Friday, May 30, 2008

एक निर्णायक प्रश्न

समाजवाद क्या मानव स्वभाव के प्रतिकूल है
राजकिशोर




मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है -- युवा होते-होते यह वाक्य हम इतनी बार पढ़ चुके होते हैं कि इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता। अर्थ इसलिए भी नहीं रह जाता कि जैसे-जैसे हम दुनिया देखते जाते हैं, इस बात का प्रमाण मिलना कम होता जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम कायल होते जाते हैं कि मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था तो हमें यह सिखाती भी है कि स्वार्थी बनो, नहीं तो मारे जाओगे। इस तरह हम यह मानने लगते हैं कि जिस तरह जीव ही जीव का भोजन है, उसी तरह मनुष्य ही मनुष्य का आहार है। तुम अपने प्रतिद्वंद्वी को नहीं खाओगे, तो वह तुम्हें खा जाएगा।

जब हम अपने अनुभव से पाते हैं कि मनुष्य ठीक से सामाजिक प्राणी भी नहीं है, तो वह समाजवादी प्राणी कैसे हो सकता है? ऐसे कई विचारक भी पैदा हो चुके हैं जिनका मानना है कि सामूहिक हित को साधने से व्यक्तियों के हित नहीं सधते, बल्कि व्यक्तिगत हित साधने से समाज का हित सध जाता है। व्यक्ति का स्वभाव ही ऐसा है कि जब वह सामाजिक काम करता है, तो ढिलाई बरतता है या चोरी करता है, पर अपने निजी काम में अपना पूरा चित्त और पूरी कुशलता झोंक देता है। इसलिए सरकार को कम से कम काम करना चाहिए और अधिकांश काम उद्यमी व्यक्तियों या उनके व्यावसायिक समूहों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस निष्कर्ष को पुष्ट करने में उन समाजशास्त्रियों ने भी काफी मदद की है जो मूलतः जीववैज्ञानिक या जंतुवैज्ञानिक हैं। ये मछलियों, चींटियों, मधुमक्खियों, लोमड़ियों, सियारों, भेड़ियों और हाथियों की जिंदगी का अध्ययन करते हैं और बताते हैं कि मनुष्य भी एक जानवर ही है, इसलिए उससे बहुत अधिक परोपकारी होने की आशा नहीं करनी चाहिए। यानी समाजवाद को तो छोड़िए, सहज सामाजिकता की भी उम्मीद मत कीजिए।

मूल मानव स्वभाव क्या है? यह हम नहीं जानते। जानना संभव भी नहीं है। हम जिस मनुष्य को जानते हैं, वह हमेशा किसी न किसी व्यवस्था के अंग के रूप में दिखाई पड़ता है। कृषि संस्कृति का मनुष्य एक तरह का था, तो औद्योगिक संस्कृति का मनुष्य और तरह का है। अभी भी जो आदिवासी समूह बचे हुए हैं, वहां का मनुष्य इन दोनों से भिन्न होता है। साम्यवादी समाजों ने एक विचित्र तरह का मनुष्य बनाया था पति पत्नी से डरता था कि कहीं वह मेरी जासूसी तो नहीं कर रही है और पत्नी को भी पति से इसी तरह का डर था। सभी इतने डरे हुए थे कि कोई किसी से भी दिल की बात नहीं बता पाता था। इस तरह हर व्यक्ति हर व्यक्ति का दुश्मन हो गया था, जैसे पूंजीवादी समाजों में वह एक अन्य स्तर पर हो जाता है। फुटबाल की टीम में या रामकृष्ण मिशन तथा अच्छे धार्मिक संगठनों में हमें एक और तरह का मनुष्य देखने को मिलता है, जिसमें वैयक्तिकता कम और सामूहिकता ज्यादा मिलती है। सेना में एक अन्य प्रकार की सामूहिक चेतना दिखाई देती है। इनमें से कौन मूल मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है?

