Wednesday, May 7, 2008

आया चुनाव, आया चुनाव

एक दलित की डायरी
राजकिशोर

आज राहुल भइया हमारे घर आए। हमें इतनी खुशी हुई कि का कहें। राज परिवार के आदमी हैं। आज तक इस गांव में राज परिवार के किसी भी आदमी का आना नहीं हुआ। पहले तब राजा-महाराजा राज करते थे, हमारे गांव में उनके आने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते थे। यहां तक कि जमींदार भी आसपास नहीं फटकते थे। जब उन्हें बेगार लेना होता था, तो वे खबर भिजवा देते थे। हम नंगे पांव दौड़ते हुए उनके दरवज्जे पर हाजिर हो जाते थे। यह रीत पता नहीं कब से चली आई है। बापू कहते हैं, हमारे बाप-दादों ने पता नहीं क्या पाप किया था कि यह नरक भोगना पड़ रहा है। … हम कभी-कभी सोचते हैं कि पाप हमने नहीं, ठाकुर-बाभनों ने किया है। अभी भी कर रहे हैं। मान्यवर कांशीराम और मायावती दीदी का तो यही कहना है। । अब हमारे दिन बहुर रहे हैं। इन ऊंची जात वालों की नानी मर रही है।

क्या इसीलिए राजीव भइया ने हमारे गांव का दौरा किया? दौरा ही नहीं किया, बल्के हमारी कुटिया में भी पधारे। पहले हम सोचते थे कि राजीव भइया अंगरेज हैं। उनकी मां तो अंगरेजिन हैं ही। उनका रंग कितना सफेद है। साड़ी में भी हमारे मुल्क के लोगों की तरह नहीं लगतीं। उनकी बोली भी अलग है। जब वे हमारी जबान में बोलती हैं, तब भी लगता है कोई फिरंगी औरत बोल रही है। इसी से हम यह मान लिए थे कि राहुल गांधी भी अंगरेज ही होंगे। लेकिन कसम से, वे अपने लोगों जैसे ही लग रहे थे। बस बोल-चाल शहरी थी। … होगी नहीं? डिल्ली शहर में रहते हैं, जहां पहले बड़े-बड़े मुसलमान बादशाह रहते थे। बाद में नेहरू जी रहे। इंदिरा गांधी रहीं। इसमें कुछ हरज भी नहीं है। बड़े लोग बड़ी जगहों में न रहें, तो उन्हें कौन पूछेगा? … एक बार मेरे मामा जलूस में शामिल होने के लिए डिल्ली गए थे। … रास्ते, बिल्डिंग, मोटरगाड़ी -- यह सब देख कर उनकी आंखें चौंधिया गईं। बोले, जल्दी घर चलो। यह तो स्वरग जैसा लगता है। हमें कहीं कोई पकड़ न ले कि इधर कैसे चले आए? भागो इहां से। …

जब राजीव भइया चले गए, तो सरपंच साहब ने बताया कि बेटा, ये बाभन परिवार के हैं। नेहरू जी भी बाभन थे। पहले छत्री लोग राज करते थे। अब बाभनों का नंबर है। समय सबसे बलवान है। तभी तो यूपी में मायावती दीदी ने दिखा दिया कि चमार-भंगी भी राज कर सकते हैं। सुनते हैं, नीतीश कुमार कुर्मी हैं। जो भी हो, धन्न भाग कि बाभन कुमार ने हमारी कुटिया में पैर रखा। पुराना जमाना होता, तो हम उनके पांव पानी से पखारते। आसपास के लोगों ने बताया कि यह सब नाटक मत करना, नहीं तो राजकुमार नाराज हो जाएंगे… वे आजकल के स्कुलिया बच्चों की तरह हैं जो कोई नेम-धरम नहीं मानते। जूता पहन कर रसोई में घुस जाते हैं। … चाहे जो कहो भइया, हमने अपना धरम नहीं छोड़ा। एक तो बाभन, ऊपर से राज परिवार के। हाथ झोड़ कर दुबके रहे … कि स्वागत में कोई तुरटी न हो जाए।

