Friday, October 31, 2008

पाप, पाप और पाप

इक्कीस महापापों की इस नगरी में
राजकिशोर


कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटि (सीएसआर) यानी कंपनियों की समाजिक जिम्मेदारी का आजकल बहुत शोर है। मुर्गों को जिबह करनेवाले सावधान हो गए हैं। वे दाएं हाथ से कत्ल और बाएं हाथ से कुछ दान-पुण्य कर अपराध बोध से बचना चाहते हैं। या, अपनी मलिन हो चुकी छवि को सुधारना चाहते हैं। जैसे पहले ईश्वर को चंदा दिए बगैर पाप का माल हजम नहीं होता था, वैसे ही असामाजिक क्रियाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाने के लिए कुछ चेक ऐसे भी काटने होते हैं जो कंपनी के सामाजिक सरोकारों पर मुहर लगा दें। जाहिर है, इस अवधारणा में ही यह निहित है कि सीएसआर के अलावा कंपनी जो कुछ भी करेगी, उससे उसकी सामाजिक जिम्मेदारी व्यक्त होना आवश्यक नहीं है। गोया आज का प्रबंधन शास्त्र यह मान कर चल रहा है कि कंपनी की मूल गतिविधि तो असामाजिक या समाज-विरोधी होगी, पर कंपनी अपने सामाजिक सरोकारों को व्यक्त करने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेगी। मिर्जा गालिब ने इन्हीं स्थितियों के लिए फरमाया था : रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई।
यह कहना पूरी तरह ठीक नहीं होगा कि कैथलिक चर्च ने सीआरएस की नकल पर ही सात महापापों की नई सूची घोषित की है। चर्च कभी इतना कमजोर नहीं रहा कि वह अपने मूल लक्ष्यों पर दुनियादार लोगों के साथ समझौता कर ले। दुनिया के सभी धर्म बोली के स्तर पर उदार रहे हैं। आखिरन यह बोली ही तो है जो साधु को चोर से जुदा करती है। वेश-भूषा और भाषा -- ये दो जबरदस्त तत्व हैं जो समाज में धर्म की निजी छवि बनाते हैं और उसे विशिष्टता प्रदान करते हैं। इसलिए वेटिकन ने अगर गत नौ मार्च को सात आधुनिक महापापों की सूची जारी की, तो यह उचित ही नहीं, आवश्यक भी था। इससे यह भी जाहिर हो जाता है कि कैथलिक चर्च अपने सरोकारों में आधुनिक होना चाहता है। ईसा मसीह ने दो हजार साल पहले जो कहा था, वह उनके अपने समय के यथार्थ पर आधारित था। वह आज भी पुराना नहीं पड़ा है, लेकिन आधुनिक समय में कुछ ऐसा यथार्थ भी प्रगट हुआ है, जिस पर आलोचनात्मक नजर डालना जरूरी है। ईसा मसीह आज होते, तो वे भी यही करते। इस तरह, सात नए महापापों के नाम गिना कर कैथलिक चर्च ने अपना नवीनीकरण किया है। अगर चर्च एक बहुत बड़ी कंपनी है, तो उसे भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दो-चार होना होगा। यानी, हम चाहें तो यह सोचने का पाप कर सकते हैं कि कैथलिक चर्च पर सीएसआर संस्कृति की कुछ छाया जरूर है।
इन सात नए महापापों की सूची पर नजर डालते ही यह उपस्थित हो जाएगा कि हम कितने खतरनाक समय में जी रहे हैं। पाप हैं, तो पापी भी होंगे। आज के बड़े-बड़े पापी कौन-कौन-सा पाप कर रहे हैं? गिनते चलिए। एक, पर्यावरण का प्रदूषण। यह ईश्वर की बनाई हुई सुंदर सृष्टि के साथ बलात्कार है। जो पर्यावरण को प्रदूषित कर रहा है, उसका मुंह ईश्वर के विपरीत दिशा में ही हो सकता है। यह सृष्टि सभी के लिए है, पर कुछ लोग अपने लालच के कारण इसे सभी के लिए विनाशकारी बना रहे हैं। उन्हें अपने और अपने नाती-पोतों की चिंता भले ही न हो, पर दूसरों और उनके नाती-पोतों को खतरे में डालने का उन्हें क्या अधिकार है? दो, जीन के स्तर पर मेनुपुलेशन। यह भी ईश्वर की