भी अच्छी-खासी प्रगति कर रहे हैं। यह हम दक्षिण एशिया के लोग ही हैं जो इतिहास और प्रकृति द्वारा प्रदत्त किए गए अवसरों को खो देने में माहिर हो चुके हैं। इस दृष्टि से नेपाल के माओवादियों की एक खास ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। दक्षिण एशिया में पहली बार एक कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने की मजबूत स्थिति में है। लेकिन क्या वहां समता और संपन्नता का फूल खिल सकेगा?

2 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यदि नेपाल की माओवादी पार्टी अपने कार्यक्रम को नेपाल की सामाजिक आर्थिक स्थिति का सही मूल्यांकन करते हुए चलाती है, तो कोई परेशानी सामने नहीं आने वाली है। लेकिन यदि मूल्यांकन में गलती हुई तो परेशानी हो सकती है। जनतंत्र को तो अपनाना होगा। रहा सवाल पार्टी में लोकतंत्र का तो वह भारत में है क्या किसी पार्टी में?

Anonymous said...

भारत की वर्तमान सरकार नेपाल को पश्चिमी साम्रज्यवादी शक्तियो की नजर से देखती है. भारत की वर्तमान सत्ता पर भारत विरोधी बैठे है. भारत मे बहुत कम लोग नेपाल को ठीक से समझते होंगे. युरोप-अमेरिका की साम्रज्यवादी ताकते नेपाल को दक्षिण एसिया के राज्यो तथा भारत-चीन मे दुश्मनी एवम द्वन्द पैदा करने के केन्द्र के रुप मे इस्तमोल करना चाहता है. अगर दक्षिण एसिया मे शांती स्थापित न हुई तो इस क्षेत्र के राज्य कभी भी गरीबी से मुक्त नही हो पाएगे. हमारी साझा संस्क्रुति हमारी एकता का आधार है. हमे इसे समझना होगा. दक्षिण एसिया को एक राष्ट्र – एक संघ मे सुत्रबद्ध करना हमारी चुनौती है. पार्टीयो के चेहरे तथा हृदय की सच्चाइयो मे अंतर है, कास मै लोगो को जल्द असलियत समझा पाता. खैर देर या जल्दी सभी को समझना तो होगा ही.