Sunday, October 10, 2010

लोहिया के वारिस

लोहिया के वारिस
राजकिशोर


डॉ. राममनोहर लोहिया के वारिसों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है - कलमवीर, गलावीर और कर्मवीर। इनमें कलमवीरों की संख्या सबसे ज्यादा दिखाई देती है। इन सब में मस्तराम कपूर को सलाम किया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने लोहिया जी के संपूर्ण लेखन को नौ बड़े-बड़े खंडों में संकलित कर प्रकाशित करवाया है। संकलित सामग्री का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी मूल में है। इसका अनुवाद उन्होंने खुद किया है और मित्रों से भी करवाया है। अब वे लोहिया समग्र को अंग्रेजी में लाने का उद्यम कर रहे हैं। यह उनके पहले काम से भी ज्यादा कठिन है। लोहिया जी की अंग्रेजी का हिन्दी में अनुवाद करना आसान नहीं है। पर उनकी हिन्दी का अंग्रेजी में अनुवाद करना ज्यादा मुश्किल है।

मस्तराम कपूर के इस उद्यम का महत्व वही महसूस कर सकते हैं जिन्हें अरसे से यह कमी खलती रही है कि लोहिया की किताबें छिटपुट रूप से तो उपलब्ध हो जाती हैं, पर उन्हें न तो एक जगह संकलित किया जा सका, न किसी एक प्रकाशक के यहां से प्रकाशित करवाया जा सका। लोहिया का कुछ साहित्य हैदराबाद से छपा, कुछ इलाहाबाद से। शायद कुछ बनारस से भी। पर व्यवस्थित रूप से कुछ भी उपलब्ध नहीं था। समाजवादियों के निकम्मेपन की यह एक छोटी-सी बानगी है। जो समूह अपनी वैचारिक थाती को अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित छोड़ कर नहीं जा सकता, उसका वंश जल्द ही डूब जाता है। मस्तराम कपूर ने कम से कम इतना तो कर ही दिया है, वह भी इस बढ़ती उम्र में और बिना किसी फंडिंग के, कि भविष्य में किसी को लोहिया के विचारों को जानने की जरूरत हुई, तो उसे शहर-दर-शहर भटकना नहीं पड़ेगा। इस दृष्टि से कपूर जी को कलमवीरों में अपवाद होने का श्रेय दिया जा सकता है।

लेकिन दूसरे कलमवीर उत्सव के दौरान ड्रम बजाने वालों से बेहतर नहीं हैं। उनकी कलम में अतिरिक्त सियाही हमेशा मौजूद होती है। वे इस स्याही का इस्तेमाल पहले छिटपुट या कभी-कभार करते थे। लोहिया की जन्म शती के अवसर पर वे तबीयत से स्याही उड़ेल रहे हैं। यह पूरी तरह बेमतलब तो नहीं है, पर इससे लोहिया की असल छवि छिपी रह जाती है। लोहिया सिद्धांत की बात जरूर करते थे, पर उसके साथ अल्पकालिक या दीर्घकालीन कार्यक्रम को जरूर जोड़ते थे। कार्यक्रम के बिना सिद्धांत गले के हार की तरह है - न वह खाने-पीने के काम आता है, न उससे सेहत सुधरती है। आज के लोहियावादी लेखन में किसी राजनीतिक कार्यक्रम की झलक तक नहीं मिलती। यहां तक कि समाजवाद का नाम, झिझकते हुए भी, नहीं लिया जाता। ऐसे निर्गुण लेखन से आज की दिशाहारा पीढ़ी को कोई मार्गदर्शन नहीं मिल सकता। लोहिया के स्तवन से यह तो प्रगट होता है कि वे गांधी के बाद सबसे बड़े नेता और विचारक थे, पर आज के लड़के-लड़कियां पूछेंगी, वे महान थे, तो हमें क्या? हमें यह बताओ कि आज हम क्या करें? वर्तमान लोहियाटिक लेखन इसमें कोई मदद नहीं करता।

