Friday, March 28, 2008

खिलाड़ियों की नीलामी

गुलामी का नया दौर
राजकिशोर

हमारी पीढ़ी ने वह दौर नहीं देखा है जब गुलामों की सार्वजनिक नीलामी हुआ करती थी। यह उसका दुर्भाग्य नहीं, सौभाग्य है। मानव जाति के इतिहास में जो सबसे बर्बर और घृणित प्रथा रही है, वह यही थी -- लाखों स्त्री-पुरुषों को गुलाम बना कर रखना। जरा उस दृश्य की कल्पना कीजिए जब किसी गुलाम को नीलाम किया जाता था। यह जगह बगदाद, मिस्र, पाटलीपुत्र, उज्जैन, लाहौर, पेशावर, लंदन, पेरिस कोई भी हो सकती थी। सीन कुछ यों होता था। दस-पंद्रह पुरुष और स्त्रियां एक छोटे- से दायरें में एक-दूसरे से बंधे खड़े हैं। हरएक के पैरों में लोहे की भारी जंजीरें हैं। हाथ भी जंजीरों से बंधे हुए हैं। उनका वर्तमान मालिक एक नौजवान गुलाम को पकड़ कर जनता के सामने ले आता है और शुरू हो जाता है -- साहबान, यह मेरा सबसे अजीज गुलाम है। मजबूत, ईमानदार और वफादार। बेहद मेहनती। यह सारे काम कर सकता है। दिन भर में सिर्फ चार घंटे सोता है। जरा इसकी बांहों पर नजर दौड़ाइए, फौलाद की बनीं है। चाहें तो हाथी को एक हाथ से उठा लें। इसके पैरों में गजब की फुर्ती है। यह घोड़े की रफ्तार से भी तेज दौड़ सकता है। हां, तो साहबान, बोली लगाइए। देखें, वह कौन खुशकिस्मत है जो इसे खरीद कर अपने घर ले जाता है। उसकी जिंदगी जन्नत में बदल जाएगी। हां, तो साहबान, पहली बोली दस दीनार की लगी है। यह क्या बात हुई? जनाब, आप मुर्गा या बकरा नहीं खरीद रहे हैं। जिन्न की तरह सारे काम पलकों में करके रख देनेवाला एक ठोस, मजबूत आदमी खरीद रख रहे हैं। इसकी तौहीन मत कीजिए। लोहे के भाव सोना नहीं मिलता। ...

उस गुलाम का नया मालिक तय हो जाने के बाद गुलामों का सौदागर सर झुकाए एक गुलाम युवती को पेश करता है और फिर शुरू हो जाता है -- अब मैं आपकी खिदमत में आज का सबसे हसीन तोहफा पेश करता हूं। इसे ईरान से पकड़ कर लाया गया है। इसकी कमसिन उम्र और दुबले-पतले शरीर पर मत जाइए। इसके भीतर गजब की ताकत भरी हुई है। बिना थके चौबीसों घंटे घर-बाहर के सारे काम कर सकती है। खाना इतना लजीज बनाती है कि आप उंगलियां चाटते रह जाएंगे। इसमें बला की शोखी है। इतने अदब से पेश आती है कि आप तवायफों की अदाएं भूल जाएंगे। क्वांरी भी है। बिस्तर पर आग उगलती है। तो साहबान, बोली लगाइए। शान से बोली लगाइए। मैं पहले से बता देता हूं... इसे सौ दीनार से कम पर नहीं दे सकता। समझिए, आप हीरा खरीद रहे हैं, हीरा ...