रात भर हमको नींद नहीं आई। हमारी घरवाली भी खुसुर-फुसुर करती रही। उसे तो यकीन ही नहीं हो रहा था। कल से उसके पंख लग जाएंगे। गांव भर में इतराती फिरेगी। … औरत जात ठहरी। उसको पालटिस मालूम नहीं है। जब बाभन झुक कर बोले, तो समझ जाओ कि कुछ गड़बड़ है। संसद का चुनाव आने वाला है। यूपी में उनकी हालत खस्ता है। उन्हें हमारा वोट चाहिए। नहीं तो वे किसी और राज्य में काहे नहीं गए? दलित तो देश भर में हैं। सभी की हालत हमारे जैसी ही है। … एक बात है। लड़का भला है। उसने एक बार भी नहीं पूछा कि भोट किसे दोगे? यही तो बड़े लोगों का बड़प्पन है। वे साफ-साफ कुछ भी नहीं कहते। यह हमारी ड्यूटी होती है कि हम उनका मन टोह टोह लें… हम तो भैया कुछ ही घड़ी में पहचान लिए… बाबू को हम शेडूल कास्ट लोगों का वोट चाहिए।

हमने भी मन ही मन ठाना हुआ है। दुआर पर आए मेहमान का सागत-सतकार करना चाहिए। वह हमने जी भर किया। वे भी खुशी-खुशी हमारे यहां रात बिताए। … सबेरे उनका चेहरा कितना खिला हुआ था। बात-बात पर मुसका रहे थे। हमें भी तसल्ली हुई कि हमसे कोई तुरटी नहीं हुई। … जब वे अपने लाव-लशकर के साथ चले गए, तब जी में जी आया। कहीं वे हमारे यहां हफता भर रह जाते, तो हमारा तो दिवाला ही निकल जाता। साहू जी से पैसा उधार लेना पड़ता। कहां से चुकाते? राजीव भइया कोई अशरफी बांटने तो निकले नहीं थे। हमारी हालत अपनी आंखों से देखना चाहते थे। … वे हमारे मेहमान थे। नहीं तो जाते-जाते हम उनसे कह बैठते कि भइया, तुम तो भले आदमी हो, पर तुम्हारी पारटी ने हमारे लिए क्या किया? खाली हमारा भोोट लेते रहे। अब बहन जी ने हुंकारा भरा है कि भोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।

सो भइया, भोट तो हम बसपा को ही देंगे। ऊंची जात के लोग दो बार बहन जी को गद्दी पर बैठा कर गिरा चुके हैं। इस बार यह खेल हम नहीं होने देंगे। … हमारे घर आओ। हम अपने कपार पर बैठाएंगे। पर भोट? ना बाबा ना! हम अपने लोगों से दगा नहीं कर सकते। मुशकिल में तो यही न काम आएंगे !

5 comments:

Udan Tashtari said...

आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.

एक नया हिन्दी चिट्ठा भी शुरु करवायें तो मुझ पर और अनेकों पर आपका अहसान कहलायेगा.

इन्तजार करता हूँ कि कौन सा शुरु करवाया. उसे एग्रीगेटर पर लाना मेरी जिम्मेदारी मान लें यदि वह सामाजिक एवं एग्रीगेटर के मापदण्ड पर खरा उतरता है.

यह वाली टिप्पणी भी एक अभियान है. इस टिप्पणी को आगे बढ़ा कर इस अभियान में शामिल हों. शुभकामनाऐं.

आशीष कुमार 'अंशु' said...

बहुत बढ़िया

BALAM PARDESIYA said...

jat pat ka jor hai tor sake to tor.
jat pat ki bat me ek galat bat ki Nitish kumar dusad nahi kurmi hai samjhe.are jara jat ka khayal rakhiye aap to...

Sunil Kumar Singh said...

आपने जिस भावुकता और संवेदनशीलता के साथ संबंधों को रेखांकित किया है उसने मुझे प्रभावित किया है। मेरे विचार से माँ- बाप का कोई विकल्प नहीं है। माँ - बाप के महत्व को युवा पीढ़ी को समझना चाहिए।

ravindra vyas said...

मैं आपके ब्लॉग पर आज पहली बार आया हूं। यूं तो आपको तमाम अखबारों और पत्रिकाअों में पढ़ता रहता हूं लेकिन यहां आपका रंग कुछ दूसरा है। मां को याद करता हुआ आपका संयत विलाप मन को छू गया। बच्चन के अरमान के जरिये आपने हिंदी समाज की दुखती रग पर हाथ रखा है। एक ऐसे समय में जब हम विस्मृति के गर्त में जा रहे हैं क्या ये स्मृतियां हमें बचा लेंगी? मन तो हां करने को राजी है। रवींद्र व्यास, इंदौर