‘आतिशे-चिनार’ के आईने में कश्मीर
राजकिशोर
कश्मीर एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है। यह दुर्भाग्य की बात है कि कश्मीर जब अपेक्षाकृत शांत रहता है, तब उस पर न तो बातचीत की जाती है और न लेख लिखे जाते हैं। जब कश्मीर का तापमान बढ़ता है, तब सभी चिंतित होने लगते हैं। इसी समय कश्मीर के आंदोलनकारियों को बातचीत का निमंत्रण भी दिया जाने लगता है। जैसे ही तनाव कुछ कम होता है, कश्मीर के प्रति पुरानी उदासीनता लौट आती है। यह भारतीय राजनीति का वही दमकलवाद है, जिसके फलस्वरूप देश की कोई भी बड़ी समस्या हल नहीं हो पा रही है।
कश्मीर की समस्या को समझने के लिए सबसे पहले कश्मीरी मुसलमानों की मनस्थिति को समझने की जरूरत है। इसके लिए इतिहास में जाना पड़ेगा। जम्मू और कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला ने, जिन्होंने लंबे जन संघर्ष के द्वारा प्रतिक्रियावादी डोगरा शासन से कश्मीर को मुक्त कराया और भारत में कश्मीर के विलय को संभव किया, अपनी आत्मकथा ‘आतिशे चिनार’ में कश्मीर के इतिहास की ऐसी बहुत-सी बातों का जिक्र किया है जिनसे कश्मीर की पीड़ा और क्षोभ को महसूस किया जा सकता है। हाल ही में मुझे इस महत्वपूर्ण पुस्तक का सारांश पढ़ने को मिला। यह सारांश मुहम्मद शीस खान ने तैयार किया है। यह वही शीस खान हैं जिन्होंने विचार और साहित्य के क्षेत्र में इकबाल के ऐतिहासिक योगदान से हिन्दी जगत को परिचित कराया है। पहले इन्होंने इकबाल की महत्वपूर्ण कृति ‘इस्लाम में धार्मिक चिंतन की पुनर्रचना’ का अत्यंत परिष्कृत अनुवाद किया, फिर उनके फारसी महाकाव्य ‘जावेदनामा’ का। उन्हीं के साक्ष्य से शेख अब्दुल्ला की कुछ टिप्पणियों को यहां पेश किया जा रहा है।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि कश्मीर के दमन का सिलसिला अकबर द ग्रेट के समय में ही शुरू हो गया था। अकबर ने एक फरमार के जरिए कश्मीरियों को हथियार बांधने से मना कर दिया। इस फरमान का उद्देश्य यही था कि कश्मीरी अपनी खोई हुई आजादी को प्राप्त करने की चेष्टा न करें। कश्मीर के परवर्ती शासकों – पठानों, सिखों और डोगरों – सभी ने अकबर के इस फरमान को जारी रखा। कश्मीरियों की निरुपायता की यह प्रक्रिया विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए डोगरा शासन में अमानवीयता की सीमा छूने लगी। डोगरों ने कश्मीर को अपने बाहुबल से हासिल नहीं किया था , बल्कि अमृतसर संधि के तहत खरीदा था, अतः वे निवेशित पूंजी को ब्याज सहित जल्दी से जल्दी वसूल करना चाहते थे। शाल बुनकरों के किसी और धंधे में जाने की मनाही कर दी गई। साथ ही, डोगरा शासकों ने अनेक कानूनी बारीकियों एवं विधानों द्वारा कश्मीरी मुसलमानों के उच्च शिक्षा प्राप्त करने पर पाबंदियां लगा दीं। शिक्षा की तरह नौकरियों के द्वार भी मुसलमानों के लिए बंद थे। उच्च शिक्षा के लिए उन्हें लाहौर और अलीगढ़ की राह नापनी पड़ती थी। खुद शेख अब्दुल्ला को पहले लाहौर, फिर अलीगढ़ जाना पड़ा था। कश्मीर के कॉलेजों के दरवाजे उनके लिए बंद थे।
