Sunday, October 24, 2010

भारत की राजनीति में परिवारवाद

राजनीति का घरेलूकरण

राजकिशोर

बातचीत का प्रसंग यह था : भारत में साठ वर्षों से लोकतंत्र है। फिर भी क्या बात है कि जिधर देखो, उधर ही नेता लोग राजनीति का घरेलूकरण कर रहे हैं। उनके बेटे-बेटियाँ राजनीति में इस तरह आ रहे हैं जैसे यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। मजे की बात है कि इनमें से ज्यादातर ने आधुनिक शिक्षा पाई है, वे सॉफ्टवेयर इंजीनियर या एमबीए हैं, लेकिन इन पेशों में वे नहीं उतरते। वे सीधे राजनीति में जाते हैं और अपने पिता का उत्तराधिकार संभालते हैं। पति जेल में है, तो उसकी जगह पर पत्नी चुनाव लड़ रही है। क्या इससे हमारी राजनीति दूषित नहीं हो रही है?

यह सुनते ही वे तैश में आ गईं। उन्होंने कहा, आप लोग पागलों की तरह बात कर रहे हैं। जब शिक्षक का बेटा शिक्षक हो सकता है, डॉक्टर का बेटा डॉक्टरी कर सकता है, आईएएस का बेटी आइएस बन सकती है, तो राजनीति में ही क्या खास बात है? बाप नेता है, तो बेटे की शिक्षा-दीक्षा राजनीतिक वातावरण में होती है। वह जन्म से ही राजनीति का कखग समझने लगता है। फिर अगर वह प्रोफेशन के तौर पर राजनीति को अपनाता है, तो इसमें हर्ज क्या है? उसका जन्म पॉलिटिशियन के परिवार में हुआ है, क्या इसलिए पॉलिटिक्स में जाने का उसका हक मारा गया? यह तो सीधे-सीधे भेदभाव है। लोकतंत्र में किसी भी वर्ग के साथ भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। नहीं तो हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।

उन्हें मैंने ध्यान से देखा। वे मध्य वयस की आकर्षक और आधुनिक महिला थीं। जरूर कॉन्वेंट में पढ़ी होंगी। मन हुआ, पूछूं कि आप किसी राजनीतिक परिवार से तो नहीं हैं। दोस्तों की बैठक थी। इसलिए किसी पर कटाक्ष करना उचित नहीं था।

फिर भी मुझसे रहा न गया। मैंने कहा, डॉक्टर का बेटा यूं ही डॉक्टर नहीं बन जाता। वह पांच साल तक जम कर पढ़ाई करता है। कई-कई इम्तहान पास करता है। तब जा कर उसे रोगी की नब्ज पकड़ने का अधिकार मिलता है। यही बात वकालत, इंजिनियरिंग तथा अन्य पेशों पर भी लागू होती है। इसलिए उनकी तुलना राजनीति से नहीं हो सकती। राजनीति में उतरने के लिए कोई क्वालिफिकोशन तय नहीं की गई है। इसलिए लोगों ने उसे घरेलू बिजनेस बना रखा है। बाप चाहता है कि राजनीति करते हुए उसने जो कुछ भी हासिल किया है, वह सिर्फ उसके बेटे-बेटी को मिले। यह परिवारवाद देश के लिए बहुत खतरनाक है। इससे योग्यता की पूछ घटती है और अयोग्य लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। यह लोकतंत्र नहीं है। उसमें भितरघात है।

मेरे बगल में एक प्रोफेसर बैठे हुए थे। उन्होंने बातचीत में दखल दी, क्या आप कहना चाहते हैं कि राहुल गांधी में योग्यता नहीं है? मनमोहन सिंह तथा दूसरे अनेक नेता राहुल गांधी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं, तो क्या यह उनकी बेवकूफी है? आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि देश की जनता भी राहुल गांधी के बारे में यही सोचती है। वे जहां भी जाते हैं, लोग उनकी आरती उतारते हैं।

मुझे जवाब देने की जरूरत नहीं पड़ी। जिस घर में हम बैठे हुए थे, उसकी मालकिन ने मुसकराते हुए कहा, शुक्ला जी, मेरा ही नहीं, सभी का खयाल यह है कि राहुल गांधी की यह आवभगत इसीलिए होती है कि वे राजीव गांधी के बेटे हैं। अगर उनकी जगह हमारे बगल के वर्मा जी का बेटा होता, तो उसे कोई नहीं पूछता। उसे अपनी पार्टी का जिला सचिव होने में कई साल लगते, जबकि राहुल गांधी को राजनीति में प्रवेश करते ही कांग्रेस पार्टी का महासचिव बना दिया गया। अपनी योग्यता साबित किए बगैर ही उन्हें एमपी का टिकट दे दिया गया और पहली बार में ही वे जीत भी गए। क्या यह सामंतवाद नहीं है ?’

