Friday, April 4, 2008

टेक्नोलॉजी का सवाल

कलम का अर्थशास्त्र
राजकिशोर

लेखकों और पत्रकारों को कलम का सिपाही, कलम का मजदूर, कलमजीवी, कलमवीर, कलमघसीट आदि-आदि कहा जाता है। अब कम्प्यूटर तेजी से कलम का स्थान लेता जा रहा है। अनेक पत्रकार कबीर की तरह, लेकिन एक भिन्न अर्थ में, यह दावा कर सकते हैं कि मसि-कागद छूओ नहिं, कलम गही नहिं हाथ। लेकिन ज्यादातर लेखक-पत्रकार अभी भी कलम ही चलाते हैं। इसलिए यह अभी भी आश्चर्य की बात मानी जाएगी कि उनका ध्यान कलम के अर्थशास्त्र की ओर क्यों नहीं जाता है। कुछ लेखकों को सुंदर और मंहगी कलमों का शौक होता है। कई बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्हें पारकर कलम किस उम्र में मिली थी। लेकिन यह दूसरी बात है। अच्छी और महंगी कलमों का, जैसे खूबसूरत और महंगी घड़ियों का, शौक हमेशा बना रहेगा। कुछ ऐसे भी होंगे जो कपड़े साधारण पहनेंगे, खाना भी साधारण खाएंगे, लेकिन जेब में रखेंगे कोई महंगी कलम भी। लेकिन यह दूसरी बात है। मैं यहां जिस चीज की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह कलम की तकनीक के बारे में है, जिसके साथ उसका अर्थशास्त्र भी जुड़ा हुआ है।
निबवाली कलम की उम्र लंबी रही है। उसके पहले शायद सरकंडे की कलम का इस्तेमाल होता था। गणेश जी की कलम शायद मोरपंखी की थी। लेकिन गांधी जी ने जिस कलम से हजारों या लाखों चिट्ठियां लिखीं, वह कलम-दावातवाली कलम ही थी। हम सभी ने बचपन में इसी कलम का इस्तेमाल किया है। यह कलम सस्ती पड़ती थी और निब बदलते हुए एक कलम को साल-साल भर या उससे ज्यादा भी चलाया जा सकता था। लेकिन बॉल पेन ने उसका जनाजा निकाल दिया। इस कमबख्त ने हमारे जीवन में उत्सव की तरह प्रवेश किया। न स्याही डालने का झंझट, न निब बदलने का खर्च। फर्राटे से लिखो और रिफिल खत्म हो जाए, तो उसे निकाल कर फेंक दो और उसकी जगह नई रिफिल डाल दो। बॉल पेन अभी भी अपनी उसी मस्ती के साथ चल रहा है। लेकिन इस बीच तरह-तरह की कलमें आ गई हैं, जैसे जेल पेन, रोलर पेन आदि। दुकान में जाओ, तो निबवाली मुश्किल से दिखाई पड़ती है। गनीमत यह है कि वह अभी भी बची हुई है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट लिखी जा चुकी है, पर रोगी जिंदा है, अगरचे वह लंबी-लंबी सांसें ले रहा है। मेरा प्रस्ताव यह है कि इस रोगी को जीवन दान मिलना चाहिए। नहीं तो कलमों के कचरे से ही एक दिन इस धरती का आंगन भर जाएगा और दिनकर के कुरुक्षेत्र के एक पात्र की तरह हम पछताएंगे कि नर का बहाया रक्त, हे भगवान मैंने क्या किया।
आजकल हम जिन कलमों का इस्तेमाल करते हैं, वे स्वयं कचरा नहीं हैं, पर कचरा जरूर पैदा करती हैं। जिंदगीरहित रिफिल, जो फेंक दिए जाने पर दशकों या शताब्दियों तक जमींदोज होने के लिए तैयार दिखाई नहीं देते। प्लास्टिक या लोहे की खपत मांगनेवाली कलम की बॉडी, जो अपनी उपयोगिता खो देने के बाद भी निश्चिह्न होना नहीं चाहती। प्लास्टिक की हुई, तो उसके साथ भी वही खतरा है जो प्लास्टिक की थैलियों के साथ है। यह विचित्र है कि प्लास्टिक की थैलियों के प्रति तो जागरूकता पैदा हो गई है और कई राज्यों में नहीं तो कई शहरों में उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया है। लेकिन प्लास्टिक की कलमों तथा इन्य उत्पादों के प्रति मोह बना हुआ है। कल्पना कीजिए, जब पूरा भारत शिक्षित हो जाएगा (मेरे ईश्वर, वह दिन कब आएगा? आएगा भी कि नहीं?) तब देश भर में कितनी कलमों की जरूरत पड़ेगी? उनमें कितना प्लास्टिक लगेगा, उनके लिए कितनी रिफिलों लगेंगी और उन्हें कहां दफनाया जाएगा? यूरोप के छोटे-छोटे देश शायद यह गवारा कर सकते हैं, पर हम भारतवासियों को तो नानी याद आ जाएगी। क्या अभी से इसका कुछ उपचार करना आवश्यक नहीं है? या, जब तक प्यास नहीं लगेगी, कुएं नहीं खोदे जाएंगे?
