चंद्र खिलौना लैहों
राजकिशोर
करीब चार सौ साल पहले हिन्दी के सबसे बड़े कवियों में एक, सूरदास, ने कल्पना की थी कि बाल कृष्ण यशोदा मैया से चंद्र खिलौना लेने के लिए मचलते हैं और माता यशोदा उन्हें किसी तरह फुसला कर मना लेती हैं। कृष्ण का वास्तविक स्वरूप भगवान का था। कुरुक्षेत्र में जब वे अर्जुन को अपनी असली सूरत दिखाते हैं, तो पता चलता है कि कोटि-कोटि चंद्र और सूर्य उनके असीम आयतन में क्षुद्र कणों की तरह बिखरे हुए हैं। इसलिए अपने बाल रूप में जब वे चंद्रमा को खिलौना समझ और बता रहे थे, तो वे अपनी दूसरी मां से कौतुक ही कर रहे होंगे। भगवान के लिए तो सब कुछ कौतुक ही है। हम सब उसकी कठपुतलियां हैं। हमारी ट्रेजेडी यह है कि हम अपने इस कठपुतलीपन को समझते हैं और दुख पाते हैं। गुस्सा करें तो किस पर? कहीं सुनवाई है?लेकिन क्या हम भारत सरकार की भी कठपुतलियां हैं जिसका दावा है कि वह जो कुछ करती है, हमारे प्रतिनिधि के रूप में और हमारे भले के लिए ही करती है? कुछ वर्षों से वह भी चंद्र खिलौने के लिए मचल रही थी और अब वह अंतरिक्ष में अपना चंद्रयान भेज कर इस ‘महानतम उपलब्धि’ पर इतरा रही है जैसे वह सचमुच चंद्रमा को हाथ में ले कर उसके साथ खेल रही हो। भारत ने जब पहली बार परमाणु परीक्षण किया था, तब यह कुछ के लिए खेद की और ज्यादातर के लिए खुशी की बात थी। उस घटना की खुशी समझ में आती है। परमाणु परीक्षण सामरिक प्रतिरक्षा का एक अनिवार्य अंग बन चुका है – खास तौर से तब जब आपके किसी पड़ोसी के पास परमाणु बम हो। भारत ने दूसरी बार परमाणु परीक्षण किया, तो उसे ले कर विवाद और ज्यादा गहरा गया, क्योंकि इस बार केंद्र में कांग्रेस की नहीं, भाजपा की सरकार थी, जो भारतीय व्यक्ति के चरित्र को नहीं, भारतीय राष्ट्र की सामरिक क्षमता को मजबूत बनाना चाहती है। फिर भी उस परमाणु परीक्षण का एक सकारात्मक पहलू था, क्योंकि जब तक धरती पर युद्ध एक वास्तविक संभावना है, तब तक प्रतिरक्षा के मामले में प्रत्येक देश के पास नए से नए हथियार होने ही चाहिए। लेकिन हम अपना एक मानवहीन या मानवयुक्त यान चंद्रमा की सतह पर भेज कर कौन-सा तीर मार लेंगे?चंद्रमा के बहुत-से रहस्य हैं जो अभी तक खुल नहीं सके हैं। दुनिया के पांच देश अब तक बार-बार चंद्रमा की टोह लेते रहे हैं। उन्होंने अब तक जो जानकारियां हासिल की हैं उनमें से बहुत कुछ को बाकी दुनिया से साझा भी किया है। इन जानकारियों से चंद्रमा के बारे में या हमारे सौर मंडल के बारे में कोई अभिभूत कर देनेवाली जानकारी नहीं मिल पाई है, सिवाय इसके कि चंद्रमा में न तो जीवन है और न ही जीवन को बनाए रखनेवाली स्थितियां हैं। अगर कुछ विशेष जानकारियां अभी भी अपेक्षित या प्रतीक्षित हैं, तो अपने इसरो पर हम यह भरोसा नहीं कर सकते कि उसके वैज्ञानिक वे जानकारियां ला सकेंगे। हर भारतीय जानता है कि अंतरिक्ष विज्ञान के मामले में दुनिया के दर्जनों देश भारत से आगे हैं। प्राचीन काल में तो भारत के अंतरिक्ष अध्येता ही दुनिया भर में अग्रणी थे। हमारे ही एक सपूत खगोलज्ञ ने कई हजार वर्ष पहले पृथ्वी और सूर्य के बीच की सही-सही दूरी और सूर्य की आवर्तन की अवधि की गणना कर ली थी, जिससे विश्व भर के वैज्ञानिक अभी भी चमत्कृत हैं। स्वतंत्र होने के बाद भारत सरकार ने इस महान परंपरा की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने और उसे आगे बढ़ाने का अभियान शुरू कर दिया होता, तो हम समझते कि विज्ञान में हमारी