अब फिर उस महिला की बारी थी जो राजनीति में परिवारवाद का समर्थन कर रही थीं। उन्होंने तीखी आवाज में कहा, राजनीति सभी लोग नहीं कर सकते। यह एक विशिष्ट पेशा है। राहुल का परिवार लगातार राजनीति में रहा है। इसलिए वे दूसरों से बेहतर नेता हो सकते हैं।

यह सुनते ही बैठक में हंसी की लहर दौड़ गई। कई आवाजें एक-दूसरे से टकराईं – पेशा ! हा हा ! फिर तो डकैती भी पेशा है। हा हा ! चोरी भी पेशा है।! शायद इलाहाबाद के एक जज ने कहा था कि आजकल खादी अपराधियों की वर्दी बन गई है।

इस मजाक में सभी शामिल थे। कोने में एक सज्जन खादी का कुरता-पाजामा पहने हुए थे। कलाई पर मंहगी-सी घड़ी थी। उंगलियों में तरह-तरह की अंगूठियां भी। वे भी ठहाका लगाने लगे। बैठक में राजनीति के वर्तमान चरित्र के बारे में सर्वसम्मति दिखाई पड़ी।

मुझे लगा कि मेरा तर्क भारी पड़ रहा है। तभी दूसरे कोने में बैठे एक शरीफ-से सज्जन ने शौक फरमाया, राजनीति से लोग चाहे जितना दुखी हों, पर फैक्ट यह है कि आज के नौजवान राजनीति में आना ही नहीं चाहते। वे अमेरिका-यूरोप जाना चाहते हैं, अपने करियर पर ध्यान देना चाहते हैं, अपने-अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसी हालत में अगर राजनीतिक परिवारों की नई पीढ़ी राजनीति में आ रही है, तो इसमें बुराई क्या है? आखिर देश को अफसरों के भरोसे तो छोड़ा नहीं जा सकता। पॉलिटिशियन्स के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता।

मैंने कनखी से देखा, उस आकर्षक और आधुनिक महिला के चेहरे की चमक कुछ बढ़ गई थी। वे हलके-हलके मुसकरा रही थीं।

मैंने हस्तक्षेप करने का फैसला किया, नौजवान राजनीति में इसलिए नहीं आना चाहते क्योंकि यह बरदाश्त की सीमा से ज्यादा गंदी हो चुकी है। इस कीचड़ में कौन भला आदमी पैर रखना चाहेगा ? आज का पढ़ा-लिखा नौजवान डीसेंट माहौल में काम करना चाहता है। राजनीति में इसके लिए कोई गुंजायश नहीं रह गई है। यह चापलूसों का बाड़ा बन गया है। यहां कोई स्वाभिमानी आदमी टिक ही नहीं सकता।

मैंने पानी का गिलास हाथ में ले कर कुछ घूंट लिए और आगे कहा, नंबर एक। नंबर दो, किसी भी दल का बॉस नहीं चाहता कि राजनीति में पढ़े-लिखे, समझदार लोग आएं और सचमुच जन सेवा करें। अगर बड़ी संख्या में बेहतर मिजाज के लोग आते हैं, तो पार्टी का कैरेक्टर ही बदल जाएगा। गंदे लोगों के हाथ से पतवार छूट जाएगी। यह किसको गवारा होगा? इसीलिए शरीफ लोग राजनीति से दस हाथ दूर ही रहते हैं।