मनुष्य सामाजिक प्राणी है या नहीं और है तो किस अर्थ में, यह हम नहीं जानते। लेकिन यह जरूर जानते हैं कि मनुष्य एक सांस्कृतिक प्राणी है। उसका व्यक्तित्व जिस हद तक एक प्राकृतिक घटना है, उस हद तक या उससे कुछ ज्यादा हद तक वह अपनी संस्कृति की उपज है। पशुओं को ईश्वर के बारे में कोई सूचना नहीं है। वे ईश्वरविहीन दुनिया में रहते हैं। पर लगभग पूरी मानव आबादी ईश्वर पर भरोसा करती है। पशु झूठ बोलना नहीं जानता, पर कौन-सा आदमी है जिसने कभी न कभी झूठ न बोला हो? पूर्वी संस्कृतियों के मनुष्य का आचरण पश्चिमी संस्कृतियों के मनुष्य से भिन्न है। मांसाहार सामाजिक और पारिवारिक प्रवृत्तियों से नियंत्रित होता है। आज भी लगभग आधे भारतीय ऐसे हैं जो आदतन मांस नहीं खाते। बिशनोई जीव हत्या नहीं कर सकते, बल्कि जीवों की रक्षा करते हैं।

यह सांस्कृतिक विविधता आश्वस्त करती है कि समाजवाद कोई असंभव कल्पना नहीं है। अगर एक प्रकार के सांस्कृतिक दबावों से मनुष्य को धूर्त और मतलबी बनाया जा सकता है, तो दूसरे प्रकार के दबावों से उसकी सामाजिक चेतना को इतना उद्बुद्ध किया जा सकता है कि समाजवादी व्यवस्था उसे बेहतर लगनने लगे। इस प्रस्ताव के विरुद्ध ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि यह एक स्वप्न लोक है। यह आरोप मुझे स्वीकार है। दूसरे समाजवादियों को भी यह आरोप सिर झुका कर स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन इसका जवाब भी है। जवाब यह है कि हर सुंदर चीज एक स्वप्न लोक है। क्या लोकतंत्र एक स्वप्न लोक नहीं है? आपने किसी ऐसे समाज के बारे में पढ़ा या सुना है जो पूर्णतः लोकतांत्रिक है या जो इस तरफ बढ़ने का संघर्ष कर रहा हो? क्या धर्म एक स्वप्न लोक नहीं है? कई हजार वर्षों की सशक्त धार्मिक परंपरा कितने प्रतिशत लोगों को धार्मिक या धर्मभीरु बना पाई है? क्या स्वतंत्रता एक स्वप्न लोक नहीं है? वास्तव में हम कितने स्वतंत्र होते हैं? और समानता -- अखिल मानवता का सबसे बड़ा सपना ?


दुनिया स्वप्नजीवियों से ही उन्नत होती है, आगे बढ़ती है -- शहंशाहों, सेनापतियों और सेठों से नहीं। समाजवाद भी एक स्वप्न है। शायद आदर्श समाजवाद कही स्थापित नहीं होगा। लेकिन उस ओर बढ़ना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। हममें से हरएक को अपने आपसे पूछना चाहिए ः हम उधर नहीं बढ़े, तो किधर बढ़ें? जिधर चोर, बदमाश, बलात्कारी और लुटेरे बढ़ते हैं?एक स्वप्न लोक नहीं है? वास्तव में हम कितने स्वतंत्र होते हैं? और समानता -- अखिल मानवता का सबसे बड़ा सपना ?
दुनिया स्वप्नजीवियों से ही उन्नत होती है, आगे बढ़ती है -- शहंशाहों, सेनापतियों और सेठों से नहीं। समाजवाद भी एक स्वप्न है। शायद आदर्श समाजवाद कही स्थापित नहीं होगा। लेकिन उस ओर बढ़ना हमारी सांस्कृतिक जिम्मेदारी है। हममें से हरएक को अपने आपसे पूछना चाहिए ः हम उधर नहीं बढ़े, तो किधर बढ़ें? जिधर चोर, बदमाश, बलात्कारी और लुटेरे बढ़ते हैं?

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