यह मत समझिए कि यह सारी दृश्य कल्पना से बुना हुआ है। सौ-दो साल पहले तक दुनिया के किसी भी बड़े शहर में यह आम बात थी। परिवार के कब्जे में दस-बीस गुलामों का होना सभ्य जीवन की अनिवार्य शर्त माना जाता था। सत्तरहवीं शताब्दी के थॉमस मोर की एक प्रसिद्ध किताब है -- यूटोपिया। इसमें एक आदर्श समाज का चित्र खींचा गया है। लेकिन यह आदर्श समाज कैसा है? थॉमस मूर बताते हैं कि इस आदर्श समाज में भारी शारीरिक मेहनतवाले सभी काम गुलाम ही करेंगे। जिस संयुक्त राज्य अमेरिका को स्वतंत्रता की भूमि माना जाता है, वहां 1863 तक -- आज से सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले -- गुलाम रखने की व्यवस्था को जायज और कानून-संगत माना जाता था। उस साल अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहन लिंकन ने गुलामी की प्रथा को समाप्त करने के लिए अपने देश के दक्षिणी राज्यों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। उत्तरी अमेरिका गुलामी की प्रथा को खत्म कर चुका था, पर दक्षिणी राज्य इसके लिए तैयार नहीं थे। अमेरिका के इस गृह युद्ध में गुलामी को बनाए रखनेवाले इलाकों की सैनिक पराजय हुई और अमेरिका के माथे से गुलामी प्रथा का कलंक मिटा।

इसी अमेरिकी संस्कृति की छाया में पल रहे आधुनिक वर्ग की क्या स्थिति हैं? यह हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम यह अश्लील दृश्य देखने के लिए बचे हुए हैं। मुंबई के एक सुसज्जित होटल में देश के सबसे शानदार क्रिकेट खिलाड़ियों की बोली लग रही है -- यह रहा धोनी -- क्रिकेट का आला खिलाड़ी। तो साहबान बोली लगाइए। इसकी रिजर्व प्राइस है अस्सी लाख भारतीय मुद्रा। एक व्यापारी बोली लगाता है -- एक करोड़। दूसरा कंधे उचका कर कहता है -- दो करोड़। कीमत चढ़ती जाती है -- ढाई करोड़... तीन करोड़.. चार करोड़... पांच करोड़। सवा पांच करोड़। साढ़े पांच करोड़। अंत में छह करोड़ पर नीलामी बंद होती है। छह करोड़ एक, छह करोड़ दो ... छह करोड़ तीन। लीजिए चेन्नई टीम, क्रिकेट की दुनिया का यह बेताज बादशाह आपका हुआ। अब आप इससे जी भर कर क्रिकेट खेलाइए। यह उफ तक नहीं करेगा। इसका खेल बेच कर आप जी भर कर कमाइए। अब ईशांत शर्मा की नीलामी शुरू होती है। यह इंडियन क्रिकेट के भविष्य का सबसे चमकता हुआ शिकारा है। आपको मालामाल कर देगा। इसकी प्राइस शुरू होती है साठ लाख भारतीय मुद्रा से। बोली तीन करोड़ बयासी लाख पर टूटती है। ईशान्त कोलकाता टीम का हुआ। ... जी हां, अब इरफान पठान का नंबर है। यह भी एक होनहार खिलाड़ी है... किसी से कमतर नहीं है। इरफान को तीन करोड़ इकहत्तर लाख भारतीय रुपए में नीलाम कर दिया जाता है।


अठारहवीं शताब्दी और इक्कीसवीं शताब्दी की नीलामियों के बीच बेहद फर्क है। वे गुलाम सचमुच के गुलाम होते थे। उन्हें कम से कम खुराक दी जाती थी और उनसे गधे की तरह काम लिया जाता था। गुलामी का बोझ सहते-सहते बहुत-से तो जवानी में ही मर जाते थे। आज के गुलाम शानदार जिंदगी जीते हैं। साल में करोड़ों रुपया कमाते हैं। हर महीने फॉरेन जाते हैं। लजीज खाना खाते हैं, उम्दा कपड़े पहनते हैं और राजमहल जैसे घरों में रहते हैं। इनकी अपनी प्राइवेट जिंदगी है। लेकिन खिलाड़ी के रूप में ये अपनी जिंदगी जीनेे के लिए आजाद नहीं हैं। जो इन्हें नीलामी में जीत कर ले गया है, वह इनसे अपनी इच्छा अनुसार खिलवाएगा। एक फर्क यह भी है कि वे गुलाम अपनी मर्जी से न तो गुलाम होते थे और न अपनी मर्जी से खरीदे या बेचे जाते थे। ये गुलाम अपनी मर्जी से नीलामी के मैदान में आ खड़े हुए हैं। स्वेच्छया गुलाम हुए हैं। वे गुलाम चौबीसों घंटे के गुलाम होते थे। इनकी गुलामी सिर्फ क्रिकेट खेलने तक है। बाकी वक्त इनका अपना है। फर्क हैं, तमाम तरह के फर्क हैं। मध्य युग और आधुनिक युग के फर्क हैं। लेकिन गुलामी तो गुलामी ही है। उसकी मूलभूत शर्तों में कोई फर्क नहीं आया है। गुलामी की अवधारणा वही है, सिर्फ ब्योरे बदल गए हैं।