व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ है। जीन के स्तर पर मेनुपुलेशन से लाभ भी हो सकते हैं, जैसे कई असाध्य बीमारियों का हल निकल आना या आनुवंशिक बीमारियों पर नियंत्रण। लेकिन मानव मन इतना चंचल है कि इस टेक्नोलॉजी के परिणाम भयावह भी हो सकते हैं। यह खुदा की खुदाई के साथ इतने बुनियादी स्तर पर हस्तक्षेप है कि इसके परिणामों के बारे में आज अनुमान भी नहीं किया जा सकता। इसलिए बेहतर है कि हम भानमती के इस पिटारे को खोलें ही नहीं। तीन, सीमाहीन धन जमा करना। पहले भी यह महापाप होता था, लेकिन कुछ ही लोग यह पाप कर सकते थे। आज इन पापियों का लंबी-लंबी सूचियां दुनिया भर में छापी जा रही हैं। ऐसा लगता है कि यह दुनिया धन के देवता मैम्मन के हाथ बिक चुकी है। सीमाहीन धन के केंद्र होंगे, तो सीमाहीन गरीबी भी होगी। इसलिए चार, गरीबी पैदा करना। अगर किसी को ईश्वर ने ही गरीब बनाया है, तो बात दीगर है, लेकिन किसी आर्थिक प्रक्रिया या कुछ खास निर्णयों की वजह से गरीबी पैदा की जा रही है, तो यह महापाप है। जाहिर है, इशारा वैश्वीकरण की तरफ है, जो गरीब देशों में इसी शर्त पर पैर रखता है कि हम वहां गरीबी पैदा करेंे, तो हमें रोका न जाए।
पांच, मादक पदार्थों की तस्करी और इन पदार्थों का सेवन करना। मेरी अदना समझ में सेवन करनेवालों को सामान्य पापियों की श्रेणी में रखा जाता, तो बेहतर था। वेश्याएं, स्त्री और पुरुष दोनों, शिकार होती हैं, शिकारी नहीं। लेकिन मादक पदार्थों की तस्करी में जो लोग लगे हुए हैं, उनके लिए तो घोर से घोर नरक भी मुलायम जगह है, ऐसा मानना चाहिए। चर्च ने अब ऐसे लोगों पर उंगली रख दी है। छह, नैत्तिक रूप से बहसतलब प्रयोग। इसके उदाहरण नहीं दिए गए हैं, लेकिन वैज्ञानिक ऐसे अनेक प्रयोग कर रहे हैं, जिन पर नैत्तिक आपत्ति हो सकती है। जैसे डॉली नामक भेंड़ का उत्पादन, जो दर्जनों रोगों का शिकार हो कर कष्टमय मौत मरी। सात, मूल मानव अधिकारों की अवहेलना। इस बात को सूची में डालना बहुत जरूरी था। धार्मिक लोग अभी तक कर्तव्यों की भाषा में ही बात करते रहे हैं। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने स्वीकार कर लिया कि मनुष्य के कुछ मूल अधिकार भी होते हैं और किसी भी सूरत में राज्य द्वारा या किसी अन्य द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। आशा है कि कैथलिक चर्च इस मान्यता को अपने धार्मिक प्रतिष्ठान के सदस्यों पर भी लागू करेगा और उनके मूल मानव अधिकारों का सम्मान करेगा।
दो हफ्ते में ही यह बहसतलब हो चला है कि कैथलिक चर्च की निगाह में ये सातों महापाप हैं या महज पाप हैं या पहले बताए गए महापापों के नए उदाहरण हैं। यह मानने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है कि यह धर्म की एक नई जमीन है। अभी तक जिन्हें पाप या महापाप माना जाता था, उनका स्वभाव मनुष्य के निजी जीवन से था। नई सूची मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारियों पर जोर देती है। इससे यह बात पहली बार इतने साफ ढंग से सामने आई है कि मनुष्य न केवल ईश्वर के प्रति, बल्कि समाज के प्रति भी जवाबदेह है। यानी वह व्यक्तिगत स्तर पर भले ही नेक हो, पर अगर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का पालन नहीं कर रहा है, तो स्वर्ग का दरवाजा उसके लिए नहीं खुलेगा। देखा जाए, तो सात पुराने महापाप भी मनुष्य की सामाजिक जिम्मेदारियों की ओर ही उन्मुख थे। वे