जहां तक गलावीरों का सवाल है, उनका तो कहना ही क्या ! कलमवीर कम से कम लिखने की तकलीफ तो गवारा करते हैं, गलावीर माइक के सामने सिर्फ जीभ हिलाते हैं। इन्हें देख कर अब तो गुस्सा तक नहीं आता, क्योंकि इनके बारे में हम पहले से जानते होते हैं कि इनकी राजनीतिक पूंजी कुछ और है। ज्यादातर गलावीर रंगे सियार हैं। कायदे से समाजवादी मिजाज के आयोजकों को इन्हें बुलाना ही नहीं चाहिए, फिर भी इन्हें लगभग हर जगह बुलाया जाता है। इसका एक कारण तो यह है कि सच्चे समाजवादी वक्ता हों तब तो उन्हें आमंत्रित किया जाए। दूसरा कारण यह है, शायद ज्यादा ठोस, कि ज्यादातर गलावीर कहीं न कहीं सत्ता से जुड़े होते हैं। अतएव उनसे कुछ 'उम्मीद' की जा सकती है। आज के बाजार में उम्मीद फारवर्ड ट्रेडिंग की तरह है। हर आदमी इन सौदों में निवेश करता दिखाई देता है।

कलमवीरों की तरह गलावीर भी हर दूसरे वाक्य में लोहिया को महान बताते चलते हैं, पर यह खोजते-खोजते आदमी थक जाता है कि उनके व्यक्तित्व के किस पहलू से लोहिया की झलक मिलती है। श्रोता भी सिर हिला-हिला कर या आंख मूंद कर उनके स्फीत वक्तव्यों को सुनते रहते हैं और सभा समाप्त होने पर कुछ परिचित पुराने समाजवादियों से मिल कर घर लौट जाते हैं। पुरानी किस्म के वाक्यों से उन्हें कुछ नया करने की प्रेरणा नहीं मिलती। गंदों हाथों से छूते रहने से सोना भी लोहे जैसा दिखने लगता है। ऐसे सम्मेलनों में हमेशा पुराने समाजवादियों से ही मुलाकात होती है, क्योंकि नए समाजवादियों की पौध रोपी ही नहीं गई है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि बूड़ा बंस कबीर का, घर ले आया माल, क्योंकि कुछ शीर्ष नामों को छोड़ कर ज्यादातर समाजवादियों ने मालामाल होने की कोशिश तक नहीं की है। वे लोहिया की ही तरह अपनी फकीरी में मस्त हैं। उनकी इस कमी की ओर जरूर ध्यान जाता है कि उन्होंने अपने बड़े नेताओं की कमीज पकड़ कर उनसे कभी पूछा ही नहीं कि समाजवादी बनते हो, तो समाजवादी कार्यक्रम पर अमल करके भी दिखाओ। नहीं तो हम तुम्हें 'डिसओन' करते हैं। 'भागते भूत की लंगोटी ही सही' का सिद्धांत उससे कहीं अधिक व्यापक है जितना हम समझते हैं।

तीसरी श्रेणी के समाजवादियों को हमने कर्मवीर बताया है, पर इनकी संख्या इतनी कम है कि कभी-कभी यह शक होने लगता है कि इनका अस्तित्व है भी नहीं। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में, गांवों में भी लोहिया के सिपाहियों की सक्रियता के बारे में सुनता रहता हूं। ये लोहिया के जमाने में भी मजनूं थे और आखिरी सांस तक मजनूं बने रहेंगे। जैसे, अब भी पुरानी तर्ज के गांधीवादी जहां-तहां मिल जाते हैं। कुछ कम्युनिस्ट भी। मेरे पास इनके लिए सर्वश्रेष्ठ उपमा जुगनू की है। बढ़ते हुए अंधेरे में इन्हें देख कर मन उत्फुल्ल तो होता है, पर आस नहीं बंधती। लोहिया के ज्यादा सक्रिय दावेदारों ने किशन पटनायक की समाजवादी जन परिषद में शरण ली है। इनके लिए परिषद बरसात में छाते की तरह है। समाजवादी जन परिषद के वर्तमान प्रमुख सुनील हर तरह से एक विशिष्ट व्यक्तित्व हैं। वे जानकारी जुटाते हैं, विचार करते हैं, लिखते हैं और राजनीतिक सक्रियता भी बनाए रखते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सुनील मध्य प्रदेश के पिछड़े जिले होशंगाबाद के एक आदिवासी-बहुल गांव में सपरिवार रहते हैं और सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति नहीं करते, अपने क्षेत्र को भी गरम बनाए रखते हैं। परिषद के कुछ अन्य नेता और कार्यकर्ता भी प्रणम्य हैं। काश, ये सभी लोहिया का नाम कुछ और ज्यादा लेते होते।

