Sunday, October 10, 2010

वर्धा विश्वविद्यालय में जन्मशती कार्यक्रम


श्रेष्ठता का सामीप्य
राजकिशोर


जब से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में आवासी लेखक के रूप में आया हूं, यहां सन्नाटे का ही ज्यादा अनुभव हुआ है। सन्नाटा प्रकृति का ही नहीं, बल्कि कुछ-कुछ संस्कृति का भी। प्रकृति के सन्नाटे को पहली बार तोड़ा अनवरत वर्षा ने, जिसके बारे में बताया गया कि यह इस वर्ष की खास घटना है। खास से आम तौर पर मैं दूर ही रहा हूं, लेकिन यह खास और ढंग का था। सबसे बड़ी बात यह कि यह सबके लिए था। इसलिए दूसरों के साथ-साथ मैंने भी छक कर इसका आनंद लिया। यह आनंद इस साल दिल्ली में भी उपलब्ध था, पर वहां का महानगरीय वातावरण इसे काफी हद तक कुंठित कर देता था। वर्धा विश्वविद्यालय में प्रकृति का अपमान नहीं किया गया है। यहां वह मानव मन की तरह स्वतंत्र है।

संस्कृति के सन्नाटे को बहुत बड़े पैमाने पर तोड़ा दो और तीन अक्टूबर को विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित साहित्यक सम्मेलन ने। यह सम्मेलन अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की जन्म शती मनाने के लिए था। यह आयोजकों के दृष्टिकोण की व्यापकता का परिचायक है कि उन्होंने फैज अहमद फैज की जन्मशती को भी इस कार्यक्रम में जोड़ लिया था। बात सभी उर्दू-हिन्दी की साझा दोआबा संस्कृति की करते हैं, पर ऐन मौके पर यह बात याद नहीं रहती। मेरे खयाल से, हमें अब फिर से सोचना शुरू कर देना चाहिए कि हिन्दी और उर्दू अगर जुड़वां बहनें हैं, तो इनके साहित्यों को और ज्यादा निकट लाने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए।
दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रोफेसर अली ज़ावेद ने फैज पर हुई गोष्ठी की अध्यक्षता की थी। उसी शाम उनसे काफी देर तक मेरी बातचीत हुई। उन्होंने बताया कि हिन्दुस्तान में उर्दू की हालत बहुत चिंताजनक है। प्रकाशकों का अभाव है। लेखकों को रायल्टी नहीं मिलती। पाठकों की संख्या कम होती जा रही है। हिन्दी समाज में उर्दू लेखकों की व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए मैंने एक बार फिर महसूस किया कि उर्दू अगर देवनागरी में लिखी जाए, तो वह न केवल हिन्दी के और करीब आएगी, बल्कि उसके ग्रहणकर्ताओं की संख्या खूब बढ़ जाएगी। वहीं एक विद्वान ने बताया कि रामचरितमानस और सूर सागर की बहुत-सी प्रतियां फारसी लिपि में उपलब्ध हैं। इससे भाषा और लिपि के लचीले संबंध पर प्रकाश पड़ता है।

महसूस तो पहले भी किया होगा, पर इस कार्यक्रम के दौरान पहली बार लक्ष्य किया कि श्रेष्ठता के संपर्क में आने पर हम कैसे अचानक थोड़ा ऊपर उठा अनुभव करने गीलगते हैं। विश्वविद्यालय की अपनी श्रेष्ठताएं होंगी। लेकिन मैंने अभी तक उन्हें पुंजीभूत रूप में देखा नहीं है। बहरहाल, दो और तीन अक्टूबर को श्रेष्ठता का जो समवाय दिखाई पड़ा, उसके प्रभाव का वर्णन किए बिना मैं रह नहीं सकता। करीब चालीस लेखक बाहर से आए थे – नामवर सिंह से ले कर दिनेश कुशवाह तक। मानो साहित्य सूर्य की रश्मियों का पूरा स्प्रेक्टम खुल गया हो। सबकी अपनी-अपनी छटा थी। इन छटाओं की खुशबू ने जैसे विश्वविद्यालय के वातावरण को अपनी घनी उपस्थिति से भर दिया हो। सभी की चेतना का स्तर अचानक कुछ उपर उठ चला। रोजमर्रा की बातचीत के बीच अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, फैज वगैरह हमारे बीच आ बैठे।
यह कुछ-कुछ ऐसे ही था जैसे कोई सच्चा संत गांव में आता है तो गांव का माहौल अपने आप बदल जाता है। या, आप किसी पुस्तकालय या किताबों की दुकान में पैर रखते हैं, तो आपकी मानसिकता बदल जाती है। या, कोई श्रेष्ठ पुस्तक पढ़ने के दौरान आप वही नहीं रह जाते जो इसके पहले थे। यह नहीं कहा जा सकता कि आपके व्यक्तित्व में यह पहलू था ही नहीं। था नहीं, तो सामने कहां से आया? साहित्य आदमी में कुछ नया नहीं पैदा करता, वह सिर्फ उसे जगा देता है, जो परिस्थितियों की वजह से चादर तान कर सोया हुआ था। यही पाठक की सृजनात्मकता है। लेखन का काम इस सृजनात्मकता को जाग्रत करना है। दरअसल, इसी बहाने से लेखक की अपनी सृजनात्मकता भी नई होती चलती है।

श्रेष्ठता भी यही काम करती है। वह आपकी चेतना की भीतरी परतों को ऊपर ले आती है। तुलसी दास ने कहा है, एक घड़ी आधी घड़ी, आधि में पुनि आध। तुलसी संगत साधु की कटे कोटि अपराध। जरा विचार करके देखिए, क्या हम सब अपने ही अपराधी नहीं हैं? श्रेष्ठता का सामीप्य हमें अपने अपराधों को माफ करने का अवसर नहीं देता, लेकिन अपने अपराधों को देख सकने वाली आंख को खोलने में हमारी मदद करता है। यह क्या कम है? 000

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