मेरे पास की एक अपेक्षाकृत युवा महिला बहस में कूद पड़ीं। उन्होंने कहा, आखिर कोई तो बात है कि हम खेलकूद के क्षेत्र में कीर्तिमान बनाते हैं, हमारे उद्योगपति विदेशों में जा कर अपना झंडा गाड़ रहे हैं, हमारे वैज्ञानिक और डॉक्टर अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा कमा रहे हैं, पर भारत के राजनीतिज्ञों के बारे में सोचते ही हम अपनी ही निगाह में गिर जाते हैं। दूसरे क्षेत्रों में देश आगे बढ़ रहा है, पर राजनीति के क्षेत्र में पीछे भाग रहा है।

गृह स्वामी अभी तक चुप थे। शायद शिष्टाचार की मांग थी कि वे दूसरों को बोलने का ज्यादा अवसर दें। लेकिन आखिर उन्हें बोलना ही पड़ गया, दोस्तो, इसका सबसे बड़ा कारण राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला है। सभी राजनीतिक दल गिरोह बन चुके हैं। इसलिए इन तालाबों का पानी सड़ता जा रहा है। जो ताजा खून आता है, वह पुराने खून से भी ज्यादा संक्रामक होता है। इसीलिए राजनीतिक दलों में नीति और कार्यक्रम पर कोई बहस नहीं होती। विचारवान लोगों का तो प्रवेश ही निषिद्ध है। जो समझने-बूझने वाले लोग हैं, वे अपनी इज्जत बचाने की खातिर चुप्पी साधे रहते हैं। बेटे-बेटियों के आगे विद्वान मेढ़क नजर आते हैं। इस राजनीति में साधारण लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जब लूट-खसोट ही राजनीति का पर्याय हो चुकी हो, तो जनता के हितों के बारे में कोई क्यों सोचे? मेरा तो खयाल है, इस समय हमारे नेता लोग ही देश के विकास में सबसे ज्यादा बाधक हैं। नेताओं के कारण नहीं, बल्कि नेताओं के बावजूद देश आगे बढ़ रहा है।

जन सभा की तरह जोरदार तालियां बजीं। इनमें एक ताली मेरी भी थी। तभी उस आकर्षक और आधुनिक महिला ने लगभग चीखते हुए कहा, अगर हमारे पॉलिटियिशन्स इतने ही बुरे हैं, अगर वे सिर्फ अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं, तो जनता उन्हें वोट क्यों देती है? जाहिर है, वोट पाए बिना कोई भी नेता ज्यादा दिनों तक अपना कारबार नहीं चला सकता। उसकी फर्म डूब जाएगी।

इसका उत्तर आया मेरे पास की उस अपेक्षाकृत युवा महिला की ओर से, मैडम, जनता इन ललमुंहों को वोट देने के लिए मजबूर है, क्योंकि उसके पास कोई विकल्प नहीं है। जब भी कोई साफ-सुधरा विकल्प सामने आता है, जनता उसकी ओर ऐसे लपकती है जैसे बच्चा मां की ओर। पर उसकी भूख नहीं मिटती। नया विकल्प जल्द ही बासी पड़ जाता है। दरअसल, सच्चा और टिकाऊ विकल्प तब तक नहीं पैदा हो सकता जब तक राजनीति रेडिकल सुधार नहीं आता।

बीच की बड़ी मेज पर पकौड़ियों, नमकीन और काजू के साथ-साथ कांच के पतले खूबसूरत गिलास लग चुके थे। फिर बोतलें भी आ लगीं।

तभी गृहस्वामी का आठ साल का बच्चा दौड़ते हुए आया और सभी की ओर देखते हुए बोला, हल्ला-गुल्ला बंद करो। अपना ग्लास खाली करो।

हम मध्य वर्ग के अनुशासन-प्रिय लोग थे। हमने हल्ला-गुल्ला बंद कर दिया और चियर्स कहते हुए अपना-अपना गिलास उठा लिया। 000

2 comments:

प्रवीण त्रिवेदी said...

कुछ ऐसे ही के सवालों के जवाबों का हमें इन्तजार था !

संतोष त्रिवेदी said...

राजनीति में परिवारवाद पर बहस अब बेमानी है क्योंकि कोई भी राजनीतिक व्यक्ति इसमें पीछे नहीं है,यह बात और है की सबके 'सिक्के' नहीं चलते.वरुण और मेनका भाजपा के लिए इसीलिए काम की हैं की वह 'गाँधी-वंश'से ताल्लुक रखते हैं,यह अलग बात है कि वे कोई प्रभाव छोड़ पाने में असमर्थ हैं!