कोई कह सकता है कि यह आशंका अतिरंजित है। मेरा अपना अनुभव यह है कि बहुत-से मामलों में अतिरंजना के जरिए ही सत्य का साक्षात्कार होता है। बहरहाल, यदि यह अतिरंजना है, तब भी इसका उपयोग है। सौ-पचास झीलों का सूख जाना दुनिया के सभी झीलों के सूख जाने की भविष्यकथा हो सकती है। न भी हो, तो हम ऐसा काम करें ही क्यों जिससे एक झील भी सूख सकती है? खास तौर से तब जब वह काम कतई जरूरी न हो। बॉल पेन, जेल पेन या रोलर से वही काम होता है जो निबवाली कलम से हो सकता है। यह कलम किफायती भी है -- स्याही चुक जाए तो फिर डाल दो और लिखते रहो। अगर इस कलम की बॉडी प्लास्टिक की भी हो, तो दीर्घजीवी होने के कारण पर्यावरण का नाश करनेवाला कचरा कम पैदा करेगी। हम चाहें तो इसका नाम गांधी पेन रख सकते हैं।
गांधी पेन इसलिए कि यह किफायत की राह दिखाती है और कम से कम में काम चलाने के दर्शन की ओर ले जाती है। मूल सवाल इस या उस कलम का नहीं है। मूल सवाल यह है कि हम उपभोक्तावाद (इस्तेमाल करो और फेंको --यह दृष्टि चीजों पर इस्तेमाल होते-होते जब स्त्री-पुरुषों पर लागू होने लगती है, तब हम इस आधुनिक सभ्यता को ही कोसने लगते हैं। एक समय अरुण शौरी ने कहा था कि संपादकों की स्थिति निरोध जैसी हो गई है। उनका अनुकरण करते हुए हम कह सकते हैं कि कलम की हैसियत भी निराध जैसी हो गई हैे), का शिकार होना पसंद करेंगे या छोटी से छोटी चीज की तरफ ध्यान देते हुए उसके निर्दय पंजों से बाहर निकलने की सोचेंगे? उत्पादनकर्ता तो यह चाहेगा ही कि उसका माल ज्यादा से ज्यादा बिके। कोई लेखक अपने पूरे जीवन काल में (यहां मैं उन लेखकों की बात नहीं कर रहा हूं जो अमर हैं या अमर बताए जाते हैं) अगर निबवाली बीस कलमों का इस्तेमाल करता है, तो वह उतने ही पन्ने रंगने के लिए रिफिलवाली दो सौ कलमों का इस्तेमाल करेगा। हो सकता है, और ज्यादा ही, क्योंकि सभी रिफिलें अच्छी नहीं होतीं और आठ-दस पन्नों के बाद ही टें बोल जाती हैं। विचारणीय यह भी है कि रिफिल या जेलवाली कलमों के लिए उच्चतर टेक्नोलॉजी की जरूरत होती है, जब कि निबवाली कलमों का उत्पादन मामूली टेक्नोलॉजी से भी किया जा सकता है। वैज्ञानिकता (और आधुनिकता भी, अगर बुद्धि से इसका संबंध पूरी तरह से टूट नहीं गया है) इसमें नहीं है कि जो काम पांच रुपए से हो सकता है, वही काम पचीस रुपए में किया जाए। जो बेवजह ज्यादा खर्च करता है, उसे मंद-अकल नहीं तो और क्या कहा जाएगा? जितनी जल्दी हम इस बात को पकड़ लें कि उद्योगपति वही होशियार है जो ग्राहकों को बेवकूफ बना कर अपनी जेब भरता जाए, उतनी ही जल्द हम भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल शुरू कर देंगे और उद्योगपति के झांसे में न आ कर अपना चुनाव स्वयं करेंगे। स्वतंत्रता का एक मतलब है -- चुनाव करने की आजादी। 000

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इस आलेख के लिए बधाई। अगर निब वाली पेन की गुणवत्ता इस स्तर तक पहुँच जाए कि वह हाथों को खराब न करे तो वह बॉल पेन को पछाड़ दे। पर हर वस्तु की उपयोगिता को उद्योगपति तय करता है। वह अपने मुनाफे को छोड़ने क्यों लगे?
आप के आलेख ने पुनः यह सोचने को बाध्य कर दिया है कि हमारी राज्य-व्यवस्था समाजवादी हो और उत्पादन पर नियंत्रण राज्य का हो,अन्यथा यह कचरा उत्पादन तो चलता ही रहेगा।