समाजवादी एकता को संभव करने की बात कई दशकों से सुनने में आती रही है। इस पर मेरी टिप्पणी यही रही है कि समाजवादी हों, तभी तो एकता होगी। चार मुरदे मिल कर भी एक जीवित आदमी का मुकाबला नहीं कर सकते। बहरहाल, समाजवादी एकता की कोशिशें होती रहती हैं। अभी तक तो इन कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला है। इसका कारण यह है कि समाजवादी की इनकी परिभाषा इतनी व्यापक है कि इसमें तमाम तरह के अवसरवादी और राजनीतिक निम्नता के शिखर भी, बिना किसी ग्लानि के, शामिल किए जा सकते हैं। जो लोग एकता की छतरी तले मुलायम सिंह सरीखे नेताओं को एकत्र करना चाहते हैं, वे नादान नहीं, कुइरादों के मारे हुए हैं। ऐसे लोगों के बारे में मिर्जा गालिब लिख गए हैं - जिंद के जिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई। तसल्ली की बात यही है कि इनके इरादे कभी सफल नहीं होंगे।

समाजवादी राजनीति को फिर से जीवित करने के लिए एक सोशलिस्ट फ्रंट बनाया गया है। इस मोर्चे में हमारे कुछ आदरणीय भी शामिल हैं। जब सोशलिस्ट फ्रंट ने बिना किसी तैयारी के एक नए राजनीतिक दल के गठन की महत्वाकांक्षा प्रगट करना शुरू कर दिया, तो अन्य आदरणीय अपने-अपने घर चल दिए। इस तरह के संगठन अंग्रेजी के प्रचलित मुहावरे 'फाल्स प्रेग्नेन्सी' की याद दिलाते हैं। इनके पीछे उद्देश्य कुछ बड़ा होता है, सदिच्छा भी होती है, लेकिन ठोस कर्म के अभाव में इनसे सिर्फ एक छोटे-से मुशायरे का मजा मिलता है। लेकिन इन मुशायरों में बार-बार एक ही गजल पढ़ते रहने से यह मजा क्रमश: कम होता जाता है और आखिर में बोरियत का सिलसिला शुरू हो जाता है। आश्चर्य है कि सोशलिस्ट फ्रंट के नेता अभी तक ऊबे क्यों नहीं हैं। गड़बड़ यह है कि फ्रंट के कर्ता-धर्ता अपने संगठन का विस्तार तक नहीं करना चाहते। वे उन्हें भी अपने साथ ले कर चलने को उत्सुक नहीं हैं, समाजवाद के प्रति जिनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है और जो जमीन से जुड़ कर काम करना चाहते हैं। लेकिन यह 'लक्ष्य बड़ा और दिल छोटा' का एकमात्र उदाहरण नहीं है।

कुछ लोगों का मानना है कि लोहिया खुद महान थे, पर उन्होंने साथी अच्छे नहीं चुने। यह आरोप सही नहीं है। लोहिया जी का काफिला शिव की बारात नहीं थी। कुछ सिरफिरे या सुविधावादी सभी जमातों में होते हैं। वे लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी या संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में भी थे। पर लोहिया उनसे परेशान रहते थे और उन्हें डांटते-डपटते भी रहते थे। कुछ के बारे में तो कहा जाता है कि उनसे मिलने के लिए वे दरवाजा तक नहीं खोलते थे। सार्वजनिक जीवन में ये समस्याएं आम हैं। जो चीज खास है, वह है लोहिया के वारिसों का सीमाहीन चारित्रिक पतन। जॉर्ज फर्नांडिस को इनका महानायक कहा जा सकता है। बहुत सोचने पर भी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्योंकर हुआ। एक ही बात दिखाई देती है। लोहिया या जयप्रकाश व्यावहारिक स्तर पर विफल होने को भी तैयार रहते थे, क्योंकि वे रूटीन किस्म के नेता नहीं थे। पर जो रूटीन किस्म का नेता होता है, उसे किसी भी कीमत पर, अपने सिद्धांतों और चरित्र की कीमत पर भी, सफलता चाहिए। सफलता के लिए दौड़ हमेशा पतित करती है। फिर समाजवादी इसका अपवाद कैसे रह सकते थे ?

फिर भी हम निराश नहीं हैं। हर महापुरुष अपने समय से पहले पैदा होता है। लोहिया ने अपने समय से बहुत बहस की दीऔर संघर्ष भी कम नहीं किया। लेकिन उनका असली समय अभी भी नहीं आया है। जिस तरह इतिहास आज महात्मा गांधी को पुकार रहा है, उसी तरह कल लोहिया को भी पुकारा जाएगा। इस बीच यंत्रणा और फ्रस्टेशन का लंबा दौर हमारे सामने है। काश, लोहिया के प्रति श्रद्धा रखने वाले भले लोग इस दौर को छोटा करने के लिए कुछ कर पाते।

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