Friday, May 30, 2008

क्या औरत ऐसी भी होती है


स्त्रियों के महिमान्वयन का सवाल
राजकिशोर


पुरुष क्रूर और निर्दय होते हैं तथा स्त्रियां सहृदय और ममतामयी -- साहित्य और संस्कृति में परंपरागत मान्यता यही है। इस मान्यता को आज भी सार्वजनिक भाषणों में दुहराया जाता है। लेकिन ज्यादातर पुरुष इससे सहमत दिखाई नहीं देते। स्त्रियों को आज तक जिस तरह पद-दलित किया गया है और आज भी किया जा रहा है, उसे देखते हुए यह उम्मीद बेकार है कि स्त्रियों के गुणों और विशेषताओं को सामान्य जन द्वारा स्वीकार किया जाएगा। गुलामों में क्या गुण हो सकता है ! अगर कुछ गुण दिखाई देते हैं, तो इसी कारण कि उन्हें बंधन में रखा गया है। दिलचस्प यह है कि जहां साहित्य और संस्कृति में स्त्री जाति का महिमान्वयन किया गया है, वहीं लोक जीवन में ऐसी अनेक कहावतें प्रचलित हैं, जिनके अनुसार स्त्री बहुत ही धूर्त, बेवफा और मूर्ख प्राणी है। एक कहावत में कहा गया है कि स्त्रियों को नाक न हो, तो वे गू खाएं। दूसरी कहावत त्रिया चरित्र के बारे में : खसम मारके सत्ती होय।

आधुनिक भारत में स्त्रियों के प्रति यह विद्वेष और मजबूत हुआ है। इसका कारण यह है कि शिक्षा और अवसर पाने के बाद स्त्रियां बड़े पैमाने पर ऐसे रोजगारों में उतरी हैं जो पुरुषों के लिए आरक्षित माने जाते रहे हैं। इस तरह पुरुषों के लिए अवसर कुछ कम हुए हैं। यद्यपि दुनिया भर का अनुभव यही है कि स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में कम महत्वपूर्ण काम दिए जाते हैं और उन्हें वेतन तथा मजदूरी भी कम मिलती है। फिर भी स्त्रियों का सार्वजनिक जीवन में उतरना मर्दों को नहीं भाता। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों के उतरने से पुरुष-स्त्री के बीच समानता के मूल्य बनते हैं और स्त्रियों में विभिन्न स्तरों पर आत्मनिर्भरता आती है। यह पुरुषों के लिए संकेत है कि सत्ता पर उनका एकाधिकार खत्म हो रहा है और स्त्रियां, जो अब तक उनके कब्जे में रही हंैै, आजाद हो रही हैं। यह बात गैर-प्रबुद्ध पुरुष मंडली को नागवार गुजरती है। मुख्यतः यही कारण है कि महिला आरक्षण विधेयक पुरुष-प्रधान भारतीय संसद में पारित नहीं हो पा रहा है।

हाल ही में जेपीनगर जिला मुख्यालय के पास बाबनखेरी गांव में एक लोमहर्षक कांड हुआ। एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर अपने माता-पिता, दोनों भाइयों, भाभी, ममेरी बहन की दोस्त और एक नाबालिग भतीजे की हत्या कर दी। यह इस तरह का शायद पहला कांड है। कारण क्या था, इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ बताया नहीं जा सका है। कारण कितना भी प्रबल हो, पर एक ही रात में सात-सात परिजनों की हत्या एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है। इस करुण घटना पर टिप्पणी करते हुए एक सज्जन 'चोखेर बाली' नामक विख्यात ब्लॉग में 'औरत ऐसी भी होती है क्या' शीर्षक से लिखते हैं : 'मिनटों में इस नारी ने एक प्यार भरे घर को कब्रिस्तान बना डाला। नारी मां होती है, पर इस नारी ने तो एक डायन का रोल अदा किया। क्यों किया उसने यह सब? क्या कमी थी उसे? क्या चल रहा था उसके मन में ? क्या यह सब उसने अपने प्रेमी के लिए किया?'

