आतंकवाद के समय में गांधी
राजकिशोर
महात्मा गांधी का संदेश अगर कहीं बहुत कमजोर और असहाय नजर आता है, तो वह आतंकवाद का मुद्दा है। जब शहर-दर-शहर बम विस्फोट हो रहे हों और निर्दोष तथा अनजान लोगों की जान जा रही हो तथा आतंकवादी समूह इस तरह प्रसन्न हो रहे हों जैसे उन्होंने किसी महान काम को अंजाम दे दिया हो, उस वक्त हम गांधी की किस चीज का अनुकरण कर सकते हैं? आतंकवाद की उग्रतर हो रही समस्या का समाधान करने के लिए क्या गांधीवाद के पास कोई कार्यक्रम है?
हम जानते हैं कि हिटलर के उदय और द्वितीय विश्व युद्ध के समय में भी गांधी जी को निरुत्तर करने के लिए उनसे इस तरह के सवाल किए जाते थे। लेकिन महात्मा के पास सत्य और अहिंसा की ऐसी अचूक दृष्टि थी कि वे कभी भी लाजवाब नहीं हुए। उनका कहना था कि अगर किसी आक्रमणकारी देश की सेना ने हम पर आक्रमण कर दिया है, तो हमारा कर्तव्य यह है कि हम निहत्थों की मानव दीवार बना कर उसके सामने खड़े हो जाएं। सेना आखिर कितने लोगों की जान लेगी? अंत में वह इस अहिंसक शक्ति के सामने हथियार डाल देगी और आक्रमण करनेवाला तथा जिस पर आक्रमण हुआ है, वह दोनों फिर से भाई-भाई हो जाएंगे। जब फासिस्ट जर्मनी ने इंग्लैंड पर हमला किया था, तो अंग्रेजों को गांधी जी की सलाह यही थी। लेकिन इस पर किसी ने अमल नहीं किया। युद्ध का जवाब युद्ध से दिया गया। शायद यही वजह है कि दूसरा महायुद्ध समाप्त होने के बाद से धरती से युद्ध और हथियार की समस्या खत्म नहीं हुई है।
लेकिन आतंकवाद की समस्या तो युद्ध से भी अधिक जटिल है। युद्ध में दुश्मन प्रत्यक्ष होता है, जब कि आतंकवादी छिप कर वार करता है। इस सात परदे में छिपे हुए खूंखार जानवर के सामने अहिंसा की ताकत को कैसे आजमाया जाए? इस संदर्भ में निवेदन यह है कि जब भी आतंकवाद के गांधीवादी समाधान के बारे में पूछा जाता है, तो इरादा यह होता है कि सारी वर्तमान व्यवस्था यूं ही चलती रहे और तब बताओ कि गांधीवाद आतंकवाद को खत्म करने का क्या तरीका सुझाता है। क्या यह सवाल कुछ इस तरह का सवाल नहीं है कि मैं अभी की ही तरह आगे भी खाता-पीता रहूं, मुझे अपनी जीवन चर्या में कोई परिवर्तन न करना पड़े, तब बताओ कि मेरी बीमारी ठीक करने का नुस्खा तुम्हारे पास क्या है। विनम्र उत्तर यह है कि यह कैसे संभव है? स्वास्थ्य लाभ करने के लिए वह जीवन शैली कैसे उपयुक्त हो सकती है जिससे बीमारी पैदा हुई है? जिन परिस्थितियों के चलते आतंकवाद पनपा है, उन परिस्थितियों के बरकरार रहते आतंकवाद से संघर्ष कैसे किया जा सकता है? गांधीवाद तो क्या, किसी भी वाद के पास ऐसी गोली या कैप्सूल नहीं हो सकता जिसे खाते ही हिंसा के दानव को परास्त किया जा सके। जब ऐसी कोशिशें नाकाम हो जाती है, तो यह सलाह दी जाती है कि हमें आतंकवाद के साथ जीना सीखना होगा।
अगर हम गांधी जी द्वारा सुझाई गई जीवन व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत हैं, तो जो समाज हम बनाएंगे, उसमें आतंकवाद की समस्या पैदा हो ही नहीं सकती। आतंकवाद के दो प्रमुख उत्स माने जा सकते हैं। एक, किसी समूह के साथ अन्याय और उसके जवाब में हिंसा की सफलता में विश्वास। दो, आबादी की सघनता, जिसका लाभ उठा कर विस्फोट के द्वारा जानमाल की क्षति की जा सके और लोगों में डर फैलाया जा सके कि उनका जीवन कहीं भी सुरक्षित नहीं है। गांधीवादी मॉडल में जीवन की व्यवस्था इस तरह की होगी कि भारी-भारी जमावड़ेवाली जगहें ही नहीं रह जाएंगी। महानगर तो खत्म ही हो जाएंगे, क्योंकि