सात महापाप इस प्रकार हैं : वासना, क्रोध, उदासीनता, अभिमान, लालच, पेटूपन और ईर्ष्या। हिन्दू साहित्य में इसे काम, क्रोध, मद, लोभ आदि के रूप में चित्रित किया गया है। दूसरे धर्मों में भी ऐसी ही व्यवस्थाएं हैं। कहना न होगा कि ये सारी समस्याएं मानव अस्तित्व के साथ गुंथी हुई हैं। हममें से हरएक गौर करेगा, तो वह अपने को किसी न किसी बिन्दु पर महापापी मानने से बच नहीं सकता। शायद हमारा अस्तित्व में होना ही पाप है। इसीलिए तो संतों को गिन-गिन कर बताना पड़ा कि कहां-कहां तुम्हें सावधान रहना चाहिए। संतों में जो बुद्धिमान थे, उन्होंने अपने लिए घोषणा की -- मो सम कौन कुटिल खल कामी। लेकिन कोई जीवन भर यह भजन गाता रहे और कुटिल, खल, कामी भी बना रहे, तो यह धर्म की एक ऐसी विफलता है जिसे अत्र तत्र सर्वत्र देखा जा सकता है। यह धार्मिक रास्ते की एक बहुत बड़ी समस्या भी है, जिस पर विचार करते हुए कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो धर्म पृथ्वी पर रहेगा जरूर, लेकिन एक रंगमंचीय अभिनेता के रूप में। फिर भी यह हर्ष और बधाई की बात है कि एक बड़े धार्मिक प्रतिष्ठान ने दुनिया के बिगड़ते हुए हालात में हस्तक्षेप करने की सैद्धांतिक कोशिश की है। इससे ईसाई जगत की सामूहिक आत्मा में कुछ तो तनाव पैदा होगा और शायद कुछ परिवर्तन भी आए। इस संभावना के मद्दे-नजर क्या हम दुनिया के अन्य धार्मिक प्रतिष्ठानों से बिनती कर सकते हैं कि वे भी अपनी-अपनी सूचियां ले कर हाजिर हों? हमारे शंकराचार्य भी क्या सिर्फ अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिए जमा होते रहेंगे या गरीबी, विषमता, बेईमानी, जुल्म, अन्याय आदि पर भी अपने विचार रहेंगे? जो धर्म की रक्षा नहीं करता, धर्म सबसे पहले उसी का नाश करता है।
चौदह महापापों की चर्चा करने के बाद अब हम उन सात पापों का जिक्र करेंगे जिन्हें महात्मा गांधी गिना गए हैं। आश्चर्य है कि गांधीवादी महात्मा की विरासत का उल्लेख करते हुए इन सातों पापों की चर्चा सबसे कम करते हैं। लेकिन नहीं, यह आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि गुरु के वचन वहीं तक मान्य होते हैं जहां तक वे किसी त्याग की फरमाइश नहीं करते। महात्मा जी की पाप सूची, मेरे खयाल से, एक ऐसी सर्वांग पूर्ण सूची है, जो हमारे अस्तित्व के सभी कोनों को झिझोड़ देती है। यह सूची इस प्रकार है और सुझाव दिया जा सकता है कि महात्मा के दूसरे उद्धरणों के साथ इन्हें भी अधिकतम प्रचार दिया जाना चाहिए। इसलिए कि ये सातों पाप हमारे समय की केंद्रीय विडंबनाओं पर आधात करते हैं।
महात्मा की दृष्टि में सात पाप इस प्रकार हैं : (1) काम किए बिना धन, (2) अंतरात्मा के बिना सुख, (3) चरित्र के बिना ज्ञान, (4) नैतिकता के बिना व्यापार, (5) मनुष्यता के बिना विज्ञान, (6) त्याग के बिना पूजा और (7) सिद्धांत के बिना राजनीति। इन सात पापों के दायरे में हमारा व्यक्तिगत और सामाजिक, दोनों प्रकार का जीवन आ जाता है। कहा जा सकता है कि इस आधार पर नई मानव संस्कृति की रचना भी की जा सकती है। इस प्रसंग में संतोष की बात यही है कि देश की करोड़ों गरीब जनता को इनमें से दो-चार पाप करने की ही सुविधा है। महात्मा जी इन्हें ही अपना आदमी मानते थे। अगर हम समर्थ लोग इस बात को थोड़ा-सा भी मान लें, तो हम अनेक पापों से बच सकते हैं। 000

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