बहुत पहले, किशोरावस्था में, एक फिल्म देखी थी -- कोई गुलाम नहीं। आज की फिल्म शायद इस नाम से बनेगी -- हम सब गुलाम हैं। जो लोग समझते हैं कि सिर्फ क्रिकेटर या अभिनेता-अभिनेत्रियां गुलाम हो रहे हैं, उनसे निवेदन है कि इस तस्वीर पर गौर फरमाएं। एक नौजवान डॉक्टर पचीस हजार रुपए महीने पर एम्स में लगता है। दो साल बाद मैक्स अस्पताल उसे तीस हजार रुपए पर अपने यहां ले जाता है। तीन साल बाद उसे अपोलोवाले पचास हजार रुपए महीने पर खींच ले जाते हैं। वहां दो साल गुजारने के बाद उसे इंग्लैंड या अमेरिका का कोई अस्पताल दो लाख रुपए भारतीय मुद्रा पर बुला लेता है। क्रिकेट खेलने की तरह हर जगह उसे रोगी ही देखना है। लेकिन जैसे-जैसे वह बेहतर डॉक्टर होता जाता है यानी अपनी दुनिया का धोनी, ईशांत शर्मा और इरफान पठान होता जाता है, उसकी कीमत बढ़ती जाती है। इन खिलाड़ियों की नीलामी दिख गई, औद्योगिक सभ्यता के दूसरे खिलाड़ियों की नीलामी नहीं दिखती। पर उनकी नीलामी भी सतत चलती रहती है। बस हमें दिखाई नहीं देती।


किशोरावस्था में ही एक छोटे-से मुशायरे में मैंने एक शायर को, जो शायद ट्रेड यूनियन नेता भी थे, यह शेर पढ़ते सुना था -- वह दौरे-गुलामी था, इसके हम दौरे-गुलामां कहते हैं।000

2 comments:

Anonymous said...

khiladiyon ki neelami ka jis tarah se pradarshan hua wo waki me kharab tha. yahi sab gopniya tareeke se hota to utna bura nahi lagta. jahan tak naukri chodkar nayi jagah jaane ki baat hai, mein aapse sahmat nahi hoon. log kewal paise ke hi liye job cahange nahi karte. aur yadi kare bhi to kya burai hai, aise to her woh aadmi jo paise ke liye naukri kar raha hai bika hua hai.

राजकिशोर said...

रितेश जी, आपकी इस बात में दम है कि हर कोई बिका हुआ है । हर कोई यानी हर वह आदमी जो नौकरी करता है। इसे ही पूंजीवाद कहते हैं। स्वतंत्र मनुष्य वही काम करेगा जो उसे ठीक लगेगा। मजदूर के पास इस तरह के विकल्प नहीं होते। इसीलिए हम समाजवादचाहते हैं, जिसमें कोई किसी का नौकर न हो। लेकिन मजदूर,खिलाड़ी, नर्तकी वगैरह के रूप में हमें कहीं खड़ा कर दिया जाए और लोग हम पर बोली लगाने लगें कि जो सबसे ऊंची बोली लगाएगा, उसके हमारे हुनर और काम के घंटों पर नियंत्रण होगा, यह गुलामी के दौर की याद दिलाता है। आपके पास पूंजी है, आपने हमें गुलाम बना रखा है। लेकिन आदमी की नीलामी नौकरी से कुछ आगे की चीज है। हम खुद चुनते हैं कि हम किसकी नौकरी बजाएंगे, लेकिन यहां तो हमारा संभावित मालिक हमें चुन रहा है और यह हमारे हाथ में नहीं कि हम किसकी सेवा करना चाहते हैं। जब आप अपना मालिक खुद चुनने की स्थिति में नहीं रह जाते, तो आप पक्के गुलाम हो जाते हैं। पैसे के लालच ने हमारे खिलाड़ियों को इसी दशा में पहुंचा दिया है, मेरा आशय इतना ही है।