Friday, October 3, 2008
वह एक व्यक्तित्व
बाबू
राजकिशोर
उस दिन ऑफिस देर से पहुंचा था, पर अपने केबिन का दरवाजा खोलते ही मन खिल उठा। सामने की एक कुरसी पर बैठा बाबू बीड़ी फूंक रहा था। उसका हुलिया पूरी तरह से बदला हुआ था, लेकिन इससे उसका व्यक्तित्व और निखर आया था। बाल घने हो गए थे। दाढ़ी-मूंछ बढ़ी हुई थी। उनके बीच उसके तराशे हुए पतले होठों पर हलकी-सी, शाश्वत किस्म की मुसकान थी। चेहरे पर पहले वाली बेचैनी नहीं, एक नई किस्म की शांति थी। यह हमारा बाबू था, जो करीब पांच साल पहले अचानक दिल्ली छोड़ कर पता नहीं कहां लापता हो गया था।
उस दिन बाबू दिन भर मेरे साथ रहा। हम लोग तरह-तरह की बातें करते रहे। रात को मैंने उसे जम कर शराब पिलाई। फिर उसे एक ईसाई परिवार के यहां ले जा कर छोड़ दिया, जहां वह ठहरा हुआ था। अगले दिन उसे रात की रेल से झारखंड लौट जाना था। पांच साल से वह वहीं के एक गांव में एक आदिवासी परिवार के साथ रह रहा था। बाबू के शब्दों में, 'बड़े मौज में हूं। चाह गई चिंता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जिनके यहां रहता हूं, उनका कुछ कामकाज कर देता हूं। उनके बच्चों को पढ़ा देता हूं। गांव के लोगों का भी कुछ छोटा-मोटा काम कर देता हूं। रात को ढेर-सी शराब पी कर सो जाता हूं। कभी-कभी दिन में भी एकाध गिलास ले लेता हूं।' मैं उससे कहता रहा कि बाबू, तुम अपनी प्रतिभा और ज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहे हो, अपनी जिंदगी बरबाद कर रहे हो, दूसरों को भी गलत रास्ता दिखा रहे हो, पर उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह धीमे-धीमे हंसता रहा। जब मेरा उपदेश पूरा हो गया, तो वह बोला, 'सर, यहां प्रतिभा और ज्ञान की जरूरत किसे है? पहले में सार्थकता में खुशी खोज रहा था। अब खुशी में ही सार्थकता देख रहा हूं।'
बाबू से मिल कर जितना आनंद आया था, उससे बिछड़ते हुए उतना ही विषाद हो रहा था। काश, मैं उसके लिए कुछ कर पाता। लेकिन इतनी बड़ी दिल्ली जिसके लिए कुछ नहीं कर पाई, उसके लिए मैं क्या कर सकता था।
बाबू से मेरी मुलाकात नौ-दस साल पहले दिल्ली में ही हुई थी। लगा था कि रामविलास शर्मा या नामवर सिंह को उनकी युवावस्था में देख रहा हूं। उन दिनों वह दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहा था। उसके शोध का विषय था -- आधुनिक हिन्दी साहित्य में गृहस्थ रस। जब कोई उसे छेड़ता, तो वह कम से कम आधा घंटे तक गृहस्थ रस की अवधारणाा पर बोलता रहता। उसका कहना था कि यह श्रृंगार रस से भिन्न है, क्योंकि श्रृगार रस में प्रेम प्रेम के लिए होता है, गृहस्थ रस में प्रेम जीने के लिए होता है। बाबू कभी-कभी अखबारों में लिखता भी था। हर लेख नए ढंग का और बेहद पठनीय। उसका कहना था कि वह लेक्चरर बनेगा और सिर्फ पढ़ेगा-लिखेगा, किसी लंद-फंद में नहीं पड़ेगा।
पर लेक्चरर बनाने वालों को वह पसंद नहीं आया। एक तो उसके नाम से यह स्पष्ट नहीं होता था कि उसकी जाति क्या है। रेकॉर्ड में उसका नाम था, श्यामल कांति। वह किसी को अपनी जाति बताता भी नहीं था। दूसरे, यह भी स्पष्ट नहीं था कि वह यूपी का है या बिहार का। तीसरे, उसने किसी को गॉडफादर नहीं बनाया था। उसे विश्वास था कि उसकी योग्यता ही उसे लेक्चरर बनाएगी। जब तीन साल तक इंतजार करने के बाद किसी भी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय ने उसे नहीं पूछा, तो वह पत्रकारिता में चला आया। कुछ दिनों तक बड़े उत्साह में रहा, फिर चिड़चिड़ा होने लगा। हर दूसरे दिन बॉस से उसका झगड़ा हो जाता था। झगड़ा वह शुरू नहीं करता था। उसके बॉस उसके काम की सराहना भी करते थे। लेकिन उसके अधिकारियों को उसके जैसे सुयोग्य व्यक्ति का आॉफिस में होना ही खलता था। वह जिस अखबार में भी काम करता, अपने साथियों में बहुत लोकप्रिय हो जाता था। बॉस की इज्जत उनके पद से होती थी, बाबू की इज्ज्त उसकी योग्यता और गुणों से। सो हर तीसरे महीने वह एक नए दफ्तर में दिखाई देता।
अखबार छोड़ कर जब वह एक टीवी चैनल में गया, तो उसने वहां कमाल ही कर दिया। दूसरे महीने की तनख्वाह ले कर वह अपने हेड के पास गया और बोला -- इतने पैसे मुझसे हजम नहीं होंगे। मैं नौ घंटे की ड्यूटी में काम ही क्या करता हूं। पांच-सात छोटी-छोटी खबरें बना देता हूं। इसके लिए दस हजार काफी हैं। बाकी पैसे आप लौटा लीजिए। ऐसी ही अजीबोगरीब हरकतों के कारण वह टीवी की दुनिया में टिक नहीं सका। बाद में सुना, कहीं अनुवाद का काम कर रहा है। फिर मालूम हुआ, किसी एनजीओ में लग गया है। उसके बाद तो वह अदृश्य ही हो गया।
यह जान कर तसल्ली हुई कि अब वह परेशान नहीं है, बल्कि सुख से है। सुख ठीक-ठीक क्या होता है, मैं नहीं जानता। पर इतना जरूर है कि अगर मेरे बस में होता, तो मैं भी उसके साथ चल देता। रात को जी भर कर शराब पीने के बाद चांदनी तले धर्म, नैतिकता, जीवन, ब्रह्मांड, आदि विषयों पर बातें करने से ज्यादा मजेदार और क्या हो सकता है !
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2 comments:
रात को जी भर कर शराब पीने के बाद चांदनी तले धर्म, नैतिकता, जीवन, ब्रह्मांड, आदि विषयों पर बातें करने से ज्यादा मजेदार और क्या हो सकता है !
--यही तो विडंबना है!!!
प्रगतिवाद पहुंचा यथास्थिति में।
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