ये बड़े सवाल हैं। इनका उत्तर विस्तृत जांच के बाद ही मिल सकता है। लेकिन इस तरह की घटनाएं आजकल काफी छपने लगी हैं कि पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिल कर पति को जहर दे दिया या प्रेमी-प्रेमिका दोनों ने मिल कर पत्नी या पति की हत्या कर दी। ऐसी घटनाएं पता नहीं कब से हो रही हैं। इन्हीं की ओर संकेत करने के लिए 'किस्सा तोता मैना' जैसी दिलचस्प किताब लिखी गई थी, जिसमें तोता एक कहानी द्वारा साबित करता है कि औरतें बेवफा होती हैं, तो मैना दूसरी कहानी के माध्यम से साबित करती है कि नहीं, बेवफा तो मर्द होते हैं। सच्चाई यह है कि दोनों ही अर्धसत्य हैं। पहले पुरुष ज्यादा स्वैराचारी होते थे, तो आजादी और खुलापन बढ़ने से अब स्त्रियां भी स्वैराचारी होने लगी हैं और हिंसा को भी अपना रही हैं। इससे पुरुष मानसिकता के अनेक प्रतिनिधि यह कहने लगे हैं कि स्त्रियों का महिमान्वयन ठीक नहीं है, क्योंकि त्रिया चरित्र ही उनका वास्तविक गुण है। जब वे और ज्यादा आजाद होंगी, तो और कहर मचाएंगी।

पश्चिम में जहां स्त्रियां काफी हद तक आजाद हो चुकी हैं, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते कि वे बड़े पैमान पर डायन हो चुकी हैं। उनमें से अनेक हिंसा कर रही हैं और परिवारों को बरबाद कर रही हैं, यह तथ्य है। लेकिन यह साबित होना बाकी है कि स्त्री का वास्तविक रूप यही है। सभी समाजों में स्त्रियां अधिक मानवीय दिखाई देती हैं। शायद प्रकृति ने उन्हें ऐसा बनाया ही है, क्योंकि इसके बिना वे संतति परंपरा को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर पातीं। बेशक कुछ माताएं भी क्रूर साबित हुई हैं, लेकिन ये घटनाएं अपवाद ही हैं, नियम का रूप नहीं ले पाई हैं। फिर भी यह मानने में कोई हर्ज नहीं दिखाई देता कि हम वास्तविक स्त्री को नहीं जानते। अभी तक स्त्रियों को बनाया गया है। वे अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्फुटित नहीं हुई हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पुरुष भी वैसे बनाए गए हैं जिस रूप में वे उपलब्ध हैं। अर्थात एक ही संस्कृति एक खास तरह के पुरुष और एक खास तरह की स्त्रियों का निर्माण कर रही है। फिर भी इसी संस्कृति में गौतम बुद्ध, ईसा मसीह और गांधी जैसे पुरुष पैदा होते हैं और कैकेयी, तिष्यरक्षिता तथा फूलन जैसी स्त्रियां।
तथ्य यह भी है कि जब पुरुष कोई क्रूर घटना करता है, तो हम दांतों तले उंगली नहीं दबाते। लेकिन जब स्त्री ऐसा करती है, तो हम घोर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। इसी से साबित होता है कि पुरुष की तुलना में स्त्रियों से अधिक मानवीय होने की अपेक्षा की जाती है। क्या इसी बात में स्त्री चरित्र के बेहतर होने की स्थापना निहित नहीं है? आखिर कोई तो वजह है कि अब तक कोई स्त्री हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन या माओ नहीं बनी। इसका यह उत्तर पर्याप्त नहीं है कि स्त्रियों को पर्याप्त राजनीतिक सत्ता नहीं मिली है। जबाब यह भी दिया जा सकता है कि स्त्रियों के हाथ में पहले सत्ता तो दीजिए, फिर देखिए क्या होता है। हो सकता है कि स्त्री-पुरुष के बारे में परंपरागत मान्यताएं ध्वस्त हो जाएं। हो सकता है, व्यवस्था में सुधार आए। जो भी हो, निवेदन है कि पुरुष की तरह स्त्री को भी वैसा बनने का हक दीजिए जैसा वह होना चाहती है। एक वर्ग आजाद हो या नहीं, इसका फैसला करनेवाला दूसरा वर्ग कैसे हो सकता है? 000

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