वे निहायत अस्वाभाविक बस्तियां हैं, जहां जीवन का रस रोज सूखता जाता है। लोग छोटे-छोटे आधुनिक गांवों में रहेंगे जहां सब सभी को जानते होंगे। स्थानीय उत्पादन पर निर्भरता ज्यादा होगी। इसलिए बड़े-बड़े कारखाने, बाजार, व्यापार केंद्र वगैरह अप्रासंगिक हो जाएंगे। रेल, वायुयान आदि का चलन भी बहुत कम हो जाएगा, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में लोग हर समय तेज वाहनों से आते-जाते रहें, यह पागलपन के सिवाय और कुछ नहीं है। वर्ष में एक-दो बार लाखों लोग अगर एक जगह जमा होते भी हैं जैसे कुंभ के अवसर पर या कोई राष्ट्रीय उत्सव मनाने के लिए, तो ऐसी व्यवस्था करना संभव होगा कि निरंकुशता और अराजकता न पैदा हो। इस तरह भीड़भाड़ और आबादी के संकेंद्रण से निजात मिल जाएगी, तो आतंकवादियों को प्रहार करने के ठिकाने बड़ी मुश्किल से मिलेंगे।
लेकिन ऐसी व्यवस्था में आतंकवाद पैदा ही क्योंकर होगा? बेशक हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होगी, लेकिन संगठित हिंसा की जरूरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि किसी भी समूह के साथ कोई अन्याय होने की गुंजाइश न्यूनतम हो जाएगी। आतंकवादी पागल नहीं होता है। वह अपनी समझ से किसी बड़े अन्याय के खिलाफ लड़ रहा होता है। जब ऐसा कोई अन्याय होगा ही नहीं और हुआ भी तो तुरंत उसे सुधारा जा सकेगा, तब आतंकवादी मानसिकता क्योंकर बनेगी? ऐसे समाज में मुनाफा, शोषण, दमन आदि क्रमश: इतिहास की वस्तुएं बनती जाएंगी। जाहिर है, सत्य और अहिंसा पर आधारित इस व्यवस्था में सांप्रदायिक, नस्ली या जातिगत विद्वेष या प्रतिद्वंद्विता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा। हिंसा को घृणा की निगाह से देखा जाएगा। कोई किसी के साथ अन्याय करने के बारे में नहीं सोचेगा। क्या इस तरह का समाज कभी बन सकेगा? पता नहीं। लेकिन इतिहास की गति अगर हिंसा से अहिंसा की ओर, अन्याय से न्याय की ओर तथा एकतंत्र या बहुतंत्र से लोकतंत्र की ओर है, जो वह है, तो कोई कारण नहीं कि ऐसा समाज बनाने में बड़े पैमाने पर सफलता न मिले जो संगठित मुनाफे, संगठित अन्याय और संगठित दमन पर आधारित न हो। केंद्रीकरण -- सत्ता का, उत्पादन का और बसावट का -- अपने आपमें एक तरह का आतंकवाद है, जिसमें अन्य प्रकार के आतंकवाद पैदा होते हैं। आतंकवाद सिर्फ वह नहीं है जो आतंकवादी समूहों द्वारा फैलाया जाता है। आतंकवाद वह भी है जो सेना, पुलिस, कारपोरेट जगत तथा माफिया समूहों के द्वारा पैदा किया जाता है, जिसके कारण व्यक्ति अपने को अलग-थलग, असहाय और समुदायविहीन महसूस करता है।
ऐसा नहीं मानना चाहिए कि जिन समाजों में आतंकवाद की समस्या हमारे देश की तरह नहीं है, वे कोई सुखी समाज हैं। एक बड़े स्तर पर आतंकवाद उनके लिए भी एक भारी समस्या है, नहीं तो संयुक्त राज्य अमेरिका आतंकवाद के विरुद्ध विश्वयुद्ध नहीं चला रहा होता। लेकिन जिस जीवन व्यवस्था से आतंकवाद नाम की समस्या पैदा होती है, उससे और भी तरह-तरह की समस्याएं पैदा होती हैं, जिनमंे पारिवारिक तथा सामुदायिक जीवन का विघटन एवं प्रतिद्वंद्विता का निरंतर तनाव प्रमुख हैं। इसलिए हमें सिर्फ आतंकवाद का ही समाधान नहीं खोजना चाहिए, बल्कि उन समस्याओं का भी समाधान खोजना चाहिए जिनके परिवार का एक सदस्य आतंकवाद के नाम से जाना जाता है। इस खोज में गांधीवाद सर्वाधिक सहायक सिद्ध होगा, ऐसा मेरा अटल विश्वास है। 000
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