रुचि वास्तविक है। उस समय तो हम अपनी बुद्धि से एक जीप तक बनाने में असमर्थ थे और भारत के पहले रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन को इंग्लैंड से जीप आयात करने के मामले में भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों का सामना करना पड़ा था। आज भी हम अपनी बुद्धि से एक अच्छी कलम या एक अच्छा ट्रांजिस्टर तक बनाने में अक्षम हैं। लेकिन कई वर्षों से सरकारी हलकों में ‘मुझे चांद चाहिए' की हसरत भरी गहमागहमी जारी है।बाल कृष्ण को तो खेलने के लिए चांद चाहिए था। भारत सरकार बच्ची नहीं है। वह जानती है कि अभी तक सिर्फ चार देशों --- अमेरिका, रूस, जापान और चीन तथा यूरोपीय देशों के समवाय यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने चंद्रमा तक यान भेजने में रुचि दिखाई है। इनमें से अमेरिका और रूस को आसानी से अलग किया जा सकता है, क्योंकि ये दोनों देश जो युद्ध जमीन पर लड़ रहे थे, वही युद्ध वे अंतरिक्ष में भी लड़ना चाहते थे। जापान तो अमेरिका का गर्ल फ्रेंड ठहरा। अमेरिका जो चाहता है, जापान को करना पड़ता है। वास्तव में तो उसे इलेक्ट्रॉनिक्स और मोटर गाड़ियों में ज्यादा दिलचस्पी है। अंतरिक्ष में प्रतिद्वंद्विता की होड़ में चीन ही सच्चा खिलाड़ी है, क्योंकि वह अपने आपको इस स्थिति में लाना चाहता है कि अकेले ही पूरी दुनिया से होड़ ले सके। नि:संदेह यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बुद्धिमत्ता दिखाई है। यूरोप में कम से कम पांच ऐसे देश हैं जो अकेले अपने बूते पर चंद्रमा पर बस या कार भेज सकते थे। लेकिन उन्होंने इस पिटे-पिटाए खेल में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब उन्हें यह जरूरी लगा, तो समवेत रूप से यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के माध्यम से यह छोटा-सा काम पूरा कर डाला।भारत चाहता तो सार्क के माध्यम से या भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश संघ के माध्यम से अपनी चंद्र अभिलाषा पूरी कर सकता था। अधिकतर खर्च वह खुद करता तथा बाकी दोनों पड़ोसी नातेदारों से रस्म के तौर पर कुछ सहयोग राशि ले लेता। इससे भविष्य की क्षेत्रीय राजनीति का एक अच्छा नक्शा उभर सकता था। लेकिन भारत के शासकों में इतनी दूरंदेशी कहां! वे तो ‘फेयर एंड लवली' से अपना बदरंग चेहरा चमकाना चाहते हैं। ‘फेयर एंड लवली’ एक लोकप्रिय क्रीम है जो चेहरे पर गोरापन लाने का झांसा देती है। हमारा शासक वर्ग भी बहुत दिनों से गोरा बनने का सपना देख रहा है। त्वचा का अपना जीनशास्त्र है। गोरा तो हम बन नहीं सकते, चाहे हमारी सात पुश्तें पश्चिमी देशों में रह लें। लेकिन गोरों जैसे कुछ काम करके गोरा क्लब में शामिल होने की कामना हम जरूर कर सकते हैं। परमाणु बिजलीघर के लिए यूरेनियम हासिल करने के लिए अमेरिका और यूरेनियम विक्रेता संघ के पांवों पर बिछ कर हमने इस मनहूस दिशा में एक कदम रखा तो अब अपने खर्च पर चंद्रयान भेज कर दूसरा कदम रख कर मन ही मन लड्डू खा रहे हैं।जरा गौर कीजिए कि चंद्रयान के सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में पहुंच जाने पर हमारे दो शीर्ष राज्यकर्मियों ने क्या कहा। राष्ट्रपति प्रतिभापाटिल का राष्ट्र के नाम संदेश यह है : ‘चंद्रयान से जुड़े सभी वैज्ञानिकों को बधाई। यह गर्व के साथ-साथ जश्न का भी समय है। देश का मान और बढ़ गया है।’ इसी की प्रतिध्वनि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बधाई संदेश में सुनाई देती है : ‘आज का दिन अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए ऐतिहासिक है। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में देश की प्रतिष्ठा में इजाफा हुआ है।’ दोनों शीर्षस्थों को नाज इस बात का है कि चंद्रयान छोड़ने से देश की इज्जत बढ़ी है। अब हम पांच के उस क्लब में शामिल हो गए हैं जिन्होंने चंद्रमा पर झंडा गाड़ा है। अब चंद्रमा की सूखी, पथरीली सतह पर पांच के बजाय छह झंडे होंगे। ईश्वर अगर यह देख रहा होगा, तो वह हम भारतीयों के इस तमाशे पर ठठा कर कितना हंस रहा होगा। शायद वह यह भी सोचता हो कि इस जमीन पर कई-कई अवतार ले कर मुझसे गलती तो नहीं हो गई! इनके सुधरने के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। बेशक भारत की विशाल अर्थव्यवस्था को देखते हुए यह कोई मंहगा तमाशा नहीं है। बताते हैं कि इस कार्यक्रम पर कुल मिला कर मात्र चार सौ छियासठ करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। चार सौ छियासठ करोड़ रुपए आजकल होते क्या हैं? दिल्ली और मुबई में इस रकम से उस स्तर की मुश्किल से चालीस-पचास ही कोठियां खरीदी जा सकती हैं जिस स्तर की कोठियों में अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और मुकेश अंबानी जैसी हस्तियां रहती हैं। हमारे राष्ट्रपति भवन की कीमत तो इससे कहीं बहुत ज्यादा होगी। यानी हम चाहें तो सोच सकते हैं कि जैसे दिवाली की रात बहुत-से अमीर परिवार कई लाख रुपयों के पटाखे जला डालते हैं या नववर्ष के आयोजनों पर लाखों रुपए फूंक देते हैं, वैसे ही भारत सरकार ने अपनी किसी छोटी-सी जेब से कुछ रकम निकाल कर अपनी एक हविस पूरी कर ली। आखिर इज्जत का सवाल है। अब हम गर्व से यह याद कर सकते हैं कि हमारा भी यान चंद्रमा तक हो आया है। बेशक इसके लिए यह भुला देना होगा कि जिन देशों के नागरिक अपने देश पर गर्व करते हैं, वे चंद्र या मंगल यानों की गिनती नहीं रखते, बल्कि यह बताते हैं कि उनके यहां स्वस्थ और दीर्घायु लोगों की संख्या कितनी बड़ी है, कि उनके यहां ज्यादातर लोग खुशहाल जिंदगी जीते हैं और भूख तथा बीमारी से बहुत कम लोग मरते हैं।इन सब चीजों को यानी बहुसंख्य भारतीयों का जीवन खुशहाल बनाने की चुनौती को हमारी लोकतांत्रिक रीति से चुनी हुई सरकार या सरकारों ने मान्यता ही नहीं दी है। इसलिए इस चुनौती को स्वीकार न करने की ग्लानि का कोई सवाल ही नहीं है। गरीब, भूखे, अशिक्षित, बीमार और अर्ध-रोजगारशुदा भारतीय मानो किसी और ग्रह पर बसते हों। भारत में आदमी वही है जिसका पैसा शेयर बाजार में लगा हो। जो महानगरों के मंहगे घरों में रहता हो और जिसकी दैनिक आमदनी गरीब लोगों की दैनिक आमदनी से सैकड़ों गुना ज्यादा हो। इसी अल्पसंख्यक भारत को परमाणु बिजलीघर पर गर्व करने का नशा है, चंद्रमा की यात्रा का शौक है, अरबपतियों की बढ़ती हुई संख्या पर शैंपेन खोलने का उन्माद है। दिन भर बजबजाते हुए मीडिया के माध्यम से पूरे देश को संदेश दिया जा रहा है कि घीसू और माधो, होरी और धनिया भी जमींदार साहब के इस जश्न में हिस्सा लें और खुश हों कि वे उस देश में रहते हैं जिस देश में चंद्रमा एक खिलौना है। वे भूल जाएं कि चार सौ छियासी करोड़ रुपयों से लाखों बच्चों को डायरिया से मरने से बचाया जा सकता है या एकाध लाख वेश्याओं को शरीफों की तरह जीने का अवसर दिया जा सकता है। 000
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