शेख अब्दुल्ला ने अपने सामंतवाद विरोधी आंदोलन के जरिए धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की स्थापना भी की। शेख साहब लिखते हैं, ‘हमारे आंदोलन का दायरा पहले तो मुसलमानों तक सीमित रहा। लेकिन जब आंदोलन के दरवाजे सब धर्मों के लिए खोल दिए गए तो एक संयुक्त मोर्चे की आवश्यकता महसूस हुई। यह मात्र धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक कोटि की ही हो सकता था। जीवन और आंदोलन के अनुभव ने हमें कायल कर दिया था कि अवाम के विभिन्न वर्गों में बुनियादी टकराव धर्मों का नहीं, बल्कि हितों का है। एक तरफ शोषण करने वाले थे और दूसरी तरफ वह जो शोषण का शिकार थे। हमारी लड़ाई की मंशा व मकसद मजलूम की हिमायत और जालिम की मुखालफत था।’ इसी वजह से मुस्लिम कांफ्रेंस का विस्तार कर उसे नेशनल कांफ्रेंस बना दिया गया। यही कश्मीर आंदोलन आज एक आतंकवादी-अलगाववादी संघर्ष में बदल गया है, तो इसके कारणों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
जब पाकिस्तान की शह पर कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया और शेख तथा उनके अनुयायी बहादुरी से उनका मुकाबला कर रहे थे, उस कठिन समय में महाराजा हरी सिंह ने क्या किया ? शीस खान अपने सारांश में लिखते हैं, ‘महाराज हरी सिंह का हीरे-जवाहरात से लद-फंद कर सौ से अधिक मोटरगाड़ियों के काफिले के साथ सपरिवार जम्मू भाग जाना, अपनी कश्मीरी प्रजा को विपत्ति के समय उसके हाल पर छोड़ देना, महाराजा और महारानी तारा देवी का जम्मू के उग्रवादियों को वहां के मुसलमानों के कत्ले-आम के लिए भड़काना, पाकिस्तान भेजने के झांसे से मुसलमानों को एक पार्क में इकट्ठा करवा कर , उसके बाद उन्हें एक ट्क में भर कर एक पहाड़ी के पास उतरवा कर मशीनगनों से उड़ा देना जैसी घटनाएं शेख अब्दुल्ला और उनके आंदोलन को झुलसाने के लिए काफी थीं।’
शेख साहब का कहना है कि 1953 से फरवरी 1964 तक उन्हें अकारण जेल में सड़ाने और उनकी अवामी नेतृत्व शक्ति को बर्दाश्त न कर सकने की पृष्ठभूमि में पं. नेहरू का दोहरा व्यक्तित्व था जो उनकी ग्रेटर इंडिया की परिकल्पना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के बीच दंगल का अखाड़ा बना रहा। वह दोस्तबाजी में अतिवाद की सीमा तक जा सकते थे, किंतु केवल उस स्थिति में जब उन्हें अपने राष्ट्र और अपने व्यक्तिगत हितों पर आंच लगती न मालूम होती थी। वह अपने अंतिम दिनों में अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने की बड़ी अभिलाषा रखते थे। उन्होंने 1964 में शेख की रिहाई के बाद अपने रंज और पछतावे की अभिव्यक्ति की। वे सच्चे दिल से कश्मीर की गुत्थी सुलझाने के लिए शेख की मदद हासिल करना चाहते थे। लेकिन इसके पहले ही मौत ने हस्तक्षेप कर दिया और उनकी दिल ही रह में रह गई। दुर्भाग्य यह है कि नेहरू के चले जाने के बाद भारत की किसी भी सत्ता ने कश्मीर समस्या को सुलझाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की। फलतः कश्मीर समस्या में नए-नए पेंच जुड़ते चले गए।
एक बार तो सरदार पटेल ने शेख अब्दुल्ला से यहां तक कह दिया, ‘बेहतर यही है कि हम एक-दूसरे से अलग हो जाएं।’ इस पर शेख साहब का जवाब था, ‘कश्मीर के लोगों ने आपके साथ उद्देश्य की समकक्षता के आधार पर हाथ मिलाया है। आप अब अपना हाथ खींच लेना चाहते हैं, तो आपका अधिकार है। लेकिन हमने आपसे व्यक्तिगत तौर पर हाथ नहीं मिलाया, बल्कि हिंदुस्तानी अवाम के साथ रिश्ता जोड़ा है। यह सवाल उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। हम भी अपना केस उनके सामने रखेंगे। आप भी अपना दृष्टिकोण उनके सामने रखिए। जो उनका फैसला होगा, वह हमें मंजूर होगा।’ 000
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